प्रवासी मजदूरों की डायरी: ''हाथ में काम नहीं, आगे क्या होगा पता नहीं''

Written by CJP Team | Published on: June 12, 2020
कोरोनावायरस संक्रमण को काबू करने के लिए लगे लॉकडाउन ने पूरे देश में अफरातफरी मचा दी है। इस लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों की जैसी दुर्दशा की है, उसके हृदय विदारक दृश्य पूरे देश में दिख रहे हैं।



प्रवासी मजदूर शब्द में वे लाखों-करोड़ों लोग छिपे हुए हैं, जिनके पास लॉकडाउन के दौरान घर पहुंचने की जद्दोजहद से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्षों की अनगिनत कहानियां हैं। छोटी-छोटी खुशियों और लगातार बने रहने वाले डर की कहानियां भी उनमें शामिल हैं।

जब ऐसी कहानियों को ब्योरे खुलते हैं और ऐसी त्रासदियों के बीच पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की तस्वीर सामने आती है तब पता चलता है कि आपदाओं की असल तकलीफें क्या हैं?

कोरोनावायरस संक्रमण को काबू करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के बाद बीते अप्रैल महीनेमें सीजेपी (सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस) को फोन करकुछ लोगों ने मदद मांगी थी। वे टिंकू शेख और उनके साथी थे। सीजेपी ने टिंकू और उनके पांच साथी कामगारों तक तुरंत राशन किट पहुंचाए।

इस बीच, अंतरराज्यीय यात्रा की इजाजत मिलते ही टिंकूपश्चिम बंगाल में अपने घर लौट गए। अब वे अपने होम-क्वॉरन्टीन के आखिरी दौर में हैं। उन्होंने बताया लॉकडाउन के दौरान उनके साथ क्या बीती थी। आइए सुनते हैं उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी-

टिंकू शेख बताते हैं, “हम 63 लोग थे। चार दिन और चार रात हम लगातार छह टायरों वाले खुले ट्रक में यात्रा करते रहे। अपनी इस यात्रा के बारे में ब्योरा देते हुए शेख कहते हैं, “मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ ठाणे के कपूरवाड़ी से चला था, छह चक्के वाले खुले ट्रक में। इस खुले ट्रक से सफर कर हम पश्चिम बंगाल के रामपुरहाट में स्थित अपने घर, चार रात और चार दिन में पहुंचे।”



शेख बताते हैं, “ट्रक में इतने लोगों के लिए जगह नहीं थी। हम बारी-बारी से बैठते और उठते थे ताकि सबके लिए जगह बन सके। हालत ये थी कि रात को एक केऊपर एक सोना पड़ता था। हमने ट्रक के ऊपर एक तार बांध कर अपने बैग लटका रखे थे।

घर में 27 साल के शेख की पत्नी और चार साल की बेटी है। उनके माता-पिता बंगाल में रहते हैं। शेख ने कहा, “अगर अभाव नहीं होता तो हम अपने मां-बाप का घर और अपनी जमीन में रहने का सुकून क्यों छोड़ते।”वे बताते हैं कि उनके परिवार के पास कभी पर्याप्त जमीन नहीं रही। जो भी थोड़ी-बहुत थी वह उनके पिता और तीन चाचाओं के बीच बंट गई।

शेख की पत्नी बीमार हैं। रीढ़ में तकलीफकी वजह से वह काम नहीं कर सकतीं। शेख बताते हैं, “रीढ़ की इस बीमारी के इलाज के लिए मैं उसे वर्दवान ले गया, जहां डॉक्टरों ने कह दिया कि यह ठीक नहीं हो सकती। इसके बाद मैं उसे बेंगलुरू के साईं बाबा अस्पताल ले गया। वहां भी डॉक्टरों ने यही कहा। हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि उसे सुपर स्पेशयलिटी अस्पताल ले जाऊं।” शेख ने उन हालातों के बारे में बताया, जिनकी वजह से वह काम की तलाश में घर से बाहर निकले थे।

शेख पिछले नौ साल से मुंबई आ रहे हैं। वे कंस्ट्रक्शन साइटों पर राजमिस्त्री का काम करते हैं। अपने एक हालिया प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, “आम तौर हम ‘कंपनियों’ के लिए काम करते हैं। पहली बार मैं किसी प्राइवेट पार्टी के लिए काम कर रहा था।”

शेख ने ठाणे के कई नामी-गिरामी बिल्डरों की कंस्ट्रक्शन साइटों पर काम किया है। वह कहते हैं,“मैं लगातार छह महीने तक काम करता हूं और फिर कुछ महीनों के लिए घर आ जाता हूं। इसके बाद फिर मुंबई लौट कर कुछ महीनों के लिए काम करता हूं।मेरे काम का यही सिस्टम है।’’

शेख कहते हैं, “मुंबई में मैं जब काम करता हूं तो हर दिन 500-600 रुपये तक कमाता हूं। बीरभूम में इस काम के 200-300 रुपये मिलते हैं।” अपनी हाड़तोड़ मेहनत से अपने परिवार और बच्चों का गुजारा चलाने वाले शेख कहते हैं, “हम कोलकाता के बजाय मुंबई जाते हैं, क्योंकि हमारे वहां अच्छे संपर्क हैं।कोलकाता में मैं किसी को नहीं जानता। मुंबई में मैं 15 से 20 हजार रुपये के बीच कमा लेता हूं। इनमें से दस हजार रुपये मैं घर भेज देता हूं। बाकी मुझे मुंबई में घर के किराये और खर्चे के लिए चाहिए होते हैं। लेकिन इस लॉकडाउन ने मेरे 30-40 हजार बरबाद कर दिए। मुझे पता नहीं कि इसकी भरपाई कभी कर भी पाऊंगा या नहीं।”

इस साल शेख अपने घर से 19 फरवरी को मुंबई आए थे। लॉकडाउन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं, “अभी हमने थोड़ी राहत की सांस ली ही थी कि अचानक लॉकडाउन का ऐलान हो गया। हम छह लोग गिरगांव के एक चाल में रहते थे। हमारा काम बिल्कुल रुक गया। हमारे पास दिन भर डेरे पर बैठे रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था।”

शेख बताते हैं, “जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, हमें भुखमरी का डर सताने लगा। खाने के लिए कुछ भी नहीं था। सब कुछ बंद था। हताशा में मैंने समीरुल दा (बांग्ला संस्कृति मंच से जुड़े) से संपर्क किया। कुछ ही दिनों के अंदर हमें सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (Citizen for Justice and Peace- CJP) की ओर राशन दे दिया गया।” शेख दिल से सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस के आभारी हैं। “मैं अब भी तीस्ता मैडम (तीस्ता सीतलवाड़, सेक्रेट्री- सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस) को फोन कर उनकी खोज-खबर लेता हूं।” शेख भावुक होकर कहते हैं, “मुसीबत के वक्त उन्होंने हमारे लिए जो किया उसे मैं कभी नहीं भूल सकता।इसके लिए मैं उन्हें तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूं।”

मुंबई में लॉकडाउन के बढ़ने के साथ ही शेख उनके दोस्त और साथी कामगार घर लौटने के लिए बेचैन होने लगे। शेख कहते हैं, “जब हमनेसुना कि लोगों को उनके राज्यों में ले जाने के लिए बसें चल रही हैं, तो हम स्थानीय पुलिस स्टेशन पहुंचे। लेकिन पुलिस ने कहा कि उन्हें पश्चिम बंगाल सरकार से जरूरी क्लयिरेंस नहीं मिला है।तब तो ट्रेनें भी नहीं चल रही थीं।हमें पतानहीं चल पा रहा था कि क्या करें।”इसके बाद चीजें और खराब होने लगीं। अनिश्चितता की वजह से अब हमारी जिंदगियों के सामने खतरा साफ दिख रहा था। शेख बताते हैं, “एक रात हमारे पड़ोस के कुछ लोगों ने हमें धमकी दी।” उन्होंने कहा, “अगर तुममें से कोई भी कोरोनावायरस से संक्रमित हुआ तो किसी को नहीं छोड़ेंगे। हम तुम सभी को जिंदा दफन कर देंगे।”उन्होंने दारू पी रखी थी। “उस रात हमने तय कर लिया कि चाहे जो हो जाए यह जगह छोड़नी होगी। शेख की आवाज में अब भी उस धमकी का असर दिख रहा था। उनकी आवाज में हल्की कंपकपाहट थी।”

हममें से एक के जानने वाले ने एक ट्रक किराये पर लेने में मदद की। अगर हम अपने जैसे 60 लोगों को जुटा लेते तो हरेक को घर पहुंचने के लिए 4200 रुपये लगते। हम कुल मिला कर 63 लोग इकट्ठा हुए और हमने किराये पर ट्रक किया। घर जाने के दिन हमने सुबह सवेरेनल बाजार से अपनी यात्रा की शुरुआत की। लेकिन हमारी मुसीबत तो अब शुरू हुई थी। हमें यहां सिर्फ एक मात्र टैक्सी वाला मिला। वह प्रति पैसेंजर 1200 रुपये मांग रहा था। हम छह लोग थे। हमने मना कर दिया। फिर हमारे संपर्क के एक शख्स ने दो प्राइवेट टैक्सियां बुलवा दी। टैक्सी वालों ने हरेक सीट के पांच-पांच सौ रुपये लिये। लेकिन एरोली स्टेशनके बाहर हमें पुलिस ने रोक लिया। हमें वहीं उन कारों को छोड़ देना पड़ा। शेख ऐसी दुनिया के बारे में बता रहे थे, जहां हर चीज गलत हो सकती थी और वास्तव में हो भी रही थी।

अब हमारी गाड़ी पकड़ने की जगह बदल चुकी थी। हमें अब ठाणे में कपूरवाड़ी से गाड़ी पकड़नी थी। एक टैक्सी वाले ने हरेक से सौ-सौ रुपये लेकर माजीवाड़ा छोड़ दिया। हम दोपहर 12 बजे वहां पहुंचे। कुछ लोग वहां पका हुआ खाना, पानी और बिस्कुट बांट रहे थे। हम वहीं रुक गए और ट्रक का इंतजार करने लगे। रात तीन बजे ट्रक पहुंचा।

किस्मत अच्छी थी कि पूरे रास्ते खाने की कोई दिक्कत नहीं हुई। खास कर महाराष्ट्र में रास्ते में कोई न कोई खाना बांट रहा था। सिर्फ पश्चिम बंगाल में हमें कुछ नहीं मिला। यह अजीब यात्रा थी। रास्ते में कोई ढाबा या दुकाने नहीं खुली थीं। हालांकि दो जगहों पर हमें पुलिस ने रोका लेकिन हमनेउन्हें कारण बताया तो जाने दिया।

लेकिन शेख और उनके दोस्त अकेले नहीं थे, जो अपने-घरों को जाने के लिए यह कठिन यात्रा कर रहे थे। शेख बताते हैं, “हमारा ड्राइवर ट्रक धीरे चला रहा था। दूसरे ट्रक उसे आसानी से ओवरटेक कर ले रहे थे। हमने देखा कि वे भी पूरी तरह लोगों से भरे थे। हम बता नहीं सकते कि हमने कितने ट्रक देखें होंगे। हमारे आगे और पीछे मीलों दूर तक ट्रक भरे पड़े थे। हर दिन मिल रही सड़क हादसों की खबरों से हममें खौफ भर गया था। हमने यह भी सुना कि कुछ इलाकों की सड़कें बेहद खराब हैं।”

साफ है कि सोशल डिस्टेंस तो शेख और उनके दोस्तों के लिए विलासिता की चीज थी। इसलिए इसके पालन का सवाल ही नहीं उठता। शेख से जब पूछा कि कोरोनायरस से संक्रमित होने का डर नहीं लगा? इस पर उन्होंने कहा, “हमने मास्क पहन रखा था। लेकिन हम गरीब लोग हैं। हम डर कर नहीं रह सकते। सिर्फ धनी लोग ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अपने घरों में बंद रह सकते हैं।मुझे डर लग रहा था। मैंने वायरस के बारे में सुना था। लेकिन मैं क्या कर सकता था? मुझे तो किसी तरह घर पहुंचना था।”

बंगाल बॉर्डर पर पुलिस ने उन्हें एक बार फिर सेरोक लिया। शेख बताते हैं, “हमें पुलिस ने रोक लिया और एक किसान मंडी में ले जाकर घुसा दिया। वहां हमारे शरीर का तापमान लिया गया। सभी के नाम, पता और आधार कार्ड नंबर नोट किए गए। वहां हम कई घंटे रहे। लेकिन खाना नहीं दिया गया। सिर्फ थोड़ी मुढ़ी (मुरमुरा) और पानी मिला। इससे हमें गुस्सा आ गया और हमने पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया। इसके बाद हमें छोड़ दिया गया।”

शेख ने बताया, “गांव में हमें पंचायत के एक स्कूल में क्वॉरन्टीन किया गया। लेकिन उसकी स्थिति बेहद खराब थी। स्कूल के अंदर भारी गर्मी थी। इससे परेशान होकर रात को कई लोग वहां से अपने घर भाग गए। लेकिन दिन में कुछ गांव वाले स्कूल के बाहर जमा होकर हंगामा करने लगे। जो लोग स्कूल से भागे थे, उन्हें वापस लाया गया। मैं गांव से कुछ दूर रहता हूं इसलिए मेरे पास कोई नहीं आया। मैंने घर में ही एक कमरे में खुद को आइसोलेट किया हुआ है। 12 दिन हो गए हैं।”शेख अब अपनों के बीच हैं। उन लोगों के बीच जो उनका ख्याल रखते हैं।

शेख महसूस करते हैं कि राजनीतिक नेताओं ने उन्हें धोखा दिया है। वह कहते हैं, “घर के लिए निकले हम लोग पूरे सफर भर इसी पर चर्चा करते रहे कि किसी ने हमारी मदद नहीं की। न राज्य सरकार ने और न हीकेंद्र सरकार ने। जब ऐसी बड़ी आपदा आई तो कोई राजनेता हमारे लिए खड़ा नहीं हुआ। हमने घर लौटने के लिए इतना सारा पैसा खर्च किया। पिछले कुछ महीनों से एक पैसा भी नहीं कमाया। इसकी भरपाई कौन करेगा? यह किसकी गलती है।”शेख ये बातें करते हुए गुस्से से तमतमा जाते हैं।उनके अंदर गुस्सा उबल रहा है।

नेताओं की लानत-मलामत करते हुए वह कहते हैं,  “इन लोगों को सिर्फ हम पर जोर चलाने और वसूली करना आता है।हमें जब मदद की जरूरत पड़ती है तो इनसे एक पैसे की सहायता नहीं मिलती।” शेख आखिर में इन सब चीजों के लिए सिस्टम को दोषी ठहराते हैं।

शेख पूछते हैं, “अब आगे क्या होगा? यहां हमारे लिए कोई काम नहीं है। मैंने सुना है कि गांव में मनरेगा का काम शुरू हुआ है लेकिन मेरे पास जॉब कार्ड नहीं है। लॉकडाउन की वजह से सरकारी दफ्तर भी बंद हैं।मनरेगा का काम भी अब मुझे कैसे मिलेगा।” मुझे नहीं पता कि कहां से पैसा आएगा, अपने परिवार का पेट मैं कैसे भरूंगा? अगर लॉकडाउन चलता रहा तो गरीब लोग भूखे मर जाएंगे।”टिंकू शेख को लगता है कि उनकी मुश्किलें अभी कम नहीं होंगी,उनके भविष्य पर अभी भी अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं।

मूल खबर : सीजेपी

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