सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न मामले में सुनवाई करने वाले ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया है कि वे पीड़ितों को मुआवजा देने का आदेश अनिवार्य रूप से दें।
यौन उत्पीड़न मामलों की सुनवाई करने वाले ट्रायल कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि वे अनिवार्य रूप से पीड़ितों को मुआवजा देने का आदेश दें खासकर यदि पीड़ित नाबालिग और महिलाएं हों।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस बीवी नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा कि ‘ट्रायल कोर्ट जो विशेष रूप से नाबालिग बच्चों और महिलाओं पर यौन उत्पीड़न आदि जैसे शारीरिक चोटों से संबंधित मामले का फैसला करता है तो उसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य के आधार पर पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश देना चाहिए।’
यह आदेश यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के एक मामले में पारित किया गया। यह आदेश तब पारित किया गया जब न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े और अधिवक्ता मुकुंद पी. उन्नी ने इस बात का जिक्र किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 357A, जो राज्य सरकारों को पीड़ित मुआवजा योजना लागू करने का प्रावधान करती है, इसका शायद ही कभी कार्यान्वयन किया गया है।
शीर्ष कोर्ट ने आदेश में कहा, ‘यह नोट किया गया है कि पीड़ित को मुआवजा देने के निर्देश का अमल जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा किया जाना है, जैसा भी मामला हो, तथा मुआवजा पीड़ितों को यथाशीघ्र जारी किया जाना है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ट्रायल कोर्ट प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर अंतरिम मुआवजे के भुगतान का निर्देश भी दे सकते हैं। पीठ ने सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह अपने आदेशों की प्रतियां विभिन्न राज्य उच्च न्यायालयों को भेजे ताकि उन्हें देश भर के जिला न्यायाधीशों को भेजा जा सके।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में 13 वर्षीय नाबालिग से यौन उत्पीड़न के आरोपी एक व्यक्ति की जमानत याचिका की सुनवाई करते हुए अदालत ने यह निर्देश दिया। आरोपी अपनी सजा को निलंबित करने और जमानत देने की मांग करते हुए शीर्ष अदालत पहुंचा था। इससे पहले उसकी याचिका को इस साल 14 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
शीर्ष कोर्ट को बताया गया कि आरोपी को साल 2020 में 20 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी लेकिन ट्रायल कोर्ट के जज ने इस मामले में मुआवजा देने का आदेश नहीं दिया। आरोपी को दोषी ठहराया गया और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376डी के तहत 20 साल और पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत 10 साल की सजा सुनाई गई।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमें लगता है कि पीड़ित को मुआवजा देने के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया है। ट्रायल कोर्ट की ओर से इस तरह की चूक से सीआरपीसी की धारा 357-ए के तहत किसी भी मुआवजे के भुगतान में देरी होगी…। अंतरिम मुआवजे के भुगतान के लिए भी निर्देश दिया जा सकता है, जिसे ट्रायल कोर्ट प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर दे सकता है।’
कोर्ट ने पीड़िता को पॉक्सो नियम, 2020 के तहत मुआवजे का हकदार माना और बॉम्बे हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह योजना के तहत मुआवजा देने के लिए उसके मामले पर तुरंत विचार करे जो कि अंतरिम प्रकृति का होगा।
कोर्ट ने यह देखते हुए आरोपी को जमानत भी दे दी कि उसने अपनी आधी से ज़्यादा सजा काट ली है और हाई कोर्ट द्वारा सजा बढ़ाए जाने की कोई संभावना नहीं है। अदालत ने अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया और स्पष्ट किया कि इस राहत से अपील की कार्यवाही में देरी नहीं होनी चाहिए।
यौन उत्पीड़न मामलों की सुनवाई करने वाले ट्रायल कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि वे अनिवार्य रूप से पीड़ितों को मुआवजा देने का आदेश दें खासकर यदि पीड़ित नाबालिग और महिलाएं हों।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस बीवी नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा कि ‘ट्रायल कोर्ट जो विशेष रूप से नाबालिग बच्चों और महिलाओं पर यौन उत्पीड़न आदि जैसे शारीरिक चोटों से संबंधित मामले का फैसला करता है तो उसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य के आधार पर पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश देना चाहिए।’
यह आदेश यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के एक मामले में पारित किया गया। यह आदेश तब पारित किया गया जब न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े और अधिवक्ता मुकुंद पी. उन्नी ने इस बात का जिक्र किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 357A, जो राज्य सरकारों को पीड़ित मुआवजा योजना लागू करने का प्रावधान करती है, इसका शायद ही कभी कार्यान्वयन किया गया है।
शीर्ष कोर्ट ने आदेश में कहा, ‘यह नोट किया गया है कि पीड़ित को मुआवजा देने के निर्देश का अमल जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा किया जाना है, जैसा भी मामला हो, तथा मुआवजा पीड़ितों को यथाशीघ्र जारी किया जाना है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ट्रायल कोर्ट प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर अंतरिम मुआवजे के भुगतान का निर्देश भी दे सकते हैं। पीठ ने सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह अपने आदेशों की प्रतियां विभिन्न राज्य उच्च न्यायालयों को भेजे ताकि उन्हें देश भर के जिला न्यायाधीशों को भेजा जा सके।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में 13 वर्षीय नाबालिग से यौन उत्पीड़न के आरोपी एक व्यक्ति की जमानत याचिका की सुनवाई करते हुए अदालत ने यह निर्देश दिया। आरोपी अपनी सजा को निलंबित करने और जमानत देने की मांग करते हुए शीर्ष अदालत पहुंचा था। इससे पहले उसकी याचिका को इस साल 14 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
शीर्ष कोर्ट को बताया गया कि आरोपी को साल 2020 में 20 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी लेकिन ट्रायल कोर्ट के जज ने इस मामले में मुआवजा देने का आदेश नहीं दिया। आरोपी को दोषी ठहराया गया और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376डी के तहत 20 साल और पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत 10 साल की सजा सुनाई गई।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमें लगता है कि पीड़ित को मुआवजा देने के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया है। ट्रायल कोर्ट की ओर से इस तरह की चूक से सीआरपीसी की धारा 357-ए के तहत किसी भी मुआवजे के भुगतान में देरी होगी…। अंतरिम मुआवजे के भुगतान के लिए भी निर्देश दिया जा सकता है, जिसे ट्रायल कोर्ट प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर दे सकता है।’
कोर्ट ने पीड़िता को पॉक्सो नियम, 2020 के तहत मुआवजे का हकदार माना और बॉम्बे हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वह योजना के तहत मुआवजा देने के लिए उसके मामले पर तुरंत विचार करे जो कि अंतरिम प्रकृति का होगा।
कोर्ट ने यह देखते हुए आरोपी को जमानत भी दे दी कि उसने अपनी आधी से ज़्यादा सजा काट ली है और हाई कोर्ट द्वारा सजा बढ़ाए जाने की कोई संभावना नहीं है। अदालत ने अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया और स्पष्ट किया कि इस राहत से अपील की कार्यवाही में देरी नहीं होनी चाहिए।