निजीकरण के खतरे का सामना करती भारतीय रेल

केन्द्रीय रेल मंत्री पियूष गोयल द्वारा एक प्रेस वार्ता में घोषणा करने के बाद कि रेल के अभी या कभी भी निजीकरण की कोई योजना नहीं है, सरकार की ओर से कहा गया कि भारतीय रेल अपने कुछ कम बोझ तथा पर्यटन वाले मार्गों पर रेल संचालन हेतु निजी क्षेत्र की इकाइयों को आमंत्रित करेगी। शुरू में भारतीय रेल अपने ही उद्यम इण्डियन रेलवेज़ केटरिंग एवं टूरिज़्म काॅर्पोरेशन (आई.आर.सी.टी.सी.) को दो गाड़ियां संचालन हेतु देगी जिसमें सालाना किराए के बदले गाड़ियों का स्वामित्व उसे मिल जाएगा। यह निजीकरण की शुरुआत है। आखिर आई.आर.सी.टी.सी. सारा काम ठेके पर करवाती है। अतः गाड़ियों के संचालन हेतु भी वह किसी निजी कम्पनी से अनुबंध करेगी अथवा संविदा पर कर्मचारियों को रख काम कराएगी। जिस तरह से एअर इण्डिया के विनिवेश की दिशा में प्रयास अभी तक असफल रहे हैं देखना है रेल का क्या हश्र होता है?

Indian railway
 
किंगफिशर एअरलाइन या जेट एअरवेज़, जो दोनों कम्पनियां एक समय हवाई उड़ान क्षेत्र में दूसरे स्थान पर थीं किंतु अंततः दिवालिया हो गईं, यह भारतीय रेल के 13.26 लाख कर्मचारियों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। यदि भारतीय रेल का निजीकरण होगा तो उसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार होगी जैसे कि एअर इण्डिया जो काफी नुकसान में चल रही है, हलांकि उसके निजीकरण का खतरा फिलहाल टल गया है।

भारतीय रेल के गैर जिम्मेदाराना रवैये का पता सामान्य श्रेणी में यात्रा करने वाले यात्रियों के प्रति उसके नजरिए से चलता है जिसमें कई बार यात्री जानवरों के झुण्ड की तरह यात्रा करने पर मजबूर हो जाते हैं। हलांकि यह बात सारे रेल अधिकारी नहीं मानेंगे लेकिन सामान्य श्रेणी का डिब्बा शुरू या आखिर में लगाया जाता है ताकि किसी दुर्घटना की स्थिति में गरीब लोग ही नुकसान पहले झेलें। यदि कोई यात्री किसी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म के एक छोर पर सामान्य श्रेणी के डिब्बे में चढ़ने के लिए इंतजार कर रहा है और गाड़ी आने पर उन डिब्बों में चढ़ना नामुमकिन हो और वह चाहे कि दूसरे छोर पर भाग कर जा सामान्य डिब्बों में चढ़ने की सम्भावना तलाशे, तो शायद तब तक गाड़ी चल पड़े। यदि यात्री के साथ सामान और साथ में महिलाएं व छोटे बच्चे भी हों तो हम यात्री की कठिनाई का अंदाजा लगा सकते हैं। भारतीय रेल की गाड़ी आने से पहले सामान्य श्रेणी के असीमित टिकट बेचने की नीति है और वरिष्ठ नागरिकों के लिए सामान्य श्रेणी में कोई छूट नहीं है जैसी छूट वह प्रथम श्रेणी वातानुकूलित डिब्बों के यात्रियों को भी प्रदान करती है। स्लीपर श्रेणी के टिकट की कीमत सामान्य श्रेणी से दोगुणा होती है, वातानुकूलित तृतीय श्रेणी, द्वितीय श्रेणी व प्रथम श्रेणी के टिकट की कीमत सामान्य श्रेणी से क्रमशः 5, 7 व 9 गुणा होती है फिर भी स्लीपर श्रेणी व सामान्य श्रेणी में जमीन-आसमान कर अंतर होता है। स्लीपर में कोई पूरी बर्थ पर सो कर सफर कर सकता है, और सामान्य श्रेणी में हो सकता है बैठने की जगह ही न मिले। वातानुकूलित डिब्बे में चादर, तकिया, कम्बल देते हैं, राजधानी-शताब्दी में खाना-नाश्ता भी मिलता है, किंतु सामान्य श्रेणी के यात्रियों को इन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है जबकि देखा जाए तो उन्हें ही इन सुविधाओं की सबसे ज्यादा जरूरत है। जबकि समय के साथ अन्य श्रेणियों की यात्रा की गुणवत्ता में सुधार हुआ है ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय रेल के आकाओं ने सामान्य श्रेणी की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया है। उदाहरण के लिए पूरी वातानुकूलित डिब्बों वाली गाड़ियां तो चलीं किंतु जिन मार्गों पर भीड़ ज्यादा है उन पर सभी सामान्य श्रेणी के डिब्बों वाली मेल-एक्सप्रेस गाड़ियां चलाने के बारे में नहीं सोचा गया। ऐसा मान लिया गया कि सामान्य श्रेणी के यात्री के लिए पैसेंजर गाड़ी पर्याप्त है। एक लोकतंत्र में विभिन्न श्रेणी के डिब्बे अपने आप में विरोधाभास है। भारतीय रेल को मेट्रो की तरह एक ही श्रेणी के डिब्बों वाली सभी गाड़ियां चलानी चाहिएं।
 
शारीरिक रूप से चुनौती का सामना कर रहे व्यक्तियों के लिए डिब्बे भी गाड़ी के एक छोर पर ही लगाए जाते हैं जबकि ऐसे यात्रियों का डिब्बा तो बीच में होना चाहिए ताकि प्लेटफाॅर्म पर प्रवेश करने के बाद कम से कम चल कर अपने डिब्बे तक पहुंचा जा सके।

लम्बी दूरी की गाड़ियों में शौचालयों में पानी आपूर्ति हेतु पानी भरना रेल के लिए, जब तक कोई शिकायत न करे, प्राथमिकता नहीं होती, जिससे यात्रियों को होने वाली असुविधा की कल्पना की जा सकती है। बायो-शौचालय लगाए जा रहे हैं जिनमें से मीथेन गैस उत्सर्जित होती है। बंद जगह पर मिथेन से इंसान को घुटन महसूस होती है। भारत में प्रत्येक वर्ष सीवर में घुसने व मीथेन के घुटन से मरने वालों की संख्या औसत 1,800 होती है। खुले आसमान में मीथेन छोड़ने से जलवायु परिवर्तन की स्थिति बदतर होगी। भारतीय रेल के पास मीथेन भण्डारण या प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है।

कई बार स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही गाड़ी को बाहर इतनी देर के लिए रोक लिया जाता है कि यात्री गाड़ी से उतर कर प्लेटफाॅर्म की ओर पैदल ही चल देते हैं। जौनपुर की ओर से वाराणसी प्रवेश पर अक्सर ऐसा होता है। यह स्पष्ट नहीं है कि प्लेटफाॅर्म खाली होते हुए भी क्यों गाड़ियों को स्टेशन के बाहर रोक लिया जाता है? सवाल खड़ा होता है कि कम्प्यूटरीकरण के दौर में कम्प्यूटर की मदद से प्लेटफाॅर्म की उपलब्धता के अनुसार गाड़ियों को प्लेटफाॅर्म क्यों नहीं आवंटित किए जा सकते ताकि विलम्ब की वजह से यात्रियों को परेशान न होना पड़े? लखनऊ रेलवे स्टेशन पर प्लेटफाॅर्म संख्या 1, 2, 5 व 6 पर पिछले 8 माह से ज्यादा से ’काॅशन’ लगा हुआ है जिसका मतलब किसी मरम्मत, इत्यादि के काम के लिए गाड़ी की गति इन प्लेटफाॅर्म पर 5 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा नहीं हो सकती। मरम्म्त का काम पूरा हो जाने पर भी कई बार काॅशन नहीं हटाया जाता जिसके परिणाम स्वरूप पीछे से आने वाली गाड़ियां विलम्बित होती हैं।
 
ई.आर.सी.टी.सी. द्वारा खाने-पीने की चीजों की ज्यादा कीमत वसूली जाती है। जो शाकाहारी खाना रु. 50 में मिलना चाहिए उसका लगभग दोगुणा पैसा लिया जाता है। सवाल पूछने पर बैरा बताएगा कि सब्जी में पनीर डाला गया है इसलिए ज्यादा कीमत वसूली जा रही है। परंतु यात्री को बिना पनीर की सब्जी का विकल्प ही नहीं दिया जाता और पनीर की सब्जी की भी औपचारिक कीमत तय होनी चाहिए। रु. 7 की टी-बैग वाली चाय रु.10 में खुलेआम बेची जाती है। पूछने पर बैरा छुट्टे पैसे न होने का बहाना बनाएगा। आई.आर.सी.टी.सी. जिस कीमत पर पेप्सी-कोका कोला क्रमशः एक्वाफिना व किनले नाम से पानी की बोतलें बेचते हैं उसी कीमत पर रेल में पानी बेचती है। सवाल खड़ा होता है कि रेलवे को इतना महंगा पानी बेचने की क्या आवश्यकता है? लोक सभा चुनाव से पहले वाराणसी रेलवे स्टेशन पर नलों में पानी नदारद था क्योंकि आई.आर.सी.टी.सी. को ठेके पर स्थापित की गई पानी की वेंडिंग मशीनों को बढ़ावा देना है। आई.आर.सी.टी.सी. की 8 प्रतिशत आय पानी की ब्रिकी से आती है। परंतु रेलवे की यह जिम्मेदारी है कि सभी यात्रियों को साफ पीने का पानी निःशुल्क उपलब्ध कराए।

टी.टी.ई. के भ्रष्टाचार का प्रकोप सभी जगह है। प्रतीक्षा सूची वाले यात्री प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं और बर्थ बिक जाती हैं। लखनऊ से नई दिल्ली तक रोजाना चलने वाली लखनऊ मेल में रेल कर्मियों की मिलीभगत से कूरियर कम्पनी के बड़े सफेद बोरे स्लीपर श्रेणी के डिब्बों में चढ़ाए जाते हैं जबकि ये बोरे माल वाहन में चढ़ने चाहिए।

भारतीय रेल की अकार्यकुशलता का नमूना देखना हो तो सेण्टर फाॅर रेलवे इन्फाॅरमेशन सिस्टम्स द्वारा विकसित वेबसाइट indianrail.gov.in देखी जा सकती है। इस वेबसाइट में प्रत्येक कदम पर एक जोड़-घटाव करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। बाकी वेबसाइट में सुरक्षा हेतु एक बार कैप्चा नकल करके लिखना होता है, यह सुनिश्चित करनेे के लिए कि कोई मनुष्य ही कम्प्यूटर संचालित कर रहा है। यदि किन्हीं दो स्टेशनों के बीच कौन सी रेलगाड़ियां चलती हैं यह भी पता करना हो तो जोड़-घटाव करना पड़ेगा। यदि भारतीय रेल ने भारतीयों का गणित मजबूत करने की जिम्मेदारी ली है तो दूसरी बात है, नहीं तो इस तरह की यात्रियों के प्रति संवेदनहीनता उसे निजीकरण की दिशा में जाने से बहुत दिनों तक रोक नहीं पाएगी।

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