कोरोना काल में असमानता और शोषण की बढती दास्तां

Written by Amrita pathak | Published on: July 30, 2020
देश लोगों से बनता है, किसी भी देश में लोगों की गुलामी या परतंत्रता की दासता बहुत भयावह होती है जो असमानता और शोषण की राह से गुजरती है. किसी भी सभ्य, लोकतान्त्रिक, धर्म निरपेक्ष समाज में असमानता का होना एक बदनुमा दाग की तरह है जो किसी भी देश में उत्पन्न किया गया मानवीय कृत है ताकि समाज में एकाधिकार व् वर्चस्व को बरक़रार रखा जा सके. समानता और शोषण मुक्त समाज लोगों के आर्थिक निर्भरता से तय होती है. आर्थिक निर्भरता मानवीय विचारों को उन्मुक्त करती है और स्वछंद होकर विश्लेषण करने की प्रेरणा देती है. आज हमारे देश में महिला, मजदुर, किसान विद्यार्थी, नौजवान सभी के उन्मुक्त होकर सोचने की शक्ति को कुंद किया जा रहा है. सवाल ये है कि आज देश के तमाम वर्ग के लोग असंतोष में जिन्दगी जीने को क्यों मजबूर हैं? सरकार में बैठे लोग चंद निजी घरानों के फायदे के लिए देश की अर्थव्यवस्था तक को नज़र अंदाज कर चुकी है. आक्सफेम सर्वे के अनुसार भारत के 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास भारतीय सम्पति का 73 प्रतिशत हिस्सा है. 


प्रतीकात्मक फोटो 

कोरोना महामारी ने दुनिया भर के सामजिक आर्थिक ढांचे हो हिला कर रख दिया है जिससे विश्व के तमाम देशों के साथ भारत के सार्वजानिक व्यवस्था और संरचना पर गहरा असर पड़ा है. कोरोना काल के पहले से ही चरमराती सरकारी तंत्र को एक बहाना मिल गया व् जनविरोधी नीतियों को समाज में तेजी से लागु करवाया जाने लगा. आज नौजवान पीढ़ी,  फुटकर व्यापारी, निर्माण क्षेत्र पूरी तरह से बर्बादी की ओर है, स्थाई नौकरी खत्म किया जा रहा है और निजी क्षेत्र की अस्थाई नौकरियों को ठेकेदारी के माध्यम से लागु किया जा रहा है. किसानों को फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य, खाद, बीज, कीटनाशक सिंचाई में कोई सहयोग नहीं मिल रहा, लागत बढ़ रही है, उस हिसाब से फसलों के दाम नहीं बढ़ रहे, इसी में किसान फस गया, बड़े बड़े मॉल और ऑनलाइन बाजार ने, फुटकर बाजार को ख़त्म क्र दिया, बड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियां आ गई, जिसके सामने आम दुकानदारों का टिकना असम्भव है, , आम आदमी की आमदनी कम हो गई, बड़ी संख्या में  लोगों को काम नहीं मिल रहा. हर दिन बेरोजगारी बढती जा रही है. CMIE के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान 14 प्रतिशत लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा. लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, ख़त्म होती नौकरियां, महामारी से बदलता सामाजिक ढांचा वर्षों से चली आ रही सामाजिक आर्थिक असमानता को बढ़ावा देने का काम कर रही है.
कोरोना काल में बेरोजगारी दर (स्रोत: CMIE)

जुलाई 2019               7.3
अक्टूबर 2019              8.1
दिसम्बर 2019              7.6
मार्च 2020                8.7
अप्रैल 2020                23.5
मई  2020                23.4

महामारी से जिन्दगी बचाने की जद्दोजहद और हर दिन बदलती सरकारी नीतियों ने समाज में शोषण को बढ़ावा दिया है. हाल ही में आन लाईन शिक्षा की नीति व् बच्चे को मोबाइल खरीदने के लिए एक गरीब माँ बाप के एक मात्र आर्थिक स्रोत घर की गाय को बेच कर बच्चे के लिए मोबाइल खरीदने की घटना ह्रदयविदारक हैं. सरकार समर्थित निजी अस्पतालों के मोटी फीस की वजह से महामारी से ग्रसित देश की जनता जान गवाने को मजबूर है या सूदखोरों, के हाथों शोषित होने को मजबूर है.   

सरकार द्वारा रोज नयी नीतियाँ लागु कर श्रम कानून में लगातार बदलाव किए जा रहे हैं,  फुटकर व्यापार में देशी विदेशी कंपनियों को खुली छूट, शिक्षा स्वास्थ्य का निजीकरण, सरकारी व्यवस्था खत्म होती नजर आ रही है, देश की सारी बड़ी सरकारी कंपनी पूंजीपतियों को बेची जा रही, रेलवे, ऑयल रिफाइनरी, बिजली कंपनी, देश की हथियार बनाने की कंपनियां, दूर संचार सेवा, बैंक, बीमा, दवाइयों की सरकारी कंपनी को निजी हाथों में कौड़ियो के भाव बेचा जा रहा है. आज बाजारवाद का प्रभाव सरकार के सर चढ़ कर बोल रही है या यूँ कहें कि बाजारवादी सरकारी नीतियों से चंद घरानों को लाभ पहुचाना और बाकि जनता की अनदेखी करना सरकार के उदेश्यों में शामिल है.

मानव के जीवन से जुड़े आर्थिक सवाल ही असल सवाल हैं जो कोरोना संकट में और भयावह रूप धारण कर चूका है और आज इस सवाल से लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है. राजसत्ता की लालच में आज स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार सवाल नहीं रह गया है जो सीधे तौर पे आम जनता की जरूरतों का मसला है और ये दुखदायी है. ऐसे कुछ मुद्दे है जिनका कोई आर्थिक सम्बन्ध नहीं है, जैसे वो धर्म, जाति, गाय, राम मंदिर, हिंदू मुसलमान, और भी ऐसे मुद्दे को लाया जा रहा है और, उन मुद्दों को हमारी इज्ज़त और सम्मान के साथ जोड़ कर जनता को आपस में  लडवाया जा रहा है. बिडम्बना है कि देश की सरकार के लिए जो देश के नीति निर्माता होते हैं, उनके लिए आज रोजगार, शिक्षा, स्वस्थ्य सवाल नहीं रह गया है. ऐसे सवालो पर चर्चा नही हो रही है.  तार्किक होकर सवाल करने वाले लोगों से सरकार में बैठे लोगों के डर का आलम ये है की उनकी हत्या करवाई जा रही है. कोरोना काल में देश के तमाम जगहों से सवाल करने वाले कार्यकर्ताओं और युवाओं को जेलों में डाले जाने का ताजा उदाहरण हमारे सामने है. पुरे देश में एक भीड़ तंत्र कायम किया जा रहा है जो वर्तमान सरकार की अप्रत्यक्ष रुढ़िवादी उदेश्यों को पूरा करने में मदद करते हैं.   

उदारवादी बाजारवादी नीतियों के कारण अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीबों की हालत इस देश मे बद से बदतर होती जा रही है. आज हमें ये समझना है कि एक वो है जिनकी सत्ता है वो अपने और अपने पूंजीपति दोस्तों के खजाने भर रहे हैं उनके खजाने आम जनता की जिंदगी को बर्बाद किये बिना नहीं भरे जा  सकते.  देश को बर्बादी की ओर धकेला जा रहा है.  देश की 99 प्रतिशत जनता जिंदगी जीने के लिए संघर्ष कर रहे है।ये सीधी लूट है, 135 करोड़ आबादी वाले देश की सरकार को जनता की फ़िक्र नहीं है. लुटेरो के हाथ राजसत्ता लग गई और सजिशन आम जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे को पूंजीपतियों के खजाने में डाला जा रहा है.

किसी भी देश या राज्य को चलाने के लिए राज्यतंत्र या राष्ट्र तंत्र का सुचारू रूप से चलते  रहना जरुरी है और ये तभी सभव है जब अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ रखा जाए. भारतीय रिजर्व बैंक की लगातार गिरती हालत सरकार में बैठे लोगों के मंसूबों को उजागर करती है. जनता को शिक्षा और रोजगार से अहिस्ता आहिस्ता दूर किया जा रहा है. लोगों को रोजगार नहीं मिलेगी तो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हो जाएँगे और हर दिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए और तमाम जरूरतों को पूरा न कर पाने की खीझ उन्हें मानसिक गुलामी की ओर ले जा सकती है. इसी मानसिक स्थिति को भावनात्मक रूप देकर राजनितिक फायदा आसानी से अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए उठाया जाता है. जीवन जीने के संघर्ष के बीच आम जनता प्रतिदिन बढती सामाजिक आर्थिक असमानता पर बात तक नहीं कर पाएँगे और  ये हालात किसी भी जिन्दा लोकतंत्र के पतन का कारण  हो सकता है. 

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