दीवाली / जश्न ए चिरागां मुबारक

Written by Dr. Mohammad Arif | Published on: November 14, 2020
अबसे एक दशक पहले और मुगल काल में जिस उत्साह से हिंदू-मुस्लिम एक दूसरे के त्यौहारों पर मेल-मिलाप कर भाईचारे, सांप्रदायिक व धार्मिक सौहार्द्र का परिचय देकर मनाते थे, अब उसकी खासी कमी दिखाई देती है। देश में त्यौहारों पर जिस तरह का गैर वाजिब माहौल बनता जा रहा है उसे देखते हुए रह-रह कर दिल में यही सवाल उठता है कि क्या कालातंर में भी हिंदू- मुस्लिम अपने-अपने त्यौहारों पर इसी तरह की धार्मिक कट्टरता के साथ त्यौहार मनाते थे या सभी कटुताएं भूल कर एक दूसरे से मिलजुल कर त्यौहारों की खुशियों में एक दूसरे से गले मिलते थे।


         
गर हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो पाएंगे कि मुगलकाल में हिंदू और मुस्लिम त्योहार खूब उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे। अनेक हिंदू त्योहार मसलन दिवाली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुगलों ने राजकीय मान्यता दे रखी थी। इनके राज में खासतौर से दिवाली पर एक अलग ही रौनक होती थी। तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन का दौर चल पड़ता था। ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान चढ़ने लगती थीं। दीयों की रोशनी से समूचा राजमहल जगमगाने लगता था। राजमहल को इस मौके के लिए खासतौर पर सजाया-संवारा जाता था।
        
देखा जाए तो सदियों से हमारे देश की अवाम व राजाओं का त्यौहार मनाने का मिजाज कुछ ऐसा ही रहा है। जिस भी शासक ने सांप्रदायिक व धार्मिक सौहार्द्र का परिचय देकर सामंजस्यपूर्ण व सहअस्तित्व की भावना से शासन चलाया है, उसे देशवासियों का भी भरपूर प्यार मिला है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि वे शासक देशवासियों के प्यार के बदौलत ही भारत पर वर्षों राज कर पाए हैं। मुगलकाल में औरंगजेब को यदि छोड़ दें, तो सारे के सारे मुगल शहंशाह सामंजस्यपूर्ण व सहअस्तित्व पर ही यकीन रखते थे। इनने कभी मजहब के साथ सियासत का घालमेल नहीं किया और न ही इसमें विश्वास रखा। सबने अपनी हुकूमत में हमेशा ही उदारवादी तौर-तरीके अपनाए। वे शायद इसी वजह से भारत पर लंबे समय तक राज कर पाए। मुगलों की हुकूमत के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता अपना धर्म पालन करने तक सीमित नहीं थी, बल्कि इस हुकूमत में एक ऐसा नया माहौल बनाया गया था जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले एक-दूसरे की खुशियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।
        
काबिलेगौर हो कि मुगल शासक बाबर ने दिवाली के त्योहार को ‘एक खुशी का मौका’ के तौर पर मान्यता प्रदान की थी। वे खुद दीपावली को जोश-ओ-खरोश से मनाया करते थे। इस दिन पूरे महल को दुल्हन की तरह सजा कर कई पंक्तियों में लाखों दीप प्रज्वलित किए जाते थे। इस खुशनुमा पर्व के मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नए कपड़े और मिठाइयां भेंट किया करते थे।
       
बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को भी दिवाली के जश्न में शामिल होने की समझाइश दी थी। बाबर के उत्तराधिकारी के तौर पर हुमायूं ने न सिर्फ इस परंपरा को बरकरार रखा, बल्कि इसमें और दिलचस्पी लेकर इसे खुशनुमा बना कर और आगे बढ़ाया।
            
कहने का मतलब है कि हुमायूं भी दीपावली के पर्व को हर्षोल्लास से मनाते थे। इस मौके पर वे महल में महालक्ष्मी के साथ दीगर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा भी करवाते थे। पूजापाठ के बाद वे परोकार के कार्यों को अंजाम देते हुए गरीब अवाम को सोने के सिक्के उपहार में भेंट करते थे। लक्ष्मी-पूजा के दौरान एक विशाल मैदान में इसके बाद आतिशबाजी की जाती थी। इस आतिशबाजी में 101 तोपें भी चलतीं थी। इसके ठीक बाद हुमायूं शहर में रोशनी देखने के लिए निकल जाते थे। बताते चलूं कि ‘तुलादान‘ की हिंदू परंपरा में भी हुमायूं की खासी दिलचस्पी थी।
                 
शहंशाह अकबर के शासनकाल में पूरे देश के अंदर गंगा-जमुनी तहजीब और परवान चढ़ी। अकबर भी इस्लाम के साथ-साथ सभी दूसरे धर्मों को अहमियत देकर सम्मान करते थे। जहांगीर ने अकबर के अनुसार अपने तुजुक यानी जीवनी में लिखा है कि-
          
‘अकबर ने हिंदुस्तान के रीति-रिवाज को आरंभ से सिर्फ ऐसे ही स्वीकार कर लिया जैसे दूसरे देश का ताजा मेवा या नए मुल्क का नया सिगार या यह कि अपने प्यारों और प्यार करने वालों की हर बात प्यारी लगती है।’
           
एक लिहाज से देखें, तो अकबर ने भारत में राजनीतिक एकता ही नहीं, सांस्कृतिक समन्वय का भी सराहनीय काम किया। इसीलिए इतिहास में उन्हें अकबर महान के रूप में याद किया जाता है।
      
अकबर ने अपनी सल्तनत में अनेक समुदायों के कई त्योहारों को शासकीय अवकाश की फेहरिस्त में शामिल किया था। हरेक त्योहार में खास तरह के आयोजन होते थे। अकबर इन त्यौहारों पर शासकीय खजाने को खोलकर जनता को दिल से अनुदान दिया करते थे। इनके राज में दिवाली मनाने की शुरुआत दशहरे से ही हो जाती थी। दशहरा पर्व पर शाही घोड़ों और हाथियों के साथ व्यूह रचना तैयार कर सुसज्जित छतरी के साथ जुलूस निकाला जाता रहा है।
   
राहुल सांकृत्यायन, जिन्होंने हिंदी में अकबर की एक जीवनी लिखी है, वे इस किताब में लिखते हैं-
”अकबर दशहरा उत्सव बड़े ही शानों-शौकत से मनाते थे। ब्राह्मणों से पूजा करवाना, माथे पर टीका लगाना, मोती-जवाहरात से जड़ी राखी हाथ में बांधना, अपने हाथ पर बाज बैठाना उनकी आदत में शुमार रहा है। किलों के बुर्जों पर शराब रखी जाती थी। गोया कि सारा दरबार इसी रंग में रंग जाता।”
        
अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी मशहूर किताब ‘आईन-ए-अकबरी‘ में शहंशाह अकबर के दीपावली पर्व मनाए जाने का तफसील से जिक्र किया है। वे लिखते है कि अकबर दिवाली की सांझ अपने पूरे राज्य में मुंडेरों पर दीये प्रज्वलित करवाते। महल की सबसे लंबी मीनार पर बीस गज लंबे बांस पर कंदील लटकाए जाते थे। यही नहीं, महल में पूजा दरबार आयोजित किया जाता था। इस मौके पर संपूर्ण साज-सज्जा कर दो गायों को कौड़िय़ों की माला गले में पहनाई जाती और ब्राह्मण उन्हें शाही बाग में लेकर आते। ब्राह्मण जब शहंशाह को आशीर्वाद प्रदान करते, तब शहंशाह खुश होकर उन्हें मूल्यवान उपहार प्रदान करते।
         
आज भले ही कश्मीर में दीवाली के त्यौहार पर सन्नाटा छाया हो या वहां का माहौल मातम सा हो, लेकिन अकबर के राज में वहां दीवाली का त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता था।

इस बात का जिक्र करते हुए अबुल फजल अपनी किताब में लिखते हैं कि, जब शहंशाह कश्मीर में थे तब वहां भी व्यापक स्तर पर त्यौहार मनाया गया था। इस संबंध में अबुल फजल लिखते हैं कि-
”दीपावली पर्व जोश-खरोश से मनाया गया। हुक्मनामा जारी कर नौकाओं, नदी-तट और घरों की छतों पर प्रज्वलित किए गए दीपों से सारा माहौल रोशन और भव्य लग रहा था।”
       
दिवाली के दौरान शहजादे और दरबारियों को राजमहल में जुआ खेलने की भी इजाजत होती थी। जैसा कि सब जानते हैं कि दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा होती है। मुगलकाल में गोवर्धन पूजा बड़ी श्रद्धा के साथ होती थी। यह दिन गोसेवा के लिए निर्धारित होता है। आज भले ही गायों के संरक्षण को लेकर आम गरीब दलित और मुस्लिम के साथ मारकाट मची हो, लेकिन मुगलकाल में गोवर्धन पूजा पर गायों को अच्छी तरह नहला-धुला कर, सजा-संवार कर उनकी पूजा की जाती थी। शहंशाह अकबर खुद इन समारोहों में शामिल होते थे और अनेक सुसज्जित गायों को उनके सामने लाया जाता था।
              
अब हम बात करते है जहांगीर के शासनकाल में मनाई जाने वाली दिवाली की। जहांगीर के शासनकाल में भी दिवाली के अलग ही रंग थे। वे भी दिवाली मनाने में अकबर से कमतर नहीं थे। किताब ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ के मुताबिक साल 1613 से 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनवाई। वे अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाते थे। इस मौके पर शहंशाह जहांगीर अपने हिंदू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करते थे। इसके बाद फकीरों को नए कपड़े व मिठाइयां बांटी जाती थी।

खुशियों के इस पर्व पर इतना ही नहीं होता था। आसमान में इकहत्तर तोपें भी दागी जातीं थी, इसके साथ आतिशबाजी में बड़े-बड़े पटाखे चलाए जाते थे।

सनद रहे कि अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के शासनकाल में भी दिवाली बदस्तूर मनाई जाती रही। जहांगीर दिवाली के दिन को शुभ मानकर चौसर जरूर खेलते थे। इस दिन राजमहल को खासतौर से मुख्तलिफ तरह की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था।
जहांगीर रात में अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का मजा लेने भी निकलते थे।

मुगल बादशाह शाहजहां जितनी शान-ओ-शौकत के साथ ईद मनाते थे ठीक उसी तरह दीपावली भी। दीपावली पर किला रोशनी में नहा जाता और किले के अंदर स्थित मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। इस मौके पर शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और अपनी रिआया में मिठाई बंटवाते थे।

शाहजहां के बेटे दारा शिकोह ने भी इस परंपरा को इसी तरह से जिंदा रखा। दारा शिकोह इस त्योहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते और अपने नौकरों को बख्शीश बांटते।

किताब ‘तुजुके जहांगीरी’ में दीपावली पर्व की भव्यता और रौनक तफसील से बयां है।
मुगल वंश के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर का दिवाली मनाने का अंदाज ही जुदा था। उनकी दिवाली तीन दिन पहले से शुरू हो जाती थी। दिवाली के दिन वे तराजू के एक पलड़े में बैठते और दूसरा पलड़ा सोने-चांदी से भर दिया जाता था। तुलादान के बाद यह धन-दौलत गरीबों को दान कर दी जाती थी। तुलादान की रस्म-अदायगी के बाद किले पर रोशनी की जाती। कहार खील-बतीशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर-घर जाकर बांटते। गोवर्धन पूजा जब आती, तो इस दिन दिल्ली की रिआया अपने गाय-बैलों को मेंहदी लगा कर और उनके गले में शंख और घुंघरू बांध कर जफर के सामने पेश करते। जफर उन्हें इनाम देते और मिठाई खिलाते।

मुगल शहंशाह ही नहीं, बंगाल तथा अवध के नवाब भी दिवाली शाही अंदाज में मनाते थे। अवध के नवाब तो दीप पर्व आने के सात दिन पहले ही अपने तमाम महलों की विशेष साफ-सफाई करवाते। महलों को दुल्हन की तरह सजाया जाता। महलों के चारों ओर तोरणद्वार बना कर खास तरीके से दीप प्रज्वलित किए जाते थे। बाद में नवाब खुद अपनी प्रजा के बीच में जाकर दिवाली की मुबारकबाद दिया करते थे।

उत्तरी राज्यों में ही नहीं, दक्षिणी राज्यों में भी हिंदू त्योहारों पर उमंग और उत्साह कहीं कम नहीं दिखाई देता था। मैसूर में तो दशहरा हमेशा से ही जबर्दस्त धूमधाम से मनाया जाता रहा है। हैदर अली और टीपू सुल्तान, दोनों ही विजयदशमी पर्व के समारोहों में हिस्सा लेकर अपनी प्रजा को आशीष दिया करते थे। मुगल शासकों ने भी दशहरा पर्व पर भोज देने की परंपरा कायम रखी।
समुदायों के छोटे-से कट्टरपंथी तबके को छोड़ सभी एक-दूसरे के त्योहारों में बगैर हिचकिचाहट भागीदार बनते थे। दोनों समुदाय अपने मेलों, भोज व त्योहार को एक साथ मनाते थे। दिवाली का पर्व न केवल दरबार में पूरे जोश-खरोश से मनाया जाता बल्कि आम लोग भी उत्साहपूर्वक इसका आनंद लेते थे। दिवाली पर ग्रामीण इलाकों के मुसलिम अपनी झोंपडिय़ों व घरों में रोशनाई करते तथा जुआ खेलते रहे है। वहीं मुस्लिम महिलाएं इस दिन अपनी बहनों और बेटियों को लाल चावल से भरे घड़े उपहार में भेजती थी। इसके अलावा भी वे दिवाली से जुड़ी सभी रस्मों को पूरा करती रही है। इसका मतलब साफ है कि कालातंर में हिंदुओं के त्यौहार मुस्लिम समुदाय भी व्यापक स्तर पर मनाते थे।

आज हिंदुओं और मुसलमानों में दूरियां क्यूं बन गई हैं। अब क्यों नहीं मुस्लिम वर्ग हिंदूओं के तीज-त्योहार व पर्वों पर हर्षोल्लास के साथ शामिल होते है। या मुस्लिमों के तीज-त्यौहार पर हिंदू शामिल नहीं होते हैं। इस पर विचार करना होगा। क्या वर्तमान शासक भी मुगल राजाओं की तरह हिंदू- मुस्लिम पर्वों पर सांप्रदायिक सौहार्द बनाने का काम नहीं कर सकते है, ताकि फिर से दिवाली पर्व को हिंदू- मुस्लिम की कुंठित और संकुचित मानसिकता के दायरे से बाहर निकल कर फिर से सब हिल-मिल कर मनाने लगे। वैसे तो देश के इस वजीरे आजम से इस तरह के सांप्रदायिक सौहार्द की अपेक्षा नहीं की जा सकती है लेकिन फिर भी देश के अवाम की शांति और खुशहाली के लिए इस तरह की पहल की खासी जरूरत है।
(
बुनियादी तौर पर यह लेख संजय रोकड़े, हस्तक्षेप डॉट कॉम, रुचिरा वर्मा, एस वी स्मिथ और तमाम समकालीन स्रोतों पर आधारित है)
Disclaimer: 
Diwali, Jashn E Chiragan

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