'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' कम देशभक्ति वाली फिल्म है क्या जो इसे ना देखने की अपील की जा रही है?

Written by Arvind Shesh | Published on: November 13, 2018
'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' बाकी देशभक्ति का ज्वार-भाटा पैदा करने वाली फिल्मों से अलग क्या है! अक्षय कुमार या अजय देवगन या सन्नी दयोल या जॉन अब्राहम या देशभक्त टाइप किसी भी हीरो की देशभक्ति फिल्म से अलग इसमें क्या है..? ऐतिहासिक कसौटी पर उससे अलग इसमें अलग क्या किया गया है, जो 'मोहनजोदाड़ो' या 'बाजीराव मस्तानी' या कथित 'ऐतिहासिकता' पर आधारित बाकी फिल्मों में किया गया? 'पाइरेट्स ऑन द कैरेबियन...' वगैरह से तुलना बेमानी है।



लेकिन मैंने आज तक किसी बेहद खराब फिल्म के बारे में भी 'नहीं देखने' का आह्वान करने वाला ऐसा अभियान नहीं देखा। यहां तक कि कल कुछ दोस्तों के साथ गाड़ी में चल रहे किसी एफएम से भी यही कान में आया कि यह फिल्म न देखें..!

यह सलाह परोसने वाले मीडिया या सोशल मीडिया तक जितने भी नाम नजर आए, उसके बाद शक हुआ और मैंने इस फिल्म पर पैसे 'बर्बाद' किए। फिल्म बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन मनोरंजक है। एक्टिंग से लेकर कथा-कहानी, नाटक, पर्दा वगैरह सब नॉर्मल है। मुझसे अक्सर मांग की जाती है कि फिल्म को फिल्म की तरह देखूं, तो मैंने इसे फिल्म की तरह देखा।

आखिर तक इंतजार किया इस फिल्म को नहीं देखने की राय पर कुछ राय बना पाने का। अगर अपनी फिल्मों के प्रचार का यह आमिर खान-ट्रिक नहीं है तो इस फिल्म को नहीं देखने की सलाह को कैसे देखूं!

जिन्होंने नहीं देखा है, उनके लिए- विलेन अंग्रेजों के बरक्स फिल्म का मुख्य हीरो 'ख़ुदाबख़्श जहाजी' मुसलमान है... मुख्य हीरो का समांतर हीरो 'फ़िरंगी मल्लाह' है... मुख्य हीरोइन एक स्त्री है, मुसलमान है और एक शानदार लड़ाकू है... किसी भी बेहतरीन जंगज़ू के बरक्स बराबर.!

फिल्म में किसी भी मौके पर किसी ईश्वर या पंडे-मौलवियों के भरोसे जीने या लड़ने की भूख नहीं है..! बाकी एक कहानी है और उसे फिल्मा दिया गया है। देशभक्ति के हिंदू ठेके के दौर में और मुसलमानों को विलेन बनाने के दौर में एक राज का नौकर मुसलमान और मल्लाह फिरंगी और एक औरत का गठजोड़...! और इस गठजोड़ को रियासत की आम आबादी का बेशर्त साथ..! आम आबादी इस देश में कौन है... समझते हैं न..!!!

मर्दाना पंडावादियों के लिए क्या खुराक पेश किया जाए कि उनके पेट की आग बुझ सके...!

( इससे यह साबित नहीं होता है कि अमिताभ बच्चन को लेकर मेरे भीतर 'दुराग्रह' कम हो गया है!)


(ये लेखक के निजी विचार हैं, यह आर्टिकल अरविंद शेष की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.)

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