पितृसत्ता का प्रतीक कन्यादान और भारतीय परंपराओं को चुनौती देते विज्ञापन

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: September 27, 2021
इस हफ्ते मोहे फैशन ब्रांड का विज्ञापन रिलीज हुआ है. इस विज्ञापन में फ़िल्म अभिनेत्री आलिया भट्ट ने दुल्हन की भूमिका निभाई है. इस विज्ञापन की संकल्पना प्रगतिशील है जो समकालीन इश्तिहार से अलग हटके है. इसमें शादी की परंपरा में शामिल पितृसत्ता के प्रतीक को ललकारा है. जैसे कि हम सभी को पता है पिछले कुछ सालों में भारत की राजनीति और धर्म में अंतर कम होता गया है. राजनीति में धर्म समा गया है और धर्म में राजनीति. इसीलिए छोटी-छोटी बातों पर धार्मिक भावनाएं आहत होने का इल्जाम लगाकर फसाद खड़ा किया जाता है. इसके पीछे दो वजह होती है. एक तो उसी समय चल रहे किसी राजनीतिक घटना को किनारे कर के इस तथाकथित फसाद पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना या तो दूसरा इस घटना पर धार्मिक भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाकर अपनी राजनीतिक वोट बैंक पुख्ता करना.



आलिया भट्ट के इस इश्तिहार में शादी की परंपरा में विषमताओं पर सवाल खड़े किए हैं. और ऐसा करने वाला यह कोई पहला विज्ञापन या घटना नहीं है. उसमें दो प्रमुख बातों पर आलोचकों को आपत्ति है. एक तो जिसमें आलिया भट्ट कहती है ‘बेटी कोई पराया धन नहीं होती’ और दूसरी ‘कन्या कोई दान करने की चीज नहीं है इसीलिए उसे बदलकर क्यों ना कन्या मान किया जाए’. एक अन्य विज्ञापन कैडबरी  का है जिसमें चेन्नई की तैराक और अभिनेत्री काव्या रामाचंद्रन क्रिकेटर की भूमिका में है. हाल में चर्चा में रहे इन विज्ञापनों में एक विज्ञापन भारतीय समाज में वर्षों से चली आ रही परंपराओं और रीति-रिवाज पर सवाल उठाता है तो दूसरा लैंगिक रूढ़िवादिता पर जोरदार प्रहार है. कुछ समय पहले चर्चा में रहे तनिष्क द्वारा प्रसारित विज्ञापन ने भी देश के हिन्दू-मुस्लिम एकता को और आपसी प्यार को बखूबी दर्शाया था हालाँकि आलोचनाओं के बाद तनिष्क के द्वारा उस विज्ञापन को हटा लिया गया था. 

क्या है पितृसत्ता का प्रतीक कन्यादान
भारतीय संस्कृति के शास्त्र कारों ने विवाह के आठ तरीके बताए हैं. ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस व पैशाच. पहले 4 विवाह पद्धति ब्राह्मण के लिए और बाकी के 4 क्षत्रीय के लिए ऐसा माना जाता है. ज्ञानी व शीलवान पुरुष को आमंत्रित करके उसकी पूजा करके उसको वस्त्र आभूषणों से कन्यादान करने की क्रिया को ब्राह्म विवाह कहते हैं. कन्या को आभूषणों से अलंकृत करके यज्ञ में काम करने वाले रित्विज पुरुष को कन्या दिए जाने के क्रिया को दैव प्रकार का विवाह कहा जाता है. वर्ग के पास से एक या दो गोमिथुन (बैल और गाय) लेकर कन्यादान करने की क्रिया को आर्ष प्रकार कहा जाता है. आप दोनों सहधर्माचरण करिए ऐसे कह के और वर्ग की पूजा करके कन्यादान करने की क्रिया को प्राजापत्य प्रकार कहते हैं. कन्या के पिता या रिश्तेदारों और खुद कन्या को यथाशक्ति धन देकर वर खुद की इच्छा से उसका स्वीकार करता है तो उसे असुर प्रकार कहते हैं. कन्या और वर दोनों एक दूसरे को प्रेम से स्वेच्छा से स्वीकार करने के क्रिया को गांधर्व प्रकार कहते हैं. कन्या के साथ मारपीट कर उसके घर को ध्वस्त कर और वह जब आक्रोश कर रही हो रो रही हो तो उसका अपहरण करना यह राक्षस विवाह कहलाता है. कन्या सो रही हो, कन्या नशे में हो या कन्या अचेत अवस्था में हो ऐसे में उसके साथ रिश्ता बनाना यह पापी और आदम ऐसा पैशाच नाम का आठवां प्रकार है.

विवाह के इस अलग-अलग तरीकों पर तर्कतीर्थ लक्ष्मण साक्षी जोशी ने अपने विचार रखें है. उनके अनुसार, “आर्ष विवाह की निंदा महाभारत में की गई है क्योंकि वह कन्या बिक्री का एक तरीका है. असुर विवाह भी कन्या बिक्री का ही अलग रूप है. गंधर्व और प्रजापत्य यह दो विवाह तरीके छोड़कर बाकी सारे विवाह पुरुष प्रधान विवाह के निदर्शक है. ब्राह्मण विवाह में कन्यादान के समावेश के कारण स्त्री पर संपत्ति की तरह अपना मालिकाना हक जताया जाता है. महिलाओं को यह कन्याओं को बेचने की यह परंपरा ब्राह्म विवाह का समर्थन देने वाले प्राचीन समाज में अस्तित्व में होगी ऐसा अनुमान लगाने में कोई दिक्कत नहीं."

पहले 4 तरह के विवाह धर्म विवाह की श्रेणी में आते है ऐसा कौटिल्य ने कहा है. इसका मतलब आखिर के चार तरह के विवाह अधर्म विवाह की श्रेणी रखा गया है. इन विवाह से महिला पिता के गोत्र का विसर्जन करके पति के गोत्र में विलीन हो जाती है जैसे कि निर्णय सिंधु ने कहा है जिसका विवाह हुआ वह स्त्री पिंड गोत्र और सूतक इसके लिए पति के साथ एक रूप हो गई. मैत्रेय संहिता में कहा गया है पति ने खरीदी हुई जो महिला अन्य पुरुष के साथ घूमती है वह असल में पाप करती है. इसका मतलब है उस जमाने में महिला खरीदी-बेची जाती थी. जैमिनी के मीमांसा सूत्र में पूर्व पक्ष स्वरूप में आए विचार कुछ इस तरह है" महिलाओं की खरीदी बिक्री हो सकती है पिता उनको बेचते हैं और पुरुष उनको खरीदते हैं."

धार्मिक भावनाएं आहत होने का प्रचार
आलिया भट्ट को और इस विज्ञापन को ट्रोल करने के पीछे हिंदू धार्मिक भावनाएं आहत होने का कारण दिया गया. यह लोग भारत में सामाजिक सुधार का इतिहास भूल जाते हैं या उसको भूलने का नाटक करते हैं. लेकिन हमें हमेशा गौरवशाली हमारा इतिहास याद दिलाना चाहिए. महात्मा फुले, सावित्रीबाईफुले, फातिमाशेख, पेरियार, डॉ. बाबासाहेबआंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने स्त्री पुरुष और हर तरह के विषमता पर आधारित धार्मिक परंपरा का वैज्ञानिक सोच के कसौटी पर विश्लेषण किया और गलत परंपराओं का विरोध किया. इसी प्रक्रिया के तहत आज जो भारत में आधुनिक समाज दिख रहा है वह उसी नीव पर खड़ा है. महात्मा फुले सावित्रीबाईफुले जैसे समाज सुधारको ने पितृसत्ता के खिलाफ अगर कदम नहीं बढ़ाए होते तो आज की महिलाएं सिर्फ चूल्हा फुकते नजर आती. धार्मिक कुरीति सती प्रथा के खिलाफ अगर राजा राममोहन राय और अन्य समाज सुधारको ने आवाज नहीं उठाई होती तो आज 21वीं सदी में भी महिलाओं को अपने पति की चिता के साथ सती होना पड़ता और उसका विरोध करने वाले लोगों को धर्म द्रोही या देशद्रोही साबित करके उनको जेल में बंद कर दिया होता. लेकिन आज सावित्रीबाईफुले के योगदान के चलते जो महिलाएं पढ़ी लिखी है वह भी आलिया भट्ट जैसे कलाकारों को हिंदू भावनाएं आहत होने के नाम पर ट्रोल कर रही है. दुनिया के हर चीज को वैज्ञानिक सोच के कसौटी पर खरा उतरना पड़ेगा और जो नहीं खरा उतरेगी उसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी पड़ेगी. उसके लिए जो भी कीमत प्रगतिशील शक्तियों को कलाकारों को चुकानी पड़े उसके लिए तैयार रहना पड़ेगा. जो लोग आधुनिकता के फायदे उठा रहे हैं लेकिन सनातन विचारों का समर्थन कर रहे हैं उनके दोहरे रवैया का पर्दाफाश करना होगा.

हमारी संवैधानिक सोच
भारत का संविधान दुनिया भर के अच्छे संविधान में से एक है. वह प्रगतिशील विचारों को तथा वैज्ञानिक सोच को प्रेरित करता है. संविधान के आर्टिकल 51(c) में प्रदान किया गया है कि भारत के हर व्यक्ति का यह परम कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक सोच का पालन करें और उसका प्रचार करें. स्त्री पुरुष समानता की जो बात करता है वह भारतीय संविधान के अनुसार ही चल रहा है. भारत का संविधान हर तरह के जाति, धर्म, लिंग, भाषा, वंश इसके आधार पर भेदभाव के खिलाफ है उसकी सराहना करनी चाहिए. जो लोग स्त्री पुरुष समानता के खिलाफ है उनका विरोध करना चाहिए.

मनुस्मृति के खिलाफ एकजुटता 
भारत की वर्तमान फासीवादी सरकार और उनके सांस्कृतिक संगठन यह मनुस्मृति के सोच को बढ़ावा दे रहे हैं. जो मनुस्मृति पितृसत्ता का प्रतीक है उसका उदात्तीकरण नए पैकेजिंग के साथ किया जा रहा है. जो मनुस्मृति महिला को एक वस्तु के रूप में देखती है. उसे आज के सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था में फिट करने का प्रयास यह पितृसत्ताक ताकतें कर रही है. 

"पिता रक्षति कौमार्य
भर्ता रक्षतियोवनी
रक्षतिस्थवीरे पुत्र:
न स्त्री स्वातंत्र्य अर्हती"

यह मनुस्मृती मे खुले तरीके से कहा गया है. पिता महिला के बचपन को नियंत्रित करे, पति महिला के जवानी को नियंत्रित करे, पुत्र महिला के बुढापे को नियंत्रित करे, महिला को स्वतंत्रता ना बहाल करे. ये सोच रखने वाली मनुस्मृती के अंश आज भी हमारे परंपरा मे जीवित है. उसके खिलाफ हमे एकजुटता से खडा रहना होगा. धर्म के ठेकेदार का गुस्सा भी सहना पडेगा. हर उस शोषण के प्रति हमें शून्य सहिष्णुता दिखानी पड़ेगी. अगर हम उससे समझौता करते रहे तो यही पितृसत्ता के अंश एक दिन तालिबान को जन्म देंगे. समतामूलक समाज का सपना साकार करने के लिए हमें हर फ्रंट पर लड़ना होगा और इस समतामूलक समाज की नीव स्त्री पुरुष समानता से रखी जाएगी. यह बुनियादी समानता है.

अब बैट्समैन नहीं बैटर
डॉ. बाबासाहेब भीम राव अम्बेडकर ने सांस्कृतिक संघर्ष में प्रतीक भंजन को महत्व दिया है. हमारे छोटे छोटे संघर्ष बाद में बड़ा सामाजिक परिवर्तन लाते हैं. इस दिशा में संबोधन जो किसी विचारधारा का प्रतीक है उसके खिलाफ हमें लड़कर बदलाव लाने की जरूरत है. चाहे वह शिक्षा हो, व्यापार हो, राजनीति हो, या खेलकूद हो, हर क्षेत्र में महिलाएं आज आगे बढ़ रही है. यह भौतिक परिवर्तन का स्वागत करने के साथ ही हमें उस सांस्कृतिक प्रतीकों को भी हटाने की मांग पर जोर देना होगा. जैसे कि अभी क्रिकेट में महिलाएं पुरुषों की तरह बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. कभी यह सिर्फ पुरुषों का खेल हुआ करता था. लेकिन इसमें बढ़ती महिलाओं की हिस्सेदारी और क्षमता का प्रदर्शन हमें वहां के पितृसत्तापुरुषवादी प्रतीकों को हटाने की जरूरत का एहसास कराते हैं. इसीलिए बैट्समैन यह संज्ञा बदलकर बैटर रखना इस शुरुआत का स्वागत करना चाहिए.

वर्तमान दौर पूंजीवादी दौर है. इसमें सिर्फ जमीनदारी व्यवस्था की तरह धार्मिक सांस्कृतिक व्यवस्था के माध्यम से महिलाओं को गुलाम नहीं रखा जाता. पूंजीवाद भी महिलाओं का शोषण करता है. उनको  बाजारवाद में एक वस्तु की तरह पेश करता है. भारत जैसे कई देशों में पूंजीवादी ताकतें सनातन विचारों और उसका प्रचार करने वाले संगठनों के साथ गठजोड़ कर महिलाओं को पहले की तरह गुलाम रखना चाहती है. इस षड्यंत्र को उजागर करना होगा. सिर्फ पूंजीवाद का बाहरी चेहरा तंत्र विज्ञान का इस्तेमाल करके इस शोषण से मुक्ति नहीं मिलेगी. उस तंत्र विज्ञान के साथ हमें हर तरह के विषमता से आजादी की सोच विकसित करनी होगी. महिलाओं पर हो रहे हर उस सांस्कृतिक आक्रमण का वैज्ञानिक सोच के आधार पर विश्लेषण कर उसके खिलाफ निडरता से खड़ा रहना होगा. इसमें किसी भी चीज को मामूली नहीं ठहराया जा सकता. हर छोटी-बड़ी विषमता पूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक के खिलाफ प्रहार करना पड़ेगा. यही एकमात्र विकल्प सांस्कृतिक गुलामगिरी से बचने के लिए और समता मूलक समाज की ओर बढ़ने के लिए हमारे सामने हैं. 

Related:
महिलाओं के खिलाफ अपराध उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा: NCRB रिपोर
देश में महिला उत्पीड़न में 46% की बढ़ोत्तरी, 50% के इजाफे के साथ यूपी नंबर वन

बाकी ख़बरें