साउथ एशिया में निर्भीक डॉक्यूमेंट्रीज से लेकर सक्रियता तक, न्याय और आत्मनिर्णय के चैंपियन के रूप में तपन बोस की विरासत पीढ़ियों तक कायम रहेगी।
फोटो: डेक्कन हेराल्ड
प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता और मानवाधिकार कार्यकर्ता तपन कुमार बोस का 30 जनवरी, 2025 को निधन हो गया। वे न्याय, शांति और उत्पीड़ितों के अधिकारों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की विरासत छोड़ गए। अपनी फिल्मों, सक्रियता और मुखर आवाज के जरिए बोस ने दक्षिण एशिया के मानवाधिकार आंदोलन में एक अनूठी जगह बनाई। उन्होंने राज्य की हिंसा, सैन्यीकरण और पूरे क्षेत्र में समुदायों के हाशिए पर धकेले जाने को चुनौती दी।
बोस की सक्रियता 1970 के दशक के उत्तरार्ध में भारत के आपातकाल के दौरान शुरू हुई जो राजनीतिक उथल-पुथल और दमन का दौर था। उनकी शुरुआती डॉक्यूमेंट्रीज़ जैसे कि एन इंडियन स्टोरी ऑन भागलपुर बाइंडिंग्स (1981) और भोपाल: बियॉन्ड जेनोसाइड (1986) ने भारत के कुछ सबसे भयावह मानवाधिकार उल्लंघनों पर प्रकाश डाला। उन्होंने भागलपुर में पुलिस द्वारा विचाराधीन कैदियों की क्रूर हत्या का निडरता से रिकॉर्ड किया और भोपाल गैस त्रासदी के पीछे कॉर्पोरेट और सरकारी उपेक्षा को उजागर किया। उनका काम पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हिंसा तक फैला हुआ था, जहां वे राज्य के उत्पीड़न के पीड़ितों के साथ एकजुटता में खड़े थे।
फिल्म निर्माण से इतर बोस ने पूरे दक्षिण एशिया में नागरिक समाज की पहल को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे साउथ एशिया फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स और पाकिस्तान-इंडिया पीपल्स फॉोरम फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी (PIPFPD) जैसे संगठनों के संस्थापक सदस्य थे, जो संवाद और शांति के लिए दोनों देशों के कार्यकर्ताओं को एक साथ जो़ड़ते थे। वे पीपल्स ट्रिब्यूनल ऑन अयोध्या का भी हिस्सा थे, जिसने बाबरी मस्जिद विध्वंस के पीछे सांप्रदायिक राजनीति की आलोचनात्मक पड़ताल की। न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद भी रही जहां उन्होंने जवाबदेही और पुनर्वास की मांग करने के लिए पीड़ितों के साथ काम किया।
बोस का संघर्ष भारत तक ही सीमित नहीं था। उनकी मित्रता और सहयोग बलूचिस्तान, बर्मा, श्रीलंका और रोहिंग्या शरणार्थी संकट तक थे, जहां उन्होंने युद्ध, जातीय संघर्ष और विस्थापन से बेआवाज लोगों की आवाज उठाई। वे प्राकृतिक संसाधनों के पूंजीवादी शोषण के खिलाफ दृढ़ता से खड़े थे और ट्रेड यूनियनों, मछुआरों और वनकर्मियों के करीबी सलाहकार थे। वे उनके संघर्षों को उत्पीड़न के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई के हिस्से के रूप में पहचानते थे।
मानवाधिकार आंदोलन में बोस की सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक कश्मीर संघर्ष में उनकी भागीदारी थी। आत्मनिर्णय और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस द्वारा स्वतंत्र कश्मीर जनमत संग्रह और चुनावों के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया। इस क्षमता में उनका काम भारी राजनीतिक विरोध के बावजूद भी उत्पीड़ित समुदायों के अपने भविष्य को तय करने के अधिकारों में उनके दृढ़ विश्वास का प्रतीक था।
अपने अंतिम दिनों में भी बोस सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने राष्ट्रवाद और संकीर्णतावाद को चुनौती देने के लिए रवींद्रनाथ टैगोर और फैज़ अहमद फैज़ के कार्यों का सहारा लिया। वह भारत के विचार में दृढ़ विश्वास रखते थे, लेकिन उन्होंने कश्मीर और पूर्वोत्तर पर सैन्य कब्जे का भी विरोध किया, न्याय और शांति की मुखरता से वकालत की।
तपन बोस का जीवन प्रतिरोध, साहस और न्याय में अटूट विश्वास का प्रतीक था। उनकी फिल्मों, लेखन और सक्रियता ने दक्षिण एशिया में मानवाधिकार आंदोलन पर एक अमिट छाप छोड़ी है। दुनिया उनके गुजर जाने का शोक मना रही है, वहीं उनकी विरासत उनके द्वारा पोषित आंदोलनों और उन अनगिनत लोगों में जीवित है जिन्हें उन्होंने न्यायपूर्ण और समान दुनिया के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।
फोटो: डेक्कन हेराल्ड
प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता और मानवाधिकार कार्यकर्ता तपन कुमार बोस का 30 जनवरी, 2025 को निधन हो गया। वे न्याय, शांति और उत्पीड़ितों के अधिकारों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की विरासत छोड़ गए। अपनी फिल्मों, सक्रियता और मुखर आवाज के जरिए बोस ने दक्षिण एशिया के मानवाधिकार आंदोलन में एक अनूठी जगह बनाई। उन्होंने राज्य की हिंसा, सैन्यीकरण और पूरे क्षेत्र में समुदायों के हाशिए पर धकेले जाने को चुनौती दी।
बोस की सक्रियता 1970 के दशक के उत्तरार्ध में भारत के आपातकाल के दौरान शुरू हुई जो राजनीतिक उथल-पुथल और दमन का दौर था। उनकी शुरुआती डॉक्यूमेंट्रीज़ जैसे कि एन इंडियन स्टोरी ऑन भागलपुर बाइंडिंग्स (1981) और भोपाल: बियॉन्ड जेनोसाइड (1986) ने भारत के कुछ सबसे भयावह मानवाधिकार उल्लंघनों पर प्रकाश डाला। उन्होंने भागलपुर में पुलिस द्वारा विचाराधीन कैदियों की क्रूर हत्या का निडरता से रिकॉर्ड किया और भोपाल गैस त्रासदी के पीछे कॉर्पोरेट और सरकारी उपेक्षा को उजागर किया। उनका काम पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हिंसा तक फैला हुआ था, जहां वे राज्य के उत्पीड़न के पीड़ितों के साथ एकजुटता में खड़े थे।
फिल्म निर्माण से इतर बोस ने पूरे दक्षिण एशिया में नागरिक समाज की पहल को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे साउथ एशिया फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स और पाकिस्तान-इंडिया पीपल्स फॉोरम फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी (PIPFPD) जैसे संगठनों के संस्थापक सदस्य थे, जो संवाद और शांति के लिए दोनों देशों के कार्यकर्ताओं को एक साथ जो़ड़ते थे। वे पीपल्स ट्रिब्यूनल ऑन अयोध्या का भी हिस्सा थे, जिसने बाबरी मस्जिद विध्वंस के पीछे सांप्रदायिक राजनीति की आलोचनात्मक पड़ताल की। न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद भी रही जहां उन्होंने जवाबदेही और पुनर्वास की मांग करने के लिए पीड़ितों के साथ काम किया।
बोस का संघर्ष भारत तक ही सीमित नहीं था। उनकी मित्रता और सहयोग बलूचिस्तान, बर्मा, श्रीलंका और रोहिंग्या शरणार्थी संकट तक थे, जहां उन्होंने युद्ध, जातीय संघर्ष और विस्थापन से बेआवाज लोगों की आवाज उठाई। वे प्राकृतिक संसाधनों के पूंजीवादी शोषण के खिलाफ दृढ़ता से खड़े थे और ट्रेड यूनियनों, मछुआरों और वनकर्मियों के करीबी सलाहकार थे। वे उनके संघर्षों को उत्पीड़न के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई के हिस्से के रूप में पहचानते थे।
मानवाधिकार आंदोलन में बोस की सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक कश्मीर संघर्ष में उनकी भागीदारी थी। आत्मनिर्णय और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस द्वारा स्वतंत्र कश्मीर जनमत संग्रह और चुनावों के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया। इस क्षमता में उनका काम भारी राजनीतिक विरोध के बावजूद भी उत्पीड़ित समुदायों के अपने भविष्य को तय करने के अधिकारों में उनके दृढ़ विश्वास का प्रतीक था।
अपने अंतिम दिनों में भी बोस सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने राष्ट्रवाद और संकीर्णतावाद को चुनौती देने के लिए रवींद्रनाथ टैगोर और फैज़ अहमद फैज़ के कार्यों का सहारा लिया। वह भारत के विचार में दृढ़ विश्वास रखते थे, लेकिन उन्होंने कश्मीर और पूर्वोत्तर पर सैन्य कब्जे का भी विरोध किया, न्याय और शांति की मुखरता से वकालत की।
तपन बोस का जीवन प्रतिरोध, साहस और न्याय में अटूट विश्वास का प्रतीक था। उनकी फिल्मों, लेखन और सक्रियता ने दक्षिण एशिया में मानवाधिकार आंदोलन पर एक अमिट छाप छोड़ी है। दुनिया उनके गुजर जाने का शोक मना रही है, वहीं उनकी विरासत उनके द्वारा पोषित आंदोलनों और उन अनगिनत लोगों में जीवित है जिन्हें उन्होंने न्यायपूर्ण और समान दुनिया के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।