अज़ीज़िया मदरसे को जलाकर तबाह करना क्या एक सांस्कृतिक नरसंहार है?

Written by IRFAN ENGINEER NEHA DABHADE | Published on: August 16, 2023
बिहार शरीफ़ में 31 मार्च, 2023 को बजरंग दल द्वारा आयोजित शोभा यात्रा में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अज़ीज़िया मदरसे और पुस्तकालय को आग लगा दी गई थी.


 
बिहार शरीफ़ में रामनवमी के एक दिन बाद त्योहार के जश्न के दौरान क़रीब 50,000 लोगों ने शोभा यात्रा में हिस्सा लिया था. इस दौरान जलूस के एक हिस्से ने मुसलमानों की संपत्ति को लूटकर और आग लगाकर नुक़सान पहुंचाना शुरू कर दिया था. जलूस में शामिल कुछ लोगों ने गगन दीवान नामक जगह के मुसलमानों को पकड़कर उन्हें ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने को मजबूर भी किया था. इस मांग के साथ ही मुसलमान युवकों पर छड़ी और तलवारों से हमले भी किए गए. लगभग 2 दिनों तक जारी इस सांप्रदायिक हिंसा में करोड़ों रूपए की संपत्ति का नुक़सान हुआ, 2 की मौत हुई और अनेक लोग घायल हुए. तबाह संपत्तियों की सूची में अधिकतर जायदाद मुसलमानों की थी. इसमें मुरारापुर की शाही मस्जिद, बड़ी मस्जिद, एशिया होटल, सिटी पैलेस बैंक्वेट हॉल, डिजिटल दुनिया, अज़ीज़िया मदरसा और लाइब्रेरी प्रमुख है.

मीडिया द्वारा जारी न्यूज़ रिपोर्ट्स का संज्ञान लेते हुए और रामनवमी के अवसर पर देश के अलग अलग हिस्सों में उभरती हिंसा के पैटर्न की जांच करने के लिए ‘स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज़्म’ की एक फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम ने 23 और 24 जुलाई को बिहार शरीफ़ का दौरा किया. इस टीम ने प्रभावित क्षेत्र का दौरा किया और संबंधित विभिन्न लोगों से मुलाक़ात की.

आज आख़िर अज़ीज़िया मदरसे के विध्वंस पर दोबारा चर्चा क्यों ज़रूरी है? 1910 में बनाया किया गया अज़ीज़िया मदरसा क़रीब 110 साल पुरानी विरासत है. मुसलमान समुदाय के शिक्षा का सम्मानित केंद्र होने के कारण इसकी जगह अहम है. अज़ीज़िया मदरसा 3 एकड़ ज़मीन पर फैला हुआ है. मदरसे की की लाइब्रेरी में 45,00 से ज़्यादा किताबें थीं जिनमें से 250 नायाब हस्तलिखित इबारतें भी शामिल थीं.  31 मार्च को शाम 5 बजे क़रीब 150 लोगों की भीड़ ने इस लाइब्रेरी पर हमला करके आग लगा दी थी.



मदरसे को इस तरह से जलाया जाना अनेक ज़रूरी सवाल खड़े करता है. जैसे कि इसी मदरसे को निशाना क्यों बनाया गया?  इस मदरसे मे दो मंज़िला लाइब्रेरी, अनेक क्लासरूम, कम्प्यूटर लैब और हॉस्टल्स थे. इस विध्वंस में शानदार खंभों और उंची छतों वाला हॉल भी तबाह कर दिया गया जिसका जांच-टीम ने सबसे पहले जायजा लिया. इस हॉल में अनेक अलमारियां थीं जिनमें किताब-कॉपियों को सुरक्षित रखा जाता था. लगभग 20 फीट तक फैले हुए इस हाल में फ़र्नीचर और 10 सीलिंग फ़ैन्स भी थे जो अब आग की भेंट चढ़ गए हैं.


दंगे से पहले अज़ीज़िया मदरसे का हॉल


दंगे के बाद अज़ीज़िया मदरसे का हॉल

आख़िर इतने बड़े पैमाने पर आग लगाकर हॉल और लाइब्रारी को कैसे जलाया गया?

बता दें कि मदरसा जलाने के लिए पेट्रोल बम का इस्तेमाल किया गया था. इसके साथ ही यह भी ज़ाहिर है कि इतने बड़े हॉल और लाइब्ररी को जलाने के लिए निश्चित  तौर पर बड़े पैमाने पर पेट्रोल की जरूरत होगी. अब सवाल ये है कि इतना अधिक पेट्रोल कैसे ट्रांसपोर्ट किया गया? ये कोई आकस्मिक घटना नहीं थी. हर क्लासरूम के बाहर एक पेट्रौल बम रखा गया था और जांचकर्ताओं को इस दौरान दरवाज़ों पर कालिख भी मिली. मदरसे में पानी के पाइप भी काट दिए गए थे जिससे कि आग बुझायी न जा सके. CCTV कैमरे भी पूरी तरह जल गए थे. जांच- टीम को कॉरिडोर में 6 इंच मोटी राख की पर्त के अलावा छत पर भी कालिख की चादर मिली.  

इस मदरसे की लाइब्रेरी में दर्शन, विज्ञान, इस्लामिक न्यायशास्त्र आदि पर क़रीब 4500 किताबें थीं जिसमें से 250 नायाब हस्तलिखित किताबें सबसे ज़्यादा अहम थीं. इस राख को दफ़नाने के लिए 10 फ़ीट चौड़ा और 4 फ़ीट लंबा गड्ढ़ा बनाना पड़ा. फ़र्श को देखकर आग का अंदाज़ लगाया जा सकता है. मदरसे के ऑफ़िस पूरी तरह जल दिए गए थे और स्टॉफ़ के बैठने के लिए एक भी टेबल या कुर्सी नहीं थी. महत्वपूर्ण काग़ज़ात भी जल गए थे.



पेट्रोल बमों के इस्तेमाल से साफ़ ज़ाहिर होता है कि हमला योजनाबद्ध था. मदरसे को लगातार ख़त्म करने की पिछली कोशिशों से भी यही साबित होता है. इससे पहले भीड़ के एक जत्थे ने 31 मार्च और 1 अप्रैल को मदरसे पर हमला किया था. 1 अप्रैल को दोबारा हमले के बाद प्रशासन ने कर्फ़्यू लागू कर दिया था. सूचना के मुताबिक़ इस झड़प में कुछ अतिवादी तत्वों ने मदरसे में दाख़िल होकर एक लकड़ी के तख़्त के नीचे केरोसीन स्टोव में आग लगा दी थी. हिंसा के प्रयासों में ख़लल डालने के कारण मदरसे के नेपाली वॉचमैन को भी भीड़ ने पीट दिया था.  फिर बाद में ख़ुद को हिंदू बताने पर उसे छोड़ दिया गया. इससे पहले 2017 और 1981 में भी मदरसे को तबाह करने के ऐसे ही प्रयास किए गए थे.

ये सवाल उठना लाज़मी ही है कि मदरसा क्यों लगातार हमलों के निशाने पर है. मुसलमानों की तहज़ीब और इल्म के प्रतीक मदरसे को नष्ट करके दरअसल दक्षिणपंथी हिंदू समूह अपना वर्चस्व क़ायम करना चाहते हैं. सांप्रदायिक नज़रिए के विपरीत अज़ीज़िया मदरसा आतंकवाद का अड्डा नहीं है बल्कि राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त एक मदरसा है. यह 4 नज़दीकी ज़िलों में तालीम का केंद्र है. विद्यार्थियों और शिक्षकों में अंतर्धार्मिक नज़रिए के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए इसमें अनेक प्रोग्राम भी चलाए जाते हैं. इसे UNESCO द्वारा समृद्ध विरासत के लिए पहचाना गया है और UNFPA (United Nations Population Fund) में भी इसका ज़िक्र किया गया है. दक्षिणपंथी समूहों ने इसे 1197 में बख़्तियार ख़िलजी द्वारा कथित रूप से नालंदा विश्वविद्यालय जलाने के प्रतिशोध में इसे जलाया है. लेकिन हमले के बाद मुसलमान तबक़े का नैतिक बल बुरी तरह टूटा है.

जब फ़ैक्ट फाइंडिंग टीम ने मदरसे में प्रवेश किया तो एक क्लासरूम में लड़कियों से भरे कमरे में टीचर साइंस का पाठ अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ा रहे थे. मदरसे में क़रीब 500 विद्यार्थी हैं जिनमें से 85 प्रतिशत लड़कियां हैं जो क्लास 1 से लेकर 12 तक अलग कक्षाओं में पढ़ती हैं. ऐसी सांप्रदायिक हिंसा के बाद सुरक्षा कारणों से अक्सर विद्यालय में लड़कियों की मौजूदगी घट जाती है. यह देखना विदारक है कि इस घटना के बाद भी अभिवावाक उन्हें स्कूल भेज रहे हैं. टीम ने इस निरीक्षण में साइंस लैब में मानवीय विकास और विज्ञान के मुद्दों से जुड़े चार्ट्स और कंप्यूटर रूम का जायज़ा भी लिया जिससे साबित होता है कि अज़ीज़िया मदरसा केवल कुछ मुसलमान विद्यार्थियों को इस्लाम और धर्म की शिक्षा देने वाला संस्थान नहीं था बल्कि यह आधुनिक विषयों के अध्ययन का गढ़ भी था.   


इस मदरसे ने मुसलमानों में बौद्धिक वर्ग के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. आगरा मदरसे से हाल ही रिटायर मौलाना अबू सलमा, मशहूर लेखर मौलाना मसूद अली नदवी और दारूल देवबंद के मुफ़्ती अजम के तौर पर कार्यरत मुफ़्ती निज़ामुद्दीन ने भी इसी जगह से शिक्षा हासिल की है. इसके अलावा पांचवे अमीर-ए-शरीयत मौलाना अब्दुल रहमान, बिहार बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल लोकप्रिय और पुरस्कृत कवि मौलाना शबनम कलामी भी इसी फ़ेहरिस्त में शामिल हैं. वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय से हाल ही में बतौर रजिस्ट्रार काम करने के बाद रिटायर डॉक्टर एम. एम. कमल भी इसी सूची में दर्ज हैं. पटना की सरज़मी पर 1896 में क़ायम और 1917 में नालंदा ज़िलें में शिफ़्ट होने वाले इस मदरसे को बीबी सोग़रा ने अपने शौहर अब्दुल अज़ीज़ की याद में बनवाया था.  अपने शौहर की मौत के बाद सोग़रा ने लाखों की जायदाद दान कर दी थी. इसमें सोग़रा से हासिल चंदे से सोग़रा हाईस्कूल और सोग़रा कॉलेज का निर्माण भी करवाया गया था.

इस मदरसे ने शिक्षा, धर्म, संस्कृति और साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है. ये ज्ञान की ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक समरसता और मज़हबी एकता भी निशानी है. इस मदरसे से समाज या राज्य को कोई ख़तरा नहीं था. टीम ने बताया कि मदरसे की मैनेजमेंट टीम और हिंदू पड़ोसियों में आपसी सहयोग और सम्मान का रिश्ता है. यही वजह है कि मदरसा कॉम्पलेक्स में क़रीब 40 यानि कि 50 प्रतिशत दुकानें हिंदू सदस्यों को एलॉट की गई हैं.  



अज़ीज़िया मदरसे का एक बड़े पैमाने पर महत्व होने के बावजूद मीडिया और राज्य ने सही रवैय्ये की उपेक्षा की है. मदरसा जलाने की इस घटना पर राज्य ने कोई कारवाई नहीं की. मदरसे में आग शाम 5.30 के क़रीब लगी थी जबकि फ़ायर ब्रिग्रेड की टीम आधी रात के बाद पहुंची. प्रशासन ने न सिर्फ़ मदरसा स्टाफ़ और इमाम की दलीलों को दरकिनार किया बल्कि 1 अप्रैल को राख और कालिख की सफ़ाई करवाकर सबूत मिटाने की कोशिश भी की.  

फ़र्नीचर, अलमारी सहित क़रीब 3.42 करोड़ की इस संपत्ति के जलने के बाद राज्य की तरफ़ से किसी भी क्षतिपूर्ति की घोषणा नहीं की गई. नतीजे में राज्य ने बस कंटीले तारों से मदरसे को घेर दिया. मीडिया ने इस ख़बर पर ख़ास ध्यान नहीं दिया और नुक़सान को ढांकने की कोशिश की जबकि बीबीसी और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इस हमले की उचित रिपोर्टिंग की है.  

मैनेजमेंट के अनुसार मदरसे को सांस्कृतिक विरासत के चलते निशाना बनाया गया है. इसके पीछे बख़्तियार ख़िलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस की कथित घटना को हिंदुत्ववादी रंग के साथ पेश किया जा रहा है. बता दें कि नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा, दर्शन, गणित और विज्ञान का केंद्र था जिसकी बागडोर एक समय में आर्यभट्ट के हाथों में थी. कोरिया, चीन, तुर्किस्तान और एशिया के पूर्वी और केंद्रीय भागों से विद्यार्थी यहां पढ़ने आते थे. नालंदा विश्वविद्यालय दुर्लभ किताबों और अकूत ज्ञान संपदा का गढ़ था. ग़ौरतलब है कि नालंदा पर ख़िलजी द्वारा हमला कोई पहला हमला नहीं था. इसपर 5वीं शताब्दी के दौरान मिहिरकुला में भी अक्रमण किया गया था और फिर 8वीं शताब्दी में हिंदू-बौद्ध मज़हबी विवाद के चलते बंगाल के गौड़ राजा ने भी इसपर आक्रमण किया था. नालंदा विश्वविद्यालय पर खिलज़ी के हमले का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है. एक पक्ष का तर्क है कि एक बार बीमार पड़ने पर जब ख़िलजी को उसके दरबारी चिकित्सक ठीक नहीं कर पाए और राहुल श्रीभंद्रा इसमें सफल रहे तो ख़िलजी ने ज्ञान के इस केंद्र को नष्ट करने का फ़ैसला लिया. जबकि ख़िलजी के समय बौद्ध धर्म पहले से ही हीनयान और महायान के बीच फैलती हिंसा और ब्राम्हणवाद के प्रभाव में था.  

ज्ञान की विरासत को इस तरह ध्वस्त करना ये सवाल भी खड़ा करता है कि क्या प्रतिशोध लेने के लिए अज़ीज़िया जैसे मदरसे को जलाया जाना उचित है? क्या हम अज़ीज़िया मदरसे का भी नालंदा जैसा हश्र चाहते हैं? और अगर हम ख़िलज़ी द्वारा नालंदा को नष्ट करने की घटना पर यक़ीन भी करते हैं तो क्या हमें दूसरा ख़िलजी बन जाना चाहिए? क्या एकता की विरासत इमारतों को नफ़रत का शिकार बनने देना उचित है? क्या हमें इस विध्वंस पर शांत रहना चाहिए? अब समय है कि हम हिंसा को प्रतिशोध के बजाय न्याय के नज़रिए से देखें. अज़ीज़िया मदरसा को जलाया जाना आपसी सद्भाव और हिंसा की विनाशकारी ताक़तों के बीच संघर्ष की भी अक्कासी करता है. यह घटना नफ़रत की आग के सामने मानवता और ज्ञान की विरासत पर सोचने की ज़रूरत पर बल देती है.  

बाकी ख़बरें