मीडिया का बदलता स्वरुप और अस्तित्व का संकट

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: November 7, 2020
लोकतंत्र में मीडिया, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद चौथा स्तंभ माना जाता है. मीडिया एक जरिया है जिसके द्वारा देश और दुनिया के समाज में घटित घटनाओं का विस्तार से व् निष्पक्ष जानकारी जनता तक पहुँचाया  जाता रहा है. लोकतंत्र के सभी स्तंभों के लोगों से जवाब तलब करना मीडिया का मूल कर्तव्य है.  मीडिया के स्वरुप में समय के साथ बदलाव होता रहा है, पहले प्रिंट मीडिया की जगह, मास मीडिया और अब तकनीकि क्रांति के साथ सोशल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया के वजूद को ही ख़तरे में डाल दिया है. मीडिया पर जनता का घटता भरोसा क्या केवल बदलते सामाजिक स्वरुप का नतीजा है? या नयी सदी के पहले दशक से ही निडर खोजी पत्रकारिता, मीडिया की जीवंतता, सत्तासीन सरकारों और कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के मंसूबों को उजागर कर देने वाली खबरें सब हाल में काफूर होते चले गए हैं. अब दुनियाभर के आर्थिक और राजनीतिक रूप से ताकतवर लोग मीडिया से विनम्रता से पेश आने की जरुरत महसूस नहीं करते हैं और मीडिया भी ख़ास कर मास मीडिया राजनीतिक ख़ेमों में बंट कर रह गया है. डोनाल्ड ट्रंप से लेकर नरेंद्र मोदी तक, ओद्योगिक जगत से लेकर फिल्म हस्ती तक सोशल मीडिया पर लाखों फ़ोलोवर्स के साथ सीधे जनता से संवाद स्थापित कर ‘अपनी डफली अपना राग’ की स्थिति में हैं यहाँ तक कि 400 बिलियन डॉलर की जानी-मानी स्वचालित कार निर्माता कंपनी ‘टेसला’ के मालिक एलेन मस्क ने हाल में ही अपनी कम्पनी का मीडिया एवं जनसंपर्क विभाग बंद कर दिया है. अन्य हस्तियों की तरह इनके भी ट्वीटर व् अन्य सोशल मीडिया साईट पर हर उम्र और आय वर्ग के लोग फोलोवेर्स हैं जिनसे ये सीधे संपर्क करते हैं. 



यह नयी सदी की बानगी है कि पुरानी शैली के मुख्य धारा की मीडिया जो कई बार सत्तासीन या विपक्ष के राजनीतिक दलों से जनहित के चुभते सवाल पूछ कर उन्हें बगलें झाँकने को मजबूर कर देते थे. आज उस मीडिया को खेमें में बाँट कर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को राजनीति का हिस्सा मात्र बना कर छोड़ दिया गया है और आज स्वतंत्र होकर लिखने बोलने वाले वैकल्पिक मीडिया पर देशद्रोही होने तक का तमगा लगा देने से गुरेज नहीं करते हैं.

कोई भी बदलाव एक दिन की उपज नहीं होती है सत्तासीन सरकार के अपने काले कारनामों को छुपाने की चाहत, जनता के सवालों का सामना न कर पाने की हिम्मत और दिन प्रतिदिन मॉस मीडिया के ख़बरों की संदिग्ध होते सच ने मीडिया पर सवाल खड़े करने का कारण दिया जिसे वर्तमान सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर अमलीजामा पहनाया गया यहाँ तक कि सरकार के ख़िलाफ़ लिखने-बोलने वाले पत्रकार को नौकरी से निकाला गया या उन्हें देशद्रोही तक करार देकर उन पर मुकदमा चलाया जाने लगा. आज अधिकांश मीडिया आलोचक की भूमिका में नज़र नहीं आते लेकिन सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकार जरुर पाकिस्तानी एजेंट, देशद्रोही, टुकड़े टुकड़े गेंग सरीखे विशेषण ने नवाजे जा रहे हैं. 

साथ ही एक और पहलू पर गौर करने की जरुरत है, आज उपभोक्ता (पाठकों) की प्राथमिकता भी मीडिया को लेकर बदल गयी है. अधिकांश लोग गंभीर, संवेदनशील व् जरुरी खबर पढने के बजाय स्मार्ट फोन के व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से सतही ज्ञान प्राप्त करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं. अखबार के ख़बरों की चर्चा से शुरू होने वाले दिन की शुरुआत अब सुबह आँख खुलते ही स्मार्ट फ़ोन के सतही गोसिप ने ले ली है. बड़े उम्र के लोगों की रूचि सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में कम और बाबाओं से भरे धार्मिक चैनल व् अन्धविश्वास पर टिकी धारावाहिकों में ज्यादा रहती है जिसका श्रेय राजनीतिक दलों के एकतरफा विचारधारा को मजबूत करने की चाटुकारिता में व्यस्त मीडिया को जाता है. 

आज दुनिया भर में धूमती ख़बरों से और ‘जिसकी लाठी उसकी भैस’ के तर्ज पर सोशल मीडिया पर एक तरफ़ा राजनीतिक और वैचारिक प्रचार चलाने की वजह से गंभीर खबर देने वाले मुख्यधारा की मीडिया को ही जनता ने गैर ज़िम्मेदार मान लिया और उससे विमुख होने लगे फिर शुर हुई बाजार में टीआरपी का खेल जिसमें खबर की गंभीरता  मायने नहीं रखने लगी बल्कि गंभीर और संवेदनशील खबर पर भी मिर्च मसाले लगा कर, झूठ सच बोलकर, मुद्दों पर हल्के-फुल्के, फूहड़ किस्म के बहस करवाया जाने लगा. अफवाहें अब ब्रेकिंग न्यूज़ बनने लगी. हाल ही में फिल्म कलाकार सुशांत सिंह के आत्महत्या का मामला हमारे सामने है जिसे मुख्यधारा के टीवी चैनल्स ने 2 महीने तक ब्रेकिंग न्यूज़ से हटने नहीं दिया और सच सामने आने के बाद ऐसे चैनल्स को सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगनी पड़ी. निश्चित रूप से ऐसी घटनाएँ राजनीति से प्रेरित होती हैं लेकिन यह मीडिया के मूल्यों पर कई तरह के सवाल एक साथ खड़े कर देते हैं. अमेरिका के चर्चित चैनल सीबीएस के कार्यक्रम ‘60 मिनट्स’ के लाइव कार्यक्रम में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से वरिष्ट महिला पत्रकार ने पूछा कि क्या आप गंभीर सवाल जवाब को तैयार हैं? तो बहुत अधिक नाराजगी के साथ ट्रंप बोल पड़े ‘तुम फ़ेक हो’.... बायस्ड हो....मीडिया ही फ़ेक है और साफ़ बात तो यह है कि सोशल मीडिया नहीं होता तो मैं अपनी बात कह ही नहीं पाता’ और फिर प्रोग्राम को ख़त्म करा देना एक देश के शासक के गैरजिम्मेदाराना रवैया को दिखाता है लेकिन इससे भी बड़ी चिंता कि बात यह है कि किसी लोकतान्त्रिक देश का राष्ट्रपति लोकतंत्र के स्तंभों को बेतरतीब तरीके से कमजोर करने में लगा है और इस तरह की बयानबाजी का संक्रमण पूरी दुनिया में फैलते देर नहीं लगेगा. 

मीडिया में पूंजीवाद का विस्तार तेजी से बढ़ते मीडिया चैनलों की संख्यां से लगायी जा सकती है जिसे एक खास मकसद से बढाया या बढ़वाया जा रहा है दुखद यह है कि बाजार में हर रोज बढ़ते नए चैनल्स और सोशल मीडिया की प्रतिस्पर्धा में देश के आम लोगों तक जरुरी और सच्ची खबर पहुच ही नहीं पाती है, जब तक सच खबर लोगों तक पहुचती है तब तक फ़ेक ख़बरों का एक बड़ा पुलिंदा पूरी दुनिया का सैर करके आ चूका होता है. लोकतान्त्रिक देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष कई बार ख़ुद को सत्तासीन बनाए रखने के लिए मीडिया को अपने अपने पक्ष में बनाए रखने की जुगत करते हैं लेकिन आज सोशल मीडिया के दौर में इसकी जरुरत भी लगभग समाप्त होती नजर आ रही है. 

सोशल मीडिया के मालिकों का सरकार या राजनीतक दलों से मिलीभगत किसी से छुपी हुई नहीं है जहाँ से आम जनता के गोपनीय दस्तावेज लीक किए जाते हैं. आज आम जनता का अधिकार के साथ सही समय पर सही सूचना पाने के लोकतान्त्रिक हक़ का विनाश होता नजर आ रहा है. लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ आज पूरी तरह से कॉर्पोरेट घरानों पर आश्रित हो चूका है यह इनके स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संकट से कम नहीं है. इसे लोकतंत्र के कमजोर होने की पहल भी मानी जा सकती है. 

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