अखबारनामा: 'औकात में पत्रकार' और सरकारी ब्रेकफास्ट से बिस्कुट गायब

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: June 29, 2019
आज द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर एक खबर है जिसके साथ दिल्ली में दीवाली पर बांटे जाने वाले उपहार - तथाकथित ड्राईफ्रूट (मेवे) के डिब्बे की फोटो है। विज्ञापन के साथ दो कॉलम की इस खबर पर नजर नहीं जाती अगर इसके साथ फोटो नहीं होता। खबर पढ़कर मैं आगे बढ़ गया। अमर उजाला में भी ऐसे ही विज्ञापनों के बगल में दो कॉलम में यही खबर छपी है। पर फोटो अलग है। खबर का शीर्षक भी टेलीग्राफ से अलग है, बैठकों में अब बिस्कुट नहीं, लाई चना खाएंगे अधिकारी। मेरा माथा ठनका। संयोग से संबंधित सर्कुलर की कॉपी मुझे इंटरनेट पर आसानी से मिल गई। उसमें लहिया चना (अंग्रेजी में Lahiya Chana) लिखा है। इस लिहाज से दोनों खबरें सही हैं। मुमकिन है टेलीग्राफ के रिपोर्टर को लहिया चना नहीं समझ में आया हो या उसने जान-बूझ कर छोड़ दिया हो और अमर उजाला ने लाई चना को शीर्षक बना दिया।

मैं नहीं कह रहा कि इसमें कुछ गलत है। मैं यह बताना चाहता हूं कि एक ही खबर कैसे बिल्कुल बदल जाती है। या बदल सकती है। अमर उजाला की खबर है, सरकारी अधिकारी बैठकों के दौरान चाय की चुस्कियों के साथ बिस्कुट का लुत्फ नहीं उठा पाएंगे। अधिकारियों की सेहत का ख्याल करते हुए सरकार ने बिस्कुट की जगह देसी नाश्ता लाई-चना या भुना चना परोसने का फैसला किया है। यही नहीं, सेहत के लिए नुकसानदेह बिस्कुट सरकारी कैंटीन में बिकेगा भी नहीं। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन की पहल पर मंत्रालय ने इस संदर्भ में सर्कुलर जारी किया है। इसमें कहा गया है कि प्लास्टिक की बोतलों में पानी पीना भी नुकसानदेह है। निकट भविष्य में इसका प्रयोग भी बंद किया जाएगा। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि प्लास्टिक कचरे से कितना प्रदूषण हो रहा है, इससे सब वाकिफ हैं। इसलिए इसकी जितनी जल्द विदाई की जाए, बेहतर है।

खबर से अलग, ‘लाई चने’ की तस्वीर के नीचे अखबार ने लिखा है बिस्कुट की जगह जिन स्नैक्स के नाम सुझाए गए हैं, उनमें लाई-चना, खजूर, भुना चना, बादाम और अखरोट शामिल हैं। सरकार का यह आदेश सभी मंत्रालयों, सरकारी संस्थानों में लागू होगा। स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी का कहना है कि फिलहाल यह आदेश स्वास्थ्य मंत्रालय के विभागों और संस्थानों में लागू होगा। यह एक स्वास्थ्यकर कदम है और इसे डॉक्टर की पहल पर उठाया गया है, इसलिए अन्य मंत्रालयों एवं विभागों से भी लागू करने का अनुरोध किया जाएगा। स्वास्थ्य मंत्रालय के नियंत्रण में आने वाले एम्स में भी बिस्कुट नहीं मिलेगा। देशभर के अन्य राज्यों के अस्पतालों में भी बिस्कुट की बिक्री पर रोक लगाने को कहा जाएगा।

इंटरनेट पर मिली फाइनेंशियल एक्सप्रेस की खबर का भी शीर्षक है, स्वास्थ्य मंत्रालय के नए सर्कुलर के अनुसार मीटिंग में सिर्फ स्वास्थ्यकर स्नैक्स परोसे जाएंगे (ओनली हेल्दी स्नैक्स टू बी सर्व्ड इन मीटिंग्स)। खबर कहती है कि बिस्कुट की जगह भुना चना और खजूर परोसे जाएं। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की खबर में यह भी लिखा है, चांदनी चौक के सांसद, डॉक्टर हर्षवर्धन के नेतृत्व वाले मंत्रालय के एक सर्कुलर में कहा गया है कि विभागीय कैनटीन के जरिए बिस्कुट न परोसे जाएं। जानने वाले जानते हैं कि चांदनी चौक मेवों और ड्राईफ्रूट का बड़ा थोक बाजार है। खबर में भले कुछ कहा नहीं गया है पर आप अनुमान लगाने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही।

द टेलीग्राफ का शीर्षक और खबर बिस्कुट को अस्वास्थ्यकर कहने पर केंद्रित है। इसकी शुरुआत ही होती है, बंगाल में कुछ बच्चों को बिस्कुट के बारे में यह बताकर बड़ा किया गया है कि यह दरअसल विष कूट कूट (जहर काट-काट कर खाना या इसमें जहर कूट कूट कर भरा) है। अखबार ने लिखा है कि अब यही समझदारी केंद्रीय स्वास्थ्य वह परिवार कल्याण मंत्रालय में पहुंच गई है। निश्चित रूप से यह सवाल अपनी जगह है कि अगर बिस्कुल इतना नुकसानदेह है कि मंत्री, सरकारी बाबू और उनके मेहमान बिस्कुल नहीं खाएंगे (क्या खाएंगे यह अलग मुद्दा है) तो देश में बिस्कुल बनें और बिकें क्यों? यह किसकी जिम्मेदारी है और पहले आम जनता की चिन्ता होनी चाहिए या अपनी और अफसरों की। मुमकिन है, बिस्कुट उतना नुकसानदेह नहीं हो कि प्रतिबंधित किया जाए या उनके निर्माण बिक्री पर रोक लगे। लेकिन तब सरकारी परिपत्र में उनसे बचने के लिए क्यों लिखा गया है। निश्चित रूप से बिस्कुट उद्योग पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उसके लिए कौन जिम्मेदार है?

यह खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया में भी पहले पन्ने पर है। दो कॉलम में है। एक बार मैं पलट कर आगे बढ़ चुका था पर खबर नहीं दिखी। यह अलग बात है कि कभी-कभी खबर शीर्षक के कारण दिखती है पर आज फोटो के कारण दिखी। फोटो से ध्यान आया, आज इंडियन एक्सप्रेस ने भी विज्ञापनों के बगल के दो कॉलम में छोटी सी फोटो के साथ एक खबर छपी है। फोटो इंदौर के उसी घर की है जिसे गिराने से रोकने के लिए भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के भाजपा के ही विधायक पुत्र आकाश विजयवर्गीय बल्ला चलाते हुए जेल पहुंच गए हैं और उनके पिताश्री पत्रकारों से औकात पूछ रहे हैं। और उनके साथी पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को इसपर कुछ बोलना ही नहीं है। सोशल मीडिया पर एक और वीडियो घूम रहा है जिसे बड़े विजयवर्गीय ने भी इसपर कुछ नहीं कहा। हालांकि, यह सब औकात पूछने के बाद की बात है।

मैंने कल लिखा था कि नेताजी पत्रकारों से औकात पूछें तो कहानी चलती रहनी चाहिए। चलती रहने वाली कहानी पर याद आया – बचपन में पहली बार पटना का गोलघर देखने गया था तो पता नहीं किसके साथ था और कैसे बात शुरू हुई। पर गोल घर की कहानी बताने की ही बात थी। कहानी यह बताई गई कि गोलघर बना तो था अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिए और उससे जानवरों पक्षियों को अनाज की कमी हो गई। सबने मिलकर उसमें आने जाने का रास्ता बनाने की कोशिश की। जब रास्ता बन गया तो एक चिड़िया जाती, चोंच में एक दाना उठाती और अपने घोंसले में रख आती। इस तरह वह दिन भर यही काम काम करती, कई दिन करती रही और कहानी चलती रही। उसके बाद क्या हुआ? अभी तो दाना खत्म नहीं हुआ है। दाना खत्म हो जाए तो फिर आगे बताउंगां। आज पत्रकारों की औकात पर इतना ही।

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