धार्मिक उन्मादियों का बढ़ता प्रभाव और भारतीय संविधान

Written by Amrita pathak | Published on: August 18, 2020
भारतीय संविधान में कहा गया है कि " राष्ट्र का कोई धर्म नहीं होता है लेकिन किसी व्यक्ति का अपना धर्म हो सकता है।" भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जो भारत के सभी धर्म, जाति, और सम्प्रदाय के लोगों को बराबर हक़ और अधिकार देती है। भारत की राजनीति भारतीय संविधान के अनुसार तय होती है, लेकिन हाल के दिनों में संविधान के मूल्यों को ताक पे रख दिया गया है और राजनीति में धर्म और जाति हावी हो चुका है। धर्मनिरपेक्ष देश भारत की बिडंबना यह है कि एक ख़ास धर्म को आधार बनाकर राजनीति आज अपने चरम पर है धर्म के नाम पर लगातार लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है जबकि केवल धर्म के आधार पर किसी भी सफल राष्ट्र की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। 



भारत विविधता में एकता वाला देश है जहाँ धर्म, जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र, संस्कृति की विविधता व्यापक रूप से देखी जा सकती है जो संविधान की एकता के साथ आपस में जुड़ी हुई है। गंगा जमुनी संस्कृति की तहज़ीब रखने वाले भारत देश का मंजर आज कुछ और है, सवाल ये खड़ा होता है कि आज कितने प्रतिशत लोग संविधान को अच्छे से जानते हैं? आज लोग संविधान को पढ़ते व् समझते कम हैं और लोगों से सुनते ज्यादा हैं। धार्मिक और जातिय आस्था के अतिवाद ने संविधान पे लोगों का भरोसा कम जरूर किया है पर आज भी भारतीय राजनीति का आधार संविधान ही है। 

भारत में संविधान के लागु होने के साथ ही इनके मूल्यों को समाज में लागू करने और कराने की कोशिश लगातार जारी है। व्यक्तिगत रूप से कुछ भी खाने पहनने, किसी भी धर्म को मानने या ना मानने, कोई भी वैचारिक सोच रखने, स्वतंत्र होकर अपनी बात कहने का अधिकार भारतीय संविधान हर नागरिक को देता है परंतु आज आस्था के नाम पर, भावना भडकाने के नाम पर समाज में इंसानियत के खिलाफ सुनियोजित भीड़तंत्र को खड़ा किया गया है जिसे सत्ताधारी राजनितिक पार्टियों का भरपूर समर्थन मिल रहा है आज धर्मनिरपेक्ष देश भारत के राजनीति का धार्मिकीकरण किया जा रहा है। 

भारतीय लोग व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने धर्म में आस्था और लगाव रखते हैं, इसी धर्म को हथियार बना कर सभी धर्म के कुछ-कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं। कहीं मुस्लिम समाज को बचाने के लिए “शरिया सम्मलेन” हो रहा है तो कहीं हिन्दू धर्म और राजपूत जाति की रक्षा के नाम पर दंगे और दहशत का माहौल कायम किया जा रहा है। समाज में करणी सेना, बजरंग दल और ऐसे कितने ही नाम से स्वघोषित धर्म और जाति के रक्षक पैदा हो गए हैं और समाज में आतंक का माहौल बना रहे हैं। गंभीर बात ये है कि जब इस करणी सेना के द्वारा उदयपुर के न्यायालय के ऊपर धार्मिक झंडे को लहराया गया तो भी धर्मनिरपेक्ष देश भारत के प्रधानमंत्री जी चुप रहे, इनके द्वारा लगातार संविधान का मखौल उड़ाया गया और जिस पर सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो यह सरकार समर्थित प्रायोजित कृत्य जान पड़ती हैं और यह किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए खतरनाक है। 

जनता के द्वारा पूर्ण बहुमत से चुनी गयी सरकार ने आज जनता को धर्म के नाम पर एक दुसरे के सामने खड़ा कर दिया है। दिल्ली में हुए हाल के दंगे हमारे सामने हैं जिसमें सत्ता समर्थक लोगों द्वारा लगातार नफरत फ़ैलाने और हिंसा भड़काने की कोशिश हो रही थी। परिणाम स्वरुप दिल्ली में सैकड़ों लोगों का घर बर्बाद हो गया, दिल्ली दंगे में लोगों की जानें गयीं, बाबजूद इसके उन लोगों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्यवाही नहीं किया जाना सत्ता के फासीवादी चरित्र को उजागर करता है। 

आज भारतीय पहचान को धार्मिक समूहों में बाँट दिए जाने की तैयारी है। कोरोना महामारी के फैलने और भारत में सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाने के ठीक पहले तक देश की जनता जनविरोधी नागरिकता संशोधन कानून बनाए जाने के ख़िलाफ़ सड़कों पर थी जिस पर धार्मिक रंग देकर लगातार हमले करवाए जा रहे थे। शाहीन बाग़ में किसी लड़के का हथियार लेकर आना या जामिया विश्वविद्यालय में पुलिस का बर्बर हमला यह साबित करता है कि संविधान के लिए खड़े होने या सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाले को यह लोकतंत्र का लवादा ओढ़े फासीवादी सरकार बर्दास्त नहीं कर सकती है। हद तो यह हो गयी जब कोरोना महामारी और लॉकडाउन की स्थिति के दौरान सरकार के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले लोगों को जेलों में डाला जाने लगा। 

21वीं सदी के इस दौर में भी धार्मिक व जातीय पहचान जनता के लिए एक अभिशाप की तरह है जिसका सहारा लेकर संवैधानिक मूल्यों पर हमले लगातार जारी हैं। आज भी दलित, आदिवासी व् मुस्लिम समुदाय के लोगों पर अत्याचार बदस्तूर जारी है। कोई भी धर्म हिंसा करना नहीं सिखाता लेकिन धार्मिक चोला ओढ़े ये नफरती मानसिकता के लोगों द्वारा कहीं अखलाख, जुनैद तबरेज की हत्या हो रही है तो कहीं विश्वविद्यालय से नजीब को गायब करवाया जा रहा है। देश में धार्मिक उन्मादियों का बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र को कलंकित कर रहा है। 

दुनिया भर के अलग अलग लोकतान्त्रिक देशों में ये देखा जा सकता है की लोगों को जागरूक नागरिक बनाने पर जोर दिया जाता है जो अपने अधिकारों के लिए सवाल कर सके, आलोचना कर सके गलत नीतियों का और सबसे दीगर बात की जागरूक जनता के सवालों को कोई भी सरकार अनदेखी नहीं कर सकती। किसी भी पश्चिमी राष्ट्र में इसे देखा जा सकता है, जहाँ जनता को अच्छे नागरिक बनाने पर ध्यान दिया जाता है। भारत के सन्दर्भ में आज हम इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते कि धर्म प्रेरित राजनीति हो रही है। धर्म के नाम पे वोट लेने का चलन राजनीती में अपने चरम पे है, और जीत कर सत्ता में आने के बाद इसी धर्म का नाम ले कर खुनी खेल शुरू कर दिया जाता है। भारत देश में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संविधाम के अनुसार कार्य करती है वर्तमान में सत्तारूढ़ पार्टियों के सहयोग से परम्परावादी, रूढ़िवादी ताकतों द्वारा संविधान की मूल्यों की अवहेलना की जा रही है। सवाल ये है कि देश की आजादी के 73 साल बाद भी और आधे से अधिक आबादी के प्रगतिशील होने के बाबजूद भी क्या हम संविधान आधारित समाज बना पाए हैं?

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