आज इंडियन एक्सप्रेस की एक पड़ताल जो दूसरे अखबारों में होनी नहीं है पर जिसका संदर्भ है। अपराध के भिन्न मामलों में भिन्न कारणों से अभियुक्त या आरोपी बरी होते रहे हैं। निचली अदालतों में बरी होने वालों को ऊपर की अदालत में सजा हुई है और नीचे की अदालत में दोषी पाए गए लोग ऊपर की अदालतों से बरी होते रहे हैं। कई बार इसका कारण ठीक से जांच नहीं होना, मुकदमे में सरकारी पक्ष ठीक से नहीं रखा जाना और कभी-कभी बचाव पक्ष की योग्यता भी होती ही होगी। भ्रष्टाचार, गवाहों को खरीदने और धमकाने और मार डालने के मामले भी हम सुनते रहे हैं। पर भारतीय जनता पार्टी ने एक नया शिगूफा छोड़ा है – आतंकवाद के आरोप में हिन्दुओं को फंसाने का। इसका बेशर्म रूप साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से भाजपा का उम्मीदवार बनाए जाने पर सामने आया जिसे भाजपा अध्यक्ष और अब गृह मंत्री अमित शाह ने सत्याग्रह करार दिया है और अब गाड़ी इस पटरी पर दौड़ चली है।
मालेगांव विस्फोट के बाद समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट को भी उन्होंने इसी श्रेणी में रख दिया है और उनका कहना है कि सही अपराधियों को छोड़कर गलत (यानी निर्दोष लोगों को) इस मामले में फंसा दिया गया। भाजपा के पिछले गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि इस मामले में सरकार ऊपर की अदालत में अपील नहीं करेगी। कल मैंने लिखा था समझौता विस्फोट में अपराधियों को बरी करने वाले जज ने क्या कहा। आज उसी क्रम में एक्सप्रेस की यह खबर मौजूं है। पेश है खबर की खास बातों का हिन्दी अनुवाद। इससे पता चलता है कि अपराधी कैसे बरी होते हैं और कैसे केंद्रीय गृहमंत्री मानते हैं कि अपराधियों को गलत फंसाया जाता है इसलिए वे छूट जाते हैं। मेरा मानना है कि अगर वाकई ऐसा है तो गलत फंसाने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। अदालत में मामला साबित नहीं किया जा सके या बचाव पक्ष अभियुक्त को बचा ले - यह एक मामला है पर अपराधियों को छोड़कर निर्दोष लोगों को अपराधी बना दिया जाए और वे छूट भी जाएं तो यह दोहरी बेईमानी और लापरवाही है। गृहमंत्री ऐसे मामले जानते हुए कार्रवाई नहीं करें यह भारी नाइंसाफी है।
आज की एक्सप्रेस पड़ताल का शीर्षक है, हत्या समेत मुजफ्फरनगर दंगे के 41 में से 40 मामलों में सभी अभियुक्त बरी कर दिए गए। उपशीर्षक है, गवाह मुकरे, सबूत नहीं मिले - हत्या के 10 मामलों में कोर्ट रिकार्ड अभियोजन की कहानी में भारी खामी बताते हैं। और इस तरह बरी हो गए दंगे के आरोपी। अगर इन्हें गलत फंसाया गया था तो असली अपराधियों को पहले ही छोड़ दिया गया था और इन्हें बिलावजह परेशान होना पड़ा। इसलिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए।
अभियोजन के पांच गवाह अदालत में पलट गए और कहा कि जब उनके रिश्तेदारों की हत्या हुई तो वे मौजूद नहीं थे - जबकि एफआईआर में कुछ और उल्लेख है। अभियोजन के छह गवाह मुकर गए और कहा कि पुलिस ने उन्हें सादे कागज पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया। पांच मामलों में पुलिस ने हत्या में प्रयोग किए गए हथियार भी पेश नहीं किए गए। अभियोजन ने इन विषयों पर पुलिस से कभी जिरह नहीं की। अंत में सभी गवाह मुकर गए।
मुजफ्फरनगर में साल 2013 में हुए दंगे में कम से कम 65 लोग मारे गए थे। अदालत ने साल 2017 से 2019 के बीच हत्या के 10 मुकदमों में सभी आरोपियों को बरी कर दिया। इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल में अभियोजन द्वारा दाखिल हत्या के 10 मामलों में उपरोक्त जोरदार खामियां सामने आईं। गवाहों में ज्यादातर मारे गए लोगों के रिश्तेदार हैं और इनकी बातों पर यकीन करते हुए तथा मानते हुए कि गवाह मुकर गया अदालतों ने हत्या के इन सभी 10 मामलों में अभियुक्तों को बरी कर दिया। सच तो यह है कि 2017 के बाद से मुजफ्फरनगर की अदालत ने दंगे से जुड़े 41 मामलों में फैसला सुनाया है। इनमें से सिर्फ एक मामले में सजा हुई है। अभियुक्तों को बरी किए जाने के बाकी सभी 40 मामले मुसलमानों पर हमले के हैं।
दंगे के ये सभी मामले जब दर्ज हुए और जांच हुई तो राज्य में अखिलेश यादव की सरकार थी। ट्रायल के दौरान उनकी और भाजपा की सरकारें रहीं। सिर्फ एक मामले में सजा हुई है और इस साल 8 फरवरी को सत्र अदालत ने सात आरोपियों मुजम्मिल, मुजस्सिम, फुरकान, नदीम, जहांगीर, अफजल और इकबाल को उम्रकैद की सजा सुनाई। इन पर 27 अगस्त 2013 को कावल गांव के गौरव और सचिन की हत्या का आरोप था। कहा जाता है कि हत्या के इस घटना के बाद ही दंगे भड़के थे। इंडियन एक्सप्रेस ने 10 मामलों से जुड़े शिकायतकर्ताओं और गवाहों से बातचीत के साथ ही कोर्ट रिकॉर्ड और दस्तावेजों की पड़ताल की। इसमें सामने आया कि एक परिवार को जिंदा जलाने से लेकर तीन मित्रों को घसीट कर खेल में ले जाने और मार डालने के मामले हुए थे। यही नहीं, एक पिता और अंकल को तलवार और फावड़े से मार डालने के मामले में आभियुक्त 53 लोग बरी हो गए।
– मीरापुर में शारीक, तितावी में रोजुद्दीन और मीरापुर में नदीम की हत्या के मामले में अभियोजन ने पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर को गवाह बनाया था। पर अदालत में डॉक्टर से केवर मेडिकल जांच के दस्तावेजों को साबित करने या उनकी पुष्टि करने के लिए कहा गया। अभियोजन ने उनसे जख्म की प्रकृति या मौत के कारणों पर जिरह नहीं की।
– असीमुद्दीन और हलीमा की हत्या के मामले में अभियोजन ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट नहीं पेश की। इसपर कोर्ट ने नोट किया - अभियोजन ने सिर्फ शिकायत एफआईआर, जनरल डायरी की एंट्री और रीकवरी का साइट प्लान पेश की है। अभियोजन ने कोई अन्य दस्तावेज या सबूत नहीं पेश किया है। अभियुक्तों को बरी किए जाने के 10 मामलों में से एक प्रमुख है। यह 65 साल के इस्लाम की हत्या का मामला है जो 8 सितंबर 2013 को फुगना थाने के तहत हुई है।
एफआईआर इस्लाम के बेटे जरीफ ने दर्ज कराई थी। इसके मुताबिक अभियुक्त हरपाल, सुनील, ब्रह्म सिंह, श्रीपाल, चश्मवीर, विनोद, सुमित, कुलदीप,अरविन्द ने धार्मिक नारे लगाते हुए हथियारों के साथ मेरे परिवार पर हमला किया। श्रीपाल ने मेरे पिता के सिर पर धारदार हथियार से हमला किया और छह अन्य ने उनपर तलवार से हमला किया। इन सबों ने घर में आग लगा दी। मेरा भाई पिताजी को लेकर अस्पताल गया जहां वे मृत घोषित कर दिए गए।
बरी किए जाने के आदेश के अनुसार जरीफ ने ट्रायल के दौरान अदालत से कहा, मेरे पिता की हत्या हुई और शिकायत एक रिश्तेदार गुलजार ने लिखाई थी। मैं सिर्फ दस्तखत किए थे। अदालत में मौजूद अभियुक्त घटना में शामिल नहीं थे। तीन अन्य गवाहों ने भी कहा कि अभियुक्त घटना में शामिल नहीं थे। जरीफ मजदूर है। उसने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि उसे याद नहीं है कि ट्रायल कोर्ट में यह बात उसने कब कही और कब मुकरा गवाह हो गया। अदालत के रिकॉर्ड में उसकी गवाही कहती है कि वह अभियुक्तों को पहचानने से नाकाम रहा। पर पिता की हत्यावाले दिन की उसकी याद जीवंत थी। उसके पिता ने हत्यारों को पहचाना था और उसे नाम याद हैं। उसने कहा कि उनकी मौत हमले के कुछ घंटे बाद हुई थी। एक्सप्रेस ने और भी ब्यौरा दिया है जिससे पता चलता है कि अदालत में दर्ज गवाही के रिकार्ड और सच्चाई में अंतर है और इसे जनीफ ने स्वीकार भी किया है। जब हमारे पास खाने के लिए नहीं है तो अदालत से न्याय मांगने का क्या उद्देश्य है। अखबार ने लिखा है, हत्या के अन्य मामलों में जहां अभियुक्त बरी है गए हैं, से अलग इस्लाम का ट्रायल उसके होसटाइल होने से संबंधित नहीं है। अदालत के रिकार्ड से पता चलता है कि जांच में छेद ही छेद है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
मालेगांव विस्फोट के बाद समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट को भी उन्होंने इसी श्रेणी में रख दिया है और उनका कहना है कि सही अपराधियों को छोड़कर गलत (यानी निर्दोष लोगों को) इस मामले में फंसा दिया गया। भाजपा के पिछले गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि इस मामले में सरकार ऊपर की अदालत में अपील नहीं करेगी। कल मैंने लिखा था समझौता विस्फोट में अपराधियों को बरी करने वाले जज ने क्या कहा। आज उसी क्रम में एक्सप्रेस की यह खबर मौजूं है। पेश है खबर की खास बातों का हिन्दी अनुवाद। इससे पता चलता है कि अपराधी कैसे बरी होते हैं और कैसे केंद्रीय गृहमंत्री मानते हैं कि अपराधियों को गलत फंसाया जाता है इसलिए वे छूट जाते हैं। मेरा मानना है कि अगर वाकई ऐसा है तो गलत फंसाने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। अदालत में मामला साबित नहीं किया जा सके या बचाव पक्ष अभियुक्त को बचा ले - यह एक मामला है पर अपराधियों को छोड़कर निर्दोष लोगों को अपराधी बना दिया जाए और वे छूट भी जाएं तो यह दोहरी बेईमानी और लापरवाही है। गृहमंत्री ऐसे मामले जानते हुए कार्रवाई नहीं करें यह भारी नाइंसाफी है।
आज की एक्सप्रेस पड़ताल का शीर्षक है, हत्या समेत मुजफ्फरनगर दंगे के 41 में से 40 मामलों में सभी अभियुक्त बरी कर दिए गए। उपशीर्षक है, गवाह मुकरे, सबूत नहीं मिले - हत्या के 10 मामलों में कोर्ट रिकार्ड अभियोजन की कहानी में भारी खामी बताते हैं। और इस तरह बरी हो गए दंगे के आरोपी। अगर इन्हें गलत फंसाया गया था तो असली अपराधियों को पहले ही छोड़ दिया गया था और इन्हें बिलावजह परेशान होना पड़ा। इसलिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए।
अभियोजन के पांच गवाह अदालत में पलट गए और कहा कि जब उनके रिश्तेदारों की हत्या हुई तो वे मौजूद नहीं थे - जबकि एफआईआर में कुछ और उल्लेख है। अभियोजन के छह गवाह मुकर गए और कहा कि पुलिस ने उन्हें सादे कागज पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया। पांच मामलों में पुलिस ने हत्या में प्रयोग किए गए हथियार भी पेश नहीं किए गए। अभियोजन ने इन विषयों पर पुलिस से कभी जिरह नहीं की। अंत में सभी गवाह मुकर गए।
मुजफ्फरनगर में साल 2013 में हुए दंगे में कम से कम 65 लोग मारे गए थे। अदालत ने साल 2017 से 2019 के बीच हत्या के 10 मुकदमों में सभी आरोपियों को बरी कर दिया। इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल में अभियोजन द्वारा दाखिल हत्या के 10 मामलों में उपरोक्त जोरदार खामियां सामने आईं। गवाहों में ज्यादातर मारे गए लोगों के रिश्तेदार हैं और इनकी बातों पर यकीन करते हुए तथा मानते हुए कि गवाह मुकर गया अदालतों ने हत्या के इन सभी 10 मामलों में अभियुक्तों को बरी कर दिया। सच तो यह है कि 2017 के बाद से मुजफ्फरनगर की अदालत ने दंगे से जुड़े 41 मामलों में फैसला सुनाया है। इनमें से सिर्फ एक मामले में सजा हुई है। अभियुक्तों को बरी किए जाने के बाकी सभी 40 मामले मुसलमानों पर हमले के हैं।
दंगे के ये सभी मामले जब दर्ज हुए और जांच हुई तो राज्य में अखिलेश यादव की सरकार थी। ट्रायल के दौरान उनकी और भाजपा की सरकारें रहीं। सिर्फ एक मामले में सजा हुई है और इस साल 8 फरवरी को सत्र अदालत ने सात आरोपियों मुजम्मिल, मुजस्सिम, फुरकान, नदीम, जहांगीर, अफजल और इकबाल को उम्रकैद की सजा सुनाई। इन पर 27 अगस्त 2013 को कावल गांव के गौरव और सचिन की हत्या का आरोप था। कहा जाता है कि हत्या के इस घटना के बाद ही दंगे भड़के थे। इंडियन एक्सप्रेस ने 10 मामलों से जुड़े शिकायतकर्ताओं और गवाहों से बातचीत के साथ ही कोर्ट रिकॉर्ड और दस्तावेजों की पड़ताल की। इसमें सामने आया कि एक परिवार को जिंदा जलाने से लेकर तीन मित्रों को घसीट कर खेल में ले जाने और मार डालने के मामले हुए थे। यही नहीं, एक पिता और अंकल को तलवार और फावड़े से मार डालने के मामले में आभियुक्त 53 लोग बरी हो गए।
– मीरापुर में शारीक, तितावी में रोजुद्दीन और मीरापुर में नदीम की हत्या के मामले में अभियोजन ने पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर को गवाह बनाया था। पर अदालत में डॉक्टर से केवर मेडिकल जांच के दस्तावेजों को साबित करने या उनकी पुष्टि करने के लिए कहा गया। अभियोजन ने उनसे जख्म की प्रकृति या मौत के कारणों पर जिरह नहीं की।
– असीमुद्दीन और हलीमा की हत्या के मामले में अभियोजन ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट नहीं पेश की। इसपर कोर्ट ने नोट किया - अभियोजन ने सिर्फ शिकायत एफआईआर, जनरल डायरी की एंट्री और रीकवरी का साइट प्लान पेश की है। अभियोजन ने कोई अन्य दस्तावेज या सबूत नहीं पेश किया है। अभियुक्तों को बरी किए जाने के 10 मामलों में से एक प्रमुख है। यह 65 साल के इस्लाम की हत्या का मामला है जो 8 सितंबर 2013 को फुगना थाने के तहत हुई है।
एफआईआर इस्लाम के बेटे जरीफ ने दर्ज कराई थी। इसके मुताबिक अभियुक्त हरपाल, सुनील, ब्रह्म सिंह, श्रीपाल, चश्मवीर, विनोद, सुमित, कुलदीप,अरविन्द ने धार्मिक नारे लगाते हुए हथियारों के साथ मेरे परिवार पर हमला किया। श्रीपाल ने मेरे पिता के सिर पर धारदार हथियार से हमला किया और छह अन्य ने उनपर तलवार से हमला किया। इन सबों ने घर में आग लगा दी। मेरा भाई पिताजी को लेकर अस्पताल गया जहां वे मृत घोषित कर दिए गए।
बरी किए जाने के आदेश के अनुसार जरीफ ने ट्रायल के दौरान अदालत से कहा, मेरे पिता की हत्या हुई और शिकायत एक रिश्तेदार गुलजार ने लिखाई थी। मैं सिर्फ दस्तखत किए थे। अदालत में मौजूद अभियुक्त घटना में शामिल नहीं थे। तीन अन्य गवाहों ने भी कहा कि अभियुक्त घटना में शामिल नहीं थे। जरीफ मजदूर है। उसने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि उसे याद नहीं है कि ट्रायल कोर्ट में यह बात उसने कब कही और कब मुकरा गवाह हो गया। अदालत के रिकॉर्ड में उसकी गवाही कहती है कि वह अभियुक्तों को पहचानने से नाकाम रहा। पर पिता की हत्यावाले दिन की उसकी याद जीवंत थी। उसके पिता ने हत्यारों को पहचाना था और उसे नाम याद हैं। उसने कहा कि उनकी मौत हमले के कुछ घंटे बाद हुई थी। एक्सप्रेस ने और भी ब्यौरा दिया है जिससे पता चलता है कि अदालत में दर्ज गवाही के रिकार्ड और सच्चाई में अंतर है और इसे जनीफ ने स्वीकार भी किया है। जब हमारे पास खाने के लिए नहीं है तो अदालत से न्याय मांगने का क्या उद्देश्य है। अखबार ने लिखा है, हत्या के अन्य मामलों में जहां अभियुक्त बरी है गए हैं, से अलग इस्लाम का ट्रायल उसके होसटाइल होने से संबंधित नहीं है। अदालत के रिकार्ड से पता चलता है कि जांच में छेद ही छेद है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)