कैमूर मुक्ति मोर्चा आंदोलनकारियों को जमानत लेकिन चुनाव बहिष्कार पर अड़िग समुदाय

Written by Navnish Kumar | Published on: October 17, 2020
कैमूर मुक्ति मोर्चा के आंदोलनकारियों को जमानत मिल गई है। सातों लोग जेल से रिहा हो गए हैं लेकिन समुदाय वनाधिकार को संघर्ष जारी रखने और चुनाव बहिष्कार के अपने निर्णय पर अडिग है। इस बीच अच्छी खबर है कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने आदिवासियों के बीच पहुंचकर उनकी समस्याओं को जाना और वनाधिकार आदि को लेकर उचित समाधान का भरोसा दिया। राय ने मोर्चा पदाधिकारियों से चुनाव बहिष्कार का निर्णय वापस लेने की भी अपील की है। 



मोर्चा पदाधिकारियों का कहना है कि अधौरा जैसे क्षेत्र में कोई नही आता है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के आने को भी कहीं न कहीं, सिटिजंस फ़ॉर जस्टिस एंड पीस व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की पैरवी, मुख्यमंत्री व  मानवाधिकार आयोग को लिखे पत्र, दिल्ली समर्थक समूह के साथ यूनियन व सीजेपी प्रतिनिधिमंडल का अधौरा दौरा, बीबीसी आदि नेशनल इंटरनेशनल स्तर पर कवरेज व चुनाव बहिष्कार आदि कारणों से उपजे राजनीतिक दबाव के तौर पर देखा जा रहा है। 

यही नही, 307 और आर्म्स एक्ट जैसे संगीन धाराओं में जिला स्तर से जमानत व रिहाई के पीछे भी कहीं न कहीं, राजनीतिक दबाव को भी एक फैक्टर माना जा रहा है। जमानत के बाद रोहतास जिले के बरकट्टा निवासी कैलाश सिंह, अधौरा के गुइयाँ गांव निवासी सिपाही सिंह खरवार, रामसकल खरवार, करैला गांव निवासी हरि चरण सिंह, झड़पा गांव निवासी पप्पू पासवान, बरडीह गांव निवासी लल्लन सिंह व धर्मेंद्र सिंह सभी सातों आंदोलनकारियों के रिहा होने से पूरे समुदाय में खुशी है।

उधर, जेल से रिहाई को लेकर आदिवासी समुदाय के आंदोलनकारियों का कहना है कि 'प्रस्तावित बाघ अभ्यारण्य व वन सेंचुरी के खिलाफ अधौरा में उनका धरना प्रदर्शन एकदम शांतिपूर्ण था, लेकिन दो दिन तक प्रदर्शन के बाद भी सरकार या प्रशासन का कोई नुमाइंदा, ज़िम्मेवार नेता या अधिकारी उनसे मिलने तक नहीं आया। इससे आक्रोशित लोगों ने वन विभाग के ऑफिस में सांकेतिक तालाबंदी करनी चाही तो पुलिस से कहासुनी व झड़प हो गई थी। जिसमें पुलिस ने सात लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। जो इसी गुरुवार को जिला सत्र न्यायालय से जमानत के बाद सभी रिहा हो गए हैं। 

खास बात यह है कि कैमूर मुक्ति मोर्चा के बैनर तले अधौरा में 10 और 11 सितम्बर को प्रस्तावित बाघ अभ्यारण्य और वन सेंचुरी के खिलाफ दो दिवसीय धरना का आयोजन किया गया था जिसमें शांतिपूर्ण तरीके से कैमूर पठार में भी वनाधिकार कानून-2006 को लागू करने तथा टाइगर रिजर्व व वन सेंचुरी को खत्म करने आदि की मांग की जा रही थी। जिसके बाद वन विभाग के कार्यालय पर सांकेतिक तालाबंदी के दौरान पुलिस से झड़प हो गई थी। पुलिस के लाठीचार्ज पर लोगों ने भी प्रतिरोध किया जिससे तनाव बढ़ा।

कैमूर मुक्ति मोर्चा के मुताबिक, 'इसके बाद पुलिस ने आनन फानन में गोली चलाना शुरू कर दिया जिससे एक क्रांतिकारी का कान कट गया। अगर गोली सिर में लगती तो मौत हो सकती थी। इस विस्फोटक स्थिति के टोटली जिम्मेदार यहां के असंवेदनशील अधिकारी है जो जनता से मिलने तक नहीं आएं। आज वहीं हिंसा के प्रदर्शनकारियों को दोषी बता रहे हैं जबकि इसके दोषी वह खुद हैं।

विंध्य पर्वत श्रृंखला में कैमूर की पहाड़ियों पर आदिवासियों की बसावट मुख्य रूप से अधौरा अंचल के 11 पंचायतों में है। खरवार, गोंड, उरांव और कोरबा जनजाति समूह की क़रीब एक लाख की आबादी वाले इस अंचल का समूचा हिस्सा ही वन्यजीव अभयारण्य क्षेत्र में है। अब टाइगर रिज़र्व के बनने से विस्थापन का डर झेल रहे कैमूर आदिवासियों की चिंता जंगल में बाघ आने की उतनी नहीं हैं जितना कि उन्हें इस बात का डर है कि टाइगर रिज़र्व बनते ही उन्हें जंगलों से हटा दिया जाएगा।

अधौरा प्रखंड के बालकेश्वर कहते हैं, इस जंगल में पहले भी बाघ रहते थे, हम भी उनके साथ रहते थे। वनवासी बाघ से डरते नहीं हैं, उनका सम्मान करते हैं। लेकिन हमारा डर सरकार से है जो हमें हमारे वनाधिकारों से वंचित करना चाहती है और बेदख़ल करने की साज़िश रच रही है।

आज से क़रीब 25 साल पहले जब कैमूर पठार वन्यजीव अभयारण्य भी घोषित नहीं था, तब आदिवासियों को आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना होता था। लेकिन 1996 में कैमूर वन्यजीव अभयारण्य की घोषणा के बाद से वनक्षेत्र में तमाम तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। हर प्रकार के वन्य उत्पाद के व्यवसाय पर रोक लग गई हैं। तेंदूपत्ता, महुआ, पियार आदि चुनकर आदिवासी बेचते थे और यही उनकी आजीविका थी, जिस पर भी रोक लग गई है। 

बरडीह गांव निवासी राम सूरत सिंह कहते हैं, हमारे पास पैसा नहीं है कि अनाज ख़रीद सकें। वन विभाग ने जंगल की सभी चीज़ों के चुनने और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया है। ऐसे में वह क्या करें। मुख्यमंत्री ने खेती के लिए ज़मीन देने का वादा किया था, आज तक वह भी नहीं मिला। आजीविका खत्म होने से पूरे समुदाय के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो जा रहा है। 

राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि वनाधिकार कानून लागू होने के साथ इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि आख़िर दो दिनों का शांतिपूर्ण प्रदर्शन अचानक संघर्ष में क्यों बदल गया।

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