रिपोर्टर क्या देख रहा है, क्या लिख रहा है और अख़बार कैसे पेश कर रहा है, किसी अख़बार को पढ़ते समय ध्यान देना चाहिए। दैनिक जागरण गंगा यात्रा पर निकला है। पहली रिपोर्ट संपादकीय प्रभारी जय प्रकाश पांडेय की थी। दूसरी रिपोर्ट कानपुर से बृजेश दुबे की है और तीसरी रिपोर्ट प्रयागराज से मदन मोहन सिंह की है।
आज हम कानपुर और प्रयागराज वाली रिपोर्ट की समीक्षा करेंगे। इसकी नौबत क्यों आई कि कोई अखबार गंगा की सुध रहे है। इसलिए कि 2014 में नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि मां गंगा ने उन्हें बुलाया है। वे गंगा की सफाई करेंगे। नमामि गंगे योजना लांच होती है। पांच साल बीतते बीतते प्रधानमंत्री गंगा को ही भूल गए। वे गंगा का नाम कम लेते हैं, पाकिस्तान का नाम ज़्यादा लेते हैं। बहरहाल, बृजेश की रिपोर्ट की हेडिंग है- बिठूर से निकलते ही मैली होने लगी गंगा। "अपराधी कानपुर।" अपराधी कानपुर को लाल रंग से बड़े अक्षरों में लिखा गया है।
रिपोर्ट के पहले पैराग्राफ में धार्मिकता को लेकर भावुकता वाली भाषा है। वही मां मां। पतित पावनी गंगा। छोटे से पहले पैराग्राफ के बाद रिपोर्टर अब क्या लिखता है
“ ब्रह्मा की खूंटी से लेकर पत्थर घाट और इससे थोड़ा और आगे बढ़ने पर गंगा मंद गति से बह रही है लेकिन करोड़ों रुपये खर्च कर संवारे गए घाट पर फैला मानव मल बता रहा है कि गंगा के पुत्र ही उनमें ज़हर घोल रहे हैं। करोड़ों खर्च कर नमामि गंगे के तहत बनाए गए उजले घाटों पर मैली गंगा ही सिर पटक रही है। वह स्थिति तब है जब गंगा स्वच्छता एवं पेयजल मंत्री उमा भारती ने कानपुर में गंगा के आचमन के लायक भी न मानते हुए बिठुर में ही आचमन किया था। गंगा महोत्सव में आए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आह्वान किया था कि गंगा सफाई में सभी को योगदान देना होगा और बिठूर के लोगों की ज़िम्मेदारी अधिक है लेकिन यहां ऐसी कोई तस्वीर नहीं दिखती है। “
इतना लिख कर रिपोर्टर बृजेश दुबे 13 किलोमीटर आगे निकल जाते हैं। लोगों को अपराधी ठहरा जाते हैं। कुछ नहीं लिखते हैं कि गंगा में गिरने वाले नाले का क्या हुआ। सरकार ने घाट बनाने के अलावा क्या किया। क्या करोड़ों रुपये घाट बनाने में खर्च किए गए। क्या घाट बनाना गंगा की सफाई करना है। वहां सरकारी प्रयास या व्यवस्था का कोई ज़िक्र नहीं है। वहां कोई शौचालय है या नहीं इसका कोई ज़िक्र नहीं है। जो लोग गंगा के घाट के किनारे शौच के लिए आते हैं, वो कौन लोग हैं। ज़ाहिर है उनके घर में शौचालय नहीं होगें। होगा तो पानी नहीं होगा। लेकिन रिपोर्टर का मकसद लगता है कि मोदी को क्लिन चिट देना है। किसी तरह लोगों को अपराधी बना देना है। क्या बग़ैर नमामि गंगे प्रोजेक्ट का ज़िक्र किए गंगा के मूल्याकंन की कोई रिपोर्टिंग पूरी हो सकती है?
रिपोर्टर ने भी मन में कहा होगा कि हम पत्रकारों की नौकरी क्या हो गई है। जो देख रहे हैं वो लिख नहीं सकते और जो दिखाने के लिए कहा गया है वो लिखना बर्दाश्त नहीं हो रहा है। लेकिन बृजेश दूबे की रिपोर्ट साफ-साफ कह रही है कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट पिट चुका है। गंगा के नाम पर ठगी की गई है। गंगा का राजनीतिक इस्तमाल किया गया है। घाट बनाकर लोगों को मूर्ख बनाया गया। गंगा की सफाई का पैसा बर्बाद किया गया।
गंगा बैराज पर आकर लिखते हैं कि “ यही से महज सौ मीटर दूर, परमियापुरवा में हलहल करता हुआ नाले का हालाहल पतित पावनी का पालन आंचल मैला कर रहा है। “ पैराग्राफ बदलता है। “ गंगा बैराज से रानीघाट तक तीन चार नाले परमियापुरवा की तरह गंदगी बढ़ाने में पीछे नहीं है। निर्माल्य और अवशेष का बोझ समेटे मां गंगा यहां से आगे बढ़ती है उनका पोर-पोर दुखता हुआ दिखाई देता है। पीला पानी कालिमा लिए आगे बढ़ता दिख रहा है। “
क्या यह इतना काफी नहीं है कि इस दुर्दशा के लिए अपराधी कानपुर को नहीं उन नेताओं को ठहराया जाए जिन्होंने गंगा के नाम पर भावनात्मक दोहन किया। बृजेश की पूरी रिपोर्ट बताती है कि गंगा की सफाई को लेकर कानपुर में कुछ नहीं हुआ। मगर पूरी रिपोर्टर में केंद्र सरकार की योजनाओं और प्रयासों के दावों को छोड़ दिया गया है। कानपुर में नाला बंद करने और वहां एस टी पी प्लांट लगाने का ज़िक्र तक नहीं है। इंटरनेट सर्च किया तो 2015 में 200 करोड़ के चार सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की खबर मिलती है। रिपोर्टर अगर यह सब मूल्यांकन करता तो उसकी हर लाइन यह कहती है कि इसका अपराधी कानपुर नहीं है। इसका अपराधी केंद्र सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मगर अख़बार मोदी से वफादारी निभा गया। गंगा को सिर्फ मां मां पुकराता हुआ चला गया।
अब आइये मदन मोहन सिंह की प्रयागराज से रिपोर्ट देखते हैं। हेडिंग है- दूसरा अभियुक्त प्रयागराज। इसके परिचय में ही साफ कर दिया है कि रिपोर्ट का मकसद शहर और लोगों को कोसना है। मोदी को छोड़ देना है। गंगा की नहीं, मोदी की सेवा करनी है। इसलिए लिखता है” गंगा के अपराधियों में कानपुर अकेला नहीं है। उनका दूसरा अभियुक्त प्रयागराज है, जिसने गंगा के ऐश्वर्य का सुख तो भोगा लेकिन बदले में उन्हें जीवन देने के लिए कुछ नहीं किया।“ बताइये हाल ही में कुंभ हुआ। 4000 करोड़ से अधिक खर्च करने का दावा किया गया। गंगा के साफ होने का दावा किया गया। श्रेय लिया गया। ध्यान रहे मदन मोहन सिंह कुंभ के तुरंत बाद प्रयागराज गंगा का हाल देखने गए हैं। उन पैसों और प्रयासों पर ज़िक्र नहीं, प्रयागराज को अपराधी ठहरा देते हैं।
रिपोर्ट की शुरूआत वही धार्मिकता की भावुकता से होती है। यहां आते आते रिपोर्टर तुलसी की चौपाई का ज़िक्र करने लगता है। ताकि पन्ना भर सके। पाठक को लगे कि उसने गंगा की हालत की ईमानदार समीक्षा पढ़ ली। गंगा स्तुति पर एक लंबा पैराग्राफ ख़त्म होने के बाद रिपोर्टर गंगा को छोड़ दायें-बायें देख रहा है। कोशिश है कि पूरी खबर लिख दूं मगर गंगा को न देखें और न दिखाईं। वह 35 किमी दूर चमचमाता हाईवे दिखाता है। निषाद राज की प्रतिमा दिखाता है। “पर्यटक आवास गृह नज़र आता है। संध्याघाट बनकर तैयार है। कुंभ के मद्देनज़र यहां 28 करोड़ के विकास कार्य कराए जाने थे। काम जारी है। चुनावी चर्चाओं में भी इसका ज़िक्र है।“
इसी के साथ दो पैराग्राफ अनाप-शनाप बातों पर खर्च हो जाते हैं। गंगा की सफाई को लेकर क्या हुआ है इसका ज़िक्र नहीं है। आवास गृह और घाट सफाई के प्रयास नहीं हैं। अब हेडिंग है यहां इसलिए रूठी गंगा। “घाट के बाद नदी की और रेत का एक बड़ा दायरा कब्रिस्तान जैसा नज़र आता है। देख-जान कर हैरत हुई कि वहां नीचे बड़ी संख्या में लाशें हैं जिन्हें मोक्ष के नाम पर दफन कर दिया गया है। कौन लोग हैं दफन करने वाले? क्या यहां कब्रिस्तान है? श्मशान और कब्रिस्तान का फर्क क्या किसी खास वजह के लिए मिट गया? हमें नहीं पता था कि हिन्दू समाज के लोग मोक्ष की चाह में गंगा के किनारे शवों को दफन कर जाते हैं। कम से कम रिपोर्टर को और स्पष्ट करना था।
अब इसमें पंडा समाज के मुखिया काली सहाय त्रिपाठी कहते हैं कि-“रेत में शव दफनाने और जहां-तहां शवदाह से ही नाराज़ होकर गंगाजी घाट से दूर चली गई हैं। राजा पंडा कहते हैं कि सरकार यहां अगर बिजली वाला शवदाह गृह बनावा देती तो सब समस्या ही ख़त्म हो जाती।“
तो आपने देखा। 28 करोड़ खर्च हो गया। विद्युत शवदाह गृह तक नहीं बना। पंडा को पता है लेकिन सरकार घाट बनवा कर चमक पैदा कर रही है। सरकारी नीतियों की नाकामी पर कोई ज़िक्र नहीं है।
अब मदन मोहन सिंह स्थान बदलते हैं और कुरेसर गांव के पास आते हैं जहां उन्हें पानी इतना साफ लगता है कि आचमन कर सकते हैं। हमें नहीं पता कि चंद किलोमीटर की दूरी पर पानी अपने आप कैसे साफ हो गया। किसी चमत्कार की वजह से ? फिर से गंगा के मूल प्रश्न को छोड़ कर रिपोर्टर सड़क और कर्ज़माफी से गदगद महारानीदीन यादव पर आ जाता है।
पत्रकारिता के छात्रों को और सामान्य पाठकों को गंगा पर दोनों रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। कैसे प्रयागराज जाते जाते रिपोर्टर गंगा को छोड़ सरकार का बखान करने लगता है। उसे भारत का नया गांव दिखाई देने लगता है जहां सोलर पैनल लगे हैं। गया था गंगा देखने जब गंगा नहीं दिखीं या दिखाने लायक नहीं दिखीं तो गंगा की कापी में तमाम बातें ठेल कर कापी में मोदी सरकार के लिए चमक पैदा कर दी गई।
यही बात मैं भाजपा के समर्थकों से कहता हूं। क्या उन्हें मोदी सरकार की यह असफलता नहीं दिखती? सरकारें असफल होती हैं लेकिन गंगा तो सरकार से भी पवित्र मानी गई है। गंगा के नाम पर क्या किसी सरकार की असफलता छिपाई जानी चाहिए? जब आप गंगा के नहीं हुए तो एक दिन आप नरेंद्र मोदी के भी नहीं होंगे। आप भाजपा के समर्थकों को मीडिया में आ रही इस गिरावट को भी देखना चाहिए। यह क्या पत्रकारिता है. क्या नरेंद्र मोदी का यही भारत होगा जहां लोग गंगा से भी बईमानी कर जाएंगे। जहां गंगा से बेईमानी करना नई नैतिकता होगी?
सभी से निवेदन है कि वे 30 और 31 मई को दैनिक जागरण में छपे गंगा की रिपोर्ट को ख़ुद भी पढ़ें। ख़ासकर मोदी समर्थक ज़रूर पढ़ें ताकि पता चले कि जो लोग गंगा को मां कहकर उसी से बेईमानी कर जाते हैं वो लोग ख़ुद को ईश्वर से भी सर्वशक्तिमान समझ रहे हैं। आप अखबार पढ़ने का तरीका बदलें। अख़बार लगातार बदलते रहें। हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। गंगा की असली तस्वीर न बताना भी पाठक की पाठकीयता और धार्मिकता की हत्या करना है। धोखा देना है।
पत्रकार भी क्या करे। उसके पास विकल्प समाप्त हो चुके हैं। मजबूरी में नौकरी कर रहा है। मन और आत्मा की हत्या करता है। वर्ना हिन्दी के पत्रकार किसी से कम नहीं होते हैं। उनके भीतर का पत्रकार इन ख़बरों को पढ़ कर और लिखकर रोता तो होगा ही। सामने से संपादक को सलाम कर चौराहे पर उनके खिलाफ़ भड़ास निकालता होगा। गंगा से बेईमानी कर वह कैसे सोता होगा, खासकर उस रिपोर्ट में जिसमें वो इस तरह से मां मां कर रहा है जैसे मोदी की तरह उसे भी मां गंगा ने बुलाया था।
जय प्रकाश पांडेय, बृजेश दुबे और मदन मोहन सिंह आपकी नौकरी मोदी से बच जाएगी मगर गंगा माफ़ नहीं करेगी।
आज हम कानपुर और प्रयागराज वाली रिपोर्ट की समीक्षा करेंगे। इसकी नौबत क्यों आई कि कोई अखबार गंगा की सुध रहे है। इसलिए कि 2014 में नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि मां गंगा ने उन्हें बुलाया है। वे गंगा की सफाई करेंगे। नमामि गंगे योजना लांच होती है। पांच साल बीतते बीतते प्रधानमंत्री गंगा को ही भूल गए। वे गंगा का नाम कम लेते हैं, पाकिस्तान का नाम ज़्यादा लेते हैं। बहरहाल, बृजेश की रिपोर्ट की हेडिंग है- बिठूर से निकलते ही मैली होने लगी गंगा। "अपराधी कानपुर।" अपराधी कानपुर को लाल रंग से बड़े अक्षरों में लिखा गया है।
रिपोर्ट के पहले पैराग्राफ में धार्मिकता को लेकर भावुकता वाली भाषा है। वही मां मां। पतित पावनी गंगा। छोटे से पहले पैराग्राफ के बाद रिपोर्टर अब क्या लिखता है
“ ब्रह्मा की खूंटी से लेकर पत्थर घाट और इससे थोड़ा और आगे बढ़ने पर गंगा मंद गति से बह रही है लेकिन करोड़ों रुपये खर्च कर संवारे गए घाट पर फैला मानव मल बता रहा है कि गंगा के पुत्र ही उनमें ज़हर घोल रहे हैं। करोड़ों खर्च कर नमामि गंगे के तहत बनाए गए उजले घाटों पर मैली गंगा ही सिर पटक रही है। वह स्थिति तब है जब गंगा स्वच्छता एवं पेयजल मंत्री उमा भारती ने कानपुर में गंगा के आचमन के लायक भी न मानते हुए बिठुर में ही आचमन किया था। गंगा महोत्सव में आए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आह्वान किया था कि गंगा सफाई में सभी को योगदान देना होगा और बिठूर के लोगों की ज़िम्मेदारी अधिक है लेकिन यहां ऐसी कोई तस्वीर नहीं दिखती है। “
इतना लिख कर रिपोर्टर बृजेश दुबे 13 किलोमीटर आगे निकल जाते हैं। लोगों को अपराधी ठहरा जाते हैं। कुछ नहीं लिखते हैं कि गंगा में गिरने वाले नाले का क्या हुआ। सरकार ने घाट बनाने के अलावा क्या किया। क्या करोड़ों रुपये घाट बनाने में खर्च किए गए। क्या घाट बनाना गंगा की सफाई करना है। वहां सरकारी प्रयास या व्यवस्था का कोई ज़िक्र नहीं है। वहां कोई शौचालय है या नहीं इसका कोई ज़िक्र नहीं है। जो लोग गंगा के घाट के किनारे शौच के लिए आते हैं, वो कौन लोग हैं। ज़ाहिर है उनके घर में शौचालय नहीं होगें। होगा तो पानी नहीं होगा। लेकिन रिपोर्टर का मकसद लगता है कि मोदी को क्लिन चिट देना है। किसी तरह लोगों को अपराधी बना देना है। क्या बग़ैर नमामि गंगे प्रोजेक्ट का ज़िक्र किए गंगा के मूल्याकंन की कोई रिपोर्टिंग पूरी हो सकती है?
रिपोर्टर ने भी मन में कहा होगा कि हम पत्रकारों की नौकरी क्या हो गई है। जो देख रहे हैं वो लिख नहीं सकते और जो दिखाने के लिए कहा गया है वो लिखना बर्दाश्त नहीं हो रहा है। लेकिन बृजेश दूबे की रिपोर्ट साफ-साफ कह रही है कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट पिट चुका है। गंगा के नाम पर ठगी की गई है। गंगा का राजनीतिक इस्तमाल किया गया है। घाट बनाकर लोगों को मूर्ख बनाया गया। गंगा की सफाई का पैसा बर्बाद किया गया।
गंगा बैराज पर आकर लिखते हैं कि “ यही से महज सौ मीटर दूर, परमियापुरवा में हलहल करता हुआ नाले का हालाहल पतित पावनी का पालन आंचल मैला कर रहा है। “ पैराग्राफ बदलता है। “ गंगा बैराज से रानीघाट तक तीन चार नाले परमियापुरवा की तरह गंदगी बढ़ाने में पीछे नहीं है। निर्माल्य और अवशेष का बोझ समेटे मां गंगा यहां से आगे बढ़ती है उनका पोर-पोर दुखता हुआ दिखाई देता है। पीला पानी कालिमा लिए आगे बढ़ता दिख रहा है। “
क्या यह इतना काफी नहीं है कि इस दुर्दशा के लिए अपराधी कानपुर को नहीं उन नेताओं को ठहराया जाए जिन्होंने गंगा के नाम पर भावनात्मक दोहन किया। बृजेश की पूरी रिपोर्ट बताती है कि गंगा की सफाई को लेकर कानपुर में कुछ नहीं हुआ। मगर पूरी रिपोर्टर में केंद्र सरकार की योजनाओं और प्रयासों के दावों को छोड़ दिया गया है। कानपुर में नाला बंद करने और वहां एस टी पी प्लांट लगाने का ज़िक्र तक नहीं है। इंटरनेट सर्च किया तो 2015 में 200 करोड़ के चार सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की खबर मिलती है। रिपोर्टर अगर यह सब मूल्यांकन करता तो उसकी हर लाइन यह कहती है कि इसका अपराधी कानपुर नहीं है। इसका अपराधी केंद्र सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मगर अख़बार मोदी से वफादारी निभा गया। गंगा को सिर्फ मां मां पुकराता हुआ चला गया।
अब आइये मदन मोहन सिंह की प्रयागराज से रिपोर्ट देखते हैं। हेडिंग है- दूसरा अभियुक्त प्रयागराज। इसके परिचय में ही साफ कर दिया है कि रिपोर्ट का मकसद शहर और लोगों को कोसना है। मोदी को छोड़ देना है। गंगा की नहीं, मोदी की सेवा करनी है। इसलिए लिखता है” गंगा के अपराधियों में कानपुर अकेला नहीं है। उनका दूसरा अभियुक्त प्रयागराज है, जिसने गंगा के ऐश्वर्य का सुख तो भोगा लेकिन बदले में उन्हें जीवन देने के लिए कुछ नहीं किया।“ बताइये हाल ही में कुंभ हुआ। 4000 करोड़ से अधिक खर्च करने का दावा किया गया। गंगा के साफ होने का दावा किया गया। श्रेय लिया गया। ध्यान रहे मदन मोहन सिंह कुंभ के तुरंत बाद प्रयागराज गंगा का हाल देखने गए हैं। उन पैसों और प्रयासों पर ज़िक्र नहीं, प्रयागराज को अपराधी ठहरा देते हैं।
रिपोर्ट की शुरूआत वही धार्मिकता की भावुकता से होती है। यहां आते आते रिपोर्टर तुलसी की चौपाई का ज़िक्र करने लगता है। ताकि पन्ना भर सके। पाठक को लगे कि उसने गंगा की हालत की ईमानदार समीक्षा पढ़ ली। गंगा स्तुति पर एक लंबा पैराग्राफ ख़त्म होने के बाद रिपोर्टर गंगा को छोड़ दायें-बायें देख रहा है। कोशिश है कि पूरी खबर लिख दूं मगर गंगा को न देखें और न दिखाईं। वह 35 किमी दूर चमचमाता हाईवे दिखाता है। निषाद राज की प्रतिमा दिखाता है। “पर्यटक आवास गृह नज़र आता है। संध्याघाट बनकर तैयार है। कुंभ के मद्देनज़र यहां 28 करोड़ के विकास कार्य कराए जाने थे। काम जारी है। चुनावी चर्चाओं में भी इसका ज़िक्र है।“
इसी के साथ दो पैराग्राफ अनाप-शनाप बातों पर खर्च हो जाते हैं। गंगा की सफाई को लेकर क्या हुआ है इसका ज़िक्र नहीं है। आवास गृह और घाट सफाई के प्रयास नहीं हैं। अब हेडिंग है यहां इसलिए रूठी गंगा। “घाट के बाद नदी की और रेत का एक बड़ा दायरा कब्रिस्तान जैसा नज़र आता है। देख-जान कर हैरत हुई कि वहां नीचे बड़ी संख्या में लाशें हैं जिन्हें मोक्ष के नाम पर दफन कर दिया गया है। कौन लोग हैं दफन करने वाले? क्या यहां कब्रिस्तान है? श्मशान और कब्रिस्तान का फर्क क्या किसी खास वजह के लिए मिट गया? हमें नहीं पता था कि हिन्दू समाज के लोग मोक्ष की चाह में गंगा के किनारे शवों को दफन कर जाते हैं। कम से कम रिपोर्टर को और स्पष्ट करना था।
अब इसमें पंडा समाज के मुखिया काली सहाय त्रिपाठी कहते हैं कि-“रेत में शव दफनाने और जहां-तहां शवदाह से ही नाराज़ होकर गंगाजी घाट से दूर चली गई हैं। राजा पंडा कहते हैं कि सरकार यहां अगर बिजली वाला शवदाह गृह बनावा देती तो सब समस्या ही ख़त्म हो जाती।“
तो आपने देखा। 28 करोड़ खर्च हो गया। विद्युत शवदाह गृह तक नहीं बना। पंडा को पता है लेकिन सरकार घाट बनवा कर चमक पैदा कर रही है। सरकारी नीतियों की नाकामी पर कोई ज़िक्र नहीं है।
अब मदन मोहन सिंह स्थान बदलते हैं और कुरेसर गांव के पास आते हैं जहां उन्हें पानी इतना साफ लगता है कि आचमन कर सकते हैं। हमें नहीं पता कि चंद किलोमीटर की दूरी पर पानी अपने आप कैसे साफ हो गया। किसी चमत्कार की वजह से ? फिर से गंगा के मूल प्रश्न को छोड़ कर रिपोर्टर सड़क और कर्ज़माफी से गदगद महारानीदीन यादव पर आ जाता है।
पत्रकारिता के छात्रों को और सामान्य पाठकों को गंगा पर दोनों रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। कैसे प्रयागराज जाते जाते रिपोर्टर गंगा को छोड़ सरकार का बखान करने लगता है। उसे भारत का नया गांव दिखाई देने लगता है जहां सोलर पैनल लगे हैं। गया था गंगा देखने जब गंगा नहीं दिखीं या दिखाने लायक नहीं दिखीं तो गंगा की कापी में तमाम बातें ठेल कर कापी में मोदी सरकार के लिए चमक पैदा कर दी गई।
यही बात मैं भाजपा के समर्थकों से कहता हूं। क्या उन्हें मोदी सरकार की यह असफलता नहीं दिखती? सरकारें असफल होती हैं लेकिन गंगा तो सरकार से भी पवित्र मानी गई है। गंगा के नाम पर क्या किसी सरकार की असफलता छिपाई जानी चाहिए? जब आप गंगा के नहीं हुए तो एक दिन आप नरेंद्र मोदी के भी नहीं होंगे। आप भाजपा के समर्थकों को मीडिया में आ रही इस गिरावट को भी देखना चाहिए। यह क्या पत्रकारिता है. क्या नरेंद्र मोदी का यही भारत होगा जहां लोग गंगा से भी बईमानी कर जाएंगे। जहां गंगा से बेईमानी करना नई नैतिकता होगी?
सभी से निवेदन है कि वे 30 और 31 मई को दैनिक जागरण में छपे गंगा की रिपोर्ट को ख़ुद भी पढ़ें। ख़ासकर मोदी समर्थक ज़रूर पढ़ें ताकि पता चले कि जो लोग गंगा को मां कहकर उसी से बेईमानी कर जाते हैं वो लोग ख़ुद को ईश्वर से भी सर्वशक्तिमान समझ रहे हैं। आप अखबार पढ़ने का तरीका बदलें। अख़बार लगातार बदलते रहें। हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। गंगा की असली तस्वीर न बताना भी पाठक की पाठकीयता और धार्मिकता की हत्या करना है। धोखा देना है।
पत्रकार भी क्या करे। उसके पास विकल्प समाप्त हो चुके हैं। मजबूरी में नौकरी कर रहा है। मन और आत्मा की हत्या करता है। वर्ना हिन्दी के पत्रकार किसी से कम नहीं होते हैं। उनके भीतर का पत्रकार इन ख़बरों को पढ़ कर और लिखकर रोता तो होगा ही। सामने से संपादक को सलाम कर चौराहे पर उनके खिलाफ़ भड़ास निकालता होगा। गंगा से बेईमानी कर वह कैसे सोता होगा, खासकर उस रिपोर्ट में जिसमें वो इस तरह से मां मां कर रहा है जैसे मोदी की तरह उसे भी मां गंगा ने बुलाया था।
जय प्रकाश पांडेय, बृजेश दुबे और मदन मोहन सिंह आपकी नौकरी मोदी से बच जाएगी मगर गंगा माफ़ नहीं करेगी।