इन दिनों देश राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का 150वां जन्मदिन मना रहा है. इस मौके पर गांधीजी के बारे में मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है. कुछ लोग तो ईमानदारी से गांधीजी की शिक्षाओं और उनके दिखाए रास्ते को याद कर रहे हैं और आज की दुनिया में उनकी प्रासंगिकता पर जोर दे रहे हैं परन्तु कुछ अन्य लोग, इस अवसर का इस्तेमाल अपनी को छवि चमकाने और अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए कर रहे हैं. इसके लिए बड़ी कुटिलता से बापू के लेखन, उनके जीवन और उनके कथनों के चुनिन्दा हिस्सों का प्रयोग किया जा रहा है.
इसमें सबसे आगे हैं हिन्दू राष्ट्रवादी - विशेषकर संघ परिवार. संघ परिवार ने पहले ही गांधीजी के सांप्रदायिक सद्भाव के मूल सन्देश को किनारे कर उन्हें केवल साफ़-सफाई का प्रतीक बना कर रख दिया है. अब यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि आरएसएस के अनुशासन और उसके स्वयंसेवकों के बीच एकता से गांधीजी बहुत प्रभावित थे. संघ की वेबसाइट पर उसके मुखिया मोहन भागवत लिखते हैं, “विभाजन के तुरंत बाद के त्रासद दिनों में महात्मा गाँधी, दिल्ली में उनके निवासस्थान के नज़दीक संघ की शाखा में पहुंचे. उन्होंने स्वयंसेवकों से बात की. उनकी इस यात्रा की रपट हरिजन के 27 सितम्बर 1947 के अंक में छपी. गांधीजी ने संघ के स्वयंसेवकों के अनुशासन पर ख़ुशी जाहिर की और कहा कि उन्हें यह देख कर बहुत प्रसन्नता हुई कि स्वयंसेवकों के बीच जाति आदि की दीवारें नहीं हैं.” पहली बात तो यह है कि हरिजन के जिस अंक को भागवत ने उद्दृत किया है, वह 27 नहीं बल्कि 28 सितम्बर का है. यह उद्धरण सही है परन्तु इसकी पृष्टभूमि के बारे में भागवत कुछ नहीं बताते और ना ही वे यह बताते हैं कि गांधीजी ने इसके आगे क्या लिखा.
दरअसल, गांधीजी सन 1936 में वर्धा में जमनालाल बजाज के साथ आरएसएस की शाखा की उनकी यात्रा के बारे में बात कर रहे हैं. वे लिखते हैं कि तब से आरएसएस और बड़ा संगठन बन गया है. आगे वे कहते हैं, “परन्तु (किसी भी संगठन के) वास्तविक रूप से उपयोगी होने के लिए, बलिदान की भावना के साथ-साथ, पवित्र उद्देश्य और सच्चा ज्ञान भी ज़रूरी है. यह साबित हो चुका है कि इन दोनों के बिना, केवल बलिदान समाज को नष्ट कर देता है.” गांधीजी, मुसलमानों की शिकायतों के बाद 16 सितम्बर को इस शाखा में पहुंचे थे.
इस तथ्य से कि यह यात्रा शिकायतों के बाद की गयी थी और इस से भी कि भागवत ने गांधीजी की रपट के जिस हिस्से को उद्दृत किया है, उससे बाद उन्होंने क्या लिखा है, यह साफ़ हो जाता है कि गांधीजी, दरअसल, संघ से स्वयंसेवकों को क्या सन्देश देना चाह रहे थे.
यह पहली बार नहीं था कि उन्होंने संघ के बारे में कुछ लिखा हो. हरिजन के 9 अगस्त 1942 के अंक में गांधीजी लिखते हैं, “मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है और मुझे यह भी पता है कि वह एक साम्प्रदायिक संगठन है”. गांधीजी ने यह टिप्पणी उन्हें भेजी गई एक शिकायत के बाद की थी, जिसमें एक विशिष्ट धार्मिक समुदाय के खिलाफ नारे लगाए जाने और भाषण दिए जाने की बात कही गई थी. गांधीजी को बताया गया था कि आरएसएस के स्वयंसेवकों ने कसरत के बाद इस आशय के नारे लगाए कि यह राष्ट्र केवल हिन्दुओं का है और अंग्रेजों के जाने के बाद वे गैर-हिन्दुओं को अपना गुलाम बना लेंगे. साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा किए जा रहे उपद्रवों और गुंडागर्दी पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने लिखा, “मैंने आरएसएस के बारे में कई बातें सुनी हैं. मैंने सुना है कि इन गड़बड़ियों की जड़ में आरएसएस है (गांधी, खंड 98, पृष्ठ 320-322)”.
स्वतंत्रता के बाद, दिल्ली में हुई हिंसा के संदर्भ में राजमोहन गाँधी (मोहनदास, पृष्ठ 642) लिखते हैं, “गांधीजी ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर से हिंसा में आरएसएस का हाथ होने संबंधी रपटों के बारे में पूछा. आरोपों को नकारते हुए गोलवलकर ने कहा कि आरएसएस, मुसलमानों को मारने के पक्ष में नहीं है. गांधीजी ने कहा कि वे इस बात को सार्वजनिक रूप से कहें. इस पर गोलवलकर का उत्तर था कि वे उन्हें उद्धत कर सकते हैं और गांधीजी ने उसी शाम प्रार्थना सभा में गोलवलकर द्वारा कही गई बात का हवाला दिया. उन्होंने गोलवलकर से कहा कि उन्हें इस आशय का वक्तव्य स्वयं जारी करना चाहिए. बाद में गांधीजी ने नेहरू से कहा कि उन्हें गोलवलकर की बातें बहुत विश्वसनीय नहीं लगीं.”
गांधीजी का आरएसएस के बारे में क्या आंकलन था, इसका सबसे प्रामाणिक सुबूत है उनके सचिव प्यारेलाल द्वारा दिया गया विवरण. प्यारेलाल लिखते हैं कि सन् 1946 के दंगों के बाद, गांधीजी के काफिले के एक सदस्य ने पंजाब के शरणार्थियों के लिए वाघा में बनाए गए ट्रांसिट कैंप में आरएसएस कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत करने की क्षमता की तारीफ की. इस पर गांधीजी ने कहा, “यह न भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासीवादी भी ऐसे ही थे”. गांधीजी मानते थे कि आरएसएस का दृष्टिकोण एकाधिकारवादी है और वह एक साम्प्रदायिक संस्था है (प्यारेलाल, महात्मा गांधी: द लास्ट फेज, अहमदाबाद, पृष्ठ 440).
आरएसएस यह सब केवल यह दर्शाने के लिए कर रहा है कि उसे व उसकी गतिविधियों को गांधीजी पसंद करते थे. संघ परिवार, संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद का पोषक है जबकि गांधीजी, समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद के पैरोकार थे. परन्तु फिर भी, संघ अपने समय के महानतम हिन्दू से सर्टिफिकेट चाहता है. गांधीजी निश्चित रूप से दुनिया में सबसे प्रसिद्ध भारतीय हस्ती हैं. जैसे-जैसे संघ का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, उसका प्रयास है कि वह अपने को ऐसे महान भारतीय नेताओं से जोड़े जिनकी विचारधारा उसकी सोच के विपरीत थी. वह सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस से भी स्वयं को जोड़ना चाह रहा है. यह इस तथ्य के बावजूद कि पटेल और बोस की विचारधारा, संघ की सोच से ज़रा भी मेल नहीं खाती थी. गाँधीजी, स्वाधीनता आन्दोलन के शीर्षतम नेता थे और उनकी हत्या, संघ के एक प्रचारक नाथूराम गोडसे ने की थी. गोड़से की कुत्सित हरकत, हिन्दू राष्ट्रवाद का भारतीय राष्ट्रवाद पर सुनियोजित वैचारिक हमला था.
संघ, राष्ट्रवाद का एक नया आख्यान रचना चाहता है. वह भारत के मध्यकालीन इतिहास को मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के दमन के काल के रूप में प्रस्तुत करता है. वह यह दिखाना चाहता है कि जहाँ हिन्दू धर्म, भारत का अपना है वहीं इस्लाम और ईसाई धर्म, विदेशी हैं. वह यह साबित करने के लिए भी जबरदस्त उठापटक कर रहा है कि आर्य, भारत के मूल निवासी थे. यहाँ तक कि विज्ञान और तकनीकी की हर उपलब्धि को वह प्राचीन भारत की देन बताने पर आमादा है. मूलतः वह भारत के कथित गौरवशाली हिन्दू अतीत और उस समय विद्यमान जातिगत और लैंगिक असमानता का महिमामंडन करना चाहता है. गाँधी से जुड़ने का प्रयास, इसी दिशा में एक कदम है.
पिछले कुछ वर्षों में संघ की इन वैचारिक कलाबाजियों में और तेजी आयी है. हमें गांधीजी के विचारों को विरूपण से बचाना होगा. हमें गांधीजी के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और राष्ट्र और समाज की समस्याओं को मानवीय तरीकों से सुलझाने के उनके प्रयास को प्रकाश में लाना होगा.
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
इसमें सबसे आगे हैं हिन्दू राष्ट्रवादी - विशेषकर संघ परिवार. संघ परिवार ने पहले ही गांधीजी के सांप्रदायिक सद्भाव के मूल सन्देश को किनारे कर उन्हें केवल साफ़-सफाई का प्रतीक बना कर रख दिया है. अब यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि आरएसएस के अनुशासन और उसके स्वयंसेवकों के बीच एकता से गांधीजी बहुत प्रभावित थे. संघ की वेबसाइट पर उसके मुखिया मोहन भागवत लिखते हैं, “विभाजन के तुरंत बाद के त्रासद दिनों में महात्मा गाँधी, दिल्ली में उनके निवासस्थान के नज़दीक संघ की शाखा में पहुंचे. उन्होंने स्वयंसेवकों से बात की. उनकी इस यात्रा की रपट हरिजन के 27 सितम्बर 1947 के अंक में छपी. गांधीजी ने संघ के स्वयंसेवकों के अनुशासन पर ख़ुशी जाहिर की और कहा कि उन्हें यह देख कर बहुत प्रसन्नता हुई कि स्वयंसेवकों के बीच जाति आदि की दीवारें नहीं हैं.” पहली बात तो यह है कि हरिजन के जिस अंक को भागवत ने उद्दृत किया है, वह 27 नहीं बल्कि 28 सितम्बर का है. यह उद्धरण सही है परन्तु इसकी पृष्टभूमि के बारे में भागवत कुछ नहीं बताते और ना ही वे यह बताते हैं कि गांधीजी ने इसके आगे क्या लिखा.
दरअसल, गांधीजी सन 1936 में वर्धा में जमनालाल बजाज के साथ आरएसएस की शाखा की उनकी यात्रा के बारे में बात कर रहे हैं. वे लिखते हैं कि तब से आरएसएस और बड़ा संगठन बन गया है. आगे वे कहते हैं, “परन्तु (किसी भी संगठन के) वास्तविक रूप से उपयोगी होने के लिए, बलिदान की भावना के साथ-साथ, पवित्र उद्देश्य और सच्चा ज्ञान भी ज़रूरी है. यह साबित हो चुका है कि इन दोनों के बिना, केवल बलिदान समाज को नष्ट कर देता है.” गांधीजी, मुसलमानों की शिकायतों के बाद 16 सितम्बर को इस शाखा में पहुंचे थे.
इस तथ्य से कि यह यात्रा शिकायतों के बाद की गयी थी और इस से भी कि भागवत ने गांधीजी की रपट के जिस हिस्से को उद्दृत किया है, उससे बाद उन्होंने क्या लिखा है, यह साफ़ हो जाता है कि गांधीजी, दरअसल, संघ से स्वयंसेवकों को क्या सन्देश देना चाह रहे थे.
यह पहली बार नहीं था कि उन्होंने संघ के बारे में कुछ लिखा हो. हरिजन के 9 अगस्त 1942 के अंक में गांधीजी लिखते हैं, “मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है और मुझे यह भी पता है कि वह एक साम्प्रदायिक संगठन है”. गांधीजी ने यह टिप्पणी उन्हें भेजी गई एक शिकायत के बाद की थी, जिसमें एक विशिष्ट धार्मिक समुदाय के खिलाफ नारे लगाए जाने और भाषण दिए जाने की बात कही गई थी. गांधीजी को बताया गया था कि आरएसएस के स्वयंसेवकों ने कसरत के बाद इस आशय के नारे लगाए कि यह राष्ट्र केवल हिन्दुओं का है और अंग्रेजों के जाने के बाद वे गैर-हिन्दुओं को अपना गुलाम बना लेंगे. साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा किए जा रहे उपद्रवों और गुंडागर्दी पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने लिखा, “मैंने आरएसएस के बारे में कई बातें सुनी हैं. मैंने सुना है कि इन गड़बड़ियों की जड़ में आरएसएस है (गांधी, खंड 98, पृष्ठ 320-322)”.
स्वतंत्रता के बाद, दिल्ली में हुई हिंसा के संदर्भ में राजमोहन गाँधी (मोहनदास, पृष्ठ 642) लिखते हैं, “गांधीजी ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर से हिंसा में आरएसएस का हाथ होने संबंधी रपटों के बारे में पूछा. आरोपों को नकारते हुए गोलवलकर ने कहा कि आरएसएस, मुसलमानों को मारने के पक्ष में नहीं है. गांधीजी ने कहा कि वे इस बात को सार्वजनिक रूप से कहें. इस पर गोलवलकर का उत्तर था कि वे उन्हें उद्धत कर सकते हैं और गांधीजी ने उसी शाम प्रार्थना सभा में गोलवलकर द्वारा कही गई बात का हवाला दिया. उन्होंने गोलवलकर से कहा कि उन्हें इस आशय का वक्तव्य स्वयं जारी करना चाहिए. बाद में गांधीजी ने नेहरू से कहा कि उन्हें गोलवलकर की बातें बहुत विश्वसनीय नहीं लगीं.”
गांधीजी का आरएसएस के बारे में क्या आंकलन था, इसका सबसे प्रामाणिक सुबूत है उनके सचिव प्यारेलाल द्वारा दिया गया विवरण. प्यारेलाल लिखते हैं कि सन् 1946 के दंगों के बाद, गांधीजी के काफिले के एक सदस्य ने पंजाब के शरणार्थियों के लिए वाघा में बनाए गए ट्रांसिट कैंप में आरएसएस कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत करने की क्षमता की तारीफ की. इस पर गांधीजी ने कहा, “यह न भूलो कि हिटलर के नाजी और मुसोलिनी के फासीवादी भी ऐसे ही थे”. गांधीजी मानते थे कि आरएसएस का दृष्टिकोण एकाधिकारवादी है और वह एक साम्प्रदायिक संस्था है (प्यारेलाल, महात्मा गांधी: द लास्ट फेज, अहमदाबाद, पृष्ठ 440).
आरएसएस यह सब केवल यह दर्शाने के लिए कर रहा है कि उसे व उसकी गतिविधियों को गांधीजी पसंद करते थे. संघ परिवार, संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद का पोषक है जबकि गांधीजी, समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद के पैरोकार थे. परन्तु फिर भी, संघ अपने समय के महानतम हिन्दू से सर्टिफिकेट चाहता है. गांधीजी निश्चित रूप से दुनिया में सबसे प्रसिद्ध भारतीय हस्ती हैं. जैसे-जैसे संघ का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, उसका प्रयास है कि वह अपने को ऐसे महान भारतीय नेताओं से जोड़े जिनकी विचारधारा उसकी सोच के विपरीत थी. वह सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस से भी स्वयं को जोड़ना चाह रहा है. यह इस तथ्य के बावजूद कि पटेल और बोस की विचारधारा, संघ की सोच से ज़रा भी मेल नहीं खाती थी. गाँधीजी, स्वाधीनता आन्दोलन के शीर्षतम नेता थे और उनकी हत्या, संघ के एक प्रचारक नाथूराम गोडसे ने की थी. गोड़से की कुत्सित हरकत, हिन्दू राष्ट्रवाद का भारतीय राष्ट्रवाद पर सुनियोजित वैचारिक हमला था.
संघ, राष्ट्रवाद का एक नया आख्यान रचना चाहता है. वह भारत के मध्यकालीन इतिहास को मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के दमन के काल के रूप में प्रस्तुत करता है. वह यह दिखाना चाहता है कि जहाँ हिन्दू धर्म, भारत का अपना है वहीं इस्लाम और ईसाई धर्म, विदेशी हैं. वह यह साबित करने के लिए भी जबरदस्त उठापटक कर रहा है कि आर्य, भारत के मूल निवासी थे. यहाँ तक कि विज्ञान और तकनीकी की हर उपलब्धि को वह प्राचीन भारत की देन बताने पर आमादा है. मूलतः वह भारत के कथित गौरवशाली हिन्दू अतीत और उस समय विद्यमान जातिगत और लैंगिक असमानता का महिमामंडन करना चाहता है. गाँधी से जुड़ने का प्रयास, इसी दिशा में एक कदम है.
पिछले कुछ वर्षों में संघ की इन वैचारिक कलाबाजियों में और तेजी आयी है. हमें गांधीजी के विचारों को विरूपण से बचाना होगा. हमें गांधीजी के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और राष्ट्र और समाज की समस्याओं को मानवीय तरीकों से सुलझाने के उनके प्रयास को प्रकाश में लाना होगा.
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)