गुजरात में पारदर्शिता गर्त में भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार के खिलाफ जांच रिपोर्ट लापता

Written by Rajiv Shah | Published on: October 18, 2016
फरवरी, 2011 का वक्त था। उन दिनो मैं गुजरात असेंबली की कार्यवाहियां कवर करता था।  लेकिन मुझे अमूमन बीजेपी-कांग्रेस की जुबानी जंग के अलावा कोई खास स्टोरी नहीं दिखती थी। यह जुबानी जंग भी पहले से तय स्क्रिप्ट के मुताबिक होती थी। उन दिनों मेरे दोस्त महिंदर जेठमलानी पाठे बजट सेंटर चलाते थे। राज्य के बजट का विश्लेषण करने वाले अहमदाबाद के इस छोटे से सेंटर के चार पेज का प्रकाशन अक्सर मेरे पास पहुंचता था।

Curruption

ऐसे ही एक चार पेज के फोल्डर में सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटबिलिटी (सीबीजीए) दिल्ली की एक संक्षिप्त रिपोर्ट थी, जिसमें गुजरात को सबसे पारदर्शी राज्य बताया गया था। जिन दस राज्यों का सर्वेक्षण किया गया था, उनमें पारदर्शिता के मामले में गुजरात शीर्ष पर था। ट्रांसपेरेंसी इन स्टेट बजट्स इन इंडिया शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में गुजरात को बजट में पारदर्शिता 100 में से 61.7 अंक मिले थे। जबकि अन्य दस राज्यों का औसत अंक था 51.6 । मध्य प्रदेश को 60.2 अंक मिले थे। आंध्र प्रदेश का स्कोर 51.8 था। छत्तीसगढ़ का स्कोर 56.1 था। ओडिशा, असम, झारखंड, महाराष्ट्र और राजस्थान का स्कोर क्रमशः 52.6, 51.1, 48.4, 48.3, 44 और 43.5 था।

मुझे इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं हो रहा था। मुझे लग रहा था कि सीबीजीए जैसा एक प्रतिष्ठित और गैर लाभकारी संगठन इस तरह के निष्कर्ष कैसे पेश कर सकता है। इसे लेकर मैं अपने दोस्त जेठमलानी से थोड़ा नाखुश भी हुआ। क्योंकि गुजरात के सर्वे के लिए वही जिम्मेदार थे। लेकिन उनकी सफाई पर विश्वास किया जा सकता था। उनका कहना था कि उन्हें सीबीजीए के फॉर्मेट में यह सर्वे करना था। उन्हें बजट निर्माण के सभी पक्षों चाहे वे अधिकारी हों, पत्रकार हों या बिजनेसमैन, के बीच ही सर्वे करना था।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। क्या गुजरात की तुलना में दूसरे राज्य कम पारदर्शी थे? हालांकि मेरा मानना था कि इन राज्यों की ब्यूरोक्रेसी काफी ढीली थी। यही वजह थी कि वहां से पूरी जानकारी समेत स्कैम उजागर होते रहे। मैंने 1997 से 2012 तक गुजरात सरकार को कवर किया था और मेरा मानना है कि 2001 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही इस राज्य में पारदर्शिता में कमी आने लगी। असल में इसके बाद पावर कॉरिडोर के उच्च स्तर से सूचनाओं के प्रवाह को लगातार काबू किया जाता रहा। सूचनाओं का एक मात्र स्त्रोत अखबारों को भेजे जाने वाले प्रेस नोट रह गए थे। या फिर टीवी चैनलों को भेजे जाने वाली सीडी। यहां तक क कि मीडिया ब्रीफिंग भी बंद हो गईं।

पत्रकारों के पास येन-केन-प्रकारेण अपने स्त्रोत विकसित करने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था। सरकारी सूचनाओं को गलत तरह से हासिल करना पड़ता था। कई चीजें ऑफ द रिकार्ड जुटानी पड़ती थी।

इससे पहले वित्त सचिव मुझे आसानी से एशियन डेवलपमेंट बैंक की दो वॉल्यूम की वह रिपोर्ट सौंप देते थे, जिसमें बिजली सेक्टर के लोन के लिए गुजरात सरकार के ढांचागत बदलाव के वादों का जिक्र होता था। लेकिन मोदी सरकार में सूचनाओं पर इस कदर नियंत्रण हो गया कि वित्त आयोग का फंड हासिल करने और अन्य जरूरतों के लिए गुजरात सरकार की समय-समय पर सौंपी गई रिपोर्टों को हासिल करने के लिए दिल्ली में मशक्कत करनी पड़ी।

इसमें कोई शक नहीं कि आरटीआई के जरिये सूचनाएं हासिल करना थोड़ा ज्यादा आसान रहता था लेकिन मैंने शायद ही कभी इसका इस्तेमाल किया हो। बाद में कई आरटीआई कार्यकर्ताओं से मेलजोल के बाद मुझे पता चला कि अमूमन कई दफा अधिकारी सीधे-सीधे सूचनाएं देने से इनकार कर देते हैं और फाइल दबा कर महीनों और कई बार वर्षों बैठ जाते हैं।

कुछ दिनों बाद मैं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता से मिला। 2002 में वह मोदी सरकार में उद्योग मंत्री भी थे। इन दिनों वह बीमारी से उबर रहे हैं। उन्होंने गुजरात सरकार से जो लिखा-पढ़ी की थी, उसका बड़ा सा गट्ठर दिखाया। इसे देख कर मैं आश्चर्यचकित था। सुरेश मेहता ने बताया कि उन्होंने और उनके समर्थकों ने एमबी शाह आयोग की रिपोर्ट हासिल करने के लिए राज्य सरकार के पास आरटीआई के तहत 100 से ज्यादा आवेदन लगाए थे।

आयोग को मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के 14 आरोपों की जांच करनी थी। विपक्षी दल कांग्रेस के नेता अर्जुन मोढ़वाड़िया की ओर से लगाए गए इन आरोपों में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट को बेहद रियायती दर पर गुजरात शिफ्ट कराने, मुंदरा में एसईजेड और पोर्ट के लिए अडाणी को बेहद सस्ती दर पर जमीन देने और एस्सार समूह को वन भूमि आवंटित करने और गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन में अनियमितता की शामिल थी। मेहता कहते हैं, ‘ रिपोर्ट हासिल करने की तो बात छोड़ ही दीजिये। रिपोर्ट का आधिकारिक स्वामी विधि विभाग भी तीन साल तक यह कहता रहा कि रिपोर्ट उसके पास नहीं है। यह सभी आरटीआई आवेदनो को कार्मिक विभाग के सामान्य प्रशासन विभाग (सीएडी) को भेजता रहा। यह विभाग यह कह कर रिपोर्ट देने से टालता रहा कि इसे सिर्फ विधि विभाग ही मुहैया करा सकता है। सामान्य प्रशासन विभाग यह भी कहता रहा कि रिपोर्ट सार्वजनिक करने से पहले असेंबली में पेश करनी होगी।

मुझे याद है कि 2012 दिसंबर में विधानसभा चुनाव आचारसंहिता लागू होने के एक दिन बाद ही मोदी कैबिनेट के प्रवक्ता जयनारायण व्यास ने आनन-फानन में प्रेस कांफ्रेंस बुला कर ऐलान कर दिया कि एमबी शाह आयोग की रिपोर्ट सौंप दी गई है। इसे कैबिनेट ने जांचा और इसमें मोदी सरकार के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के 14 आरोपों में एक भी सही साबित नहीं हुआ। उन्होंने रिपोर्ट जारी होने की तारीख के बारे में पूछे गए एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया।

मेहता ने जो कागज मुझे सौंपे थे। उसमें सरकार के उस प्रस्ताव ( तारीख 16 अगस्त,2011)का जिक्र था जिसेमें कहा गया था कि जब देश भर में सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत जनमत बनता दिख रहा है तो ऐसे समय में गुजरात सरकारों के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सच्चाई जानने के लिए इस आयोग का गठन किया जा रहा है।

आरटीआई के जरिये सुरेश मेहता एक मात्र जानकारी जो हासिल कर सके वह यह थी कि एमबी शाह आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट 28 सितंबर 2012 को जारी की थी। कैबिनेट ने इसे 10 अक्टूबर 2012 को ‘मंजूर’ किया था। अंतिम रिपोर्ट 6 नवंबर, 2013 को सौंपी गई थी।

मेहता ने कहा, जब सरकार में कोई भी इस रिपोर्ट की जिम्मेदारी लेने और इसे सार्वजनिक करने से इनकार कर रहा था तो गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ( जो जून, 2014 में मोदी की उत्तराधिकारी) ने असेंबली में कहा कि शाह आयोग की रिपोर्ट गुजरात के गवर्नर के पास है। जबकि राजभवन के पास दाखिल एक आरटीआई आवेदन से खुलासा हुआ कि रिपोर्ट गवर्नर के पास नहीं थी।

मेहता ने शाह आयोग की रिपोर्ट पाने की आखिरी कोशिश 29 अक्टूबर 2014 को की। लेकिन हमेशा की तरह विधि विभाग ने कहा कि रिपोर्ट उसके पास नहीं है और आवेदन सामान्य प्रशासन विभाग को भेज दिया। 7 नवंबर, 2014 को उन्होंने विधि विभाग के सार्वजनिक अथॉरिटी में आवेदन दिया। इस बार भी मेहता को कहा गया कि रिपोर्ट सामान्य प्रशासन विभाग के पास पड़ी है। आखिरकार गुजरात के इस पूर्व मुख्यमंत्री को 6 अप्रैल, 2015 को गुजरात सूचना आयोग को आवेदन देना पड़ा।

इसके  लगभग डेढ़ साल बाद गुजरात सूचना आयोग ने विधि विभाग के लोक सूचना अधिकारी की मौजूदगी में मेहता के आवेदन पर सुनवाई की सूचना दी। इस अफसर ने एक बार फिर कहा कि शाह आयोग की रिपोर्ट इसके पास नहीं है।

गुजरात के सूचना आयुक्त आर आर वरसानी ने अपने दो पेज के आदेश में कहा कि वह इस बात से सहमत नहीं हैं कि रिपोर्ट राज्य के विधि आयोग के पास नहीं हैं। शाह आयोग का गठन सरकार के प्रस्ताव पर हुआ था न कि सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से। इसलिए उन्होंने विधि विभाग को 20 दिनों के भीतर इस बारे में सही सूचना देने को कहा।

गुजरात सूचना आयोग में बहस के दौरान आरटीआई एक्टिविस्ट पंक्ति जोग के आवेदन में सामान्य प्रशासन विभाग के उस जवाब का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि शाह आयोग की रिपोर्ट, अंतिम रिपोर्ट सौंपे जाने के छह महीने के भीतर असेंबली में पेश कर दी जाएगी। लेकिन मेहता ने कहा कि इसके बाद तीन साल बीत गए यह रिपोर्ट कभी पेश नहीं की गई।

मेहता ने गुजरात सूचना आयोग के 9 सितंबर, 2016 के उस आदेश के बारे में भी बताया जिसमें कहा गया था- कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि गुजरात असेंबली में रिपोर्ट पेश करने के बाद इसे सार्वजनिक किया जाएगा। तो  क्या यह रिपोर्ट कभी सार्वजनिक होगी। मेहता कहते हैं, यह सिर्फ शुरुआती जीत है। पहले तो विधि विभाग को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके पास रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट की जानकारी देने के लिए निर्धारित 20 दिन तो बीत गए हैं। देखते हैं आगे क्या होता है। 

(यह लेख पहली बार टाइम्स ऑफ इंडिया के ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। लेखक की अनुमति से इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है।)

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