हम भीड़ नहीं, व्यक्ति हैं

Written by एच. आई. पाशा | Published on: July 2, 2018
हम क्यों इतना बेवकूफ हैं ! ये नेता कितनी आसानी से हम आम लोगों को बहका ले जाते हैं. इनके लिए हम एक दूसरे से लड़ते हैं, एक दूसरे को गालियाँ देते हैं, यहाँ तक कि ताव ही ताव में एक दूसरे की माँ -बहनों तक पहुँच जाते हैं. सोशल मीडिया नेताओं की मोहब्बत में दी जाने वाली गालियों से भरा हुआ है. गालियाँ देने वाले पढ़े-लिखे लोग हैं. या कह सकते हैं पढ़े-लिखे जाहिल. एक अजीब मुकाबला चल रहा है. " तुमने मेरे नेता को पप्पू कहा ? लो, मैं तुम्हारे नेता को फेंकू कहता हूँ !"



एक बार सोचिये, क्या ये सारे फेंकू, पप्पू और जो दूसरे उपनामों वाले है, क्या ये सचमुच हमारी ऐसी जां निसारी के मुस्तहक हैं ?

हकीक़त यह है कि ये सब बेहद चालाक लोग हैं ( इसीलिए तो यहाँ तक पहुंचे हैं ) ये ऐसी बातें करने और इस ढंग से करने में माहिर हैं कि हम सब को यही गुमान होता है कि ये बस हमारी फ़िक्र में मरे जा रहे हैं, ये सोते नहीं, और खाते हैं तो सिर्फ इसलिए कि हमारी सेवा के लिए ज़िन्दा रहें. सच यह है कि इन्हें सिर्फ अपनी फिक्र है...
फेंकू को लीजिये. ऐसी भव्य ज़िन्दगी उस देश में जी रहे हैं जहां करोंड़ो बच्चे हर रोज़ भूखे सोते हैं. माँ और बीवी को छोड़ा तो महान त्याग हो गया. इन्होने अपने चारों तरफ बड़ी कामयाबी से जो प्रभा मंडल रच लिया है उसके दूसरी तरफ खड़े हम लोगो को लगता है कि सचमुच उन्होंने महान त्याग कर डाला है. उन्होंने त्याग नहीं किया है बल्कि अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ा है.

अगर वह अपनी खुश किस्मती में थोड़ा सा हिस्सेदार अपनी माँ और बीवी को बना लेते तो कोई क़यामत न आ जाती. उनके चाहने वाले उनकी तुलना बुद्ध से करते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि सिद्धार्थ अपना महल छोड़ कर भिच्छु बने थे. और तब वे बुद्ध हुए. महज़ कहने से कोई फ़कीर नहीं हो जाता. आम आदमी का एक सामान्य जीवन जीना मुश्किल हो रहा है और नेता जी के पास उन्हें देने के लिए शब्दों के सिवाए कुछ नहीं है.

जहां तक पप्पू की बात है, वे गाँव वालों की झोपड़ियों में जाते, खाते हैं और कभी कभी सो भी जाते हैं. और इस तरह यह साबित करने के लिए हद से ज़्यादा व्याकुल हैं कि वह गरीबों के कितने क़रीब हैं. इस पप्पू को दिल्ली के लुटियन्स एरिया में रहने के लिए अपनी माँ से अलग बंगला चाहिए. एक माँ, एक बेटा और दो हजारों वर्ग फुट वाले बंगले. दिल्ली लौटते ही अपनी फाइव स्टार दुनिया में पप्पू वापस आ जाते हैं और यह भूल जाते हैं कि इसी दिल्ली में लाखों लोगों को झोपड़ा भी नसीब नहीं है.

लुटियन्स  दिल्ली के इन सारे नेताओं को सचमुच आम आदमी से हमदर्दी होती तो विशाल बंगलों की बजाए किसी काएदे की अपार्टमेंट बिल्डिंग में भी रह सकते थे और इतनी सारी ज़मीन छोड़ देते गरीबों की आवास योजनाओं के लिए. लेकिन फ्लैट में रहने वाला आदमी भला नेता कैसे नज़र आ सकता है. मानिए, न मानिए, ये सब मेज़ के ऊपर अलग-अलग नज़र आते हैं लेकिन मेज़ के नीचे सब के हाथ एक दूसरे से मिले हुए हैं. पप्पू हों, फेंकू हों या u p के फ़लाने भैय्या हों, अपने लिए जब दुनिया भर की विलासिता की चीज़ें जुटाने पर आते हैं तो यह पूरी तरह भूल जाते हैं कि यह जो करोंड़ो रुपया खर्च कर रहें हैं उनकी बपौती नहीं बल्कि उन लोगों का पैसा है जिन्हें मार-मार कर टैक्स वसूला जाता है. इन करदाताओं में देश का भिखारी तक शामिल है.

हम इनकी मोहब्बत में यह भी सवाल नहीं करते कि हम कोई कारोबार करते हैं तो उसे जमने में बरसों लग जाते है और जब नेताओं के घर वाले कोई नया बिज़नेस शुरू करते हैं तो वह जेट की रफ़्तार से करोड़ों का लाभ देने वाला बिज़नेस कैसे बन जाता है ? कैसे एक गाँव का पहलवान टीचर राजनीति में आता है और कुछ ही बरसों में उसका पूरा खानदान करोड़ों में खेलने लगता है ? अगर इनमें कोई कहता है कि यह सारी दौलत हलाल की है तो यह झूठ है और झूठ के सिवाए कुछ भी नहीं है.

जनता को पंद्रह-पंद्रह लाख देने के लिए विदेश के बैंकों से काला धन लाने की ज़रुरत नहीं है. ये जो सारी सियासी पार्टियाँ कर दाताओं का पैसा और कॉरपोरेट जगत से होने वाली वसूली दबाये बैठी हैं अगर वे वह सारा माल बाहर कर दें तो देश की करोड़ों रोती -बिलखती जिंदगियां राहत पा जाएंगी. पर ऐसा सोचना भी पागलों का सपना है.

और हम एक दूसरे का मुंह नोच रहे हैं इन के लिए ? इनके शब्दों के मोह-जाल से निकालिए, साहेब और दीवार पर लिखे हुए सच को पढ़िए. ये लोग आपके नहीं, देश के नहीं, सिर्फ अपने दोस्त हैं. ये पूंजीपतियों और उनकी बीवी -बच्चों को तो गले लगाने का वक़्त बड़े मज़े से निकाल सकते हैं लेकिन आप अपना दर्द लेकर इनके पास जाएंगे तो दरवाज़े से लौटा दिए जाएंगे. आप उनके लिए सिर्फ एक भीड़ का हिस्सा हैं. ऐसी भीड़ जो उनकी नज़र में इतनी मूढ़ है कि उसे धर्म, जाति, सम्प्रदाय, देश ...किसी भी बात पर सम्मोहित किया जा सकता है.

यक़ीन कीजिये, ये नेता आपके ज़ख्म पर मलहम रखने नहीं आएँगे, चाहे आप दर्द से जितना चीखें-चिल्लाएं, लेकिन मौक़ा पड़ेगा तो एक-दूसरे को गाली देने वाले आप लोग ज़रूर एक दूसरे के काम आएँगे , दुश्मन दोस्त बन जाएंगे और निस्स्वार्थ एक दूसरे की मदद करने लगेंगे. क्योंकि आप लुटियन्स  दिल्ली के वासी नहीं बल्कि आम लोगों की बस्तियों में एक दूसरे के पड़ोसी हैं.

आपको जिसको वोट देना हो दीजिये, अगर लोकतंत्र की गाड़ी चलनी है तो किसी न किसी को वोट तो देना ही होगा. लेकिन इनका जां निसार होना बंद कीजिये, इनके प्यार में अपने पड़ोसियों को , अपने जैसे अपने गाँव, मोहल्ले और शहर के लोगों को धमकियां और गालियाँ मत दीजिये. ये नेता इतनी ज़्यादा मोहब्बत के हक़दार नहीं हैं. ये दूसरी दुनिया के वासी है, जो आपकी दुनिया में तभी आते हैं जब इन्हें एक भीड़ की ज़रुरत पड़ती है. मगर आप इनके बहकावे में आ कर भीड़ न बनिए. हम भीड़ नहीं हैं. हममे से हर इंसान एक इंडिविजुअल है, एक व्यक्ति है.
 


 

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