पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में इमारत-ए-शरिया के बैनर तले ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस में लाखों मुसलमान शरीक हुए. इनका जोशो-ख़रोश देखने लायक़ था. अपने दीन को बचाने और उसके लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा व हौसला हर किसी के चेहरे पर नज़र आया. चिलचिलाती धूप मानों इस जन-सैलाब के आगे दम तोड़ रही थी. अपने ‘रहनुमा’ की आवाज़ पर लब्बैक कहने वालों को ये ऐतमाद था कि उनकी मांगों के सामने सरकार झुकेगी. और आगे उनकी मज़हबी आज़ादी में कोई दख़लअंदाज़ी नहीं होगी. इसी उम्मीद में पूरा गांधी मैदान ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद, इस्लाम ज़िन्दाबाद’ के नारों से गूंज उठा और साथ ही ये संदेश दे गया कि ‘ज़िन्दा’ क़ौमें ख़ौफ़ के माहौल में नहीं रहतीं…
लेकिन इन मासूम लोगों को क्या ख़बर कि उनकी इस ऐतिहासिक ‘भीड़’ को, इस मौजूदगी को, इस मांग को राजनीतिक गलियारों में अनसुना कर दिया गया. मीडिया ने भी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया. दुखद बात तो यह है कि इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस की ख़बर दिल्ली के बेश्तर अख़बारों व चैनलों में अपनी पहुंच भी नहीं बना सकी. सेक्यूलर कहलाने वाले पत्रकारों ने भी इसे ‘प्राईम टाईम’ के लिए मुनासिब नहीं समझा.
तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये कांफ्रेंस नाकाम हो गई. क्योंकि जिन मांगों को लेकर बिहार के मुसलमान आगे बढ़े थे, जिसे दीन के लिए ख़तरा बताया जा रहा था. उसे लेकर न कोई ठोस प्रस्ताव या उलेमाओं की प्लानिंग दूर-दूर तक नज़र आई और न ही इस कांफ्रेंस के बाद सरकार की तरफ़ से कोई ऐसा आश्वासन नज़र आया जिससे ये उम्मीद बंधे कि सरकार ‘ट्रिपल तलाक़’ पर अपना रूख़ पलटने जा रही है.
इससे भी अहम सवाल ये पैदा होता है कि —जिन मुसलमानों से क़ुरआन के लिए, प्यारे नबी सल्ल. के लिए और शरीअत के लिए एक दिन मांगा गया और उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ ये एक दिन दिया भी, उन्हें इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस से हासिल क्या हुआ? या फिर ये मान लिया जाए कि ये कांफ्रेंस दीन बचाने के लिए नहीं, बल्कि मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए थी? या इसी शक्ति प्रदर्शन के बहाने अपना मफ़ाद हासिल करना था?
ये कितना अजीब है कि जिस ट्रिपल तलाक़ बिल का मुद्दा इस कांफ्रेंस का ख़ास मुद्दा था. जिस नारे ‘हम अपनी शरीअत की हिफ़ाज़त के लिए उठ खड़े हों’ के साथ कांफ्रेंस में ‘भीड़’ इकट्ठा की गई, उस मुद्दे का हुआ क्या? नेताओं की तरह भाषण देने वाले इन उलेमाओं ने ट्रिपल तलाक़ बिल पर ऐसी कौन सी बात रखी, जो लोगों के लिए नई थी. या फिर इसे लेकर क्या हिकमत-ए-अमली है, इसे इस ‘ऐतिहासिक अवाम’ के सामने क्यों नहीं रखा गया. या फिर ये मान लिया जाए कि पीएम मोदी वली रहमानी के ज़रिए जुटाई इस ‘भीड़’ से इतना डर गए कि अपने दिमाग़ से इस बिल को ही निकाल दिया. या फिर पीएम मोदी इस कांफ्रेंस के आयोजकों को बुलाएंगे और कहेंगे —हुजूर! बताईए इस बिल में क्या रखा जाए और क्या न रखा जाए? आप जैसा कहेंगे, हम वैसा ही करेंगे…
चलिए ये मान लीजिए कि पीएम मोदी ने इस मसले पर हमारे उलेमाओं को बुला भी लिया तो ये उनके सामने रखेंगे क्या? क्या इस बिल को लेकर कोई ड्राफ्ट इनके पास है. कम से कम मुल्क के मुसलमानों को ही ये क्यों नहीं बता रहे हैं कि ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ जो बिल हो, वो कैसा हो या फिर इसे लेकर अदालत में हमें क्या करना चाहिए?
सवाल यह भी है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अब ये बात कह रहा है कि वह तीन तलाक़ यानी ‘तलाक़-ए-बिद्दत’ रोकने के लिए मॉडल निकाहनामा लाएगा. जबकि इस मॉडल निकाहनामे की बात इस देश के मुसलमान पिछले 10-12 सालों से सुन रहे हैं. काश, बोर्ड ने ये काम पहले ही कर लिया होता तो आज शायद ये स्थिति ही नहीं आती. सुप्रीम कोर्ट न इस पर प्रतिबंध लगाता, न सरकार को क़ानून लाने की ज़रूरत पड़ती और न मुसलमानों को नीचा दिखाया जाता.
इमारत-ए-शरिया के नाज़िम अनीसुर रहमान क़ासमी ने इस कांफ्रेंस के मंच से कहा कि, यह एक गैर-राजनीतिक कार्यक्रम है और लोगों से गुज़ारिश किया कि इसे किसी भी सियासत से जोड़कर न देखा जाए. लेकिन सवाल यह भी है कि ख़ालिद अनवर को किस हैसियत से इस ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस का कन्वेनर बनाया गया. और फिर किस हैसियत से इन्हें मंच संचालन करने दिया गया.
सवाल ये भी है कि मोदी के दोस्त नीतिश कुमार आपके दोस्त व हमदर्दद किस हैसियत में हैं? किन बुनियादों पर नीतिश कुमार ने आपके इस कांफ्रेंस का समर्थन किया? ये कैसे मुमकिन है?
जिस तरह से अब इमारत-ए-शरिया के लोग अलग-अलग बयान जारी कर रहे हैं कि इमारत-ए-शरिया ने ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस के नाम पर कोई सिफ़ारिश नहीं की. ठीक उसी तरह उस वक़्त इमारत-ए-शरिया का कोई बयान क्यों नहीं आया, जब सोशल मीडिया पर जदयू नेताओं द्वारा लगाए गए होर्डिंग्स पर सवाल उठाए जा रहे थे.
और उससे भी बड़ा सवाल जो हमले नीतिश सरकार में बिहार के मुसलमानों पर हो रहे हैं, उस पर ख़ामोशी क्यों अख़्तियार कर ली गई? क्या रोसड़ा की मस्जिद में भगवा झंडा फहरा देना ‘दीन’ पर हमला नहीं है?
बिहार में कई स्थानों पर साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है, नीतिश कुमार का रोल भा सबके सामने है, लेकिन इस मसले पर पूरे कांफ्रेंस में मुंह क्यों नहीं खोला गया, वो भी उस समय जब बिहार के अधिकतर ज़िलों में मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है. ये एक अच्छा मौक़ा था कि बिहार के साम्प्रदायिक हालात पर सवाल किए जाते, लेकिन कोई सवाल नहीं उठाया गया, तो आप पर सवाल तो उठेंगे ही.
शर्म की बात ये है कि इस मामले में अभी भी मुंह खोलने की बात तो बहुत दूर, यहां तो लगातार इमारत-ए-शरिया और वली रहमानी की ओर से नीतिश कुमार का शुक्रिया अदा किया जा रहा है.
ज़रा सा खुद ही सोचकर देखिए कि राजनीतिक रूप से इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस का सबसे अधिक फ़ायदा किसे मिला? यक़ीनन आपके ज़ेहन में नीतिश कुमार का ही नाम आएगा. और ये बात भी सच है कि इसका फ़ायदा सबसे अधिक फिलहाल नीतिश कुमार को ही मिलता दिख रहा है.
एक तो इतना होनहार व ईमानदार बतौर एमएलसी नेता मिल गया, वहीं नीतिश कुमार को बैठे-बैठाए मुसलमानों में अपने प्रचार का ज़बरदस्त मौक़ा भी. बिहार में लगे दो हज़ार से अधिक होर्डिंग्स इस बात के गवाह हैं. इन तमाम होर्डिंग्स पर बिहार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए अब तक किए गए कामों का ज़िक्र है, तो वहीं भविष्य की योजनाओं का उल्लेख भी. जानकार बताते हैं कि आज़ादी के बाद बिहार में सरकारी स्तर पर कभी इतने होर्डिंग्स एक बार में नहीं लगाए गए, जिनका संबंध अल्पसंख्यकों से रहा हो.
याद रखें इस पूरे ‘खेल’ के पीछे सबसे अहम नाम यक़ीनन मौलाना वली रहमानी साहब का है. जो पहले एक मंझे हुए सियासतदां हैं फिर बाद में आलिम-ए-दीन. मैं यहां उनके व्यक्तिगत मामलों पर सवाल नहीं उठाऊंगा. इसके लिए 80 के दशक में अख़बार के पन्नों को पलटिए, उनकी पूरी कहानी समझ आ जाएगी.
बहरहाल, मौलाना की अपनी एक पॉलिटिकल आईडेंटिटी है. कांग्रेस से जुड़े हुए हैं. 1974 से 1996 तक बिहार में एमएलसी रहे. विधान परिषद के डिप्टी स्पीकर भी बनाए जा चुके हैं. फिर वालिद मोहतरम के इंतक़ाल के बाद खानकाह रहमानी के सज्जादानशीं बने, लेकिन यहां भी मौलाना सियासत से दूर नहीं रह सकें. वो लगातार कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं. यक़ीनन इस दौरान मौलाना के कई बेहतर काम भी हैं, जिससे मुस्लिम क़ौम को फ़ायदा हासिल हो रहा है और आगे भी होता रहेगा और इनके इन कामों की तारीफ़ हमेशा होती रही है और आगे भी होती रहेगी. लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं है कि ‘दीन’ की आड़ में पूरी क़ौम को ही गिरवी रख दें.
काश! अमीर-ए-शरियत मौलाना वली रहमानी ने ‘इमारत-ए-शरिया’ के संस्थापक मौलाना अबुल मुहासिन मोहम्मद सज्जाद अज़ीमाबादी से ही कोई सबक़ लिया होता कि वो खुद प्राईम मिनिस्टर (प्रीमियम) नहीं बने, बल्कि बैरिस्ट मोहम्मद युनूस को ये ओहदा दे दिया. सूबे बिहार की हुकूमत मौलाना और सिर्फ़ मौलाना की थी, लेकिन अपने परेशानहाल दामाद मौलवी अली हसन साहब रौनक को पांच रूपये की नौकरी के लिए सिफ़ारिश नहीं की… और मौलाना की ये कहानी खुद वली रहमानी के वालिद मोहतरम मौलाना मिनतुल्लाह रहमानी ने अपने कई लेखों में लिखा है.
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लेकिन इन मासूम लोगों को क्या ख़बर कि उनकी इस ऐतिहासिक ‘भीड़’ को, इस मौजूदगी को, इस मांग को राजनीतिक गलियारों में अनसुना कर दिया गया. मीडिया ने भी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया. दुखद बात तो यह है कि इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस की ख़बर दिल्ली के बेश्तर अख़बारों व चैनलों में अपनी पहुंच भी नहीं बना सकी. सेक्यूलर कहलाने वाले पत्रकारों ने भी इसे ‘प्राईम टाईम’ के लिए मुनासिब नहीं समझा.
तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये कांफ्रेंस नाकाम हो गई. क्योंकि जिन मांगों को लेकर बिहार के मुसलमान आगे बढ़े थे, जिसे दीन के लिए ख़तरा बताया जा रहा था. उसे लेकर न कोई ठोस प्रस्ताव या उलेमाओं की प्लानिंग दूर-दूर तक नज़र आई और न ही इस कांफ्रेंस के बाद सरकार की तरफ़ से कोई ऐसा आश्वासन नज़र आया जिससे ये उम्मीद बंधे कि सरकार ‘ट्रिपल तलाक़’ पर अपना रूख़ पलटने जा रही है.
इससे भी अहम सवाल ये पैदा होता है कि —जिन मुसलमानों से क़ुरआन के लिए, प्यारे नबी सल्ल. के लिए और शरीअत के लिए एक दिन मांगा गया और उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ ये एक दिन दिया भी, उन्हें इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस से हासिल क्या हुआ? या फिर ये मान लिया जाए कि ये कांफ्रेंस दीन बचाने के लिए नहीं, बल्कि मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए थी? या इसी शक्ति प्रदर्शन के बहाने अपना मफ़ाद हासिल करना था?
ये कितना अजीब है कि जिस ट्रिपल तलाक़ बिल का मुद्दा इस कांफ्रेंस का ख़ास मुद्दा था. जिस नारे ‘हम अपनी शरीअत की हिफ़ाज़त के लिए उठ खड़े हों’ के साथ कांफ्रेंस में ‘भीड़’ इकट्ठा की गई, उस मुद्दे का हुआ क्या? नेताओं की तरह भाषण देने वाले इन उलेमाओं ने ट्रिपल तलाक़ बिल पर ऐसी कौन सी बात रखी, जो लोगों के लिए नई थी. या फिर इसे लेकर क्या हिकमत-ए-अमली है, इसे इस ‘ऐतिहासिक अवाम’ के सामने क्यों नहीं रखा गया. या फिर ये मान लिया जाए कि पीएम मोदी वली रहमानी के ज़रिए जुटाई इस ‘भीड़’ से इतना डर गए कि अपने दिमाग़ से इस बिल को ही निकाल दिया. या फिर पीएम मोदी इस कांफ्रेंस के आयोजकों को बुलाएंगे और कहेंगे —हुजूर! बताईए इस बिल में क्या रखा जाए और क्या न रखा जाए? आप जैसा कहेंगे, हम वैसा ही करेंगे…
चलिए ये मान लीजिए कि पीएम मोदी ने इस मसले पर हमारे उलेमाओं को बुला भी लिया तो ये उनके सामने रखेंगे क्या? क्या इस बिल को लेकर कोई ड्राफ्ट इनके पास है. कम से कम मुल्क के मुसलमानों को ही ये क्यों नहीं बता रहे हैं कि ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ जो बिल हो, वो कैसा हो या फिर इसे लेकर अदालत में हमें क्या करना चाहिए?
सवाल यह भी है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अब ये बात कह रहा है कि वह तीन तलाक़ यानी ‘तलाक़-ए-बिद्दत’ रोकने के लिए मॉडल निकाहनामा लाएगा. जबकि इस मॉडल निकाहनामे की बात इस देश के मुसलमान पिछले 10-12 सालों से सुन रहे हैं. काश, बोर्ड ने ये काम पहले ही कर लिया होता तो आज शायद ये स्थिति ही नहीं आती. सुप्रीम कोर्ट न इस पर प्रतिबंध लगाता, न सरकार को क़ानून लाने की ज़रूरत पड़ती और न मुसलमानों को नीचा दिखाया जाता.
इमारत-ए-शरिया के नाज़िम अनीसुर रहमान क़ासमी ने इस कांफ्रेंस के मंच से कहा कि, यह एक गैर-राजनीतिक कार्यक्रम है और लोगों से गुज़ारिश किया कि इसे किसी भी सियासत से जोड़कर न देखा जाए. लेकिन सवाल यह भी है कि ख़ालिद अनवर को किस हैसियत से इस ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस का कन्वेनर बनाया गया. और फिर किस हैसियत से इन्हें मंच संचालन करने दिया गया.
सवाल ये भी है कि मोदी के दोस्त नीतिश कुमार आपके दोस्त व हमदर्दद किस हैसियत में हैं? किन बुनियादों पर नीतिश कुमार ने आपके इस कांफ्रेंस का समर्थन किया? ये कैसे मुमकिन है?
जिस तरह से अब इमारत-ए-शरिया के लोग अलग-अलग बयान जारी कर रहे हैं कि इमारत-ए-शरिया ने ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ कांफ्रेंस के नाम पर कोई सिफ़ारिश नहीं की. ठीक उसी तरह उस वक़्त इमारत-ए-शरिया का कोई बयान क्यों नहीं आया, जब सोशल मीडिया पर जदयू नेताओं द्वारा लगाए गए होर्डिंग्स पर सवाल उठाए जा रहे थे.
और उससे भी बड़ा सवाल जो हमले नीतिश सरकार में बिहार के मुसलमानों पर हो रहे हैं, उस पर ख़ामोशी क्यों अख़्तियार कर ली गई? क्या रोसड़ा की मस्जिद में भगवा झंडा फहरा देना ‘दीन’ पर हमला नहीं है?
बिहार में कई स्थानों पर साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है, नीतिश कुमार का रोल भा सबके सामने है, लेकिन इस मसले पर पूरे कांफ्रेंस में मुंह क्यों नहीं खोला गया, वो भी उस समय जब बिहार के अधिकतर ज़िलों में मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है. ये एक अच्छा मौक़ा था कि बिहार के साम्प्रदायिक हालात पर सवाल किए जाते, लेकिन कोई सवाल नहीं उठाया गया, तो आप पर सवाल तो उठेंगे ही.
शर्म की बात ये है कि इस मामले में अभी भी मुंह खोलने की बात तो बहुत दूर, यहां तो लगातार इमारत-ए-शरिया और वली रहमानी की ओर से नीतिश कुमार का शुक्रिया अदा किया जा रहा है.
ज़रा सा खुद ही सोचकर देखिए कि राजनीतिक रूप से इस ऐतिहासिक कांफ्रेंस का सबसे अधिक फ़ायदा किसे मिला? यक़ीनन आपके ज़ेहन में नीतिश कुमार का ही नाम आएगा. और ये बात भी सच है कि इसका फ़ायदा सबसे अधिक फिलहाल नीतिश कुमार को ही मिलता दिख रहा है.
एक तो इतना होनहार व ईमानदार बतौर एमएलसी नेता मिल गया, वहीं नीतिश कुमार को बैठे-बैठाए मुसलमानों में अपने प्रचार का ज़बरदस्त मौक़ा भी. बिहार में लगे दो हज़ार से अधिक होर्डिंग्स इस बात के गवाह हैं. इन तमाम होर्डिंग्स पर बिहार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए अब तक किए गए कामों का ज़िक्र है, तो वहीं भविष्य की योजनाओं का उल्लेख भी. जानकार बताते हैं कि आज़ादी के बाद बिहार में सरकारी स्तर पर कभी इतने होर्डिंग्स एक बार में नहीं लगाए गए, जिनका संबंध अल्पसंख्यकों से रहा हो.
याद रखें इस पूरे ‘खेल’ के पीछे सबसे अहम नाम यक़ीनन मौलाना वली रहमानी साहब का है. जो पहले एक मंझे हुए सियासतदां हैं फिर बाद में आलिम-ए-दीन. मैं यहां उनके व्यक्तिगत मामलों पर सवाल नहीं उठाऊंगा. इसके लिए 80 के दशक में अख़बार के पन्नों को पलटिए, उनकी पूरी कहानी समझ आ जाएगी.
बहरहाल, मौलाना की अपनी एक पॉलिटिकल आईडेंटिटी है. कांग्रेस से जुड़े हुए हैं. 1974 से 1996 तक बिहार में एमएलसी रहे. विधान परिषद के डिप्टी स्पीकर भी बनाए जा चुके हैं. फिर वालिद मोहतरम के इंतक़ाल के बाद खानकाह रहमानी के सज्जादानशीं बने, लेकिन यहां भी मौलाना सियासत से दूर नहीं रह सकें. वो लगातार कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं. यक़ीनन इस दौरान मौलाना के कई बेहतर काम भी हैं, जिससे मुस्लिम क़ौम को फ़ायदा हासिल हो रहा है और आगे भी होता रहेगा और इनके इन कामों की तारीफ़ हमेशा होती रही है और आगे भी होती रहेगी. लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं है कि ‘दीन’ की आड़ में पूरी क़ौम को ही गिरवी रख दें.
काश! अमीर-ए-शरियत मौलाना वली रहमानी ने ‘इमारत-ए-शरिया’ के संस्थापक मौलाना अबुल मुहासिन मोहम्मद सज्जाद अज़ीमाबादी से ही कोई सबक़ लिया होता कि वो खुद प्राईम मिनिस्टर (प्रीमियम) नहीं बने, बल्कि बैरिस्ट मोहम्मद युनूस को ये ओहदा दे दिया. सूबे बिहार की हुकूमत मौलाना और सिर्फ़ मौलाना की थी, लेकिन अपने परेशानहाल दामाद मौलवी अली हसन साहब रौनक को पांच रूपये की नौकरी के लिए सिफ़ारिश नहीं की… और मौलाना की ये कहानी खुद वली रहमानी के वालिद मोहतरम मौलाना मिनतुल्लाह रहमानी ने अपने कई लेखों में लिखा है.
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