सच बोलने का खतरा

Written by Girish Malviya | Published on: August 7, 2018
पुन्यप्रसुन वाजपेयी प्रकरण पर आज विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार ब्रेख्त की एक लघुकथा याद आयी- "सच बोलने का खतरा"



अमेरिकी फिल्म नगरी हॉलिवुड में एक बार संगीतकार हंस आइसलर महाशय 'ब' से मिले। उन्होंने उनके सामने रहस्योदघाटन किया कि एक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ने काफी तैश में आकर उनसे (आइसलर) कहा था कि अब वह कभी भविष्य में महाशय 'ब' के साथ काम नहीं करना चाहता।

महाशय 'ब' ने चकित होकर कहा, 'मैं समझा नही, वह मेरा साथी था और मैंने उनसे जो भी कहा, वह सब सच ही तो था। मैंने उनके सामने सच ही जाहिर किया था।
संगीतकार हंस आइसलर ने सिर हिलाते हुए कहा, 'कहा तो सच था, लेकिन कितनी जोर से?'

दरअसल एबीपी वाले एपिसोड पर आज जो पुन्यप्रसुन वाजपेयी की चिट्ठी सामने आई है वह बताती है कि सच तो बताया ही जा रहा था पर समस्या यह कि बहुत जोर से बताया जा रहा था ओर यही बहुत जोर से बताया जाना बुरी तरह से खटक रहा था

19वीं सदी के एक फ्रेंच उपन्यासकार ने व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के बारे में कहा था कि दरअसल वह ‘मानसिक वेश्यालय’ होती है, जिसमें पत्र मालिक ठेकेदार होते हैं और पत्रकार दलाल, अच्छा हुआ वह उपन्यासकार 19 वी शताब्दी में हुए थे 21 शताब्दी के टीवी जर्नलिज्म के लिए तो उनके पास भी उपमाओं की कमी पड़ जाती

आज पुन्यप्रसुन वाजपेयी ने मीडिया पर मोदी सरकार की छवि को लेकर भाजपा की एप्रोच का, उसकी रणनीतियों का खुलासा किया है तो उसे बेहद ध्यान से समझा जाना चाहिए वो लिखते हैं .......

"प्रधानमंत्री मोदी ही चैनलों की टीआरपी की ज़रूरत बन गए और प्रधानमंत्री के चेहरे का साथ सब कुछ अच्छा है या कहें अच्छे दिन की ही दिशा में देश बढ़ रहा है, ये बताया जाने लगा तो चैनलों के लिए भी यह नशा बन गया और ये नशा न उतरे इसके लिए बाकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया गया.

बाकायदा पूरा काम सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा, जो सीधी रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री को देते और जो 200 लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की मॉनिटरिंग करते हैं वह तीन स्तर पर होता.

150 लोगों की टीम सिर्फ़ मॉनिटरिंग करती है, 25 मॉनिटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार के अनुकूल एक शक्ल देती है और बाकि 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते हैं.

उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते और फाइनल रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास भेजी जाती. जिनके ज़रिये पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज़ चैनलों के संपादकों को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है, कैसे करना है"

यह पढ़कर मुझे वाल्टर लिपमेंन की याद आती है जिन्होंने मीडिया की एजेंडा सेटिंग् थ्योरी को लेकर कहा था कि “मीडिया ये बताने पूरी तरंह सफ़ल नही हो पाती कि समाज को क्या सोचना है बल्कि ये बताने में पूरी सफ़ल रहती है कि समाज को किस बारे में सोचना है।”

मीडिया जिन मुद्दो को देती है वही मुद्दें समाज की प्राथमिकताए बन जाते हैं आज जिस मुदे को मीडिया बडे ही जोर शोर से उठाता है उसको समाज का समाज ज्यादा सोचे-विचारे बिना ठीक वही नजरिया अपनाने लगता है।

ओर इसीलिए मीडिया को बस सुबह शाम मोदी को दिखाना है ओर कोई काम उन्होंने नही भी किया हो तो भी उसका श्रेय मोदी के सिर बांधना है, यदि कुछ गलत हुआ है तो उसका बोझ उठाने को बाकी केबिनेट मंत्री है अरुण जेटली एक बड़ा उदाहरण है नाराज समर्थकों के लिए जेटली एक पंचिंग बैग का काम करते हैं और मोदी महान बने रहते हैं मीडिया की मशहूर थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग का इससे बेहतर उदाहरण आपको नही मिलेगा

ये जो मोदी का तिलिस्म है दरअसल वह सारा तिलिस्म इसी गोदी मीडिया ने रचा हुआ है इसलिए पुन्यप्रसुन वाजपेयी जैसे लोगो को मोदी महीने भर भी बर्दाश्त नही कर पाते

इसे निरन्तर गर्त में जाती पत्रकारिता की स्थिति को देखकर 'नीरज' याद आते हैं

'अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा.
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए'

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