उत्तराखंड यूसीसी के खिलाफ याचिकाएं व्यक्तिगत स्वायत्तता और अल्पसंख्यक अधिकारों से संबंधित संवैधानिक मुद्दों की ओर ध्यान खींचती हैं

Written by CJP LEGAL RESEARCH TEAM | Published on: February 19, 2025
धार्मिक स्वतंत्रता, गोपनीयता और आदिवासी बहिष्कार उत्तराखंड यूसीसी को चुनौती देने वाली याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों में से हैं जो व्यक्तिगत कानूनों और एक समान कानूनी ढांचे के बीच संतुलन बनाने के बारे में संवैधानिक सवालों को उठाते हैं।



उत्तराखंड उच्च न्यायालय, राज्य द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को अपनाने को लेकर में हाल के दिनों में बहस के केंद्र में रहा है। यूसीसी की सीमा, प्रासंगिकता और संभावित प्रभाव कई याचिकाओं का विषय हैं जो महत्वपूर्ण कानूनी और संवैधानिक मुद्दे उठाती हैं। याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्वतंत्रता, संवैधानिक अधिकारों और प्रस्तावित यूसीसी भारतीय संविधान के समतावादी सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, इसको लेकर चिंता जाहिर की है। चूंकि उत्तराखंड यूसीसी को लागू करने वाला पहला राज्य था, इसलिए ये याचिकाएं इस विषय पर चल रही राष्ट्रीय चर्चा की झलक हैं।

संदर्भ

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने के लिए राज्य सरकार और केंद्र को 6 सप्ताह का नोटिस जारी किया है। इसके अलावा, अस्थायी राहत देेने के लिए, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने प्रभावित व्यक्तियों से दंडात्मक कार्रवाई के मामलों में न्यायालय का दरवाजा खटखटाने को कहा है। लाइव लॉ ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है।

27 जनवरी, 2025 को, उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने वाला पहला भारतीय राज्य बना। हालांकि, यूसीसी के कई प्रावधानों को चुनौती देने वाली विभिन्न रिट याचिकाओं के नतीजे में यह कानून उत्तराखंड उच्च न्यायालय की जांच के दायरे में आ गया है। कानून लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों के लिए अपने रिश्ते को उस रजिस्ट्रार के पास पंजीकृत कराना अनिवार्य बनाता है जिसके अधिकार क्षेत्र में वे रहते हैं। इसके अलावा, कानून जानबूझकर अल्पसंख्यक समुदायों, जैसे मुसलमानों को निशाना बनाता है और धार्मिक मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है जो पवित्र कुरान के पूरी तरह से खिलाफ है।

विवादित यूसीसी में चुनौती दिए गए प्रावधानों को ज्यादा व्यापक रूप से समझने के लिए, सीजेपी द्वारा प्रकाशित लेख का संदर्भ लिया जा सकता है।

लिव-इन रिलेशनशिप को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों को चुनौती

लिव-इन रिलेशनशिप के अनिवार्य पंजीकरण और उसका पालन न करने पर दंडात्मक प्रावधानों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि ये प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित निजता के मौलिक अधिकार के खिलाफ हैं। इन तर्कों को संबोधित करते हुए, सरकार की ओर से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने उल्लेख किया कि "अनुभव से पता चला है कि बिना किसी प्रतिबद्धता के लिव-इन रिलेशनशिप में रहने पर - जो केवल विवाह से उत्पन्न होता है - आम तौर पर, पुरुष महिला को छोड़ देता है, उसे बेसहारा छोड़ देता है और ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चे गैरकानूनी हो जाते हैं।" उन्होंने आगे तर्क दिया कि कानून का उद्देश्य लिव-इन रिलेशनशिप को रेगुलेट करना है, न कि इसे प्रतिबंधित करना जबकि उन्होंने कहा कि "ऐसे पंजीकरण पर, ऐसे लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चे को यूसीसी के तहत वैध बच्चा माना जाता है, और छोड़ी गई महिला को अपने और अपने बच्चे के लिए भरण-पोषण की मांग करने के लिए सक्षम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार दिया जाता है।" टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे रिपोर्ट किया।

याचिकाओं की सुनवाई करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जी नरेंद्र ने सवाल किया कि लिव-इन रिलेशन को रेगुलेट करने में क्या समस्या है, जबकि मौखिक रूप से टिप्पणी की कि "इसके भी दुष्परिणाम हैं। अगर यह रिश्ता टूट जाता है तो क्या होगा? अगर इस रिश्ते से कोई बच्चा होता है तो क्या होगा? विवाह के संबंध में पितृत्व के बारे में एक धारणा है, लेकिन लिव-इन रिलेशनशिप में यह धारणा कहां है? आपकी निजता के हनन की आड़ में क्या किसी दूसरे व्यक्ति के आत्मसम्मान की बलि दी जा सकती है, वह भी तब जब वह आपका बच्चा हो और विवाह या पितृत्व का कोई सबूत न हो।" इंडियन एक्सप्रेस ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया।

यह बहस निजता के मौलिक अधिकार और लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों की रक्षा और उन्हें मान्यता प्रदान करने के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को उजागर करती है।

अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना

इस कानून की खास तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों, जैसे कि मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए कड़ी आलोचना की गई है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि यूसीसी मुस्लिम समुदाय को काफी प्रभावित करता है क्योंकि इसमें ऐसी प्रक्रियाएं निर्धारित की गई हैं जो कुरान में बताए गए सिद्धांतों के बिल्कुल खिलाफ हैं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि "हमने अदालत के समक्ष दलील दी है कि कुरान और उसकी आयतों में निर्धारित कानून हर मुसलमान के लिए एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है। यूसीसी धार्मिक मामलों के लिए प्रक्रिया निर्धारित करता है जो कुरान की आयतों के बिल्कुल विपरीत है। हमने दलील दी है कि मुसलमान बने रहने के लिए व्यक्ति को कुरान और उसकी आयतों का पालन करना होगा।" हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा है कि "कुरान की आयतों का पालन करना एक मुसलमान के लिए बेहद जरूरी है और नागरिक कानून बनाकर, राज्य सरकार किसी मुस्लिम व्यक्ति को ऐसा कुछ भी करने का निर्देश नहीं दे सकती जो कुरान की आयतों के खिलाफ हो।"

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा पूरी की जाने वाली इद्दत की अनिवार्य व्यवस्था पर प्रतिबंध लगाकर यूसीसी मुसलमानों की धार्मिक प्रथा का उल्लंघन करता है। याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा है कि विवादित कानून के ये प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन करते हैं जो धर्म के पालन और पेशे की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। याचिकाकर्ताओं द्वारा यह भी तर्क दिया गया है कि यूसीसी भारतीय संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन करता है क्योंकि प्रस्तावना के तहत अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।

यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जबकि उत्तराखंड यूसीसी का आधार अनुच्छेद 44 (नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता) है, जो केवल एक निर्देशक सिद्धांत है और प्रकृति में बाध्यकारी और गैर-न्यायसंगत नहीं है, अनुच्छेद 25 (विवेक की स्वतंत्रता और धर्म के स्वतंत्र पेशे, अभ्यास और प्रचार), 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता) और 29 (अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा) जो धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं, की साफ तौर पर अनदेखी की गई है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि विवादित कानून धर्मनिरपेक्षता के उस मूल सिद्धांत पर हमला करता है जो भारत के संविधान में दिया गया है।

याचिका में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि विवादित कानून एक समान नहीं है क्योंकि यह अनुसूचित जनजातियों को इसके दायरे से बाहर रखता है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि यूसीसी "अनुसूचित जनजातियों पर लागू न करके नागरिकों के बीच मनमाना और अप्राकृतिक भेदभाव पैदा करता है, जो कानून में अस्वीकार्य है" और ऐसा यूसीसी "भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत निर्देशित समान नागरिक संहिता नहीं है, इसलिए इसे अमान्य घोषित किया जाना चाहिए।"

विवाह पर प्रतिबंध

यूसीसी में दिए गए "निषिद्ध संबंधों" की सूची को भी याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर चुनौती दी है कि विवादित प्रावधान न केवल मुसलमानों के शादी करने के अधिकार में बाधा डालते हैं बल्कि ऐसे विवाह को अमान्य घोषित करते हैं और उसे अपराध बनाते हैं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि विवादित कानून "प्रकृति में भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह यूसीसी में परिभाषित 'निषिद्ध संबंधों की स्थिति' में शादी करने पर प्रतिबंध करके मुस्लिम समुदाय के रीति-रिवाजों और व्यवहार को खत्म कर देता है।" याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा कि मुस्लिम समुदाय में इस तरह के प्रतिबंध मौजूद नहीं हैं और मुस्लिम कानून के अनुसार रिश्तेदारों के बीच शादी की अनुमति है।

निष्कर्ष

निष्कर्ष में उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा राज्य के प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के मूल्यांकन से अहम संवैधानिक बहस छिड़ गई है। कानून के तहत गोपनीयता, धार्मिक स्वतंत्रता और समान सुरक्षा उन मुद्दों में से हैं, जो लिव-इन रिश्तों के जबरन पंजीकरण, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और वैवाहिक रीति-रिवाजों पर रूकावटों को लेकर उठाए गए हैं। अनुसूचित जनजातियों के बहिष्कार और यूसीसी के बाहरी क्षेत्र में लागू होने की संभावना से समस्या और जटिल हो जाती है। उच्च न्यायालय का निर्णय यह तय करने में एक अहम मोड़ होगा कि व्यक्तिगत कानूनों, सांस्कृतिक स्वायत्तता और समान नागरिक ढांचे के लिए आंदोलन के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, क्योंकि उत्तराखंड का यूसीसी में परिवर्तन भारत में अभूतपूर्व है।

(सीजेपी की कानूनी शोध टीम में वकील और प्रशिक्षु शामिल हैं; इस कानूनी लेख को युक्ता अधा द्वारा तैयार किया गया)

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