देश में 41 फ़ीसदी लोगों के घरों में स्नानघर की सुविधा नहीं है, जबकि ग्रामीण भारत के 25 प्रतिशत परिवारों के पास अपना अलग शौचालय नहीं है।
प्रतीकात्मक तस्वीर।
देश में अक्तूबर 2014 से आप ने स्वच्छ भारत अभियान का लाखों बार गुणगान सुना होगा। कभी चुनावों में इसके नाम पर ज़ोर-शोर से वोट मांगे गए, तो कभी देश-विदेश में इसे आज़ादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि बता कर मोदी सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई। खुले में शौच से मुक्त भारत का ऐलान कर इसे भी महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण की दिशा में एक अहम कदम बताया गया। हालांकि इन सभी वास्तविकताओं पर अनेकों बार सवाल भी उठते रहे हैं, लेकिन हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट "प्रोग्रेस ऑन हाउसहोल्ड ड्रिंकिंग वाटर, सैनिटेशन एंड हाइजीन 2000-2022" ने केंद्र सरकार के कई दावों पर गंभीर सवालिया निशान लगा दिया है।
बता दें कि इस नई रिपोर्ट के अनुसार देश में केवल 58.7 फीसदी लोगों के घरों में स्नानघर यानी बाथरूम की सुविधा उपलब्ध है जबकि 41 फीसदी लोग इससे वंचित हैं। वहीं खुले में शौच की बात करें तो रिपोर्ट बताती है कि देश में कम से कम 15 करोड़ लोग आज भी शौच के लिए खुले में जाते हैं। इतना ही नहीं, रिपोर्ट ने यह भी दावा किया है कि ग्रामीण भारत में करीब 25 प्रतिशत परिवारों के पास अपना अलग शौचालय भी नहीं है। इसके अलावा देश में केवल 52 फीसदी आबादी ही ऐसी स्वच्छता सेवाओं का उपयोग कर रही है जिनका प्रबंधन सुरक्षित तरीके से किया जा रहा है।
क्या खास है इस रिपोर्ट में?
यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ द्वारा पांच जुलाई 2023 को जारी ये रिपोर्ट बताती है कि आज भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए बाथरूम, साफ पानी और सुरक्षित सैनिटेशन सुविधा किसी लग्जरी से कम नहीं है। देखा जाए तो सालों से चलती आ रही प्रथाएं, पैसे की कमी और अन्य जरूरी मुद्दों ने इस जरूरत को उजागर ही नहीं होने दिया। देश-दुनिया में महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बीच पेयजल और स्वच्छता से जुड़े इस संकट का सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं और बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश के ये सभी मुद्दे स्वच्छता और नारी के सम्मान से जुड़े नहीं हैं? और यदि हैं तो नीति निर्माता इसके लिए कुछ करते क्यों नहीं।
इस रिपोर्ट में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट न होना भी उनके स्वास्थ्य के साथ एक खिलवाड़ बताया गया है। कॉमन वाशरूम होने के चलते वो पीरियड्स के दिनों में स्वच्छता का ख्याल नहीं रख पाती हैं। गर्भवती, विकलांग महिलाओं के लिए यह संघर्ष और तकलीफदेह है क्योंकि उन्हें वॉश से संबंधित संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ता है, बल्कि उन्हें अतिरिक्त स्वास्थ्य जोखिमों का भी सामना करना पड़ता है। अधिकतर लड़कियों और महिलाओं को जब पानी लेने या सिर्फ टॉयलेट का उपयोग करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है तो वे उत्पीड़न, हिंसा और चोट की चपेट में आ जाती हैं।
इस रिपोर्ट में ये साफ तौर से देखा जा सकता है कि भारत ने बुनियादी स्वच्छता के मुद्दे पर 2015 के बाद से अच्छी खासी प्रगति की है, 2015 से 2022 के बीच इसकी कवरेज में 21 पॉइंट का सुधार आया है। लेकिन ये प्रगति सरकार के दावों से कहीं कम है। आंकड़ों का उपलब्ध न होना भी इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों के लिए एक बड़ी समस्या है। यदि साफ और सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल की बात करें तो रिपोर्ट के अनुसार भारत में इससे जुड़े पर्याप्त आंकड़े मौजूद नहीं है। हालांकि अभी भी भारत में पानी भरने की जिम्मेवारी काफी हद तक महिलाओं और बच्चियों के कन्धों पर हैं, जिसके लिए उन्हें काफी संघर्ष तक करना पड़ता है।
भारत के साथ ही दुनियाभर में महिलाएं कर रही हैं संघर्ष
इस रिपोर्ट में न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में 2015 से 2022 के बीच पानी और स्वच्छता से जुड़े मुद्दों में आए सुधार की तस्वीर प्रस्तुत की गई है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया में करीब 220 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके घर पर स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का प्रबंध नहीं है। मतलब की दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति ऐसा है, जिसके पास सुरक्षित पेयजल की कमी है। इसी तरह करीब 340 करोड़ लोगों की सैनिटेशन तक पहुंच नहीं है। मतलब की 40 फीसदी आबादी अभी भी इससे वंचित है। आज भी दुनिया में करीब 200 करोड़ लोगों के घर पर हाथों को धोने के लिए साबुन-पानी की व्यवस्था नहीं है। वहीं आधे अरब लोग अभी भी अन्य घरों के साथ स्वच्छता सुविधाएं साझा करते हैं। दुनियाभर में महिलाएं और लड़कियां अपनी निजी स्वच्छता के लिए जगह ढूंढने में हर दिन 266 मिलियन घंटे बिताती हैं, जबकि पानी इकट्ठा करने में सामूहिक रूप से 200 मिलियन घंटे खर्च हर रोज खर्च करती हैं।
गौरतलब है कि महिलाओं के स्नानघर और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच की तस्वीर भारत के स्वच्छ भारत होने के बाद भी नहीं बदली है। विकास अन्वेष फाउंडेशन और टाटा ट्रस्ट्स इस पर पहले भी रिपोर्ट जारी कर इस सच्चाई को नीति निर्माताओं के समक्ष रख चुके हैं। कई सर्वे में ये भी खुलासा हुआ है कि सार्वजनिक तालाबों में नहाने वाली महिलाओं को अक्सर चिड़चिड़ाहट होती है। उन्हें भद्दी टिप्पणियों, यहां तक कि छेड़छाड़ का शिकार भी होना पड़ता है। नहाने से लेकर घर तक गीले कपड़ों में आने तक लोग उन्हें घूर-घूरकर देखते हैं। पहले, तालाब और नदियां बस्ती से सुरक्षित दूरी पर हुआ करती थीं लेकिन अब कुछ गांवों में राजमार्ग और सड़कें हैं जो जल श्रोतों से होकर गुजरती हैं।
वैसे मोदी सरकार ने 'स्वच्छ भारत' अभियान के तहत 2019 में ही भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन इस रिपोर्ट की मानें तो, 2022 में ग्रामीण भारत में 17 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच कर रहे थे। वहीं मौजूदा दौर की ये एक कटु सच्चाई है कि शौचालय, फिर भी स्वच्छ भारत के लिए बड़ा मुद्दा बन गया है लेकिन घरों में बाथरूम और सैनिटेशन की सुविधा पर अब तक चुप्पी ही है। शायद यह इसलिए है कि यह लोगों के लिए कोई मुद्दा नहीं है। फिलहाल स्वच्छता के बड़े-बड़े दावों के बीच समाज में जरूरत है महिलाओं की इस समस्या की ओर ध्यान देने की, तभी स्वच्छ भारत, वास्तव में स्वस्थ भारत भी बन पाएगा।
Courtesy: Newsclick
प्रतीकात्मक तस्वीर।
देश में अक्तूबर 2014 से आप ने स्वच्छ भारत अभियान का लाखों बार गुणगान सुना होगा। कभी चुनावों में इसके नाम पर ज़ोर-शोर से वोट मांगे गए, तो कभी देश-विदेश में इसे आज़ादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि बता कर मोदी सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई। खुले में शौच से मुक्त भारत का ऐलान कर इसे भी महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण की दिशा में एक अहम कदम बताया गया। हालांकि इन सभी वास्तविकताओं पर अनेकों बार सवाल भी उठते रहे हैं, लेकिन हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट "प्रोग्रेस ऑन हाउसहोल्ड ड्रिंकिंग वाटर, सैनिटेशन एंड हाइजीन 2000-2022" ने केंद्र सरकार के कई दावों पर गंभीर सवालिया निशान लगा दिया है।
बता दें कि इस नई रिपोर्ट के अनुसार देश में केवल 58.7 फीसदी लोगों के घरों में स्नानघर यानी बाथरूम की सुविधा उपलब्ध है जबकि 41 फीसदी लोग इससे वंचित हैं। वहीं खुले में शौच की बात करें तो रिपोर्ट बताती है कि देश में कम से कम 15 करोड़ लोग आज भी शौच के लिए खुले में जाते हैं। इतना ही नहीं, रिपोर्ट ने यह भी दावा किया है कि ग्रामीण भारत में करीब 25 प्रतिशत परिवारों के पास अपना अलग शौचालय भी नहीं है। इसके अलावा देश में केवल 52 फीसदी आबादी ही ऐसी स्वच्छता सेवाओं का उपयोग कर रही है जिनका प्रबंधन सुरक्षित तरीके से किया जा रहा है।
क्या खास है इस रिपोर्ट में?
यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ द्वारा पांच जुलाई 2023 को जारी ये रिपोर्ट बताती है कि आज भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए बाथरूम, साफ पानी और सुरक्षित सैनिटेशन सुविधा किसी लग्जरी से कम नहीं है। देखा जाए तो सालों से चलती आ रही प्रथाएं, पैसे की कमी और अन्य जरूरी मुद्दों ने इस जरूरत को उजागर ही नहीं होने दिया। देश-दुनिया में महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बीच पेयजल और स्वच्छता से जुड़े इस संकट का सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं और बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश के ये सभी मुद्दे स्वच्छता और नारी के सम्मान से जुड़े नहीं हैं? और यदि हैं तो नीति निर्माता इसके लिए कुछ करते क्यों नहीं।
इस रिपोर्ट में महिलाओं के लिए अलग टॉयलेट न होना भी उनके स्वास्थ्य के साथ एक खिलवाड़ बताया गया है। कॉमन वाशरूम होने के चलते वो पीरियड्स के दिनों में स्वच्छता का ख्याल नहीं रख पाती हैं। गर्भवती, विकलांग महिलाओं के लिए यह संघर्ष और तकलीफदेह है क्योंकि उन्हें वॉश से संबंधित संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ता है, बल्कि उन्हें अतिरिक्त स्वास्थ्य जोखिमों का भी सामना करना पड़ता है। अधिकतर लड़कियों और महिलाओं को जब पानी लेने या सिर्फ टॉयलेट का उपयोग करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है तो वे उत्पीड़न, हिंसा और चोट की चपेट में आ जाती हैं।
इस रिपोर्ट में ये साफ तौर से देखा जा सकता है कि भारत ने बुनियादी स्वच्छता के मुद्दे पर 2015 के बाद से अच्छी खासी प्रगति की है, 2015 से 2022 के बीच इसकी कवरेज में 21 पॉइंट का सुधार आया है। लेकिन ये प्रगति सरकार के दावों से कहीं कम है। आंकड़ों का उपलब्ध न होना भी इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों के लिए एक बड़ी समस्या है। यदि साफ और सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल की बात करें तो रिपोर्ट के अनुसार भारत में इससे जुड़े पर्याप्त आंकड़े मौजूद नहीं है। हालांकि अभी भी भारत में पानी भरने की जिम्मेवारी काफी हद तक महिलाओं और बच्चियों के कन्धों पर हैं, जिसके लिए उन्हें काफी संघर्ष तक करना पड़ता है।
भारत के साथ ही दुनियाभर में महिलाएं कर रही हैं संघर्ष
इस रिपोर्ट में न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में 2015 से 2022 के बीच पानी और स्वच्छता से जुड़े मुद्दों में आए सुधार की तस्वीर प्रस्तुत की गई है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया में करीब 220 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके घर पर स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का प्रबंध नहीं है। मतलब की दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति ऐसा है, जिसके पास सुरक्षित पेयजल की कमी है। इसी तरह करीब 340 करोड़ लोगों की सैनिटेशन तक पहुंच नहीं है। मतलब की 40 फीसदी आबादी अभी भी इससे वंचित है। आज भी दुनिया में करीब 200 करोड़ लोगों के घर पर हाथों को धोने के लिए साबुन-पानी की व्यवस्था नहीं है। वहीं आधे अरब लोग अभी भी अन्य घरों के साथ स्वच्छता सुविधाएं साझा करते हैं। दुनियाभर में महिलाएं और लड़कियां अपनी निजी स्वच्छता के लिए जगह ढूंढने में हर दिन 266 मिलियन घंटे बिताती हैं, जबकि पानी इकट्ठा करने में सामूहिक रूप से 200 मिलियन घंटे खर्च हर रोज खर्च करती हैं।
गौरतलब है कि महिलाओं के स्नानघर और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच की तस्वीर भारत के स्वच्छ भारत होने के बाद भी नहीं बदली है। विकास अन्वेष फाउंडेशन और टाटा ट्रस्ट्स इस पर पहले भी रिपोर्ट जारी कर इस सच्चाई को नीति निर्माताओं के समक्ष रख चुके हैं। कई सर्वे में ये भी खुलासा हुआ है कि सार्वजनिक तालाबों में नहाने वाली महिलाओं को अक्सर चिड़चिड़ाहट होती है। उन्हें भद्दी टिप्पणियों, यहां तक कि छेड़छाड़ का शिकार भी होना पड़ता है। नहाने से लेकर घर तक गीले कपड़ों में आने तक लोग उन्हें घूर-घूरकर देखते हैं। पहले, तालाब और नदियां बस्ती से सुरक्षित दूरी पर हुआ करती थीं लेकिन अब कुछ गांवों में राजमार्ग और सड़कें हैं जो जल श्रोतों से होकर गुजरती हैं।
वैसे मोदी सरकार ने 'स्वच्छ भारत' अभियान के तहत 2019 में ही भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन इस रिपोर्ट की मानें तो, 2022 में ग्रामीण भारत में 17 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच कर रहे थे। वहीं मौजूदा दौर की ये एक कटु सच्चाई है कि शौचालय, फिर भी स्वच्छ भारत के लिए बड़ा मुद्दा बन गया है लेकिन घरों में बाथरूम और सैनिटेशन की सुविधा पर अब तक चुप्पी ही है। शायद यह इसलिए है कि यह लोगों के लिए कोई मुद्दा नहीं है। फिलहाल स्वच्छता के बड़े-बड़े दावों के बीच समाज में जरूरत है महिलाओं की इस समस्या की ओर ध्यान देने की, तभी स्वच्छ भारत, वास्तव में स्वस्थ भारत भी बन पाएगा।
Courtesy: Newsclick