आज के अखबारों में भाजपा से जुड़ी दो खबरें हैं और दोनों गौर करने लायक हैं। पहली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फोटो का मीम शेयर करने के लिए गिरफ्तार प्रियंका शर्मा को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत पर रिहा करने का आदेश है। इस मामले को अखबारों में एक जीत की तरह पेश किया गया है। इंडियन एक्सप्रेस में तो बाकायदा खबर है, "भारतीय जनता युवा मोर्चा नेता की मां ने 'प्रियंका की पसंदीदा' बिरयानी की योजना के साथ 'जीत' पर खुशी मनाई"। अखबार में सुप्रीम कोर्ट की खबर पहले पन्ने पर है और यह दूसरे पर जारी है। दूसरा पन्ना खोलेंगे तो जारी खबर मिले या न मिले, टॉप पर दो कॉलम में चार लाइन के शीर्षक के साथ यह खबर छपी है।
इसमें कोई दो राय नहीं है खबर कहां कितनी बड़ी किस शीर्षक से छपे - यह संपादकीय स्वतंत्रता और विवेक का मामला है। मैं इसी विवेक और स्वतंत्रता के उपयोग की चर्चा करता हूं जो अक्सर भाजपा के पक्ष में नजर आता है। प्रियंका शर्मा का यह मामला किसी आम नागरिक का मामला नहीं है। अदालत ने भी कहा है कि कोई और पोस्ट करता तो अलग बात थी पार्टी कार्यकर्ता के पोस्ट करने का अलग मतलब है। यही नहीं, जिस मीम को पोस्ट करने के लिए कार्रवाई हुई है वह प्रियंका ने नहीं बनाई है, सिर्फ शेयर किया है।
जाहिर है, जिसने भी बनाया और पोस्ट किया उसे ना गिरफ्तार किया गया और ना उसे जमानत लेनी पड़ी। फिर भी इस मामले को इतना महत्व देने का मकसद यह बताना है कि पश्चिम बंगाल की ममला बनर्जी सरकार ने एक भाजपा कार्यकर्ता के खिलाफ कार्रवाई की और उसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत माना। जमानत मिलने को इतना महत्व देने का यही मकसद है और इस खबर को इसीलिए तूल दिया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह मामला पूरी तरह राजनतिक है और दो पार्टियों की लड़ाई है।
मुमकिन है खबर से आम कार्यकर्ता समझ ले कि पार्टी उनका मामला भी सुप्रीम कोर्ट में ले जाने में सहायता करेगी जबकि जरूरी नहीं है कि हर मामले में ऐसा हो ही। आम आदमी की बात तो बिल्कुल अलग है। जहां तक बिरयानी से खुशी मनाने की बात है यह परिवार का निजी मामला है और मीम पोस्ट करना अनुचित हो या ना हो जोखिम भरा तो है ही। अखबारों को अपने पाठकों को सतर्क करना चाहिए मीम पोस्ट करने का खतरा बताना चाहिए पर यह सब नहीं के बराबर है। दिलचस्प यह है कि ऐसे ही मामले में कांग्रेस नेता दिव्या स्पंदना के खिलाफ भाजपा की ओर से मामला दर्ज कराया गया है। इसकी चर्चा हिन्दुस्तान टाइम्स ने की है।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को चार कॉलम में लीड बनाया है। हालांकि इसके साथ टाइम्स व्यू (टाइम्स का नजरिया) के तहत छपा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह सुनिश्चित नहीं किया कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी को स्वतंत्रता मिले। अखबार ने लिखा है कि अदालत की राय में मीम शेयर करने वाली लड़की चूंकि विरोधी राजनीतिक दल की है इसलिए यह मीम आम आदमी के शेयर करने से अलग है। अखबार ने लिखा है कि क्या इसका मतलब यह हुआ कि अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में राजनीतिक कार्यकर्ता को आम आदमी के बराबर अधिकार नहीं हैं। अखबार के मुताबिक यह विचित्र होगा। यहां अखबार पार्टी कार्यकर्ता का पक्ष लेता दिख रहा है, आम आदमी का नहीं।
खबर में अदालत में दी गई दलील का जिक्र है। यह नहीं बताया गया है कि मौका मिलने पर भाजपा ने भी ऐसा ही किया है और ना दिव्या स्पंदना के मामले की चर्चा है। अखबार ने इसी खबर के साथ अमित शाह के रोड शो में झड़प की खबर छापी है जो आज दिल्ली के ज्यादातर हिन्दी अखबारों में लीड है। आज इस खबर की चर्चा के साथ देखिए कि असल में मामला क्या है और छपा कैसे है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर (अमित शाह के रोड शो में झड़प) पहले पन्ने पर मस्ट रीड (जरूर पढ़ना चाहिए) के तहत तीन कॉलम की सूचना है, अमित शाह के कलकता रोड शो में झड़प। पूरी खबर अंदर के पन्ने पर है। इसका शीर्षक है, “बंगाल में शाह के बड़े शक्ति प्रदर्शन में टीएमसी-बीजेपी की झड़प”।
इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड है। शीर्षक है, “(अमित) शाह के कोलकाता रोड शो में भाजपा और टीएमसी की झड़प के बाद बंगाल में गुस्सा”। अमूमन मैं अपनी चर्चा में जनसत्ता को शामिल नहीं करता हूं पर आज जनसत्ता में भी यह खबर लीड है और शीर्षक है, “ममता के गढ़ में शाह की हुंकार”। हिन्दुस्तान में लीड का फ्लैग शीर्षक है, "तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्ता भिड़े, भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर पथराव"। मुख्य शीर्षक है, "बवाल : शाह के कोलकाता रोड शो में हिंसा, आगजनी"। नवभारत टाइम्स में खबर और तस्वीरें तो वही हैं पर शीर्षक, दिल्ली दरबार सजाने को साउथ में सियासी मॉनसून की दस्तक से लगता है कि इसमें भाजपा से संबंधित दक्षिण भारत के मामलों को भी शामिल कर लिया गया है। लेकिन फोटो के ऊपर लीड का उपशीर्षक है, “बंगाल में शाह के शो में बवाल, बीजेपी पहुंची आयोग”।
नवोदय टाइम्स में यह खबर लीड है और शीर्षक है, “शाह के रोड शो में बवाल”। अमर उजाला में भी यह खबर लीड है और शीर्षक है, “शाह के रोड शो में उपद्रव, आगजनी”। उपशीर्षक है, कोलकाता में तृणमूल और भाजपा कार्यकर्ताओं में भिड़ंत, भीड़ ने किया पथराव, ईश्वरचंद विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ी। अखबार ने खबर में और अलग से भी ममता बनर्जी का यह बयान छापा है, गुंडे लाकर कर रहे हैं हिंसा। इसके साथ ही खबर है, “तृणमूल के गुंडों ने किया हमला”। दैनिक जागरण में खबर है, “कोलकाता में शाह के रोडशो में हिंसक झड़पें, पथराव व आगजनी”। उपशीर्षक है, “तृणमूल कांग्रेस और भाजपा समर्थक भिड़े, दोनों पक्षों के कई लोग जख्मी”।
कलकत्ता की यह खबर दिल्ली में लीड बनी है पर ध्यान देने वाली बात है कि हिंसा की इस खबर में कितने लोग घायल हुए यह किसी भी शीर्षक या उपशीर्षक में नहीं है। मैंने लगभग सभी अखबारों की खबर पढ़कर यह जानने की कोशिश की कि कितने लोग घायल हुए हैं। पर पता नहीं चला। अमित शाह सुरक्षित हैं यह स्पष्ट है। हर जगह कई लोग घायल हुए लिखा है। जब पांच-दस क्या एक दो लोगों के घायल होने पर भी संख्या बताई जाती है तो कई लोगों के घायल होने पर संख्या किसी भी अखबार में क्यों नहीं है? मुझे याद नहीं है कि कोलकाता की कोई खबर दिल्ली में इतनी प्रमुखता से छपी हो। इससे पहले कोलकाता की जिस खबर को दिल्ली में इतना महत्व मिलना याद है वह खबर थी पिछले चुनाव के समय एक निर्माणाधीन फ्लाईओवर के गिर जाने की।
उस समय पश्चिम बंगाल की सरकार ने इसे ऐक्ट ऑफ गॉड कहा था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे ऐक्ट ऑफ फ्रॉड कहकर सरकारी बचाव का मजाक उड़ाया था। हालांकि उसके बाद और पहले भी देश भर में निर्माणाधीन फ्लाईओवर गिरे हैं लेकिन ना उनकी खबर दिल्ली के अखबारों में उतनी प्रमुखता से छपी ना उन्हें ऐक्ट ऑफ गॉड या ऐक्ट ऑफ प्रॉड करार दिए जाने पर विवाद हुआ है। ऐसी हालत में कोलकाता में कल क्या हुआ यह ठीक-ठीक समझना तो मुश्किल है पर यह समझने में कोई दिक्कत नहीं है कि चुनावी राजनीति में इस खबर को महत्व दिया गया है और ऐसे प्रस्तुत किया गया है जैसे कोलकाता के स्थानीय लोगों (तृणमूल कांग्रेस) ने दिल्ली और गुजरात से गए अमित शाह को रोड शो नहीं करने दिया। और भाजपाइयों को वहां पीटा जा रहा है।
दूसरी ओर, तमाम खबरों से मुझे लग रहा है कि विद्यासागर कॉलेज के आस-पास मुमकिन है, कॉलेज के अंदर से अमित शाह की रैली का विरोध हुआ और यह विरोध इतना दमदार था कि अंततः रैली पूरी नहीं हो पाई – यह विरोध लोकतांत्रिक और हिंसक हो सकता है पर तृणमूल वालों ने क्या हिंसा की और कितने लोग घायल हुए यह स्पष्ट नहीं है पर भाजपाइयों ने कॉलेज में मूर्ति तोड़ी यह स्पष्ट है। पुलिस ने कार्रवाई की, 100 लोगों को हिरासत में लिया गया है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि पुलिस ने तृणमूल वालों का साथ दिया या भाजपा के खिलाफ रही। कुल मिलाकर, खबर जो छपी है तो वह भाजपाइयों की हिंसा ही बताती है पर प्रस्तुति ऐसी है जैसे भाजपा पीड़ित हो।
इस मामले में कोलकाता का स्थानीय अखबार अंग्रेजी का द टेलीग्राफ लिखता है, “हिंसा की शुरुआत कलकत्ता विश्वविद्यालय के पास हुई जो बाद में विद्यासागर कॉलेज तक फैल गया। भाजपा के समर्थक समझे जाने वाले कॉलेज कैम्पस में घुस गए और ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी। इनलोगों का आरोप था कि उनपर बाहर से तृणमूल समर्थकों का हमला हो रहा है। अखबार ने लिखा है कि छात्र कुणाल डे ने उपद्रवियों को नारा लगाते हुए सुना, “विद्यासागरेर दिन शेष, हाऊ इज द जोश” (विद्यासागर का दिन खत्म हुआ, हाऊ ईज द जोश - फिल्मी डायलॉग है जिसे लोकप्रियता देने का श्रेय प्रधानमंत्री को दिया जा सकता है)।
पश्चिम बंगाल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का महत्व इस बात से मालूम होगा कि वे बंगाल के पुनर्जागरण के स्तम्भों में से एक हैं। विद्वता के कारण उन्हें विद्यासागर की उपाधि दी गई थी। वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही कलकत्ता और अन्य स्थानों पर बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई। सहनशीलता, सादगी तथा देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ था। चुनावी झड़प और हिंसा एक चीज है तथा विद्यासागर जैसी हस्ती की प्रतिमा उनके नाम से स्थापित कॉलेज में घुसकर लोड़ना और जो नारे लगे वो बिल्कुल अलग चीज है। दिल्ली के अखबारों की प्रस्तुति आपने देखी अब कोलकाता के अखबार की प्रस्तुति देखिए औऱ समझिए कि आपके अखबार आपको सूचना के बदले क्या दे रहे हैं।
कोलकाता की हिंसा को समझने के लिए ममता बनर्जी ने जो कहा उसे भी जानना पर्याप्त होगा पर दिल्ली के हिन्दी अखबारों में शायद ही यह सब मिले। उन्होंने कहा है, इस घटना की निन्दा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं बेहद शर्मिन्दा हूं और क्षमा मांगती हूं कि भाजपा के गुंडों के कारण बंगाल की जनता के रूप में हम ईश्वरचंद्र विद्यासागर का सम्मान नहीं कर पाए। ये नेता देश के नेता होंगे? जो लोग सामाजिक हस्तियों का सम्मान नहीं कर सकते? .... हिम्मत अच्छी चीज है पर दुस्साहस नहीं ....।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
इसमें कोई दो राय नहीं है खबर कहां कितनी बड़ी किस शीर्षक से छपे - यह संपादकीय स्वतंत्रता और विवेक का मामला है। मैं इसी विवेक और स्वतंत्रता के उपयोग की चर्चा करता हूं जो अक्सर भाजपा के पक्ष में नजर आता है। प्रियंका शर्मा का यह मामला किसी आम नागरिक का मामला नहीं है। अदालत ने भी कहा है कि कोई और पोस्ट करता तो अलग बात थी पार्टी कार्यकर्ता के पोस्ट करने का अलग मतलब है। यही नहीं, जिस मीम को पोस्ट करने के लिए कार्रवाई हुई है वह प्रियंका ने नहीं बनाई है, सिर्फ शेयर किया है।
जाहिर है, जिसने भी बनाया और पोस्ट किया उसे ना गिरफ्तार किया गया और ना उसे जमानत लेनी पड़ी। फिर भी इस मामले को इतना महत्व देने का मकसद यह बताना है कि पश्चिम बंगाल की ममला बनर्जी सरकार ने एक भाजपा कार्यकर्ता के खिलाफ कार्रवाई की और उसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत माना। जमानत मिलने को इतना महत्व देने का यही मकसद है और इस खबर को इसीलिए तूल दिया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह मामला पूरी तरह राजनतिक है और दो पार्टियों की लड़ाई है।
मुमकिन है खबर से आम कार्यकर्ता समझ ले कि पार्टी उनका मामला भी सुप्रीम कोर्ट में ले जाने में सहायता करेगी जबकि जरूरी नहीं है कि हर मामले में ऐसा हो ही। आम आदमी की बात तो बिल्कुल अलग है। जहां तक बिरयानी से खुशी मनाने की बात है यह परिवार का निजी मामला है और मीम पोस्ट करना अनुचित हो या ना हो जोखिम भरा तो है ही। अखबारों को अपने पाठकों को सतर्क करना चाहिए मीम पोस्ट करने का खतरा बताना चाहिए पर यह सब नहीं के बराबर है। दिलचस्प यह है कि ऐसे ही मामले में कांग्रेस नेता दिव्या स्पंदना के खिलाफ भाजपा की ओर से मामला दर्ज कराया गया है। इसकी चर्चा हिन्दुस्तान टाइम्स ने की है।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को चार कॉलम में लीड बनाया है। हालांकि इसके साथ टाइम्स व्यू (टाइम्स का नजरिया) के तहत छपा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह सुनिश्चित नहीं किया कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी को स्वतंत्रता मिले। अखबार ने लिखा है कि अदालत की राय में मीम शेयर करने वाली लड़की चूंकि विरोधी राजनीतिक दल की है इसलिए यह मीम आम आदमी के शेयर करने से अलग है। अखबार ने लिखा है कि क्या इसका मतलब यह हुआ कि अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में राजनीतिक कार्यकर्ता को आम आदमी के बराबर अधिकार नहीं हैं। अखबार के मुताबिक यह विचित्र होगा। यहां अखबार पार्टी कार्यकर्ता का पक्ष लेता दिख रहा है, आम आदमी का नहीं।
खबर में अदालत में दी गई दलील का जिक्र है। यह नहीं बताया गया है कि मौका मिलने पर भाजपा ने भी ऐसा ही किया है और ना दिव्या स्पंदना के मामले की चर्चा है। अखबार ने इसी खबर के साथ अमित शाह के रोड शो में झड़प की खबर छापी है जो आज दिल्ली के ज्यादातर हिन्दी अखबारों में लीड है। आज इस खबर की चर्चा के साथ देखिए कि असल में मामला क्या है और छपा कैसे है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर (अमित शाह के रोड शो में झड़प) पहले पन्ने पर मस्ट रीड (जरूर पढ़ना चाहिए) के तहत तीन कॉलम की सूचना है, अमित शाह के कलकता रोड शो में झड़प। पूरी खबर अंदर के पन्ने पर है। इसका शीर्षक है, “बंगाल में शाह के बड़े शक्ति प्रदर्शन में टीएमसी-बीजेपी की झड़प”।
इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड है। शीर्षक है, “(अमित) शाह के कोलकाता रोड शो में भाजपा और टीएमसी की झड़प के बाद बंगाल में गुस्सा”। अमूमन मैं अपनी चर्चा में जनसत्ता को शामिल नहीं करता हूं पर आज जनसत्ता में भी यह खबर लीड है और शीर्षक है, “ममता के गढ़ में शाह की हुंकार”। हिन्दुस्तान में लीड का फ्लैग शीर्षक है, "तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के कार्यकर्ता भिड़े, भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर पथराव"। मुख्य शीर्षक है, "बवाल : शाह के कोलकाता रोड शो में हिंसा, आगजनी"। नवभारत टाइम्स में खबर और तस्वीरें तो वही हैं पर शीर्षक, दिल्ली दरबार सजाने को साउथ में सियासी मॉनसून की दस्तक से लगता है कि इसमें भाजपा से संबंधित दक्षिण भारत के मामलों को भी शामिल कर लिया गया है। लेकिन फोटो के ऊपर लीड का उपशीर्षक है, “बंगाल में शाह के शो में बवाल, बीजेपी पहुंची आयोग”।
नवोदय टाइम्स में यह खबर लीड है और शीर्षक है, “शाह के रोड शो में बवाल”। अमर उजाला में भी यह खबर लीड है और शीर्षक है, “शाह के रोड शो में उपद्रव, आगजनी”। उपशीर्षक है, कोलकाता में तृणमूल और भाजपा कार्यकर्ताओं में भिड़ंत, भीड़ ने किया पथराव, ईश्वरचंद विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ी। अखबार ने खबर में और अलग से भी ममता बनर्जी का यह बयान छापा है, गुंडे लाकर कर रहे हैं हिंसा। इसके साथ ही खबर है, “तृणमूल के गुंडों ने किया हमला”। दैनिक जागरण में खबर है, “कोलकाता में शाह के रोडशो में हिंसक झड़पें, पथराव व आगजनी”। उपशीर्षक है, “तृणमूल कांग्रेस और भाजपा समर्थक भिड़े, दोनों पक्षों के कई लोग जख्मी”।
कलकत्ता की यह खबर दिल्ली में लीड बनी है पर ध्यान देने वाली बात है कि हिंसा की इस खबर में कितने लोग घायल हुए यह किसी भी शीर्षक या उपशीर्षक में नहीं है। मैंने लगभग सभी अखबारों की खबर पढ़कर यह जानने की कोशिश की कि कितने लोग घायल हुए हैं। पर पता नहीं चला। अमित शाह सुरक्षित हैं यह स्पष्ट है। हर जगह कई लोग घायल हुए लिखा है। जब पांच-दस क्या एक दो लोगों के घायल होने पर भी संख्या बताई जाती है तो कई लोगों के घायल होने पर संख्या किसी भी अखबार में क्यों नहीं है? मुझे याद नहीं है कि कोलकाता की कोई खबर दिल्ली में इतनी प्रमुखता से छपी हो। इससे पहले कोलकाता की जिस खबर को दिल्ली में इतना महत्व मिलना याद है वह खबर थी पिछले चुनाव के समय एक निर्माणाधीन फ्लाईओवर के गिर जाने की।
उस समय पश्चिम बंगाल की सरकार ने इसे ऐक्ट ऑफ गॉड कहा था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे ऐक्ट ऑफ फ्रॉड कहकर सरकारी बचाव का मजाक उड़ाया था। हालांकि उसके बाद और पहले भी देश भर में निर्माणाधीन फ्लाईओवर गिरे हैं लेकिन ना उनकी खबर दिल्ली के अखबारों में उतनी प्रमुखता से छपी ना उन्हें ऐक्ट ऑफ गॉड या ऐक्ट ऑफ प्रॉड करार दिए जाने पर विवाद हुआ है। ऐसी हालत में कोलकाता में कल क्या हुआ यह ठीक-ठीक समझना तो मुश्किल है पर यह समझने में कोई दिक्कत नहीं है कि चुनावी राजनीति में इस खबर को महत्व दिया गया है और ऐसे प्रस्तुत किया गया है जैसे कोलकाता के स्थानीय लोगों (तृणमूल कांग्रेस) ने दिल्ली और गुजरात से गए अमित शाह को रोड शो नहीं करने दिया। और भाजपाइयों को वहां पीटा जा रहा है।
दूसरी ओर, तमाम खबरों से मुझे लग रहा है कि विद्यासागर कॉलेज के आस-पास मुमकिन है, कॉलेज के अंदर से अमित शाह की रैली का विरोध हुआ और यह विरोध इतना दमदार था कि अंततः रैली पूरी नहीं हो पाई – यह विरोध लोकतांत्रिक और हिंसक हो सकता है पर तृणमूल वालों ने क्या हिंसा की और कितने लोग घायल हुए यह स्पष्ट नहीं है पर भाजपाइयों ने कॉलेज में मूर्ति तोड़ी यह स्पष्ट है। पुलिस ने कार्रवाई की, 100 लोगों को हिरासत में लिया गया है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि पुलिस ने तृणमूल वालों का साथ दिया या भाजपा के खिलाफ रही। कुल मिलाकर, खबर जो छपी है तो वह भाजपाइयों की हिंसा ही बताती है पर प्रस्तुति ऐसी है जैसे भाजपा पीड़ित हो।
इस मामले में कोलकाता का स्थानीय अखबार अंग्रेजी का द टेलीग्राफ लिखता है, “हिंसा की शुरुआत कलकत्ता विश्वविद्यालय के पास हुई जो बाद में विद्यासागर कॉलेज तक फैल गया। भाजपा के समर्थक समझे जाने वाले कॉलेज कैम्पस में घुस गए और ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी। इनलोगों का आरोप था कि उनपर बाहर से तृणमूल समर्थकों का हमला हो रहा है। अखबार ने लिखा है कि छात्र कुणाल डे ने उपद्रवियों को नारा लगाते हुए सुना, “विद्यासागरेर दिन शेष, हाऊ इज द जोश” (विद्यासागर का दिन खत्म हुआ, हाऊ ईज द जोश - फिल्मी डायलॉग है जिसे लोकप्रियता देने का श्रेय प्रधानमंत्री को दिया जा सकता है)।
पश्चिम बंगाल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का महत्व इस बात से मालूम होगा कि वे बंगाल के पुनर्जागरण के स्तम्भों में से एक हैं। विद्वता के कारण उन्हें विद्यासागर की उपाधि दी गई थी। वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही कलकत्ता और अन्य स्थानों पर बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई। सहनशीलता, सादगी तथा देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ था। चुनावी झड़प और हिंसा एक चीज है तथा विद्यासागर जैसी हस्ती की प्रतिमा उनके नाम से स्थापित कॉलेज में घुसकर लोड़ना और जो नारे लगे वो बिल्कुल अलग चीज है। दिल्ली के अखबारों की प्रस्तुति आपने देखी अब कोलकाता के अखबार की प्रस्तुति देखिए औऱ समझिए कि आपके अखबार आपको सूचना के बदले क्या दे रहे हैं।
कोलकाता की हिंसा को समझने के लिए ममता बनर्जी ने जो कहा उसे भी जानना पर्याप्त होगा पर दिल्ली के हिन्दी अखबारों में शायद ही यह सब मिले। उन्होंने कहा है, इस घटना की निन्दा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं बेहद शर्मिन्दा हूं और क्षमा मांगती हूं कि भाजपा के गुंडों के कारण बंगाल की जनता के रूप में हम ईश्वरचंद्र विद्यासागर का सम्मान नहीं कर पाए। ये नेता देश के नेता होंगे? जो लोग सामाजिक हस्तियों का सम्मान नहीं कर सकते? .... हिम्मत अच्छी चीज है पर दुस्साहस नहीं ....।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)