साधु और संघ का गठजोड़ देश के लिए घातक!

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: February 18, 2022
आज भी देश में एक बड़ा तबका साधु समाज का है और वह खुद को हिंदू समाज से जोड़ते हैं. इसका एक कारण हिंदू समाज के बाकी समाज के मुकाबले ज्यादा आबादी तो है ही साथ ही इस परिघटना का समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक कारण भी है जिस पर कम अध्ययन हुआ है. 



साधु संत प्रायः धार्मिक गतिविधियों से जुड़े होते हैं दुनिया के सभी समाजों में धार्मिक गतिविधियों से जुड़े साधु-संत सम्मान के पात्र होते हैं. भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनि साधु संत विद्यमान रहे हैं और अत्यंत आदर भाव से देखे जाते रहे हैं. नास्तिक लोग भी साधु को स्वीकार भले न करें उनका सम्मान जरूर करते रहे हैं. 

आज के साधु धर्म से कम और संघ से अधिक जुड़े हुए हैं. संघ का अपना घोषित एजेंडा और विचारधारा है जिसे साधने के लिए वे झूठ-फरेब, अराजकता, हिंसा, हत्या तक का सहारा लेने से गुरेज नहीं करते हैं. इस विचारधारा नें राष्ट्रवाद का चोला ओढ़ कर पश्चिमी फासीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों से गहरी सीख ली है. हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर भारत में इस विचार को फैलाने में अहम् भूमिका रखते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी, नरेंद्र मोदी, उमा भारती, साक्षी महाराज, और योगी आदित्यनाथ सहित कई अन्य इस परंपरा के योग्य वाहक हैं. संघ की वैचारिक शून्यता इससे भी साबित होती है कि सत्ता योगी जैसे साधु संत को सौंप दिया और सार्वजानिक संपत्ति को पूंजीवादी-उपभोक्तावादी विचार के सुपुर्द कर दिया.

शास्त्रों में साधु, नैतिकता, सदाचार, प्रेम, शांति, बधुत्व, ज्ञान  का प्रचार करने वाले लोग को माना गया था. ताकि एक मजबूत और न्याय संगत समाज का निर्माण हो सके. सांसारिकता में जीते हुए इन गुणों के चलते कोई व्यक्ति साधु होता है और इन गुणों के अभाव में कोई सांसारिकता से विरक्ति पर भी साधु कहलाने के पात्र नहीं होते हैं. साधु भक्त भी हो सकता है लेकिन भक्त जरूरी नहीं है कि साधु भी हो. आजकल साधु के स्वभाव में निहित गुण युक्त साधु विरले ही देखे जाते हैं. भारत की विडंबना यह है कि एक अलग प्रकार के साधु समाज में जड़ जमा चुके हैं जिसे समाज से कोई लेना देना नहीं है बल्कि वे अराजकता, अनैतिकता, हिंसा, भोग विलासिता, छुआछुत व् स्वार्थ सिद्धि को अपना कर्तव्य मानते हैं. 

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है लेकिन यहाँ धार्मिक साधुओं, संतों, व् पाखंडियों की कोई कमी नहीं है. देश के हर कोने में ये अलग-अलग भेष में देखे जा सकते हैं. ये साधु महात्मा आम जन-मानस से अलग दिखे इसलिए ही ये विचित्र तरह के वेश-भूषा और आभूषण धारण करते हैं. कोई सर से पाँव तक कपड़े पहने हुए हैं तो कोई बिना कपड़े के नागा साधु हैं, कोई लम्बी जटा रखते हैं तो कोई बिना बाल के रहते हैं, कोई शरीर पर राख मल कर अलग दीखते हैं तो कोई कीमती स्वर्ण जरित वस्त्र धारण कर, किसी नें शरीर पर एक माला पहनी है तो किसी के हर अंग पर माला लपेट रखा है ताकि आम इंसान से अलग दिव्य रूप दिखायी जा सके. 

दुनियां 21वीं सदी में पहुँच चुका है. तकनीकी विकास आम जनजीवन का हिस्सा बन चुका है लेकिन आज भी भारतीय जन मानस में यह भ्रम फैला हुआ है कि हमारे साधु महात्मा स्वार्थ से परे होते हैं. वे त्रिकाल दर्शी व् सर्वस्व ज्ञानी होते हैं. ऐसा सोचना भी आज मूर्खतापूर्ण और अंध श्रधापूर्ण  प्रतीत होता है. इनकी करतूतों ने देश को दशकों पीछे धकेल कर रख दिया है जहाँ वे किसी भी तरह के नए खोज को बढ़ावा नहीं दे सकते. उनके लिए वेड पूरण, गीता रामायण की कही बातें ही आज भी सार्थक है.

भारत में साधुओं की बहुतायत है. भक्ति काल से लेकर वर्तमान काल तक में सच्चे साधु की पहचान एक विमर्श का विषय ही रहा है इस विमर्श में यह भी देखा गया है कि, सच्चा साधु कहीं एकाध ही मिलता है बाकी सब लोक-परलोक का व्यवसाय करते हैं. लोकभाषा में कहा जाए तो ठगी या फिर राजनीति या फिर हिन्दुओं के लिए भड़काऊ भाषण करके उनके भावनाओं के साथ खिलवाड़ करके अपना पेट भरने का काम करते हैं. हाल ही में सम्पन्न हुए धर्म संसद में साधु संतकी नफरती बयानबाजी हमारे सामने है. लोगों के बोलचाल की भाषा में ऐसे साधु को ढोंगी साधु कहा जाता है और ऐसे साधु महात्माओं की आज एक भीड़ खड़ी हो गयी है. ऐसे संतों में हजारों नाम शामिल हो सकते हैं लेकिन कुछ नाम जैसे राम-रहीम, आसाराम बापू, रामपाल, राधे मां, नारायण स्वामी, निर्मल बाबा, स्वामी असीमानंद और योगी आदित्यनाथ समेत कई संत साधु हैं जो समाज में भ्रम पैदा कर आम जन की भावनाओं का फायदा उठाकर स्वार्थ सिद्धि में लिप्त हैं. 

इनके कुछ कारनामे: 
योगी आदित्यनाथ जो आज सत्ता लोलुपता के लिए उतर प्रदेश राज्य में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने को लोलुप हैं. वे हिन्दू युवा वाहिनी के निर्माता रहे हैं. हिंसा समर्थक कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले इस मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कथन है “एक हाथ में माला एक हाथ में भाला”. इनके कार्यकाल में इस राज्य में ऐसी घटनाएं हुई हैं जो न सिर्फ ह्रदय विदारक हैं बल्कि रूह को कंपा देने वाली रही हैं. दूसरी बार फिर ये धार्मिक भावनाओं को भड़का कर, मंदिर मस्जिद कर लोगों से वोट हासिल करना चाहते हैं. वहां वर्तमान में चुनावी प्रक्रिया जारी है और जनता अपने राज्य के मुख्यमंत्री को चुनने की प्रक्रिया में हैं. राधे माँ सात लाख रूपये लेकर भक्तों को गोद में बिठाकर आशीर्वाद देती हैं. रकम और बढाने पर इस धूर्त माँ के साथ बैठने का अवसर प्राप्त हो सकता है. इन्हें अंधविश्वासी जनता देवी मान बैठी है. 

निर्मल बाबा है जो लाल चटनी और हरी चटनी में भगवान की कृपा दे रहा है. रामपाल भक्त हैं जो कबीर को पूर्ण परब्रह्म परमात्मा मानते हैं. ओर अपने नहाए हुए पानी को अपने भक्तों को पिला कर कृतार्थ करता है. ब्रह्मकुमारीमत वाले हैं जो दादा लेखराज के वचनों को सच्ची गीता बताते हैं और परमात्मा को बिन्दुरुप बताते हैं. राधास्वामी वाले अपने गुरु को ही मालिक परमेश्वर भगवान ईश्वर मानते हैं. वो साक्षात ईश्वर का अवतार हैं. आसाराम, राम रहीम के भक्त तो और भी महान हैं उनके काले कारनामों के सब पोल खुल जाने, उन्हें जेल हो जाने पर भी सड़कों पर भक्त बनकर इनको ईश्वर मान रात दिन उसके गुण गाते हैं.

साधुओं की संघ के साथ सांठ-गांठ बहुत पुरानी है. आजकल ये संघ जमात के साधु समाज को आक्रान्त किए हुए हैं. संघ जमात अभी सत्ता में है और इसका लाभ उठा कर साधुओं ने सत्ता पाने का रास्ता और समाज में मनमानी करने की छुट एक साथ हासिल की है. सुख सुविधा, मोहमाया, भोग विलासिता त्याग कर समाज में शांति स्थापित करने वाले साधु संत आज संसद का हिस्सा बने बैठे हैं. संसद तक पहुँचने के लिए वे गुनाहों के रास्ते पर चलने से भी परहेज नहीं करते हैं. साधु के वर्तमान चरित्र को समझने के लिए संघ के चरित्र को देख लेना पर्याप्त होगा जिनके वे अनुगामी बने हुए हैं. पिछले 7 सालों से सत्ता में बैठे संघ के नेताओं नें देश को अपनी नियत और कारनामे दिखा दिए हैं, जो सर्व विदित है. इनके बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि सत्ता में बैठे इन लोगों का विरोध करने वाले लोगों को वो देश का विरोध बताते हैं. इससे जाहिर होता है कि अपने विरोधियों के लिए ये घृणा से भरे होते हैं. इनसे प्रेरित साधु धार्मिक मामलों में भी झूठ, फरेब, और धोखाधारी का निसंकोच सहारा लेते हैं. संघ का अंतिम लक्ष्य देश को राजनैतिक आर्थिक व् सांस्कृतिक रूप से पंगु बनाना है, दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि साधु भी आज इनके कार्यों के कुशल वाहक हैं. 

नोट- उपरोक्त विचार लेखक के निजी हैं

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