हार्वर्ड प्रोफेसर बोले- भारत में कोरोना विस्फोट के पीछे ब्राज़ील जैसी गलतियां

Written by Navnish Kumar | Published on: April 23, 2021
भारत में कोरोना के डरावने विस्तार के पीछे कोई एक कारण नहीं है बल्कि ब्राज़ील की तरह शुरुआती दौर में सरकारी स्तर पर हुई तमाम गलतियां हैं। जो लापरवाही, समय रहते विज्ञान सम्मत कदम न उठाने और लगभग हर स्तर पर संस्थागत तालमेल की कमी वाला सरकारी रवैया ब्राजील में देखने को मिला, हूबहू वही सब कारण भारत में कोरोना तबाही की वजह बने हैं। भारत में कोरोना वायरस अत्यधिक संक्रामक है जो बार-बार रूप बदल रहा हैं। 



शीर्ष हार्वर्ड विशेषज्ञ डॉ विक्रम पटेल ने प्रमुख समाचार एजेंसी गल्फ न्यूज से बातचीत में यह दावा किया। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में ब्लावेटनिक इंस्टीट्यूट के ग्लोबल हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन विभाग में ग्लोबल हेल्थ के 'परसिंग स्क्वायर' प्रोफेसर डॉ विक्रम पटेल ने इसे पूरी तरह से सरकारी फेलियोर बताते हुए कहा कि भारत में कोरोना वायरस का वर्तमान वेरिएंट अत्यधिक संक्रामक है जो बार बार रूप बदल रहा है।  

कोरोना की दूसरी लहर में बुधवार को संक्रमण में जबरदस्त उछाल के साथ 3,15,478 नए केस आए हैं। यह किसी भी देश में एक दिन का सबसे बड़ा आंकड़ा है। आलम यह है कि इस संख्या (संक्रमण) के आगे देश में अस्पतालों की क्षमता भी कम पड़ती दिख रही है।

COVID-19 की दूसरी लहर ने भारत में व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। जंगल की आग की तरह फैल रहा कोरोना वायरस लोगों को मौत और निराशा के भंवर में धकेल रहा है। यही नहीं, हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर चरमराने की कगार पर है ज़िससे देश में चिंता और भय का माहौल बन चला है। 

भारत में संक्रमण की दूसरी लहर इतनी क्रूर क्यों है? के सवाल पर डॉ विक्रम पटेल का कहना है कि सबसे पहले, दूसरी लहर का आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह दुनिया के हर देश में देखा गया है। 100 साल पहले भी यह देखा गया था जब भारत में पहले इन्फ्लूएंजा वायरस महामारी ने लाखों लोगों की जान ले ली थी। इसलिए, इतिहास के संदर्भ में भी यह कोई नई व आश्चर्य की बात नहीं है। दूसरी लहर आनी ही थी। 

लेकिन इसके भयंकर और घातक होने के पीछे मुख्य रूप से लोगों और सरकार दोनों स्तर पर लापरवाही का आलम (बेफिक्री) और कोरोना वायरस को हल्के में लेना है। दूसरी लहर के खतरे के बारे में सभी बेफिक्र हो गए थे। कहा- उन्हें याद है, जनवरी के महीने में मुश्किल से बहुत कम लोग ही मास्क पहने होते थे।

फिर, कुंभ और चुनावी रैलियों जैसे बड़े पैमाने पर भीड़ जुटाने वाले आयोजन भी वायरस के फैलाव में सहायक सिद्ध हुए हैं। तथ्य यह है कि एक ओर हमने अपनी सुरक्षा को एकदम ढीला छोड़ दिया, बेफिक्र हो गए तो दूसरी ओर बार-बार रूप बदलने से कोरोना वायरस अत्यधिक ताकतवर (संक्रामक) हो गया है। रिपोर्ट के अनुसार, वायरस के इस नए संस्करण की पहचान पिछले साल अक्टूबर में ही हो गई थी।

दुर्भाग्यवश, अब बहुत देर हो गई है। चीजे हाथ से निकल गई हैं। यहां तक कि अब सभी लोगों के मास्क लगाने और टीकाकरण कवरेज में भारी बढ़ोत्तरी भी मृत्यु और निराशा के चक्र को तोड़ पाने में बहुत सीमित प्रभाव डालने वाली ही साबित होगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ग्लोबल हेल्थ के प्रोफेसर डॉ विक्रम पटेल इस सब के पीछे 'ज्यादातर स्तरों पर बेफिक्र हो जाने को ही मुख्य कारण मानते हैं। 

पटेल कहते हैं कि अलग अलग स्तरों पर तालमेल और संस्थागत स्तर पर समन्वय की नीति से ही सुखद परिणाम मिलते हैं। भारत में महामारी की दूसरी लहर के तेजी से फैलने के कारणों के पीछे वही सब समानताएं देखी जा रही हैं जो हाल के महीनों में ब्राजील में देखी गई हैं।

जर्नल साइंस में प्रकाशित ब्राजील के कोरोना अनुभवों के एक व्यवस्थित विश्लेषण को देखें तो निष्कर्ष यही निकालता है कि ब्राज़ील में कोरोना संक्रमण में भयानक उछाल के पीछे कोई एक कारण (सिंगल फैक्टर) ज़िम्मेवार नहीं हैं। बल्कि विभिन्न स्तरों पर शुरुआती दौर में, समय रहते कदम न उठाने और न्याय व विज्ञान सम्मत समन्वित नीति न अपनाने की सरकार की विफलता ही, मुख्य तौर से दोषी है।

यदि इस तरह का विश्लेषण भारत में हो, तो उन्हें पूरा भरोसा है कि उसका निष्कर्ष भी यही सब होता। शुरुआती दौर में सरकारों का समय रहते निर्णय न लेना, संस्थागत स्तर पर तालमेल और वैज्ञानिक सोच की कमी। लेकिन, बदकिस्मती से फिर वही बात, अब बहुत देर हो गई है, चीजे हाथ से निकल गई हैं। आलम यह है कि कोई भी बड़े से बड़ा व व्यापक अभियान भी अब केवल सीमित प्रभाव डालने वाला ही साबित होगा। 

खास यह है कि अभी तक भारत की बड़ी आबादी, कोरोना संक्रमण से प्रभावित नहीं थी, लिहाजा वायरस के लिए यहां एक उपजाऊ जमीन थी। दूसरा संभव है कि आपकी इम्युनिटी में समय के साथ कमी आ सकती है या नए वेरिएंट के मुकाबले यह कम प्रभावी हो सकती है। यदि ऐसा है तो ऐसे में आपका संक्रमित होना भी नए वेरिएंट से आपका बचाव नहीं कर सकता है।

तो क्या भारत का टीकाकरण प्रोजेक्ट दोषपूर्ण हैं? 
इस पर पटेल कहते हैं कि वह सरकार की नीति और उसके लक्ष्य को ही नहीं समझ पा रहे हैं। यह अमेरिका से काफी अलग है या यूके जहां न्यूनतम संभव समय में अधिकतम कवरेज प्राप्त करने का लक्ष्य है।

उदाहरण के लिए, भारत में वह टीके के वितरण को नियंत्रित (उम्र सीमा का बंधन) करने और टीके के निर्यात के औचित्य को ही नहीं समझ पा रहे हैं। ऐसा भी तब, जब हमें एक अरब लोगों का टीकाकरण करना हो। कहा केवल सरकार ही इसके पीछे का कारण बता सकती है। लेकिन, जैसा मेरा और मेरे साथ बहुत से लोगों का मानना ​​है कि संभवत इस सब के पीछे भी वही सब बेफिक्री कारण हैं, कि हम भारतीयों में हर्ड (छुपी) इम्युनिटी हैं और हमारा कोरोना कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। 

कर्नाटक में सितंबर माह में किए गए राज्यव्यापी सर्वे से पता चला कि आधे लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे। मुझे लगता है कि उन सब में एक भावना थी, कि मैं भी उनमें से एक हूं जिन्हें कोरोना हुआ था। यही नहीं, जब संक्रमण खत्म होना शुरू हुआ तो बहुत से विशेषज्ञों ने भी सोचा कि लोगों (भारतीयों) में कुछ हद तक हार्ड इम्युनिटी है। दरअसल, हम पूरी तरह से गलत थे!

मुझे लगता है कि इसी सब से हम और ज्यादा बेफिक्र हो गए। हमने सोचा कि  हमें टीकाकरण की भी उतनी ज्यादा  आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक रूप से कोरोनारोधी (वेक्सीनेटिड) है। आपको याद भी आ रहा होगा कि एक समय था जब लोग टीकाकरण केंद्र में जाने से ही हिचक रहे थे, जा नहीं रहे थे।

यहां तक ​​कि लोगों के वैक्सीन न लगवाने के चलते बड़े पैमाने पर टीके कबाड़ व बर्बाद हुए। लोगों ने सोचा कि यह सब (कोरोना) चला गया, अब क्या चिंता करना? फिर आपात तरीके से मंजूरी दी गई वैक्सीन लगवाकर जोखिम क्यों लें? यही नहीं, टीकों के परीक्षण की प्रक्रिया भी संदेहास्पद रही थी। इसी सब से जब एक बार किसी के मन में इस तरह के संदेह पैदा हो जाए तो वह पूछना शुरू कर देता है कि वो वैक्सीन क्यों लें। फिर ऐसे में तो बिल्कुल नहीं, जब संक्रमण भी खत्म होता प्रतीत हो रहा है। 

नए म्यूट्रेंट और उसके प्रभावों को कैसे देखते हैं?
इस सवाल पर डॉ पटेल कहते हैं कि वर्तमान की सबसे तत्काल आवश्यकता जीनोम सिक्वेंसिंग (वायरस की पहचान) है। दरअसल ये वेरिएंट (खासकर कोरोना के) समय के साथ रूप बदलते हैं और अधिक संक्रामक हो जाते हैं और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) को नष्ट करने की कोशिश करते हैं। इन्फ्लूएंजा वायरस भी इसी तरह रूप बदलता था, लिहाजा एक अंतराल पर  फ्लू वैक्सीन को दोबारा से अपग्रेडिड (री-इंजीनियर्ड) किया जाता है। क्योंकि वायरस म्यूट (रूप बदलता) करता है तो, टीके का पुराना संस्करण (वर्जन) पूरी तरह से बेअसर हो जाता है।

दूसरा, सरकार की तरफ से बहुत कम जानकारी सामने आ रही है। लेकिन जीनोम सिक्वेंसिंग (वायरस की पहचान यानि रिसर्च) शुरू करने में भारत की रफ्तार काफी धीमी थी। पर्याप्त पैसा ही नहीं है। वैसे भारत के पास सभी प्रमुख प्रौद्योगिकियां हैं। मानव संसाधन भी कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा राजनीतिक इच्छाशक्ति, नेतृत्व और वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन का है।

क्या 2-3 महीनों के भीतर भारत में हर किसी को टीका लगाना व्यवहारिक तौर से संभव है? 
यह पैसे की बात नहीं है। हमारे पास टीके (खुराक) नहीं है। हालांकि हमें सभी को टीका लगाने की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले, हमें 18 वर्ष से अधिक आयु के 60-70% लोगों का टीकाकरण करना होगा। जिसके लिए हमें 1.2 बिलियन मात्रा में खुराक की चाहिए जो हमारे पास अभी नहीं है। 

कोरोना की दूसरी लहर एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाल रही है। यह हमारे दिमागों को नष्ट कर रही है। कहा उनके लिए सर्वाधिक चिंता की बात यह हैं कि कैसे यह महामारी हम पर हावी होती जा रही है? भारत के युवाओं को इसने सबसे अधिक प्रभावित किया है। कोविड के कारण वे काफी तनाव में चल रहे हैं। स्कूल और कॉलेज खुलने की उम्मीद जगी थी लेकिन सब कुछ फिर से बंद हो गया। ऐसे में चीजों का सामाजिकरण काम आता हैं लेकिन वर्तमान में वह भी प्रभावित हैं। यही नहीं, जो युवा कॉलेजों से पास होकर निकले हैं वो भी बाहर नौकरी की तलाश में हैं।

नौकरियां गायब (खत्म) होने से वह ज्यादा प्रभावित हुए हैं? 
इस पर उन्होंने कहा कि उनकी सोच थी कि लचीलापन वापस आ जाएगा, अर्थव्यवस्था फिर से जीवित हो जाएगी और लोग वापस फिर से उठ खड़े होंगे। लेकिन, दूसरी लहर वास्तव में ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनके के समान साबित हुई है। दूसरी लहर तीन महीने तक रह सकती है। ऐसे में केवल एक ही अच्छी बात है कि पहले बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए हैं जिसके चलते उनमें प्रतिरक्षा (इम्युनिटी) विकसित हो सकती है।

अब ऐसे अंधकारमय समय में आपको किस बात ने सबसे ज्यादा परेशान किया है?, पर पटेल कहते हैं कि हाशिए पर रह रहे लोगों पर तालाबंदी (लॉकडाउन) के असर ने उन्हें सबसे ज्यादा परेशान किया है। वे हमारे देश के बहुसंख्यक हैं। उच्च वर्ग जिसमें वैज्ञानिक, शिक्षाविद, नीति निर्धारक और नौकरशाह शामिल हैं, एक-दूसरे के सहयोग से, गरीबों की कीमत पर अपने हितों की रक्षा करने में सफल हो जाता है।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण पहला लॉकडाउन है। हमने उस लॉकडाउन का जश्न मनाया जिसके चलते देश की आधी आबादी, भुखमरी के कगार पर जा पहुंची है।

पटेल कहते हैं कि दुनियाभर में लगभग हर हिस्से में महामारी आती रहती है। सभी सरकारें संघर्ष करती हैं। इसलिए हम केवल भारत सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं कि वही इकलौती फेल हुई है। लेकिन मुझे जो झटका लगा है वह यह कि कोविड वायरस ने भारत में गहरे तक फैली सामंती जाति व्यवस्था को उजागर कर दिया है। इसे ठीक करना अधिक कठिन है। आप वायरस ठीक कर सकते हैं लेकिन आप इस देश में सहानुभूति की कमी को कैसे ठीक कर सकते हैं?

बाकी ख़बरें