ये घोषणा तो प्रधानमंत्री ने लालकिले से की थी कि अब हत्याएं राजकीय सम्मान के साथ होंगी

Written by कुमार प्रशांत | Published on: September 9, 2017

जब सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी नकाब पहन कर बातें करता है और सफेद-काले में कोई फर्क करने को तैयार नहीं होता है तब वे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि दरअसल में वह किधर खड़ा है...

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कर्नाटक सरकार ने पत्रकार गौरी लंकेश का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया। यह अच्छा हुआ। अब सरकारों के पास इससे अधिक कुछ करने का या इससे पहले करने कुछ करने का माद्दा बचा भी नहीं है। आपको बात पचे नहीं या बहुत कड़वी न लगे तो यह भी कहना चाहूंगा कि इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने लालकिले से की थी कि अब हत्याएं राजकीय सम्मान के साथ होंगी। हां, उन्हें यह पता नहीं होगा कि गौरी इस सम्मान को इतनी जल्दी लपक लेंगी ! जब सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी नकाब पहन कर बातें करता है और सफेद-काले में कोई फर्क करने को तैयार नहीं होता है तब वे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि दरअसल में वह किधर खड़ा है — वे लोग, जो लोगों के लोग होते हैं।

अब सवाल है कि हम लोग गौरी के लोग हैं क्या ?
यह पूछना इसलिए जरूरी है कि अन्ना आंदोलन से यह फैशन चला पड़ा है कि लोग प्लेकार्डों पर लिख लाते हैं, या लिखा हुआ प्लेकार्ड उन्हें थमा दिया जाता है : मैं भी अन्ना ! उस रोज भी मुझे ऐसे कुछ प्लेकार्ड दिखे : आइ एम गौरी ! होंगे आप और इससे अधिक खुशी की बात होगी और देश के लिए आशा की बात दूसरी क्या होगी कि हम सबके बीच से इतनी ‘गौरी’ निकल आएं !


लेकिन क्या गौरी बनना इतना आसान है ?
गौरी बनने के लिए गोली से रिश्ता बनाना पड़ता है। यह स्वाभाविक रिश्ता है। जो कलम चलाते हैं, वे जानते हैं कि एक वक्त आता ही है, कम आता है लेकिन आता है जरूर कि जब कलम अपनी कीमत मांगती है। तब आप स्याही दे कर उसकी गवाही नहीं दे सकते। वह जान मांगती है। अपनी आस्था की एक-एक बूंद निचोड़ कर जब आप कलम में भरते हैं तब कोई गौरी पैदा होती है।

इसे एक पत्रकार ही हत्या मानना हत्या को भी और गौरी को भी न समझने जैसा होगा।

यह सब जो हम बार-बार कह व लिख रहे हैं कि गौरी वामपंथी थी, कि वह हिंदुत्व वालों की तीखी आलोचक थी, कि वह बहुत आक्रामक थी, यह सब सच है लेकिन पूरा सच नहीं है !

बहुत छोटी-सी दो-एक मुलाकातों में और कॉफी पीते हुए मैं उन्हें जितना जाना वह यह कि वे बहुत आजाद ख्यालों वाली महिला थीं। अपनी तरह से सोचना और अपनी तरह से जीना उनकी सबसे स्वाभाविक फितरत थी। आप आजादी से जीते और अपनी तरह से सोचते हैं यह खतरनाक बात है; और यह खतरनाक बात बेहद-बेहद खतरनाक हो जाती है जब आप अपनी उस सोच और अपने उस जीवन को बांटना भी शुरू कर देते हैं। यह बड़ी बारीक-सी रेखा है कि जब तक हमारा जीवन इस बिंदु तक नहीं पहुंचता है तब तक हम दूसरों का जीवन जीते हैं और इतना जीते हैं कि मरने तक जीते हैं। इसे ही शायद लकीर पीटना भी कहते हैं। लेकिन जीवन तो शुरू ही उस बिंदु से होता है जहां से आप आजाद हो जाते हैं।


आप आजाद होते हैं तो गौरी बन जाते हैं।
कलम के साथ आजाद होना खतरों में उतरने की तैयारी का दूसरा नाम है। इसलिए गौरी की हत्या के बाद यह सब जो कहा जा रहा है कि कलमकारों में भय फैल रहा है, कि कलमकारों को सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए, कि कोई स्वतंत्र पत्रकारिता करेगा कैसे तो यह सब गौरी का सम्मान तो नहीं है ! हम अपने भीतर का डर गौरी के नाम पर उड़ेलने का काम न करें। हम गांठ बांध कर याद रखें कि कलमकारों की यह भी एक समृद्ध परंपरा है। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे, एम.एम. कलबुर्गी और अब गौरी; नहीं, इससे कुछ पहले से गिने हैं हम तो मिलेंगे गणेश शंकर विद्यार्थी ! अपनी टेक पर ‘प्रताप’ चलाया, महात्मा गांधी के विचारों और कार्यों से अनुप्राणित थे लेकिन भगत सिंह को छिपा रखने के लिए उन्हें अपने इस अखबार का पत्रकार बना लिया; फिर कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में सरे आम सड़क पर मारे गये। दूसरा कोई कारण नहीं था, वे अपने विश्वास के कारण मौत की उस आंधी में उतरे थे।

उस दौर के सबसे बड़े कलमकार-पत्रकार महात्मा गांधी ने कहा ही कि ऐसी मौत पाने और इस तरह उसे गले लगाने का मौका काश कि मुझे भी मिले ! तो उन्हें भी मिली ऐसी ही मौत ! गांधी से शिकायत क्या थी किसी को ? बस यही न कि यह आदमी इतना आजाद क्यों है ! वह अपनी तरह जीता था; अपनी बात अपनी तरह से कहता था।

हिंदुत्ववादी ताकतों ने यही तो तय किया न कि इस बूढ़े को चुप कराना संभव नहीं है, हमारे लिए इसका मुकाबला करना संभव नहीं है और जब तक यह है हमारे लिए समाज में अपनी जगह बनाना संभव नहीं है, तो इसे चुप करा दो !

तो ८० साल के वृद्ध को चुप कराने के लिए तीन गोलियां मारी गईं। वैसी ही तीन गोलियां गौरी को भी मारी गईँ।

गांधी मारे जा सके ३० जनवरी को लेकिन उनको मारने की ५ गंभीर कोशिशें तो पहले भी हो चुकी थी। सफलता छठी बार मिली। गौरी को भी मारा अब गया, धमकी काफी पहले से पहुंचाई जा रही थी। लेकिन वे धमकियां गौरी की कलम तक पहुंच नहीं रही थीं, इसलिए मौत पहुंचानी पड़ी !

देख रहा हूं कि हत्या के बाद बहुत सक्रियता दिखाने वाली पुलिस व राज्यतंत्र कह रहा है कि गौरी भी उसी पिस्तौल से मारी गई हैं जिससे दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी मारे गये थे। मैं उनकी जानकारी के लिए इसमें जोड़ना चाहता हूं कि पिस्तौल वही थी, यह तो आप कर रहे हैं, मैं आपको शिनाख्त दे रहा हूं कि पिस्तौल के पीछे हाथ वे ही थी जिनमें गांधी का खून लगा है।


अब गांधी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, एक परंपरा का, एक नैतिक व सामाजिक मूल्य का नाम है।

यह दौर कलम घिसने का नहीं है हालांकि हम ऐसा करने से किसी को रोकने नहीं जा रहे है, कम-से-कम पिस्तौल वाले रास्ते तो हर्गिज नहीं ! लेकिन जो कलम चला रहे हैं उन्हें इस परंपरा का ध्यान रखना होगा, इस परंपरा में शामिल होने की तैयारी रखनी होगी अन्यथा आपकी कलम अपना मतलब खो देगी।
 
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