कोरोना महामारी के मारे मजदूर और बिना जवाब वाले सवाल

Written by Navnish Kumar | Published on: September 5, 2020
कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने हर तबके को चोट पहुंचाई है। लेकिन मजदूरों का तो जीना ही दूभर कर दिया है। करें भी तो क्या करें, पहले हफ़्तों तक तमाम कष्ट और दुश्वारियां झेलते हुए, शहरों-महानगरों से गांव गए और अब वापसी में भी जद्दोजहद कम नहीं हो सकीं हैं। गांव जाते हुए लंबी लाइनों और कोरेन्टीन सेंटरों का जो एक दौर चला हैं वो वापसी में भी जारी है। 



हालांकि लॉकडाउन में ढील के बावजूद शहरों में कारोबार अभी सामान्य नहीं हुआ है। उसके बावजूद वापस गए मजदूर शहरों को लौटने को मजबूर हैं। गांवों में सीमित विकल्पों के चलते उन्हें वापस शहर लौटना पड़ रहा है। जबकि हकीकत में देश में कोरोना का कहर बढ़ता ही जा रहा है। कोरोना का प्रसार रोकने को 5 माह पहले देश में लॉक डाउन लगाया गया था। जरूरी सेवाओं को छोड़कर सब कुछ बंद कर दिया गया था। तब शहर में रहकर काम करने वाले लोगों के सामने रोजगार का संकट पैदा हुआ। ऊपर से खाने और रहने (किराया) आदि दिक्कतों के चलते गांव का रुख किया। उनके पैदल नंगे पांव और ट्रक व टैंकरों में लदकर-छुपकर जाने की तस्वीरें सभी ने देखीं। 

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, चालू वित्त वर्ष के पहले 5 महीनों (लॉक डाउन) में मनरेगा में 83 लाख से अधिक नए परिवारों के जॉबकार्ड जारी होना, गांव स्तर पर रोजगार के साधनों की स्थिति दिखाने-बताने को पर्याप्त हैं। नए जॉब कार्डों में सर्वाधिक उप्र में 21 लाख से भी ज्यादा कार्ड बने हैं। बिहार में 11.2 लाख, पश्चिम बंगाल में 6.8 लाख, राजस्थान में 6.5 लाख और मप्र में 5.5 लाख से ज्यादा नए जॉब कार्ड बने हैं। 
अनलॉक के बाद अब फिर काम की आस में प्रवासी मजदूर शहरों में वापस आ रहे हैं। तो फिर वहीं लाइन और कोरेन्टीन सेंटरों का वहीं दौर चल निकला हैं। दुश्वारी कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। 

बस अड्डों पर प्रवासियों के पहुंचने के बाद उन्हें लाइन में लगने को कहा जाता है। उसके बाद उनका रैपिड कोविड-19 टेस्ट होता है। जो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं, उन्हें क्वारंटीन सेंटर भेज दिया जाता है। दरअसल, संक्रमण की दर बढ़ रही है। 40 लाख केस होने को हैं।
अब ऐसे समय में, जब सरकार को मजदूरों के साथ खड़ा होना था, श्रम कानूनों में इस तरह के बदलाव करने थे जिनसे ना सिर्फ मजदूरों की बकाया तनख्वाह का भुगतान सुनिश्चित होता, बल्कि जॉब सुरक्षा मिल पाती। 

लेकिन, हुआ उल्टा। प्रधानमंत्री के आपदा को अवसर में बदलने के निर्देश के बाद राज्य सरकारों ने बचे-खुचे श्रम कानूनों को भी एक झटके में निष्प्रभावी करके रख दिया। मप्र और उप्र ने 3 साल (1,000 दिन) के लिए श्रम कानूनों को शिथिल कर दिया तो गुजरात ने 1200 दिन के लिये। गोवा आदि की सरकारों ने काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिए हैं। 
बात उत्तरप्रदेश की ही। उप्र सरकार ने 38 श्रम कानूनों में से बंधुआ श्रम प्रथा, कर्मचारी प्रतिकार अधि. व भवन सन्निर्माण कर्मकार को छोड़, बाकी सभी को शिथिल कर दिया। काम के घंटे भी 12 कर दिए थे लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनकहे दबाव में इसे वापस ले लिया। हालांकि जानकारों के अनुसार, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। श्रम कानूनों के शिथिल होने के बाद, उद्योगों पर काम के घंटों को लेकर बंदिश ही नहीं रहेंगीं। वैसे भी मजदूर इसकी शिकायत करेंगे भी तो कहां? कोई जगह भी तो नहीं बचीं हैं?

औद्योगिक विवाद और औद्योगिक सबंध अधिनियम के शिथिल होने के बाद श्रम न्यायालय, ट्राइब्यूनल और ट्रेड यूनियन का अस्तित्व ही खत्म सा हो गया हैं। मजदूर वेतन, बोनस व सुरक्षा को लेकर कहां कुछ कह पाएंगे या हड़ताल कर पाएंगे। मजदूर बोर्ड का अस्तित्व ही लगभग खत्म हो गया हैं। 

किसी ने सोचा भी न होगा कि लंबे आन्दोलन के बाद मजदूरों ने जो थोड़े-बहुत अधिकार पाए थे, वो एक झटके में खत्म हो जाएंगे। और एक तरह से मजदूर अंग्रेजों से पहले वाले बेबस हालात में पहुंच जाएंगे। तो जवाब नहीं, सवाल ही होंगे। बिना जवाब वाले सवाल।।।
सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव व प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं कि सरकारें अनैतिक तौर से महामारी और लॉक डाउन का गलत फायदा उठा रही हैं। महामारी के चलते श्रमिक विरोध या आंदोलन नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन इसके उलट, जिस तेजी से महामारी बढ़ रही हैं उससे भी ज्यादा तेजी से सरकार अपने मजदूर विरोधी एजेंडे को बढ़ाने में लगीं हैं। श्रम कानूनों में शिथिलता इसी का नतीजा हैं।

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