भारत को RSS के खिलाफ सत्यशोधक प्रतिरोध के लिए प्यार की लड़ाई की जरूरत है: अरुंधति रॉय

Written by Sabrangindia Staff | Published on: February 1, 2021
नफरत के खिलाफ प्यार की लड़ाई। प्यार की लड़ाई। इसे सैन्य रूप से छेड़ा जाना चाहिए और खूबसूरती से जीता जाना चाहिए।



30 दिसंबर 2021 के अंतिम-शनिवार को दूसरा एल्गर परिषद पुणे में आयोजित किया गया। यह आयोजन जाति विरोधी, हिंदुत्व विरोधी विचारधारा के चलते गिरफ्तार किए गए 16 कार्यकर्ताओं के प्रतिकार के लिए श्रद्धांजलि के रूप में किया गया था। इस आयोजन की तारीख गांधी की पुण्यतिथि और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला के जन्मदिन के रूप में चिन्हित की गई। रोहित वेमुला की 2016 में आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में जातिवाद के खिलाफ छात्रों के राष्ट्रीय आंदोलन को गति दी। इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध लेखिका अरुंधति रॉय थीं। अन्य वक्ताओं में पूर्व नौकरशाह कन्नन गोपीनाथन, न्यायमूर्ति बीजी कोलसे-पाटिल, छात्र नेता शारजील उस्मानी, आयशा रेन्ना और पत्रकार प्रशांत कनौजिया शामिल थे।

रॉय ने आज के भारत में प्रचलित दमनकारी माहौल पर भारी रोष जताया। उन्होंने कहा, "हमारे देश में कानून आपकी क्लास, जाति, धर्म, लिंग और राजनीतिक मान्यताओं के आधार पर चुनिंदा रूप से लागू होते हैं।" "यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि कवि, छात्र, कार्यकर्ता, शिक्षक और वकील जेल में हैं, सामूहिक हत्यारे, सीरियल किलर, विवादित जज और विष फैलाते टीवी एंकर पुरस्कृत होते हैं।”
 
"भीमा कोरेगांव मामले में बंद 16 लोगों पर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने कहा कि "जो भीमा कोरेगांव सिक्सटींस जेल में बंद हैं उनके साथ बंद अन्य कैदियों को भी विश्वास नहीं होता कि वे प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रच रहे होंगे। हर कोई जानता है कि वे अपनी बौद्धिक स्पष्टता और नैतिक साहस के लिए जेल में हैं। बौद्धिक स्पष्टता व नैतिक साहस दोनों को इस शासन द्वारा एक बड़े खतरे के रूप में देखा जाता है।” 

इस विस्तृत संबोधन में, रॉय ने आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में भी एकजुटता प्रदर्शित की। उन्होंने 2014 से दिल्ली में सत्ता में प्रमुख प्रोटो फासीवादी शासन की निंदा की। रॉय ने संविधान विरोधी नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 पर भी बात की और कड़ी आलोचना की। उन्होंने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पारित लव जेहाद कानून पर भी बात रखी।
 
यह कहते हुए कि "दर्जनों युवा मुस्लिम युवा जेल में हैं, रॉय ने कहा कि उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020 (The UP Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Ordinance 2020, जिसे लव जिहाद विरोधी अध्यादेश भी कहा जा रहा है) को बस एकाध महीना ही गुजरा है। लेकिन कई शादियों में रुकावटें डाली जा चुकी हैं, परिवारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, और दर्जनों मुसलमान जेल में हैं। तो अब, उस गोमांस के लिए जो उन्होंने नहीं खाया, उन गायों के लिए जो उन्होंने नहीं मारीं, उन अपराधों के लिए जो उन्होंने कभी नहीं किए (हालांकि धीरे-धीरे यह नजरिया बनता जा रहा है कि मुसलमानों का कत्ल हो जाना भी उन्हीं का अपराध है) पीट कर मार दिए जाने के साथ-साथ, उन जोक्स के लिए जो उन्होंने नहीं बनाए हैं, जेल जाने के साथ-साथ (जैसे कि नौजवान कॉमेडियन मुनव्वर फारूक़ी के मामले में हुआ), मुसलमान अब प्यार में पड़ने और शादी करने के अपराधों के लिए जेल जा सकते हैं। इस अध्यादेश को पढ़ते हुए कुछ बुनियादी सवाल सामने आए, जिनको मैं नहीं उठा रही हूं, जैसे कि आप “धर्म” की व्याख्या कैसे करते हैं? एक आस्था रखने वाला इंसान अगर नास्तिक बन जाए तो क्या उस पर मुकदमा किया जा सकेगा?
  
"2020 यूपी अध्यादेश" धर्म परिवर्तन अध्यादेश 2020 के मुताबिक, दो अलग-अलग धर्म के लोग आपस में शादी कर सकते हैं, लेकिन नए कानून में व्यवस्था अवैध रुप से धर्मांतरण को लेकर है। इसमें 3 साल, 7 साल और 10 साल की सजा का प्रावधान है। नए कानून में गुमराह करके, झूठ बोलकर, लालच देकर, जबरदस्ती या शादी के जरिए धर्म बदलवाने का दोष साबित होने पर कम से कम एक साल और अधिकतम पांच साल की सजा होगी। दोषी पर 15 हजार रुपए जुर्माना भी लगेगा। अभियुक्त दूर के रिश्तेदार सहित परिवार का कोई भी सदस्य हो सकता है। सबूत का बोझ भी अभियुक्त पर टिका हुआ है। "पीड़ित" को अभियुक्त द्वारा देय न्यायालय द्वारा पांच लाख रुपये का मुआवजा दिया जा सकता है। आप जबरन वसूली और ब्लैकमेल की अनंत संभावनाओं की कल्पना कर सकते हैं।

आरोपित को (जिसके चलते धर्म परिवर्तन हुआ है) एक से पांच साल की कैद की सजा हो सकती है। इसके लिए दूर के रिश्तेदार समेत परिवार का कोई भी सदस्य आरोप लगा सकता है। बेगुनाही साबित करने की जिम्मेदारी आरोपित पर है। अदालत द्वारा ‘पीड़ित’ को 5 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जा सकता है जिसे आरोपित को अदा करना होगा। आप फिरौतियों और ब्लैकमेल की उन अंतहीन संभावनाओं की कल्पना कर सकते हैं, जिन्हें यह अध्यादेश जन्म देता है। अब एक बेहतरीन नमूना देखिए- अगर धर्म बदलने वाला शख्स एक नाबालिग, औरत या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है, तो ‘धर्म परिवर्तक’ [यानी आरोपित] की सज़ा दोगुनी हो जाएगी। दो से दस साल तक कैद. दूसरे शब्दों में, यह अध्यादेश औरतों, दलितों और आदिवासियों को नाबालिगों का दर्जा देता है।

"अब सबसे अच्छे हिस्से के लिए: यदि परिवर्तित व्यक्ति नाबालिग है, एक महिला है, या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित है, तो" धर्म परिवर्तक "की सजा दोगुनी है- यानी: दो से दस साल तक। दूसरे शब्दों में, यह अध्यादेश महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को नाबालिगों के समान दर्जा देता है। यह हमें संक्रमित करता है: हमें अपने कार्यों के लिए वयस्क नहीं माना जाता है। यूपी सरकार की नजर में केवल विशेषाधिकार प्राप्त जाति के हिंदू पुरुष के पास ही पूरी एजेंसी है। यह वही भावना है जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पूछा था कि महिलाओं, (जो भारतीय कृषि की रीढ़ की हड्डी में एक से अधिक तरीके से हैं) को किसानों के विरोध प्रदर्शन में "रखा" जा रहा था। और मध्य प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव दिया कि कामकाजी महिलाएं जो अपने परिवार के साथ नहीं रहती हैं उन्हें पुलिस स्टेशनों में पंजीकृत किया जाना चाहिए और पुलिस द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए ट्रैक किया जाना चाहिए।

अगर मदर टेरेसा जिंदा होतीं तो तय है कि इस अध्यादेश के तहत उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ती। मेरा अंदाजा है कि उन्होंने जितने लोगों का ईसाइयत में धर्मांतरण कराया, उनकी सजा होती दस साल और जीवन भर का कर्ज। यह भारत में गरीब लोगों के बीच काम कर रहे हरेक ईसाई पादरी की किस्मत हो सकती है। 

बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को उद्धत करते हुए उन्होंने कहा कि उस इंसान का क्या करेंगे जिन्होंने यह कहा था- “क्योंकि हमारी बदकिस्मती है कि हमें खुद को हिंदू कहना पड़ता है, इसीलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता है। अगर हम किसी और धर्म के सदस्य होते तो कोई भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। कोई भी ऐसा धर्म चुन लीजिए जो आपको हैसियत और आपसी व्यवहार में बराबरी देता हो। अब हम अपनी गलतियां सुधारेंगे।”

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