वनाधिकार आंदोलन की लगभग 40 वर्षीय नेता निवादा राणा चार बच्चों की माँ हैं। उन्होंने अपने ऊपर घातक हमले होने के बावजूद पूरी दृढ़ता के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है।
जब वे हम पर वन्यजीवों को नष्ट करने का आरोप लगा रहे थे, तो मैं सब समझ रही थी; मैंने उन्हें पूरी सख्ती से कहा कि वे झूठी अफ़वाह फैला रहे हैं। मैंने उनसे कहा, ''जंगल को जलाने वाले और जानवरों को मारने वाले आप हैं। हम तो जानवरों की देखभाल करते हैं। हम जंगलों के हर कोने में रहते हैं। अगर हमने जंगलों से लकड़ी चुराई होती तो, आपको हमारे घर लकड़ियों से सजे हुए मिलते। असल में हम सभी जानते हैं कि कौन जंगल से लकड़ियाँ चुरा रहा है? हम देख रहे हैं जंगल की लकड़ी को नेपाल की सीमा में कौन ले जाते हैं! हम वे हैं जो जंगलों का संरक्षण करते हैं।”
‘थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच’ की उपाध्यक्ष और ‘अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी संघ’ के राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य निवादा राणा के ये शब्द हैं (AIUFWP)। वह एक महिला आदिवासी वनाधिकार रक्षक होने के साथ सुप्रीम कोर्ट में वन अधिकार अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता की रक्षा करने के उद्देश्य से दाखिल की गई याचिका की सह-याचिकाकर्ता भी है।
निवादा राणा, भारत-नेपाल सीमा पर दुधवा नेशनल पार्क में स्थित, सूडा गाँव की रहने वाली एक साहसी वनाधिकार रक्षक हैं। यह स्थान उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिला के तहसील, पलिया कलां में पड़ता है। निवादा जी थारू समुदाय से ताल्लुक रखती हैं।
अंग्रेज़ों द्वारा जंगलों को बनाए रखने के लिए आदिवासियों के गाँवों को जंगल में बसाया गया था। वर्ष 1903 में, अंग्रेजों और खैरीगढ़ एस्टेट की तत्कालीन रानी के बीच हुए एक समझौते के तहत इन गाँवों को वन विभाग (FD) के नियंत्रण में दे दिया गया था। जिसके अनुसार FD के हाथों में इन गाँवों पर मालिकाना अधिकार दे दिया गया था। इतना ही नहीं, जंगलों में रहने वाले और उसे संरक्षित करने वाले लोगों को किरायेदारी के अधिकार तक नहीं दिए गए थे।
आदिवासियों को राज्य सरकार से अलग कर, वन विभाग (FD) के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था। इस स्थान के लिए FD के अपने अलग कानून थे। सभी निवासियों के नाम वाला एक रजिस्टर रखा गया था और बिना प्रभागीय वन अधिकारी (DFO) की अनुमति के बिना कोई अन्य वहां बस नहीं सकता था। इस प्रणाली के माध्यम से FD का उन सभी वयस्क निवासियों के श्रम के भुगतान पर नियंत्रण था, और उन्हें अन्य विभागों या कंपनियों या व्यक्तियों के यहाँ नौकरी करने की अनुमति भी नहीं थी। इतना ही नहीं, गांव वासियों को विभाग की आज्ञा का पालन करना भी अनिवार्य था। इन इलाकों में तब से संघर्ष का सिलसिला चल रहा है। वर्ष 1977 में दुधवा को अधिसूचित किए जाने के बाद पार्क के कुल 39 में से 37 गाँवों को स्थानांतरित कर दिया गया था। जिन्हें वर्ष 1986 में राजस्व गाँवों में बदल दिया गया था।
बाघों की अधिकतम संख्या होने के कारण सूरमा को कोर ज़ोन घोषित किया गया था, जबकि गोलिबजी को बफर ज़ोन घोषित किया गया था। वर्ष 1978 में बेदखली का आदेश जारी किया गया था। सूरमा के लोगों को 500 एकड़ ज़मीन में बसे छह अलग-अलग गांवों में ले जाने की योजना बनाई गई थी। जिसपर लोगों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। करीब 23 साल के लम्बे कानूनी संघर्ष के बाद वर्ष 2003 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वन विभाग के अनुसार आदिवासियों व OTFDs के अधिकारों को नामंज़ूर करते हुए आदेश जारी किया था। जिसके बाद कोई अन्य विकल्प न रह जाने पर आदिवासियों और वनाश्रितों ने एक अहिंसक आंदोलन शुरू किया था। आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए महिलाओं ने मोर्चा संभालते हुए थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया था। आदिवासियों पर निष्कासन का संकट और मजबूत होता जा रहा था, जिसके कारण निरंतर उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। इस संघर्ष में महिलाओं व पुरुषों, दोनों को मारा पीटा गया और उनके खिलाफ वन्यजीव अपराधों के तहत झूठे केस दर्ज किए गए थे।
यह वो दौर था, जब लोगों को संगठित करने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। हालांकि, इस प्रक्रिया में थोड़ी देर भले ही लगी, परन्तु FRA, 2006 कानून पारित होने के बाद इसे बल मिला। जिसके बाद वर्ष 2008 में आखिरकार FRA, 2006 के कानून को वास्तविक रूप से लागू करने के लिए आदेश दिया गया और नियम बनाए गए थे।
यह सब वर्ष 2007 तक जारी रहा, जब वन अधिकार अधिनियम लागू होने के साथ पुनर्वास को रोक दिया गया था। इस ‘यूनियन’ (जैसा कि इसे कहा जाता है) का समर्थन ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) द्वारा मजबूती से किया गया था, खासकर AIUFWP की महासचिव रोमा मलिक द्वारा, जिन्होंने महिलाओं को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस मामले में वर्ष 2008 के बाद ही राजनीतिक हस्तक्षेप शुरू हुआ था।
वर्ष 2011 के 8 अप्रैल को, सूरमा गाँव को एक राजस्व गाँव में बदल दिया गया था। जहाँ पूर्ण भूमि स्वामित्व अधिकार प्राप्त करने के लिए, ग्रामीणों द्वारा दायर किए गए 349 दावों में से 289 दावों को ही स्वीकार किया गया था। सूरमा, देवीपुर गाँवों में रहने वाले वनाश्रित मुख्य रूप से दलित हैं। ग्रामीणों का कहना है कि 8 अप्रैल 2011 को तीन गाँवों को ’स्वतंत्रता’ प्राप्त हुई थी, जब उनके गाँवों को राजस्व गाँवों में बदल दिया गया था और उनके जीवन पर मंडराते हुए बेदखली का खतरा अंततः समाप्त हो गया था।
निवादा राणा ने 20 जनवरी 2012 को भूदा गाँव की रहने वाली स्वर्गीय फुलमती और रुकमा राणा के साथ मिलकर, कजरिया, सरियापारा, सूडा, भूदा, बिरिया, नजहुता, देवरही और जयनगर गाँवों के हजारों अन्य पुरुषों और महिलाओं को एकजुट कर व हज़ारों बैलगाड़ियों के साथ दुधवा के जंगलों तक हुई पग यात्रा का नेतृत्व किया था। जहाँ रास्ते में उनका सामना दुधवा वन विभाग के वार्डन और कोतवाल से हुआ था, जो विशाल पुलिस बल के साथ आए थे। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर वन विभाग के अधिकारियों और पुलिस द्वारा बेरहमी से हमला किया था। एक पुलिस अधिकारी, राम ने एक घातक हमले में, निवादा जी के माथे पर अपने डंडे से प्रहार किया, जिसके कारण उनके माथे पर गहरी चोट आ गई थी। इस हमले में सिर्फ शारीरिक रूप से मार-पीट ही नहीं हुई, बल्कि अधिकारियों द्वारा महिलाओं के साथ अनुचित दुर्व्यवहार भी किया गया था।
आखिरकार, आंदोलनकारियों के निरंतर विरोध के कारण एक महीने के बाद आरोपी अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। यह आंदोलन का दबाव ही था, कि जिस कोतवाल ने निवादा जी को मारा था, उसे प्राथमिकी पर हस्ताक्षर करना पड़ा था।
सुप्रीम कोर्ट में सह-याचिकाकर्ता बनने के समय इस घटना को याद करते हुए, निवादा जी ने सिटीज़न फॉर जस्टिस एंड पीस को बताया कि, "मेरे ऊपर हमले के बाद मेरा डर ख़त्म हो गया।" इस घटना ने संघर्ष को लेकर उनके संकल्प को और मज़बूती दे दी है। उन्होंने आगे कहा कि “मैंने बचपन से अपने लोगों का शोषण होते हुए देखा है। मुझे यूनियन के साथ जुड़ने से सामूहिक रूप से लड़ने की ताकत मिली, क्योंकि मुझे ये समझ आ गया कि, यह एक दीर्घकालिक संघर्ष था और हम इसे अकेले नहीं लड़ सकते थे। "
फिलहाल, निवादा राणा का मामला जिला और सत्र न्यायालय में है।
निवादा जी ने दुधवा नेशनल पार्क के भीतर आने वाले 23 ग्राम सभा के साथ 22 जुलाई, 2013 को सामुदायिक संसाधन दावा, फॉर्म C, दाखिल करने में हिस्सा लिया था। इस फॉर्म में महिलाओं ने ठोस तरीके से अपने दावों को दर्ज किया है; कानून के तहत महिलाओं को विशाल प्राकृतिक संसाधनों के प्रथम मालिक होने का अधिकार है। लेकिन आज तक दुधवा में महिलाओं को कोई सामुदायिक अधिकार नहीं दिया गया है।
जब वे हम पर वन्यजीवों को नष्ट करने का आरोप लगा रहे थे, तो मैं सब समझ रही थी; मैंने उन्हें पूरी सख्ती से कहा कि वे झूठी अफ़वाह फैला रहे हैं। मैंने उनसे कहा, ''जंगल को जलाने वाले और जानवरों को मारने वाले आप हैं। हम तो जानवरों की देखभाल करते हैं। हम जंगलों के हर कोने में रहते हैं। अगर हमने जंगलों से लकड़ी चुराई होती तो, आपको हमारे घर लकड़ियों से सजे हुए मिलते। असल में हम सभी जानते हैं कि कौन जंगल से लकड़ियाँ चुरा रहा है? हम देख रहे हैं जंगल की लकड़ी को नेपाल की सीमा में कौन ले जाते हैं! हम वे हैं जो जंगलों का संरक्षण करते हैं।”
‘थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच’ की उपाध्यक्ष और ‘अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी संघ’ के राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य निवादा राणा के ये शब्द हैं (AIUFWP)। वह एक महिला आदिवासी वनाधिकार रक्षक होने के साथ सुप्रीम कोर्ट में वन अधिकार अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता की रक्षा करने के उद्देश्य से दाखिल की गई याचिका की सह-याचिकाकर्ता भी है।
निवादा राणा, भारत-नेपाल सीमा पर दुधवा नेशनल पार्क में स्थित, सूडा गाँव की रहने वाली एक साहसी वनाधिकार रक्षक हैं। यह स्थान उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिला के तहसील, पलिया कलां में पड़ता है। निवादा जी थारू समुदाय से ताल्लुक रखती हैं।
अंग्रेज़ों द्वारा जंगलों को बनाए रखने के लिए आदिवासियों के गाँवों को जंगल में बसाया गया था। वर्ष 1903 में, अंग्रेजों और खैरीगढ़ एस्टेट की तत्कालीन रानी के बीच हुए एक समझौते के तहत इन गाँवों को वन विभाग (FD) के नियंत्रण में दे दिया गया था। जिसके अनुसार FD के हाथों में इन गाँवों पर मालिकाना अधिकार दे दिया गया था। इतना ही नहीं, जंगलों में रहने वाले और उसे संरक्षित करने वाले लोगों को किरायेदारी के अधिकार तक नहीं दिए गए थे।
आदिवासियों को राज्य सरकार से अलग कर, वन विभाग (FD) के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था। इस स्थान के लिए FD के अपने अलग कानून थे। सभी निवासियों के नाम वाला एक रजिस्टर रखा गया था और बिना प्रभागीय वन अधिकारी (DFO) की अनुमति के बिना कोई अन्य वहां बस नहीं सकता था। इस प्रणाली के माध्यम से FD का उन सभी वयस्क निवासियों के श्रम के भुगतान पर नियंत्रण था, और उन्हें अन्य विभागों या कंपनियों या व्यक्तियों के यहाँ नौकरी करने की अनुमति भी नहीं थी। इतना ही नहीं, गांव वासियों को विभाग की आज्ञा का पालन करना भी अनिवार्य था। इन इलाकों में तब से संघर्ष का सिलसिला चल रहा है। वर्ष 1977 में दुधवा को अधिसूचित किए जाने के बाद पार्क के कुल 39 में से 37 गाँवों को स्थानांतरित कर दिया गया था। जिन्हें वर्ष 1986 में राजस्व गाँवों में बदल दिया गया था।
बाघों की अधिकतम संख्या होने के कारण सूरमा को कोर ज़ोन घोषित किया गया था, जबकि गोलिबजी को बफर ज़ोन घोषित किया गया था। वर्ष 1978 में बेदखली का आदेश जारी किया गया था। सूरमा के लोगों को 500 एकड़ ज़मीन में बसे छह अलग-अलग गांवों में ले जाने की योजना बनाई गई थी। जिसपर लोगों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। करीब 23 साल के लम्बे कानूनी संघर्ष के बाद वर्ष 2003 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वन विभाग के अनुसार आदिवासियों व OTFDs के अधिकारों को नामंज़ूर करते हुए आदेश जारी किया था। जिसके बाद कोई अन्य विकल्प न रह जाने पर आदिवासियों और वनाश्रितों ने एक अहिंसक आंदोलन शुरू किया था। आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए महिलाओं ने मोर्चा संभालते हुए थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया था। आदिवासियों पर निष्कासन का संकट और मजबूत होता जा रहा था, जिसके कारण निरंतर उन्हें उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। इस संघर्ष में महिलाओं व पुरुषों, दोनों को मारा पीटा गया और उनके खिलाफ वन्यजीव अपराधों के तहत झूठे केस दर्ज किए गए थे।
यह वो दौर था, जब लोगों को संगठित करने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। हालांकि, इस प्रक्रिया में थोड़ी देर भले ही लगी, परन्तु FRA, 2006 कानून पारित होने के बाद इसे बल मिला। जिसके बाद वर्ष 2008 में आखिरकार FRA, 2006 के कानून को वास्तविक रूप से लागू करने के लिए आदेश दिया गया और नियम बनाए गए थे।
यह सब वर्ष 2007 तक जारी रहा, जब वन अधिकार अधिनियम लागू होने के साथ पुनर्वास को रोक दिया गया था। इस ‘यूनियन’ (जैसा कि इसे कहा जाता है) का समर्थन ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) द्वारा मजबूती से किया गया था, खासकर AIUFWP की महासचिव रोमा मलिक द्वारा, जिन्होंने महिलाओं को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस मामले में वर्ष 2008 के बाद ही राजनीतिक हस्तक्षेप शुरू हुआ था।
वर्ष 2011 के 8 अप्रैल को, सूरमा गाँव को एक राजस्व गाँव में बदल दिया गया था। जहाँ पूर्ण भूमि स्वामित्व अधिकार प्राप्त करने के लिए, ग्रामीणों द्वारा दायर किए गए 349 दावों में से 289 दावों को ही स्वीकार किया गया था। सूरमा, देवीपुर गाँवों में रहने वाले वनाश्रित मुख्य रूप से दलित हैं। ग्रामीणों का कहना है कि 8 अप्रैल 2011 को तीन गाँवों को ’स्वतंत्रता’ प्राप्त हुई थी, जब उनके गाँवों को राजस्व गाँवों में बदल दिया गया था और उनके जीवन पर मंडराते हुए बेदखली का खतरा अंततः समाप्त हो गया था।
निवादा राणा ने 20 जनवरी 2012 को भूदा गाँव की रहने वाली स्वर्गीय फुलमती और रुकमा राणा के साथ मिलकर, कजरिया, सरियापारा, सूडा, भूदा, बिरिया, नजहुता, देवरही और जयनगर गाँवों के हजारों अन्य पुरुषों और महिलाओं को एकजुट कर व हज़ारों बैलगाड़ियों के साथ दुधवा के जंगलों तक हुई पग यात्रा का नेतृत्व किया था। जहाँ रास्ते में उनका सामना दुधवा वन विभाग के वार्डन और कोतवाल से हुआ था, जो विशाल पुलिस बल के साथ आए थे। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर वन विभाग के अधिकारियों और पुलिस द्वारा बेरहमी से हमला किया था। एक पुलिस अधिकारी, राम ने एक घातक हमले में, निवादा जी के माथे पर अपने डंडे से प्रहार किया, जिसके कारण उनके माथे पर गहरी चोट आ गई थी। इस हमले में सिर्फ शारीरिक रूप से मार-पीट ही नहीं हुई, बल्कि अधिकारियों द्वारा महिलाओं के साथ अनुचित दुर्व्यवहार भी किया गया था।
आखिरकार, आंदोलनकारियों के निरंतर विरोध के कारण एक महीने के बाद आरोपी अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। यह आंदोलन का दबाव ही था, कि जिस कोतवाल ने निवादा जी को मारा था, उसे प्राथमिकी पर हस्ताक्षर करना पड़ा था।
सुप्रीम कोर्ट में सह-याचिकाकर्ता बनने के समय इस घटना को याद करते हुए, निवादा जी ने सिटीज़न फॉर जस्टिस एंड पीस को बताया कि, "मेरे ऊपर हमले के बाद मेरा डर ख़त्म हो गया।" इस घटना ने संघर्ष को लेकर उनके संकल्प को और मज़बूती दे दी है। उन्होंने आगे कहा कि “मैंने बचपन से अपने लोगों का शोषण होते हुए देखा है। मुझे यूनियन के साथ जुड़ने से सामूहिक रूप से लड़ने की ताकत मिली, क्योंकि मुझे ये समझ आ गया कि, यह एक दीर्घकालिक संघर्ष था और हम इसे अकेले नहीं लड़ सकते थे। "
फिलहाल, निवादा राणा का मामला जिला और सत्र न्यायालय में है।
निवादा जी ने दुधवा नेशनल पार्क के भीतर आने वाले 23 ग्राम सभा के साथ 22 जुलाई, 2013 को सामुदायिक संसाधन दावा, फॉर्म C, दाखिल करने में हिस्सा लिया था। इस फॉर्म में महिलाओं ने ठोस तरीके से अपने दावों को दर्ज किया है; कानून के तहत महिलाओं को विशाल प्राकृतिक संसाधनों के प्रथम मालिक होने का अधिकार है। लेकिन आज तक दुधवा में महिलाओं को कोई सामुदायिक अधिकार नहीं दिया गया है।