जाति, नस्ल और रंग की बीमारी से गंभीर रूप से ग्रस्त भारतीय समाज

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: July 3, 2017
भारत में रहने वालो के समस्या यह है वे अपने से ज्यादा और अपने अलावा किसी दुसरे के बारे में जानना भी नहीं चाहते और पूर्वाग्रहों की चाशनी में जो कहानिया उन्होंने इधर उधर से सुनी है उसी आधार पर वे लोगो से व्यवहार करते हैं और नतीजा यह होता है रंग, भाषा, जाति और धर्म के मामलो में भारतीय विश्व में सबसे ज्यादा भेदभाव करने वाले समझे जाते हैं  क्योंकि स्वयं की सर्वोच्चता का मान उनके दिमाग में घूमता रहता है और सुन्दरता के अपने घिसे पिटे मापदंडो को छोड़कर उन्हें कोई चीज दिखाई नहीं देती है . ये राष्ट्रवाद नहीं अपितु जातिवाद है जहाँ जातीय सर्वोच्चता की रक्षा करना और उसको बनाये रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है और यह हमारे चाल, चरित्र और चेहरे से झलक जाता है . एक आधुनिक संविधान होने के बावजूद भी दैनिक जीवन में लोग जातीय, क्षेत्रीय, नस्लीय और रंग्भेदीय भेदभाव महसूस करते हैं और कानून उनके सामने असहाय नज़र आता है .

Hindutva

दिल्ली के प्रसिद्ध गोल्फ क्लब की घटना ने देश का ध्यान इस और आकर्षित किया है लेकिन जैसे होता है हम लोग घटनाक्रम को भुलाने में भी माहिर हैं . पहले घटना पर चर्चा करें और उसका विश्लेषण किया जाय .

तेलिन लिंगदोह भारत के उत्तर पूर्वी राज्य मेघालय की प्रसिद्द खासी जन जाति की महिला हैं और दिल्ली में अपनी मित्र निवेदिता भर्तुकर सोंधी के आमंत्रण पर आई हुई थी . २५ जून को वो दोनों लंच पे दिल्ली गोल्फ में आमंत्रित थे . तेलिन ने मेघालय का प्रसिद्ध परिधान जैन्सेम पहना हुआ था . आप सभी जानते हैं के उत्तर पूर्व में जैन्सम ज्यादा प्रचिलित है. गोल्फ क्लब के कर्मचारियों ने तेलिन को कहा के आप ‘मैड’ दिखाई देती हैं इसलिए आपको वहा से निकल जाना चाहिए . दिल्ली के गोल्फ क्लब या अन्य क्लबो का वर्ग चरित्र तो दिखाई देता ही हैं क्योंकि वहां आपकी एंट्री आपकी जेब और आपका बैंक बैलेंस देख कर तय होता है लेकिन अगर आपने वस्त्र उनके मापदंडो के मुताबिक नहीं पहने हैं तो भी आपको निकलना पड़ेगा . लाख बताने के बावजूद भी अगर कर्मचारी बेशर्म हैं और उनको पता नहीं है तो ये भारत राष्ट्र राज्य की असफलता है . उत्तरपूर्व के लोगो को अक्सर दिल्ली और अन्य मेट्रोपोलिटन शहरों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है . क्योंकि उनकी जिंदगी और सामाजिक व्यवस्था मात्री-सत्तात्मक है इसलिए अपनी माओ, बहिनों, दादी, नानी और बीवियों को हमेशा परदे और लक्षमण रेखा के दायरे में देखने वालो को लगता है के ये ‘चरित्रहीन’ हैं या आसानी से ‘उपलब्ध’ हैं. असल में बंद संस्कृति का संकट यही है के हमें खुले दिमाग के लोग बाद दिमाग नज़र आते हैं और वैसे भी भारत में चरित्र प्रमाणपत्र देने का रिवाज़ तो बहुत पुराना है और अक्सर वो लोग देते हैं जिनका खुद का चरित्र संदेहास्पद रहता है .

ऐसा नहीं है के केवल उत्तर पूर्व के लोगो के साथ में हमारा व्यव्हार नस्लीय है. अफ्रीकी लोगो का तो साफ़ कहना है के भारत में नस्लवाद और रंगभेद कूट कूट कर भरा है लेकिन ये बात और थी एक पहले सरकारों के स्तर पर उसके विरूद्ध एक मजबूत आवाज़ थी लेकिन अब ऐसे लगता है जैसे राष्ट्रिय नेताओं का मौन समर्थन है . अफ्रीका के कई देश २०१४ के बाद से अफ्रीकन मूल के नागरिको के खिलाफ भारतीय मानसिकता के बारे में बोले हैं .

प्रोफेसर केविन ब्राउन अमेरिका के इंडिआना विश्वविद्यालय में कानून के प्राध्यापक हैं और अमेरिका में अश्वेत प्रश्नों पर वह लगातार काम कर रहे हैं और पिछले १४ वर्षो से भारत में अम्बेडकरवादी आन्दोलन के विभिन्न पहलुओ का अध्ययन भी कर रहे हैं . अभी इस वर्ष प्रोफेसर ब्राउन अपने लगभग २५ छात्रो के साथ भारत के दौरे पर थे . वह बम्बई, दिल्ली, नागपुर के अलाबा वाराणसी भी आये जहाँ पर यहाँ का अम्बेडकरवादी छात्रो के साथ एक चर्चा में शामिल हुए . इतने वर्षो से भारत आने पर मैंने उनसे पुछा के उनके भारतीयों के साथ में कैसे अनुभव हैं तो उन्होंने कहा के अगर मैं अमेरिका का नागरिक नहीं होता तो शायद इतनी बार भारत नहीं आ पाता क्योंकि एक अफ़्रीकी मूल का होने के नाते भारत में मुझे जो असहजता महसूस होती है उसका मैं जिक्र भी नहीं कर सकता. वो कहते हैं एअरपोर्ट से लेकर गलियों तक में ऑटो, दुकान वाले, रिक्शावाले या होटल में उनसे हिंदी या मराठी में बात करने की कोशिश होती है और उन्हें केन्या या यूगांडा का समझकर बात करके उनको हलके में लेने की कोशिश होती है. उनसे बॉलीवुड का जिक्र भी होता है जैसे उन्हें सब पता हो . फर्क तब आता है जब लोगो को पता चलता है के वह अमेरिकी नागरिक हैं .

प्रोफेसर ब्राउन भारत में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में कहते हैं जातिभेद नस्लभेद से ज्यादा खतरनाक था . वह कहते हैं के अमेरिका में हम सभी व्यक्तिवादी हो चुके हैं और इसलिए वहा पर  अंतर नस्लीय शादिया हो जाति हैं जो चलती भी हैं और टूटती भी हैं जिससे व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक हैसियत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन भारत में ऐसा नहीं है क्योंकि अभी हम सामुदायिक सोच रखते हैं और जाति की पवित्रता को बचाए और बनाये रखने के लिए ही शादी की पवित्रता को भी रखा गया है .यहाँ पर दलितों या जो भी प्रगतिशील व्यक्ति समाज के दायरे से बाहर सोचता है, उनके लिए विकल्प बहुत ही सिमित हैं क्योंकि सामाजिक बहिष्कार या शारीरिक हिंसा का खतरा बना रहता है .

मैंने प्रोफेसर ब्राउन से पूछा के अगर उनको अगर अमेरिका छोड़कर कही बसने की इच्छा होगी तो भारत के ऑफर के बारे में वो क्या सोचेंगे. वो हँसे और बोले के अगर कभी अवसर मिला तो मैं यूरोप, कनाडा या किसी और देश में बसना पसंद करूँगा लेकिन भारत मेरी लिस्ट में अंतिम पायदान पर होगा . उन्होंने कहा के वह लन्दन, पेरिस से लेकर टोरंटो तक कही भी बसना पसंद करेंगे लेकिन भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं . उनका कहना था का रंगभेद और नस्लभेद केवल भारत की ही समस्या नहीं अपितु पाकिस्तान, चीन, जापान और कोरिया जैसे देशो में अफ़्रीकी मूल के लोगो को इसी नज़र से देखा जाता है . ऐसा नहीं है के अमेरिका और यूरोप में रंग भेद ख़त्म हो चूका है लेकिन हमारी तरह लोगो के व्यक्तिगत जीवन में घुसने और उनकी व्यक्तिगत आजादी, खान पान, रहन सहन, और आगे बढ़ने की आज़ादी उन मुल्को में हमसे बहुत ज्यादा है .

अभी कुछ ही महीने ही नाइजीरियाई मूल के छात्रो को नॉएडा में एक स्थानीय छात्र की मौत का जिम्मेवार मानकर भीड़ ने मारा. पहले उनपर आरोप लगा के उन्होंने स्थानीय छात्र को मारकर उसका मीट खा लिया है लिहाजा भीड़ ने उनका फ्रीज़ भी चेक किया . एक दिन बाद जब स्थानीय छात्र का शव मिल गया तो फिर भीड़ ने उन नाइजिरियाई छात्रो पर मर्डर का आरोप लगाया . अफ़्रीकी छात्रो को ‘नरभक्षी’ और उनकी महिलाओं को आसानी से वैश्या कहा गया . ऐसा लगता है के संस्कृति केवल भारत में है बाकी किसी के माँ, बहिन, पत्नी या दोस्त नहीं होते . आज स्थिति ये है के किसी भी अफ़्रीकी छात्र छात्रा से बात करके देखो तो बो कभी भारत नहीं आना चाहेंगे . भारत पिछले कुछ वर्षो में अफ्रीकी देशो के छात्रो के लिए शिक्षा का आदर्श स्थल था क्योंकि बहुत से छात्र यहाँ इस उम्मीद में भी आते थे के भारत ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर अपनी आज़ादी हासिल की , इसलिए भारतीय स्वतंत्रा संग्राम से विशेष लगाव भी रहा. मार्टिन लूथर किंग ने महात्मा गाँधी को अफ्रीकी मूल के लोगो में ज्यादा प्रचलित किया हालाँकि भारत आकर इन छात्रो की गाँधी और भारत के बारे में राय पूरी तरह से बदल चुकी है .

अफ़्रीकी मूल के एक अमेरिकन छात्र ने मुझे बताया के किस तरह अपने शोध के लिए उन्होंने दिल्ली विश्विद्यालय को चुना ताकि गाँधी के देश में जाकर साम्राज्यवाद और गोरो के विरुद्ध उनके संघर्ष से सीख सकूँ लेकिन दिल्ली आकर घर ढूँढने से लेकर पल पल पर अपने बारे में उन्हें हिसाब देना पड़ता था . मकानमालिक अक्सर तैयार नहीं होते थे हालाँकि यह भी एक बहानेबाजी था ताकि उनसे तीन चार गुने अधिक किराया वसूला जा सके . भारत की यह कटु हकीकत है के आज भी किसी मुसलमान, दलित, उत्तर पूर्व के रहने वालो को, अफ्रीकी मूल के छात्रो को किसी भी मध्यवर्गीय सोसाइटी में फ्लैट या कमरा किराये पर नहीं मिलता . बहुतो को अपनी पहचान छुपानी पड़ती है लेकिन अफ्रीकी मूल के लोगो और उत्तर पूर्व के लोगो के लिए तो यह करना भी मुश्किल है इसलिए उनसे खूब वसूली की जाति है , उसके अलावा उन्हें पहले ही पचासों बाते बता दी जाती हैं जैसे मांस, मदिरा, लेट नाईट आना, लड़के लडकियों का साथ रहना बिलकुल मना होता है. दूसरी और इन्ही इलाको में रहने वाले पुरुषो के नज़र इन लडकियों पर लगी रहती जिन्हें वे मन ही मन ‘उपलब्ध’ समझते हैं और कोई भी बुरी हरकत करने के लिए तैयार रहते हैं .

भारत अभी भी गोरी चमड़ी और ऊंची जात के नस्लीय बीमारी से ग्रस्त है . एक अंग्रेज अभी भी हमारे घर आ जाए तो हम पलके बिछा दे लेकिन एक अफ़्रीकी को हम कही ले जाए तो उसके रंग, रूप, चमड़ी को लेकर गाँव का गरीब भी मजाक उडाता है . हिकारत की दृष्टी के साथ साथ उन्हें अलग अलग अपमानित करने वाले नामो से भी पुकारा जाता है . जैसे अफ़्रीकी मूल के लोगो के लिए नीग्रो, हब्सी, कलुआ, कालू आदि नाम इस्तेमाल किये जाते हैं जिनसे उनके प्रति तिरस्कृत नस्लीय दुर्भावना झलकती है .उत्तर पूर्व के लडकियों को चिंकी और अन्य कई नामो से पुकारा जाता है.

हकीकत यह है के भारतीयों का विश्वबोध बहुत की संकुचित है और यह भी के भारतीयपन भी आज की परिस्थियों में उत्तर भारत की सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता का शिकार है जो मांस-मदिरा की संस्कृति को क्षीण और घटिया मानती है जबकि भारत की ८० प्रतिशत से अधिक आबादी मांसाहारी है और खान पान की आदते हमारे सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान है उसका धर्म से बहुत कुछ लेना देना नहीं होता . जैसे बंगाल में अगर लोगो को मछली खाने से मना करोगे तो आपके कार्यक्रम फ्लॉप हो जायेंगे . मेघालय में भाजपा की पूरी पार्टी टूट गयी क्योंकि बीफ वहा का मुख्य खान पान है .दुनिया के हर हिस्से में लोगो को उनके खान पान की आदतों के कारण आप सही या गलत कह कर अपमानित नहीं कर सकते .भारत में मांसाहारियों, कालो, दलितों  से नफ़रत के कारण ऐतिहासिक हैं क्योंकि सुर असुर की लड़ाई के प्रतीक भी ऐसे ही बनाये गए . सभी राक्षस काले और लम्बी लम्बी मूछ वाले दिखाए गए और देव गौर वर्ण, बिना मूछ वाले. राक्षसों को शराब पीते और सुन्दरियों का नृत्य देखते दिखाया गया और आर्य राजाओ की पत्निया परदे में रहती थी .समझ नहीं आता के इस समाज ने शिव को कैसे स्वीकार कर लिया क्योंकि उनकी जीवन शैली तो सबको पता थी . लेकिन ये भी के वे आदिदेव थे और द्रविड़ो, और अन्य मूलनिवासियो के सबसे बड़े देवता इसलिए उन्हों भी अपने में समाहित करना था .

ये बात साबित हो चुकी है के भारतीय समाज जातिवाद और नस्लवाद में गहन रूप से लिप्त है .अमेरिकी अख़बार वाशिंगटन पोस्ट की खबर में ग्लोबल सोशल एत्तित्युड के विषय में हुए एक सर्वे में बताया गया के ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, स्वीडन, नॉर्वे आदि देश दुनिया के सबसे सहनशील देश हैं जहाँ लोगो के साथ जातीय, धार्मिक, नस्लीय और लिंगभेद अन्य देशो के तुलना में बहुत कम पाया जाता है लेकिन इस विषय में भारत और जोर्डन का नाम सऊदी अरब, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश से भी ऊपर सबसे असहिष्णु समाज के तौर सामने आया है जो बेहद शर्मनाक और निराशाजनक है . भारत की दुनिया में एक छवि थी के समाज चाहे जैसा भी रहा हो लेकिन सरकारों के लेवल पर भारत ने हमेशा रंगभेद, नस्लभेद, जातिभेद और लिंगभेद के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की इसीलिये अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की सरकारे अपने नागरिको को यहाँ भेजती थी . ऐसा नहीं के भारत में जातिभेद या नस्लभेद या रंगभेद अभी अचानक आ गया लेकिन ये बात सच है के मई २०१४ के बाद से भारत के रास्ट्रीय नेताओं के तौर तरीको और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर उनके संबंधो से अफ़्रीकी देशो में गहन निराशा पैदा हुई है . दूसरी बात यह है के सरकार जिस तरीके से इन घटनाओं की निंदा होनी चाहिए थी वो नहीं कर पाई . हमें यह नहीं भूलना चाहिए के नेल्सन मंडेला जब जेल से छूटे तो उनकी पहली यात्रा भारत की थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने उन्हें डॉ बाबा साहेब आंबेडकर के साथ भारत रत्न से सम्मानित किया था . तीसरी दुनिया के सारे देश भारत का सम्मान करते थे चाहे नामीबिया का प्रश्न रहा हो या फिलिस्तीन का, भारत उनकी आज़ादी के लिए हमेशा खड़ा रहा और उनके साथ सांस्कृतिक संबंधो को मजबूत करने में हमेशा गर्व महसूस किया . शायद आज जो हो रहा है उससे दीखता है इन घटनाक्रमों से सख्ती से निपटने में कोई सरकारी योजना नहीं दिखती इसलिए ये पहली बार हुआ के अफ़्रीकी देशो के राजदूतो ने भारत को नस्लभेद के मसले में संयुक्त राष्ट्र में घसीटने तक की धमकी थी और नाइजीरिया, केन्या, युगांडा आदि के नागरिको का साफ़ कहना था के उनके देशो में बहुत भारतीय रहते हैं जिनका बहुत बड़ा व्यापार भी है और उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव भारत के व्यापारिक, सामरिक और सामाजिक संबंधो को प्रभावित कर सकता है. भारत को ये नहीं भूलना चाहिए के नस्लभेद के कारण दक्षिणी अफ्रीका दुनिया भर से अलग थलग रहा और नेल्सन मंडेला को रिहा करने और शासकीय तौर पर उसे पूर्णत ख़त्म करने के बाद ही उसके दुसरे देशो से सम्बन्ध बने . हमें ये नहीं भूलना चाहिए के भारत ने अन्तराष्ट्रीय मंचो पर सबसे पहले रंगभेद ख़त्म करने की बात कही और दक्षिणी अफ्रीका के विरुद्ध प्रतिबन्ध लगाए लेकिन मौजूदा सरकार के आने के बाद से ही इसकी अमेरिकी परस्त और पूंजी परस्त नीतियों के चलते अफ़्रीकी देश भारत से दूर हटते चले गए हैं और रही सही कसर अफ़्रीकी मूल के नागरिको के साथ घृणित भेदभाव ने पूरी कर दी है.

भारतीय समाज को सोचना पड़ेगा के आज जब दुनिया बदल रही है , लोकतंत्र का जमाना है, रंग ,जाति और धर्म, खान पान , शारीरिक बनावट के आधार पर भेदभाव आपको पूरी दुनिया में अलग थलग कर सकती है भारत के सवर्णवादी मानसिकता को बदलना पड़ेगा. उन्हें अपने देश में भी विविधता को स्वीकार करना पड़ेगा नहीं तो अपने आप को दुनिया से अलग कर लोगे . आज जो एक फीसदी लोग भारत में शाकाहार के नाम पर आग लगा रहे हैं वो देश की एकता को खतरे में डाल रहे हैं. नस्ल और खानापर के आधार पर अपने को श्रेष्ठ कहने वालो के दिन लड़ चुके हैं क्योंकि दुनिया देख रही है के आप अलगाववाद और नस्लवाद को बढ़ावा दे रहे हैं . कोई भी खान पान हमारी आदतों से बनता है , हमारा पहनावा, भाषा, बोलने के तरीके हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं और उसका मजाक नहीं उड़ना चाहिए अपितु उस पर गर्व होना चाहिए लेकिन अपनी संस्कृति पर गर्व करने का अर्थ दूसरो को हेय दृष्टि से देखना नहीं है अपितु विविधता का सम्मान करना है . दुनिया बहुत बड़ी है, इसकी विविधता को देखिये और उसको सेलिब्रेट करे.

दुर्भाग्य इस बात का है भारत सरकार का रवैय्या इस मसले पर निराशाजनक रहा है . जब तक सरकार कड़े रूप में इसकी निंदा नहीं करती और क़ानूनी तौर पर सख्त सन्देश नहीं भेजती इस प्रकार की घटनाएं होती रहेंगी. सरकारी पार्टी का वोट बैंक जरुर मजबूत होगा लेकिन ऐसे फर्जी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है सिवाय इसके के दुनिया भर में भारत बिलकुल अलग थलग पड जाएगा और ऐसे भी मौके आ सकते हैं जब हम पर खुल कर नस्लवादी होने के आरोप लग सकते हैं जो हमारे अंतर-रास्ट्रीय संबंधो के लिए बहुत बुरे होंगे . आज जब दुनिया एक गाँव बन चुकी है और सभी समाज के लोग एक दुसरे देशो में रहते हैं, व्यापार करते हैं तो इस प्रकार का घटनाक्रम बहुत नुक्सान पहुंचा सकता है . आम आदमी अपने समझ से बोलता है लेकिन सरकार को अधिक समझदार होने का परिचय देना चाहिए और नस्लीय, जातीय और धार्मिक भेदभाव होने की घटनाओं से मुंह फेरने या उनको नकारने के बजाये उन पर त्वरित और सख्त कार्यवाही करनी चाहिए ताकि आइन्दा से वो लोग ऐसी हरकत न कर सके .

बाकी ख़बरें