लोकसभा चुनाव 2019 के डिस्कोर्स से गायब रहा वनाश्रितों का मुद्दा

Written by sabrang india | Published on: June 2, 2019
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं। रिजल्ट आ चुका है, नरेंद्र मोदी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बन गए हैं। जन विरोधी नीतियों के बावजूद मोदी को पहले से ज्यादा सीटें मिली हैं। मार्च 2019 में सबरंग इंडिया ने एक स्टडी बेस्ड स्टोरी की थी जो कि आदिवासी बाहुल्य 133 लोकसभा सीटों को लेकर थी। इन सीटों पर माना जा रहा था कि वनाधिकार कानून को लेकर मोदी सरकार की उदासीनता के कारण सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया था वह यहां प्रभावी रहेगा और नतीजे इसी हिसाब से होंगे। इन सीटों को लेकर की गई स्टडी में  लोकसभा क्षेत्रों का क्रिटिकल, हाई औऱ गुड वैल्यू के हिसाब से आंकलन किया गया था। 

दरअसल, वनाधिकार का मुद्दा इसी साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद गरमाया था। सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार कानून के तहत दावा न पेश कर पाने वाले आदिवासियों को इन इलाकों से बाहर करने का आदेश दिया था। आदिवासियों के लिए काम करने वाले संगठनों का आरोप था कि केंद्र सरकार ने उनका पक्ष प्रभावी तरीके से नहीं रखा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कई राज्यों के वनाश्रित आदिवासी, वनवासी प्रभावित हुए थे। ऐसे में माना जा रहा था कि इन 133 सीटों पर जो पार्टी वनाधिकार कानून की बात करेगी, वही यहां से फतह करेगी। उम्मीद की जा रही थी कि विपक्ष वनाश्रितों के मुद्दे की बात करेगा लेकिन रिजल्ट ने सबको चौंका दिया। इन सीटों पर चुनाव परिणामों ने बता दिया कि इस चुनाव में वनाश्रितों का मुद्दा बहस के केंद्र में ही नहीं था। 

उदाहरण के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के रॉबर्ट्सगंज सीट को देखें, जहां बिखरी हुई लड़ाई का फायदा एनडीए ले गया। यहां अपना दल (सोने लाल)-भाजपा गठबंधन के प्रत्याशी पकौड़ी लाल कोल ने जीत हासिल की। इन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी भाईलाल कोल को 54,387 मतों से हराकर जीत दर्ज किया। इस दौरान पकौड़ी लाल कोल को 4.47,691 मत, भाईलाल कोल को 3,99,3304 व तीसरे स्थान पर रहे कांग्रेस प्रत्याशी भगवती प्रसाद चौधरी को कुल 35,222 वोट मिले। सीपीआई को 17,445 वोट मिले, एवं अन्य पार्टियों को कुल मिलाकर 41,149 वोट मिले। ये सारे वोट एकत्र होकर अपना दल के प्रत्याशी को हरा सकते थे। ऐसे में विपक्षी 
पार्टियों के बिखराव की वजह से एक सीट एनडीए के खाते में चली गई।  

क्रिटिकल वैल्यू कांस्टीट्यूएंसी, परिभाषा: 
i) ये आदिवासी (ST) निर्वाचन क्षेत्र हैं जहाँ 10% से अधिक योग्य मतदाता संभावित वन अधिकार धारक हैं

ii) गैर-आदिवासी निर्वाचन क्षेत्र हैं जहाँ 60% से अधिक योग्य मतदाता भी संभावित वन अधिकार धारक हैं।

हाई वैल्यू कांस्टीट्यूएंसी, परिभाषा:
i) ये आदिवासी (एसटी) निर्वाचन क्षेत्र हैं जहाँ 10% से अधिक मतदाता संभावित वन अधिकार धारक हैं। या 

ii) गैर-आदिवासी निर्वाचन क्षेत्र हैं जहाँ 50% -60% के बीच मतदाता संभावित वन अधिकार धारक हैं।

गुड वैल्यू कांस्टीट्यूएंसी, परिभाषा: 
ये गैर एसटी निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां संभावित वन अधिकार धारक मतदाता निर्वाचन क्षेत्र में पात्र मतदाताओं की संख्या 30% -50% के बीच है।

अब इन तीनों तरह की सीटों पर जीत का आँकड़ा इस प्रकार है...

सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के विरोध में कई राज्यों के आदिवासियों ने भारत बंद का आह्वान किया था जिससे आदिवासी और वन-निवास परिवारों के बड़े पैमाने पर निष्कासन हो सकते हैं। इनकी मांगों में से प्रमुख मांग मोदी सरकार द्वारा 13 फरवरी को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के बेदखली आदेश को सही करने की तत्काल अध्यादेश की मांग थी। कांग्रेस, राजद, सपा, आप और शरद यादव की पार्टी ने बंद का समर्थन किया था। SC के आदेश को अस्थायी रूप से एक हफ्ते बाद रोक दिया गया था, मोदी सरकार द्वारा समीक्षा के लिए एक ही बेंच को स्थानांतरित करने के लिए मजबूर कर दिया गया। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 1.3 मिलियन परिवार प्रभावित होते जो वन भूमि पर रहते थे, और उसी से उनका पालन पोषण होता था।

गौरतलब है कि वन्यजीव समूहों द्वारा दायर एक जनहित याचिका ’पर इस मामले की कई वर्षों तक सुनवाई हुई थी। मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 2006 के वन अधिकार कानून को बचाने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जिसकी वजह से काफी आलोचना हुई। 2006 का एफआरए वनवासियों को अदृश्य अधिकार देने और 'अधिकारों की मान्यता' कानून के रूप में जाना जाता है। यह पहली बार था कि संविधान की Vth और VIth अनुसूचियों को वैधानिक मान्यता दी गई थी। इसलिए, गुजरात, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों जैसे आदिवासियों ने 5 मार्च को शांतिपूर्ण बंद का नेतृत्व किया। इसके साथ ही जनविरोधी नीतियों के लिए भाजपा सरकार की आलोचना भी की गई थी। इसमें भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों के भूमि अधिकारों को कमजोर करना शामिल था।

इस विरोध आदि को देखते हुए इन सीटों पर सत्तारूढ़ शासन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर देने की संभावनाएं थीं। कई सीटों पर, वन अधिकार के दृष्टिकोण से कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा सामना हुआ। हालांकि, इसमें वोट का एक हिस्सा भाजपा को चला गया। यह क्या दिखाता है? आदिवासियों और वनवासियों ने इस बात पर वोट नहीं दिया कि उनके अस्तित्व के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? यूपीए I के शासन में लाए गए 2006 के एफआरए के अपने स्वयं के मुक्तिवादी कानून के लिए कांग्रेस क्रेडिट का दावा करने में विफल रही? या वोट विभाजित हुआ?

विश्लेषण किए गए 86 निर्वाचन क्षेत्रों में से भाजपा ने 37 निर्वाचन क्षेत्रों में 2014 की तुलना में बड़े अंतर से जीत हासिल की है। अन्य 22 निर्वाचन क्षेत्रों में, 2014 की तुलना में इसका मार्जिन कम हो गया, और 28 निर्वाचन क्षेत्रों में जहां एफआरए 2006 का कुछ प्रभाव है, भाजपा के अलावा अन्य दलों ने जीत हासिल की। 

जिन क्षेत्रों में एफआरए को लेकर मूवमेंट मजबूत था वहां, या तो भाजपा हार गई या उसके विजयी मार्जिन में काफी कमी आई। इसके साथ ही विपक्ष की फूट ने बीजेपी को जीतने का मौका दिया। 

छत्तीसगढ़ का बस्तर जो कि क्रिटिकल वैल्यू चार्ट में सबसे ऊपर आता है वहां शक्ति का बीजेपी से कांग्रेस की तरफ ट्रांसफर नजर आया। यहां कांग्रेस के दीपक बैज ने बीजेपी प्रत्याशी बैदूराम कश्यप को 38982 मतों से हरा दिया। दीपक बैज को 402527 कुल मत मिले जबकि बीजेपी प्रत्याशी बैदूराम कश्यप को 363545 वोट मिला।

छत्तीसगढ़ के कोरबा निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस ने भाजपा को 26349 मतों से हराया। पिछली बार, भाजपा ने 4265 मतों के अंतर से इस सीट पर विजय हासिल की थी। 

जबकि क्रिटिकल वैल्यू वाले झारखंड के खूंटी लोकसभा क्षेत्र में बीजेपी जीत गई। हालांकि यहां जीत का मार्जिन कम हुआ है। पिछली बार बीजेपी 92248 वोटों से जीती थी जबकि इस बार सिर्फ 1445 वोटों से जीती है। अभी चुनाव से पहले ही खूंटी में पत्थलगढ़ी मूवमेंट हुआ था। चुनाव आयोग की वेबसाइट देखने पर पता चलता है कि यहां बीएसपी भाजपा की जीत में मददगार बनी। बीएसपी को यहां 7663 वोट मिले हैं जो कि जीत के मार्जिन से बहुत ज्यादा हैं। 

ओडिशा के कंधमाल ने बीजेपी की जीत के अंतर को आधा कर दिया। यहां विजयी बीजद को 49% वोट मिले, भाजपा को 33% और कांग्रेस को 14% वोट मिले। लगभग 2% वोट NOTA पर गए।

तेलंगाना के आदिलाबाद में बीजेपी 1,12100 मार्जिन से जीत गई। आदिलाबाद सीट पर भाजपा को कुल वोटों का 35% मिला, जबकि टीआरएस को 29% और कांग्रेस को 29% वोट मिले।

पश्चिम बंगाल का झारग्राम एसटी निर्वाचन क्षेत्र है। यहां भाजपा ने अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) को हराया जिसने पिछली बार जीत हासिल की थी। भाजपा की जीत का अंतर 11,767 वोट था। यहां झारग्राम में, भाजपा ने 44% वोट हासिल करके अपनी स्थिति मजबूत कर ली, जबकि TMC को 43%, CPI को 5% और INC को 1.5% वोट मिले।

महाराष्ट्र के रायगढ़ में राकांपा ने शिवसेना को 31,438 मतों से हराया। महाराष्ट्र के शिरूर में, राकांपा ने शिवसेना को 58483 मतों से हराया। MP के छिंदवाड़ा में, कांग्रेस ने अपनी पकड़ बनाए रखी लेकिन उसका वोट शेयर 116537 से घटकर 37536 हो गया।

केरल की सभी वनाधिकार संबंधित सीटों, अलथुर, पलक्कड और वायनाड पर कांग्रेस ने सीपीआई (एम) को हराया। 

झारखंड की सिंहभूम सीट जो कि एसी में थी और गुड वैल्यू कंस्टीटुएंसी में आती थी, यहां से कुपोषण के मामले में सबसे खराब रिपोर्ट आई थी। यहां कांग्रेस ने बीजेपी को 70000 वोटों से हरा दिया। 

छत्तीसगढ़ का कांकेर जो कि खनन परियोजनाओं के लिए जाना जाता है। यहां बीजेपी जीत मिली लेकिन पिछली बार 35158 वोटों के अंतर के मुकाबले इस बार 6914 वोटों से विजयी रही। कांकेर क्रिटिकल वैल्यू निर्वाचन क्षेत्र की सूची में दूसरे नंबर पर है, जिसमें लगभग 50% मतदाता मतदान के पात्र हैं।

विभिन्न स्थानों से नतीजों पर गहन चिंतन की आवश्यकता है कि भाजपा आदिवासी वोटों को कैसे सुरक्षित कर पाएगी। या फिर आदिवासियों को मतदान में चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

अपनी पारंपरिक बस्तियों के कारण कई मतदाताओं को एक्सेस की चुनौती का सामना करना पड़ा। कुछ स्थानों पर आदिवासियों ने वर्तमान शासन के दमन के कारण चुनावों का बहिष्कार करने का विकल्प चुना। एक मामला झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन की आधारशिला खूंटी था। चुनाव से पहले आदिवासियों को उज्जवला योजना के नाम पर लुभाए जाने की भी खबरें थीं। यह भी था कि कई विपक्षी दल एफआरए को अपने अभियान के एजेंडे के रूप में प्रमुखता से रखने में विफल रहे और कांग्रेस ने कानून बनाने के बावजूद 2014 और 2019 के चुनावों में खराब प्रदर्शन किया।

आदिवासियों के जमीन से बेदखल करने के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी को पर रोक लगा दी थी और इस मामले को 10 जुलाई को सुनवाई के लिए तय कर दिया था। राज्यों से कहा गया था कि दावों की अस्वीकृति के लिए प्रक्रिया क्या थी, इस पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें। जबकि रोमा जैसे मानवाधिकार रक्षकों ने तर्क दिया था कि एफआरए 2006 अस्वीकार करने के बारे में नहीं है बल्कि वन निवास समुदायों के भूमि अधिकारों को मान्यता दे रहा है। कई वन निवास समुदायों का भाग्य अभी भी बीच में लटका हुआ है और संभावित है कि अपना अधिकार बचाने के लिए एक बार फिर से संघर्ष शुरू करना पड़े। 

 

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