भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक का मसौदा साल 2018 में पहली बार पेश किया गया था। इसको लेकर संसदीय समिति का कहना है कि इससे शिक्षा पर राज्य का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा और विशेषकर अप्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण इलाकों में निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
साभार : गूगल
राज्यसभा में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में मंगलवार 4 फरवरी को एक संसदीय स्थायी समिति ने ‘सार्वजनिक शिक्षा से सरकार के पीछे हटने और नवउदारवादी नीतियों के बढ़ते प्रभाव’ को उजागर किया।
समिति ने इस ओर सदन का ध्यान खींचा कि अधिकांश विश्वविद्यालयों, खासकर केंद्र सरकार के अधीन विश्वविद्यालयों में ‘संविदा कार्यबल की संख्या अधिक’ है।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, समिति ने यह भी चिंता जताई कि भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) विधेयक का मसौदा – जो यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करना चाहता है – राज्य नियंत्रण को हटा देगा और ‘अप्रत्यक्ष रूप से विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा देगा।’
शिक्षा, महिला, बच्चे, युवा और खेल पर कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थायी समिति ने कहा कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अस्थायी पदों पर चार हजार शिक्षक कार्यरत हैं।
समिति ने आगे कहा कि ‘स्थायी, सुरक्षित सरकारी नौकरियों से हटकर आकस्मिक, अल्पकालिक अनुबंधों की ओर यह बदलाव सरकार के सार्वजनिक शिक्षा से पीछे हटने और नवउदारवादी नीतियों के बढ़ते प्रभाव के कारण हुआ है।’
क्षमता निर्माण बढ़ाने और अनुसंधान में सुधार के लिए नौकरियों को नियमित करने की समिति ने सिफारिश करते हुए कहा कि संविदा पदों पर नौकरी की सुरक्षा, वेतन वृद्धि की कमी है। हालांकि नौकरियों की कमी के कारण इसकी मांग कायम है।
समिति के अनुसार, ‘संविदा पदों पर नौकरी की सुरक्षा नहीं होती, वेतन वृद्धि संभव नहीं होती और पेंशन, पदोन्नति या सवैतनिक अवकाश जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभों की कमी रहती है। इन सीमाओं के बावजूद, स्थायी नौकरियों की कमी के कारण ऐसे पदों की मांग बढ़ गई है, विशेषकर सामाजिक विज्ञान और मानविकी जैसे क्षेत्रों में।’
समिति ने आगे कहा, ‘संविदा संकायों को अनुसंधान करने के प्रयास में संस्थागत अड़चनों का सामना करना पड़ता है, जिनमें अनुसंधान अनुदान तक सीमित पहुंच और अपर्याप्त संस्थागत मान्यता शामिल हैं। इसलिए, समिति यह सशक्त रूप से सिफारिश करती है कि विभाग को नौकरी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नौकरियों के नियमितीकरण पर कार्य करना चाहिए और साथ ही क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त कामकाजी परिस्थितियां प्रदान करनी चाहिए, ताकि वे अनुसंधान और शिक्षाशास्त्र में सुधार के लिए प्रेरित हो सकें।’
शिक्षा विभाग द्वारा की गई कार्रवाई के संदर्भ में, समिति ने यह भी सुझाव दिया कि प्रतिभाशाली पूर्व छात्रों, वरिष्ठ छात्रों और पीएचडी धारकों की नियुक्ति पर उसकी विशेष सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों में पर्याप्त प्रतिभा को सुरक्षित करने के लिए इन विद्वानों को शिक्षण सहायकों के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए।
इसमें कहा गया है, ‘इसे कुछ विश्वविद्यालयों में परीक्षण के आधार पर किया जा सकता है और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाने से पहले इसका मूल्यांकन किया जा सकता है।’
समिति का कहना है कि ‘एचईसीआई विधेयक का मसौदा राज्य का नियंत्रण हटाता है और इससे निजीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।’
समिति ने यह भी उल्लेख किया कि एचईसीआई विधेयक का मसौदा, जो यूजीसी को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है, केंद्र सरकार की अत्यधिक संरचना और अपर्याप्त राज्य प्रतिनिधित्व के रूप में प्रतीत होता है।
समिति ने अत्यधिक केंद्रीकरण के बिना नियामक निकायों के सरलीकृत पदानुक्रम की सिफारिश की।
समिति का मानना है कि नियामकों की अधिकता के कारण मानकों और निगरानी में असंगतता उत्पन्न होती है, जिससे संस्थानों के लिए प्रभावी ढंग से कार्य करना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त, राज्य विश्वविद्यालय, जो 90 प्रतिशत से अधिक छात्र आबादी को शिक्षित करते हैं, राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय नियमों के बीच फंसे हुए हैं।
इसमें कहा गया है कि एचईसीआई, राज्य नियंत्रण को समाप्त करके, ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थानों को बंद कर सकता है और विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में 'अप्रत्यक्ष रूप से निजीकरण को बढ़ावा' दे सकता है।
समिति ने कहा, "भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक (एचईसीआई) का मसौदा, जो यूजीसी को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है, केंद्र सरकार की भारी संरचना और अपर्याप्त राज्य प्रतिनिधित्व को बनाए रखते हुए इन्हीं कई मुद्दों को बनाए रखता प्रतीत होता है।"
समिति के अनुसार, "प्रस्तावित एचईसीआई विधेयक में महत्वपूर्ण शक्तियां होंगी, जिनमें डिग्री देने का अधिकार और मानकों को पूरा करने में विफल रहने वाले संस्थानों को बंद करने की क्षमता शामिल है। इससे राज्य का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा और ग्रामीण इलाकों में ऐसे संस्थान बंद हो सकते हैं जो बुनियादी ढांचे या संकाय की कमी से प्रभावित हैं। यह अप्रत्यक्ष रूप से विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा देगा।"
ज्ञात हो कि एचईसीआई बिल का मसौदा 2018 में पहली बार पेश किया गया था और इसे सुझाव के लिए पब्लिक डोमेन में रखा गया था।
साभार : गूगल
राज्यसभा में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में मंगलवार 4 फरवरी को एक संसदीय स्थायी समिति ने ‘सार्वजनिक शिक्षा से सरकार के पीछे हटने और नवउदारवादी नीतियों के बढ़ते प्रभाव’ को उजागर किया।
समिति ने इस ओर सदन का ध्यान खींचा कि अधिकांश विश्वविद्यालयों, खासकर केंद्र सरकार के अधीन विश्वविद्यालयों में ‘संविदा कार्यबल की संख्या अधिक’ है।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, समिति ने यह भी चिंता जताई कि भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) विधेयक का मसौदा – जो यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करना चाहता है – राज्य नियंत्रण को हटा देगा और ‘अप्रत्यक्ष रूप से विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा देगा।’
शिक्षा, महिला, बच्चे, युवा और खेल पर कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थायी समिति ने कहा कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अस्थायी पदों पर चार हजार शिक्षक कार्यरत हैं।
समिति ने आगे कहा कि ‘स्थायी, सुरक्षित सरकारी नौकरियों से हटकर आकस्मिक, अल्पकालिक अनुबंधों की ओर यह बदलाव सरकार के सार्वजनिक शिक्षा से पीछे हटने और नवउदारवादी नीतियों के बढ़ते प्रभाव के कारण हुआ है।’
क्षमता निर्माण बढ़ाने और अनुसंधान में सुधार के लिए नौकरियों को नियमित करने की समिति ने सिफारिश करते हुए कहा कि संविदा पदों पर नौकरी की सुरक्षा, वेतन वृद्धि की कमी है। हालांकि नौकरियों की कमी के कारण इसकी मांग कायम है।
समिति के अनुसार, ‘संविदा पदों पर नौकरी की सुरक्षा नहीं होती, वेतन वृद्धि संभव नहीं होती और पेंशन, पदोन्नति या सवैतनिक अवकाश जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभों की कमी रहती है। इन सीमाओं के बावजूद, स्थायी नौकरियों की कमी के कारण ऐसे पदों की मांग बढ़ गई है, विशेषकर सामाजिक विज्ञान और मानविकी जैसे क्षेत्रों में।’
समिति ने आगे कहा, ‘संविदा संकायों को अनुसंधान करने के प्रयास में संस्थागत अड़चनों का सामना करना पड़ता है, जिनमें अनुसंधान अनुदान तक सीमित पहुंच और अपर्याप्त संस्थागत मान्यता शामिल हैं। इसलिए, समिति यह सशक्त रूप से सिफारिश करती है कि विभाग को नौकरी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नौकरियों के नियमितीकरण पर कार्य करना चाहिए और साथ ही क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त कामकाजी परिस्थितियां प्रदान करनी चाहिए, ताकि वे अनुसंधान और शिक्षाशास्त्र में सुधार के लिए प्रेरित हो सकें।’
शिक्षा विभाग द्वारा की गई कार्रवाई के संदर्भ में, समिति ने यह भी सुझाव दिया कि प्रतिभाशाली पूर्व छात्रों, वरिष्ठ छात्रों और पीएचडी धारकों की नियुक्ति पर उसकी विशेष सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों में पर्याप्त प्रतिभा को सुरक्षित करने के लिए इन विद्वानों को शिक्षण सहायकों के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए।
इसमें कहा गया है, ‘इसे कुछ विश्वविद्यालयों में परीक्षण के आधार पर किया जा सकता है और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाने से पहले इसका मूल्यांकन किया जा सकता है।’
समिति का कहना है कि ‘एचईसीआई विधेयक का मसौदा राज्य का नियंत्रण हटाता है और इससे निजीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।’
समिति ने यह भी उल्लेख किया कि एचईसीआई विधेयक का मसौदा, जो यूजीसी को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है, केंद्र सरकार की अत्यधिक संरचना और अपर्याप्त राज्य प्रतिनिधित्व के रूप में प्रतीत होता है।
समिति ने अत्यधिक केंद्रीकरण के बिना नियामक निकायों के सरलीकृत पदानुक्रम की सिफारिश की।
समिति का मानना है कि नियामकों की अधिकता के कारण मानकों और निगरानी में असंगतता उत्पन्न होती है, जिससे संस्थानों के लिए प्रभावी ढंग से कार्य करना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त, राज्य विश्वविद्यालय, जो 90 प्रतिशत से अधिक छात्र आबादी को शिक्षित करते हैं, राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय नियमों के बीच फंसे हुए हैं।
इसमें कहा गया है कि एचईसीआई, राज्य नियंत्रण को समाप्त करके, ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थानों को बंद कर सकता है और विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में 'अप्रत्यक्ष रूप से निजीकरण को बढ़ावा' दे सकता है।
समिति ने कहा, "भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक (एचईसीआई) का मसौदा, जो यूजीसी को एकल नियामक के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है, केंद्र सरकार की भारी संरचना और अपर्याप्त राज्य प्रतिनिधित्व को बनाए रखते हुए इन्हीं कई मुद्दों को बनाए रखता प्रतीत होता है।"
समिति के अनुसार, "प्रस्तावित एचईसीआई विधेयक में महत्वपूर्ण शक्तियां होंगी, जिनमें डिग्री देने का अधिकार और मानकों को पूरा करने में विफल रहने वाले संस्थानों को बंद करने की क्षमता शामिल है। इससे राज्य का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा और ग्रामीण इलाकों में ऐसे संस्थान बंद हो सकते हैं जो बुनियादी ढांचे या संकाय की कमी से प्रभावित हैं। यह अप्रत्यक्ष रूप से विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा देगा।"
ज्ञात हो कि एचईसीआई बिल का मसौदा 2018 में पहली बार पेश किया गया था और इसे सुझाव के लिए पब्लिक डोमेन में रखा गया था।