सोनभद्र के कोन, वभनी, म्योरपुर और दुद्धी ब्लॉक के 276 गांवों की दो लाख से अधिक आबादी इस धीमे ज़हर को पीने के लिए मजबूर है। इनमें किसी के दांत गल गए हैं तो किसी की हड्डियां टेढ़ी हो गई हैं। एनजीटी के आदेशों के बावजूद यहां के लोग जहरीला पानी पी रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के कचनरवा की 55 वर्षीय रजमतिया की कमर अब पूरी तरह झुक चुकी है। उनकी आंखों में अतीत का एक साफ़ अक्स तैरता है—जब वो तेज़ कदमों से खेतों में जाया करती थीं, घर संभालती थीं, हंसती-बोलती थीं। लेकिन अब, हर कदम दर्द से भरा है, हर सांस बोझिल है। वो बस इतना ही कहती हैं—"इलाज के नाम पर कुछ नहीं, बस दर्द की दवा खाकर जी रही हूं।"
उनके ही पड़ोस में कुलवंती रहती हैं। वो सिर्फ 35 साल की हैं, लेकिन उनकी कमर पिछले दस साल से झुकी हुई है। जब शादी होकर इस गांव आई थीं, तब बिल्कुल स्वस्थ थीं। मगर धीरे-धीरे यह पानी उनके शरीर को खा गया, चुपचाप, बिना किसी हलचल के। वह कहती हैं, "सोचा नहीं था कि पानी भी किसी की ज़िंदगी तबाह कर सकता है।"
यह दर्द सिर्फ रजमतिया और कुलवंती की नहीं, बल्कि सोनभद्र के हजारों लोगों की चीख है—जो बरसों से इस जहर को घूंट-घूंट पीने को मजबूर हैं। उनकी आंखों में उम्मीद की जो आखिरी लौ बची थी, वो भी बुझने लगी है। एक माँ, जो अपने बच्चे के झड़ते दाँत देखती है, रो पड़ती है—क्योंकि उसे पता है कि अब अगला नंबर उसकी रीढ़ की हड्डी का है, फिर पैरों का, फिर पूरे शरीर का। वो जानती है कि यह बीमारी उसके बच्चे को अपंग बना देगी, मगर उसके पास कोई चारा नहीं।
सोनभद्र के कोन, वभनी, म्योरपुर और दुद्धी ब्लॉक के 276 गांवों की दो लाख से अधिक आबादी इस धीमे ज़हर को पीने के लिए मजबूर है। इनमें किसी के दांत गल गए हैं तो किसी की हड्डियां टेढ़ी हो गई हैं। एनजीटी के आदेशों के बावजूद यहां के लोग जहरीला पानी पी रहे हैं। इसके असर से किसी के दांत काले-पीले होकर सड़ गए हैं, तो किसी की हड्डियां इतनी कमजोर हो गई हैं कि चलना-फिरना मुश्किल हो गया है। रीढ़ की हड्डी इतनी नाजुक हो गई है कि लोग बिस्तर पर पड़े हैं। छोटे बच्चों की सेहत पर इसका सबसे भयावह असर दिख रहा है—वे जन्म से ही बीमार और दिव्यांग पैदा हो रहे हैं। यह एक पूरी नस्ल को खत्म करने वाली त्रासदी बन चुकी है।

मुश्किलों का ओर-छोर नहीं
हरदी पहाड़ के पास बसे गांवों में भी यही हाल है। शिक्षक रामआधार पटेल बताते हैं कि उनके गांव में 500 घर हैं और उनमें से 90 प्रतिशत लोग फ्लोरोसिस की चपेट में हैं। हड्डियों में दर्द, चलने-फिरने में तकलीफ, और किसी भी काम के लायक न बचने का डर—यही उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी बन चुकी है। औरतें अपने बच्चों को ज़हरीला पानी पीने से रोक नहीं पातीं, बस अपनी आँखों के सामने उन्हें धीरे-धीरे मरता देखती हैं।
चिकित्सक कहते हैं कि पानी में फ्लोराइड 1.5 पीपीएम तक होना चाहिए, मगर यहां यह मात्रा पांच से छह गुना ज्यादा है। इसका मतलब है—हर घूंट ज़हर है, हर घूंट एक नई बीमारी है, हर घूंट एक धीमी मौत है। साल 1995 में जब विजय ने पहली बार इस मुद्दे को उठाया था, तब उन्हें लगा था कि उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। उन्होंने धरना-प्रदर्शन किए, लखनऊ तक दौड़ लगाई, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। धीरे-धीरे बीमारी ने उन्हें भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब वो रस्सी के सहारे उठते-बैठते हैं, क्योंकि उनके पैर अब उनका वजन सहने से इनकार कर चुके हैं। उनके परिवार के पांच सदस्य इस ज़हर के शिकार हैं। दो भाइयों की मौत हो चुकी है।
पड़रछ गांव की रिंकी अब भी ज़मीन पर पड़ी रहती है। मक्खियां उसके चेहरे पर बैठती हैं, मगर उसे भगाने की ताकत तक नहीं। उसकी आँखों में एक ख़ामोश दर्द है, एक ऐसा सवाल है जो शायद उसने ख़ुद से भी पूछना बंद कर दिया हो, "क्या मैं भी वैसे ही मर जाऊंगी जैसे मुन्नी और पप्पू मर गए?" गांव के लोग अब आंसू भी नहीं बहाते। रोहित के मां-बाप को पता है कि उनका बेटा कभी भी एक सामान्य बच्चे की तरह खेल नहीं पाएगा। वो हर बार उसकी बिगड़ती हालत को देखते हैं, हर बार डॉक्टर से जवाब सुनते हैं, "कुछ नहीं हो सकता, बस साफ पानी पिलाइए।" मगर साफ पानी आए कहां से? सरकार के वादों से? नेताओं की खोखली घोषणाओं से?

विजय कुमार शर्मा की जिंदगी रस्सी के सहारे कट रही
यह सिर्फ़ इनकी ही कहानी नहीं, बल्कि सोनभद्र के कोन प्रखंड के पड़रछ गांव के पटेलनगर टोला की एक भयावह सच्चाई है। इसी बस्ती के विजय कुमार शर्मा की ज़िंदगी अब रस्सी के सहारे चलती है। उनकी हड्डियां जवाब दे चुकी हैं, कमर के नीचे का हिस्सा मर चुका है। वो हर दिन उस बिस्तर पर पड़े रहते हैं, एक कोने में रखे उस डब्बे को देखते हैं जिसे अब बाथरूम का नाम देना उनकी मजबूरी बन चुकी है। कोई नेता यहां नहीं आता, कोई अधिकारी रिपोर्ट लेने नहीं आता। शायद कागज़ों में वो अब भी स्वस्थ हैं, शायद सरकार की नज़र में सोनभद्र का पानी अब भी शुद्ध है।
अनार देवी की उम्र कोई 50-52 साल होगी। उनके आठ बच्चे हैं, लेकिन उनमें से दो बेटियां, लालो और राजवंती, 20 से 22 साल की होने के बावजूद पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाईं। उनकी पीठ झुक गई है, और हाथ किसी तरह बांस के एक डंडे को पकड़ पाते हैं, जिससे वे कुछ देर के लिए खड़ी हो सकें या चंद कदम चल सकें।
अनार देवी के लिए सबसे कीमती चीज़ है साफ़ पानी। फ्लोराइड ने उनकी ज़िंदगी को पहाड़ बना दिया है। टूटी-फूटी सड़क से कुछ दूर बने उनके छोटे से कच्चे घर के बाहर अपनी बेटियों के साथ चारपाई पर बैठी अनार देवी गुस्से में कहती हैं, "यह कैसी सरकार है जो हमें साफ़ पानी तक मुहैया नहीं करा पा रही? हमारे गांव में 25 हज़ार से अधिक लोग रहते हैं, लेकिन पेयजल आपूर्ति के लिए बस एक ओवरहेड टैंक है। कुछ घरों में नल भी लगे हैं, लेकिन किसी को साफ़ पानी नसीब नहीं। हमारे हिस्से में सिर्फ़ बीमार करने वाला फ्लोराइड युक्त पानी आया है। हम जानते हैं कि जिस हैंडपंप का पानी हम पी रहे हैं, वह पानी नहीं, ज़हर है। यह कुछ ही साल में हमारी और हमारे बच्चों की ज़िंदगी लील जाएगा।"

अपनी बेटियों के साथ अनार देवी
डबल इंजन की सरकार से नाराज़ अनार देवी आगे कहती हैं, "पड़रछ की पटेलनगर बस्ती में किसी भी घर में घुस जाइए, कोई न कोई ज़मीन पर रेंगता हुआ ज़रूर दिख जाएगा। लोगों का हाल पूछेंगे तो फ्लोराइड का दर्द दरिया बनकर बहने लगेगा। हमारी ज़िंदगी में फ्लोराइड का नासूर इस कदर घुस गया है कि वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। कोई भी व्यक्ति हमारे गांव में अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहता। सभी को पता है कि फ्लोराइड का ज़हर पड़रछ में रहने वालों की उम्र छोटी कर देता है।"
फ्लोराइड से ग्रसित लोगों के लिए ट्राईसाइकिल तक नसीब नहीं। 20 से 25 साल बीतते ही सबके हाथ-पैर टेढ़े होने लगते हैं और कमर झुकने लगती है। पड़रछ की तरह यूपी में शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां दो-तिहाई आबादी फ्लोराइड की चपेट में हो। अनार देवी की ज़िंदगी झंझावतों से भरी है। उनके पास सिर्फ़ डेढ़ बीघा ज़मीन है, जिसमें अनाज तभी पैदा होता है जब बारिश अच्छी होती है। उनके पति राम सिंगार चौधरी मज़दूरी करते हैं, जिससे परिवार का पेट भरता है।
जब अनार देवी अपना दुखड़ा सुना रही थीं, तभी उनके पास खड़ी फूलमती ने उनकी बात काटते हुए अपना दर्द बयां करना शुरू कर दिया। वह कहती हैं, "जब मेरी शादी हुई थी, तब मैं सुनहरे सपने लेकर यहां आई थी। कुछ बरस बाद ही हाथ-पैर बेकार हो गए। अब रेंगते हुए आना-जाना पड़ता है। सरकार साफ़ पानी नहीं दे सकती तो हमें इच्छामृत्यु दे दे। हमारी यह हालत पिछले छह-सात साल से है। पहले मैं बिल्कुल ठीक थी।"
दरअसल, यह समस्या सिर्फ़ अनार देवी और फूलमती की नहीं, बल्कि इस इलाक़े के कई गांवों की भयावह सच्चाई है। पड़रछ में तमाम बच्चे, बूढ़े और औरतें बिना सहारे के चार कदम भी नहीं चल पाते। ज़्यादातर लोगों की हड्डियां कमज़ोर हो गई हैं। यहां बड़ी संख्या में बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग गलियों में रेंगते या लाठियों के सहारे चलते नज़र आते हैं। पड़रछ के पानी में फ्लोराइड की मात्रा इतनी अधिक है कि वह शरीर की हड्डियों पर सीधा वार करता है।

सोनभद्र के पड़रछ गांव के बच्चे जिनके दांतों पर है फ्लोराइड का गहरा असर
"हमें ज़हर पीने की आदत हो गई है"
रामकुमार की उम्र तो सिर्फ 37 साल है, लेकिन उनकी झुकी हुई गर्दन, टेढ़े हाथ और पतली हड्डियों को देखकर कोई भी धोखा खा सकता है। उनकी कमर इतनी झुक गई है कि लगता है जैसे किसी अदृश्य बोझ ने उन्हें हमेशा के लिए झुका दिया हो। पैरों का आकार असामान्य है, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। रामकुमार कहते हैं, "सात-आठ साल पहले मैं भी आम नौजवानों की तरह था। अखाड़े में कुश्ती लड़ता था, दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता था, लेकिन अब चलना भी मुश्किल है। पहले घुटनों में दर्द हुआ, फिर कमर जवाब देने लगी, अब हाथ भी टेढ़े हो गए हैं। यह सब उसी पानी की वजह से हुआ है, जो हमने बचपन से पीया है। हमारे गांव में हर कोई किसी न किसी तकलीफ से जूझ रहा है।"
रामकुमार भी सोनभद्र के पड़रछ गांव के पटेलनगर टोला में रहते हैं, लेकिन यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं है, बल्कि उनके जैसे सैकड़ों लोगों की है, जिनके शरीर ने इस ज़हरीले पानी का दर्द पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहा है। यहां का पानी लोगों के शरीर को तोड़ रहा है, हड्डियों को खोखला कर रहा है, और आने वाली नस्लों को भी अपंग बना रहा है।
57 साल के विजय शर्मा की आंखों में आंसू छलक पड़ते हैं। वह चारपाई पर लेटे हैं, उनके शरीर ने जवाब दे दिया है। उनके घर में छत से एक रस्सी लटकी हुई है, जिससे पकड़कर वह खुद को थोड़ा ऊपर खींचने की कोशिश करते हैं। उनका गला भर आता है, "हुजूर! हम मजबूर हैं। हमारा जन्म ही ऐसी ज़मीन पर हुआ, जहां पानी ज़हर बन चुका है। हमारी गायें, हमारी ज़मीन सब इलाज में बेच डाले, लेकिन हालात नहीं बदले। अब तो दवा खरीदने के भी पैसे नहीं हैं।"
विजय कहते हैं, "हुजूर! हम बेबस हैं। हमारा कसूर बस इतना है कि हम इस गांव में पैदा हुए। यह गांव हमें ज़हर पिलाता है, और हम मजबूरी में इसे पीते रहते हैं। हमने अपनी ज़मीन और दो गायें बेचकर इलाज कराया, लेकिन हालत और बिगड़ गई। अब दवा के लिए पैसे नहीं हैं।" विजय शर्मा की तरह पारस, मानिक राय, केशवर पटेल और बृज पटेल भी उसी दर्द से कराह रहे हैं। उनके घुटने मुड़ जाते हैं, फिर जल्दी सीधे नहीं होते। कई लोग शौच तक नहीं जा सकते। कोई चारपाई पर पड़ा है, कोई लाठी के सहारे हिलने-डुलने की कोशिश कर रहा है।"
पास में ही बैठी बिगू गोंड और उनकी पत्नी सहोदरी देवी की हालत और भी खराब है। पति-पत्नी दोनों विकलांग हैं, चारपाई पर पड़े रहते हैं। कोई दाना-पानी देने वाला तक नहीं है। कुछ परोपकारी लोग उन्हें खाना दे जाते हैं। गांव के लोग बताते हैं, "हर बार हम उम्मीद बांधते हैं कि कोई आएगा और हमारी तकलीफ सुनेगा, पर हर बार उम्मीद टूट जाती है। सोनभद्र बिजली दे रहा, पर खुद अंधेरे में है"

रेंगकर चलती है संगीता
24 साल के रिंकू की ज़िंदगी में कोई रंग नहीं बचा। बुलाने पर एक युवक उन्हें बाइक पर बैठाकर लाया। "हमारे पास दर्द के अलावा कुछ भी नहीं बचा। हम सरकार से गुहार लगाते-लगाते थक चुके हैं। हमारी चीख कोई नहीं सुनता। सोनभद्र के हर्रा सरैयाडीह के 56 वर्षीय रामचंद्र जायसवाल की तीन पीढ़ियां फ्लोराइड की मार झेल रही हैं। वह निराश होकर कहते हैं, "कोई नहीं जानता कि हमारी बेबसी मोदी-योगी की सरकार तक कभी पहुंचेगी भी या नहीं।"
बिगू गोंड और उनकी पत्नी सहोदरी देवी चारपाई पर पड़े हैं। दोनों विकलांग हैं, चल-फिर भी नहीं सकते। खाने के लिए भी किसी का सहारा चाहिए। गांव के लोग बताते हैं, "हर बार हम उम्मीद बांधते हैं कि कोई आएगा और हमारी तकलीफ सुनेगा, पर हर बार उम्मीद टूट जाती है। 68 करोड़ खर्च हुए, फिर भी ज़हर पीने को मजबूर"
"हमारी कराह कोई नहीं सुनता"
राबर्ट्सगंज से करीब 80 किलोमीटर दूर कचनरवा ग्राम पंचायत की 25 हजार की आबादी इस संकट से जूझ रही है। यहां रिंकी और रोहित जैसे कई बच्चे हैं, जिन्हें गांववाले 'फ्लोराइड वाला' कहकर पुकारते हैं। रिंकी के परिवार के मुन्नी और पप्पू की छह महीने पहले मौत हो गई। दोनों स्वस्थ थे, लेकिन अचानक बिस्तर पर पड़े और इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। इस गांव की 7000 से अधिक आबादी फ्लोरोसिस की चपेट में है, लेकिन सरकार की ओर से केवल खोखले वादे किए गए हैं। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद लोग साफ पानी के लिए तरस रहे हैं।
कोन ब्लॉक के पड़रछ गांव के हर टोले में भूजल में फ्लोराइड की अधिकता है। यहां साल 2012-13 में ग्राम समूह पेयजल परियोजना स्वीकृत हुई थी, जिसमें 68 करोड़ रुपये खर्च कर 2015-16 में इसे तैयार किया गया। इस योजना के तहत 22 किलोमीटर के दायरे में नौ गांवों तक पानी पहुंचाया जाना था, लेकिन हकीकत यह है कि 80 फीसदी आबादी अब भी हैंडपंप और कुएं के दूषित पानी पर निर्भर है। गांवों में पाइपलाइन बिछाई गई, लेकिन पानी नहीं पहुंचा। पटेलनगर, नई बस्ती, झिरगाडंडी और पिपरहवा जैसे इलाके परियोजना के मुहाने पर हैं, फिर भी बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं।
पड़रछ के पूर्व प्रधान मुंद्रिका सिंह के घर के पास हैंडपंप पर फ्लोराइड रिमूवल प्लांट लगाया गया था। साल 2015 में उसका लोकार्पण भी हो गया, लेकिन कुछ ही सालों में वह जर्जर हो गया। टैंक में दरारें आ गईं, नलों तक पानी पहुंचा ही नहीं। हज़ारों लोग अब भी ज़हरीला पानी पीने को मजबूर हैं। शैलेश शर्मा कहते हैं, "हमारी टोटी से आज तक एक बूंद पानी नहीं आया। हमारे बच्चे भी उसी ज़हर को पीकर बड़े हो रहे हैं, जिससे हमने अपनी ज़िंदगी बर्बाद की। हमारे घर में पानी की टोटी तो लगी है, लेकिन उसमें से एक बूंद भी साफ पानी नहीं आता। बच्चे तक इस ज़हरीले पानी को पीने के आदी हो चुके हैं। हमें पता है कि हम धीमा ज़हर पी रहे हैं, लेकिन हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है।"
जल निगम के सहायक अभियंता अनिल कुमार के मुताबिक, "ग्राम समूह पेयजल परियोजना से नौ गांवों को पानी मिलना था, लेकिन फिलहाल सिर्फ तीन-चार गांवों तक किसी तरह पानी पहुंच रहा है। अन्य गांवों तक पानी न पहुंचने की तकनीकी दिक्कतें हैं। मेंटनेंस के लिए अलग से कोई बजट नहीं है। इसके समाधान के लिए शासन को पत्र भेजा गया है। स्वीकृति मिलते ही पाइपलाइन से पानी आपूर्ति बहाल की जाएगी।"
पड़रछ की ग्राम प्रधान सोनी देवी कहती हैं, "हरदी टोला में एक ओवरहेड टैंक बना है, लेकिन उससे पानी आता नहीं। सरकार बिल जरूर भेज रही है, लेकिन लोगों को पानी नसीब नहीं हो रहा। सोनभद्र के प्रभावित गांवों में फ्लोराइड उपचार संयंत्र लगाने की जिम्मेदारी जल निगम की थी, लेकिन कोई अधिकारी इस पर जवाब देने को तैयार नहीं है। सोनभद्र के पावर प्लांट से निकलने वाला केमिकल यहां के जलस्रोतों को ज़हर में बदल रहा है। पूरे देश को बिजली देने वाला यह इलाका खुद लाचारी और विकलांगता की चपेट में है। "

पड़रछ गांव के लोग, जिन्हें फ्लोराइड ने बना दिया है विकलांग
प्रधान सोनी यह भी कहती हैं, "हमारी बिजली पूरे देश को रौशन कर रही है, लेकिन खुद हम आठ-दस घंटे ही बिजली पाते हैं। कई गांवों में बिजली के खंभे तक नहीं लगे। सोनभद्र में 2014 में 68 करोड़ की पेयजल योजना इस इलाके के लिए स्वीकृत हुई थी। 2015 में ओवरहेड टैंक बन भी गया, लेकिन घटिया निर्माण की वजह से यह अब जर्जर हालत में है। हज़ारों लोगों को अब भी वही ज़हरीला पानी पीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। हमने कलेक्टर से लेकर मुख्यमंत्री तक पत्र लिखे, धरना दिया, प्रदर्शन किया, लेकिन कुछ नहीं बदला। हमारे बच्चे भी उसी तकलीफ को भुगतेंगे, जिससे हमने अपनी पूरी ज़िंदगी खो दी। "
सपा मुखिया ने कसा तंज
भूजल में फ्लोराइड की अधिकता से बीमार हो रहे लोगों की पीड़ा पर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भाजपा सरकार पर तंज कसा है। बीते शनिवार को उन्होंने एक्स पर एक खबर पोस्ट करते हुए लिखा कि अब क्या सोनभद्र जिले के पानी में फ्लोराइड की खतरनाक मात्रा और उसके जानलेवा बुरे असर के बारे में भी दिल्ली वाले एनजीटी की रिपोर्ट को उप्र सरकार झूठा साबित करेगी।
अखिलेश के ट्वीट के बाद सरकारी मशीनरी हरकत में आ गई। आनन-फानन में सोनभद्र के कलेक्टर बद्री सिंह पड़रछ गांव में पहुंचे और तीन मार्च 2025 को विंध्याचल मंडल के आयुक्त बालकृष्ण त्रिपाठी ने दुद्धी ब्लॉक के फ्लोराइड प्रभावित गांव मनबसा पहुंच गए। मंडलायुक्त ने जल जीवन मिशन के तहत जल सखी को दी गई किट से हैंडपंप के पानी की जांच कराई तो फ्लोराइड का खतरनाक स्तर देखकर चौंक गए। पानी में फ्लोराइड की मात्रा मानक 1.5 पीपीएम से काफी अधिक थी।
मंडलायुक्त ने ग्रामीणों से अपील की कि वह इस पानी को न पीएं। उन्होंने जल जीवन मिशन के तहत बनी टंकी से भी आपूर्ति की बात कही। इससे पहले टैंकर से पानी पहुंचाने के निर्देश दिए। मंडलायुक्त ने फ्लोराइड पीड़ित विनोद, गौतम कुशवाहा और अर्जुन खरवार से उनकी समस्याओं के बारे में पूछा। पीड़ितों ने बताया कि उनके कमर और पैर में असहनीय दर्द रहता है। इससे वह न चल-फिर पाते हैं और न ही काम कर पाते हैं। मजबूरी में फ्लोराइडयुक्त पानी पी रहे हैं।
जानलेवा बीमारियां बांट रहा फ्लोराइड
भूजल के प्रदूषित होने के कारण सोनभद्र जिले की बड़ी आबादी दूषित पानी पीकर बीमारियों की शिकार हो रही है। शुद्ध पेयजल मुहैया कराने के लिए शुरू की गई हर घर जल योजना के तहत भी प्रभावित गांवों में पानी नहीं पहुंच रहा। पाइप लाइन बिछाने और कनेक्शन देने के बाद भी सूखी टोटियों के चलते लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। कोन, म्योरपुर, बभनी, दुद्धी, चोपन ब्लॉकों के करीब 276 गांवों में फ्लोराइड की समस्या है तो नगवां, चतरा, रॉबर्ट्सगंज, घोरावल क्षेत्र के पानी में आयरन की मात्रा मानक से काफी अधिक है।
फ्लोराइड की समस्या के समाधान के लिए ही जिले में हर घर जल योजना के तहत करीब 3,000 करोड़ की 12 पेयजल परियोजनाएं स्थापित की गई हैं। कायदे से इन परियोजनाओं से मार्च 2024 से ही जलापूर्ति शुरू होनी चाहिए थी, लेकिन कार्यदाई संस्था की लेटलतीफी के चलते अभी भी काम पूरा नहीं हो पाया है। सरकार ने कागज़ों में जल जीवन मिशन के तहत हर घर को नल से जोड़ दिया, लेकिन उन नलों में पानी कभी आया ही नहीं। कचनरवा में सौर ऊर्जा से संचालित प्लांट से जो पानी आता है, वो भी दूषित है। जो हैंडपंप कभी मीठा पानी देते थे, उनमें फ्लोराइड रिमूवल प्लांट तो लगे, लेकिन अब वो भी कबाड़ बन चुके हैं।
नतीजा फ्लोराइड प्रभावित गांवों के लोग अब भी दूषित जल पीने को विवश हैं। हालांकि जलनिगम ने दावा किया है कि अमवार और झीलो-बीजपुर को छोड़कर दस परियोजनाएं पूरी कर सभी गांवों में पानी आपूर्ति शुरू कर दी गई है, जबकि हकीकत इससे अलग है। एनजीटी ने आदेश दिया, कागजों में योजनाएं बनीं, रिपोर्टें तैयार हुईं, मगर ज़मीन पर सब कुछ वैसा ही है जैसा बीस साल पहले था—बल्कि और भी बदतर। लोग अब भी वही ज़हरीला पानी पीने को मजबूर हैं, अब भी हड्डियाँ टेढ़ी हो रही हैं, अब भी बच्चे जन्म से ही अपंग आ रहे हैं, अब भी बिस्तर पर पड़े लोग हर सांस को मोहताज हैं।

ये हैंडपंप भी फ्लोराइडयुक्त पानी उगलते हैं
सरकारी दावे और ज़मीनी हकीकत के बीच पीड़ित ग्रामीणों की परेशानी जस की तस बनी हुई है। फिलहाल, प्रशासन ने टैंकरों से जल आपूर्ति शुरू कर दी है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है। इस बीच जिलाधिकारी बद्री सिंह ने फ्लोराइड प्रभावित गांव पड़रछ पहुंचकर फ्लोराइड पीड़ितों से बात की और कहा कि, "हर घर जल योजना के तहत सभी गांवों को शुद्ध पेयजल आपूर्ति से संतृप्त किया जाना है। जलनिगम से उन सभी गांवों का विवरण तलब किया गया है, जहां पाइप से पानी पहुंच रहा है। इसका सत्यापन भी कराया जाएगा। इसमें किसी भी तरह की लापरवाही सामने आने पर सख्त कार्रवाई भी होगी। साथ ही सभी ग्रामीणों को शुद्ध जलापूर्ति की व्यवस्था कराई जाएगी।"
जिलाधिकारी बद्री सिंह ने ग्राम समूह पेयजल परियोजना पड़रछ का निरीक्षण कर जल निगम के अधिकारियों को इसे शीघ्र चालू करने के निर्देश दिए। उन्होंने मुख्य चिकित्सा अधिकारी को गांव में स्वास्थ्य शिविर लगाकर फ्लोराइड प्रभावित लोगों के उपचार की व्यवस्था करने के निर्देश दिए। मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. अश्वनी कुमार कहते हैं, "फ्लोराइड से बचने का एकमात्र उपाय है साफ पानी। लोग बारिश का पानी इकट्ठा करें, हरी सब्जियां खाएं, तंबाकू-गुटखा छोड़ें, लेकिन यह उपाय तब तक फायदेमंद नहीं जब तक सरकार ज़हरीले पानी का स्थायी हल नहीं निकालती। सोनभद्र के लोग सवाल पूछते हैं, "क्या हमारी कराहत कोई नहीं सुनता? क्या सरकार हमें इंसान नहीं समझती?
आखिर कब तक पीते रहेंगे ज़हर
सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार शशिकांत चौबे बताते हैं, "बिजली उत्पादन करने वाले उद्योगों से निकलने वाले फ़्लोराइड की वजह से पानी प्रदूषित हो चुका है। सीधे तौर पर हैंडपंप या कुंओं का पानी पीने से यह फ्लोरोसिस बीमारी हो जाती है। इस बीमारी से बच्चे से लेकर बुज़ुर्ग तक पीड़ित हैं। पड़रछ गांव का हाल यह है कि यहां फ्लोराइड 20 से 35 की उम्र में ही लोगों को लाठी थमा देता है। फ्लोराइड के कारण आठ से दस साल की उम्र में बच्चों के दांत सड़ने लगते हैं और 25 से 30 साल में कमर झुक जाती है। 35 साल की उम्र में लाठी के बगैर चल पाना दुश्वार हो जाता है।"
"इसका प्रकोप इतना भयावह है कि बुजुर्ग ही नहीं, नौजवानों की हड्डियां सिकुड़ने लगी हैं। हर साल नए इलाके फ्लोराइड की चपेट में आ रहे हैं। बार-बार गुहार लगाने के बावजूद इस गांव में कोई झांकने तक नहीं आता। इस समस्या का कोई अंत नहीं दिख रहा। पड़रछ में पीने के पानी की समस्या सरकार की लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुकी है। स्थानीय लोग कई बार सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगा चुके हैं, लेकिन नल से साफ़ पानी अब तक नहीं आया। नेताओं के वादे भी चुनावों के बाद धूल फांकने लगते हैं।"
फ्लोराइड सिर्फ इंसानों को नहीं मार रहा, यह मवेशियों को भी अपंग बना रहा है। गांव के लोग बताते हैं कि अब उनके जानवर भी कमजोर हो चुके हैं, उनकी हड्डियां भी जवाब दे रही हैं। मगर जब इंसानों की फिक्र करने वाला कोई नहीं, तो जानवरों की कौन सुनेगा? साल 2023 में एक एनजीओ ने गांव में फ्लोराइड रिमूवल किट बांटी थी, लेकिन फिर आदेश आया कि किट का भुगतान ग्राम पंचायतों को करना होगा। पंचायतों के पास बजट ही नहीं था, तो दोबारा किट नहीं बंट पाईं। तीन हज़ार रुपये की एक किट, और सरकार के पास इतना भी नहीं कि यह ज़हर पी रहे लोगों को राहत दिला सके।
सोनभद्र के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं एक्टिविस्ट आशीष पाठक कहते हैं, "सोनभद्र पूरे देश को रोशन कर रहा है। यहां के पावर प्लांट से पैदा हुई बिजली पूरे उत्तर भारत में सप्लाई होती है, लेकिन इन्हीं पावर प्लांट्स ने यहां के जलस्रोतों को ज़हर में बदल दिया है। पड़रछ के लोग तिल-तिलकर मर रहे हैं, मगर सरकारें आंखें मूंदे बैठी हैं। यहां के कई घरों में तीन पीढ़ियां विकलांग हो चुकी हैं। दादा अपंग थे, पिता बैसाखी पर हैं और अब उनके बच्चे घुटनों के बल चल रहे हैं। यह बीमारी खत्म नहीं होती, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चली जाती है। वनवासी सेवा आश्रम से जुड़े जगत नारायण विश्वकर्मा बताते हैं, "हैंडपंप में फिल्टर लगाने का नाटक हुआ, लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी खराब हो गया। अब मजबूरी में वही ज़हरीला पानी पीना पड़ रहा है।"
"एनजीटी ने आदेश दिया था कि प्रभावित गांवों में आरओ प्लांट लगाए जाएं, लेकिन सरकारें और उद्योग अब भी सोच रहे हैं कि यह किसकी ज़िम्मेदारी है। टैंकरों से पानी भेजने की बात हुई थी, मगर वो टैंकर शायद सरकारी फ़ाइलों में ही घूमते रह गए। ग्राम पंचायतों को कहा गया कि वे ज़मीन दें, मगर जब सरकार के पास पीने लायक पानी देने का पैसा नहीं, तो गांववालों से क्या उम्मीद करें? "
सोनभद्र के सोनभद्र के लोग सवाल पूछते हैं, "क्या सरकार हमें इंसान नहीं समझती? कब तक हमें यह ज़हर पीना पड़ेगा? हमारे बच्चों का क्या होगा? यह सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं है, यह उन हज़ारों लोगों की पीड़ा है जो ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा भुगत रहे हैं—बिना किसी अपराध के। यहां पूरी पीढ़ी बर्बाद हो रही है। कोई कमर झुका कर चलने को मजबूर है, कोई हाथों के सहारे घिसट रहा है, कोई बिस्तर पर पड़ा आखिरी सांसें गिन रहा है। सोनभद्र की गलियों में हर घर में कोई न कोई फ्लोराइड का शिकार है। गांव के लोग अब बीमारियों को नामों से नहीं पहचानते, वो बस कहते हैं—"फ्लोराइड वाला।"

इन औरतों को फ्लोराइड ने असमय बूढ़ा कर दिया है
फ्लोराइड के मुद्दे पर व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़ा करते हुए सोनभद्र के अधिवक्ता आशीष यह भी कहते हैं, "सोनभद्र के 276 गांव फ्लोराइ की चपेट में हैं। क्या इन गांवों के लोगों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिए गया है? क्या इनकी तकलीफें सिर्फ चुनावी मुद्दे बनकर रह जाएंगी? क्या कोई सरकार, कोई नेता, कोई अफसर इनके लिए कुछ करेगा? सरकार की आँखें कब खुलेंगी? क्या तब, जब यह गाँव वीरान हो जाएगा? या तब, जब कोई कैमरे के सामने खड़े होकर अपने बच्चे की लाश दिखाएगा? या फिर कभी नहीं? सवाल बहुत हैं, जवाब कोई नहीं।"
आशीष की बातों में दम हैं। फ्लोराइड के खिलाफ सोनभद्र में बस एक ख़ामोश लड़ाई लड़ी जा रही है। यह लड़ाई हर रोज जो रिंकी, रोहित, विजय और हज़ारों लोग अपने दम तोड़ते शरीर के साथ हर रोज़ लड़ रहे हैं। हर चुनाव से पहले इन्हें सिर्फ एक नया झूठ मिलता है कि सांसद-विधायक बनने पर फ्लोराइड की समस्या हल कराएंगे। पड़रछ के लोग हर दिन एक नई उम्मीद के साथ सुबह उठते हैं कि शायद आज कोई इस दर्द को समझेगा, कोई इस जहर से छुटकारा दिलाने की पहल करेगा। लेकिन अब तक उनके हिस्से में सिर्फ़ तकलीफ़ और इंतज़ार ही आया है।
सोनभद्र के तमाम गांवों के लोग ज़हरीले पानी को पीकर ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं। यह सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि उन हज़ारों लोगों की पीड़ा है जो बिना किसी अपराध के अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा भुगत रहे हैं। अगर यह बात आपको झकझोरती है, तो सोचिए—सरकारें क्यों नहीं सुनतीं?
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। सोनभद्र से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के कचनरवा की 55 वर्षीय रजमतिया की कमर अब पूरी तरह झुक चुकी है। उनकी आंखों में अतीत का एक साफ़ अक्स तैरता है—जब वो तेज़ कदमों से खेतों में जाया करती थीं, घर संभालती थीं, हंसती-बोलती थीं। लेकिन अब, हर कदम दर्द से भरा है, हर सांस बोझिल है। वो बस इतना ही कहती हैं—"इलाज के नाम पर कुछ नहीं, बस दर्द की दवा खाकर जी रही हूं।"
उनके ही पड़ोस में कुलवंती रहती हैं। वो सिर्फ 35 साल की हैं, लेकिन उनकी कमर पिछले दस साल से झुकी हुई है। जब शादी होकर इस गांव आई थीं, तब बिल्कुल स्वस्थ थीं। मगर धीरे-धीरे यह पानी उनके शरीर को खा गया, चुपचाप, बिना किसी हलचल के। वह कहती हैं, "सोचा नहीं था कि पानी भी किसी की ज़िंदगी तबाह कर सकता है।"
यह दर्द सिर्फ रजमतिया और कुलवंती की नहीं, बल्कि सोनभद्र के हजारों लोगों की चीख है—जो बरसों से इस जहर को घूंट-घूंट पीने को मजबूर हैं। उनकी आंखों में उम्मीद की जो आखिरी लौ बची थी, वो भी बुझने लगी है। एक माँ, जो अपने बच्चे के झड़ते दाँत देखती है, रो पड़ती है—क्योंकि उसे पता है कि अब अगला नंबर उसकी रीढ़ की हड्डी का है, फिर पैरों का, फिर पूरे शरीर का। वो जानती है कि यह बीमारी उसके बच्चे को अपंग बना देगी, मगर उसके पास कोई चारा नहीं।
सोनभद्र के कोन, वभनी, म्योरपुर और दुद्धी ब्लॉक के 276 गांवों की दो लाख से अधिक आबादी इस धीमे ज़हर को पीने के लिए मजबूर है। इनमें किसी के दांत गल गए हैं तो किसी की हड्डियां टेढ़ी हो गई हैं। एनजीटी के आदेशों के बावजूद यहां के लोग जहरीला पानी पी रहे हैं। इसके असर से किसी के दांत काले-पीले होकर सड़ गए हैं, तो किसी की हड्डियां इतनी कमजोर हो गई हैं कि चलना-फिरना मुश्किल हो गया है। रीढ़ की हड्डी इतनी नाजुक हो गई है कि लोग बिस्तर पर पड़े हैं। छोटे बच्चों की सेहत पर इसका सबसे भयावह असर दिख रहा है—वे जन्म से ही बीमार और दिव्यांग पैदा हो रहे हैं। यह एक पूरी नस्ल को खत्म करने वाली त्रासदी बन चुकी है।

मुश्किलों का ओर-छोर नहीं
हरदी पहाड़ के पास बसे गांवों में भी यही हाल है। शिक्षक रामआधार पटेल बताते हैं कि उनके गांव में 500 घर हैं और उनमें से 90 प्रतिशत लोग फ्लोरोसिस की चपेट में हैं। हड्डियों में दर्द, चलने-फिरने में तकलीफ, और किसी भी काम के लायक न बचने का डर—यही उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी बन चुकी है। औरतें अपने बच्चों को ज़हरीला पानी पीने से रोक नहीं पातीं, बस अपनी आँखों के सामने उन्हें धीरे-धीरे मरता देखती हैं।
चिकित्सक कहते हैं कि पानी में फ्लोराइड 1.5 पीपीएम तक होना चाहिए, मगर यहां यह मात्रा पांच से छह गुना ज्यादा है। इसका मतलब है—हर घूंट ज़हर है, हर घूंट एक नई बीमारी है, हर घूंट एक धीमी मौत है। साल 1995 में जब विजय ने पहली बार इस मुद्दे को उठाया था, तब उन्हें लगा था कि उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। उन्होंने धरना-प्रदर्शन किए, लखनऊ तक दौड़ लगाई, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। धीरे-धीरे बीमारी ने उन्हें भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब वो रस्सी के सहारे उठते-बैठते हैं, क्योंकि उनके पैर अब उनका वजन सहने से इनकार कर चुके हैं। उनके परिवार के पांच सदस्य इस ज़हर के शिकार हैं। दो भाइयों की मौत हो चुकी है।
पड़रछ गांव की रिंकी अब भी ज़मीन पर पड़ी रहती है। मक्खियां उसके चेहरे पर बैठती हैं, मगर उसे भगाने की ताकत तक नहीं। उसकी आँखों में एक ख़ामोश दर्द है, एक ऐसा सवाल है जो शायद उसने ख़ुद से भी पूछना बंद कर दिया हो, "क्या मैं भी वैसे ही मर जाऊंगी जैसे मुन्नी और पप्पू मर गए?" गांव के लोग अब आंसू भी नहीं बहाते। रोहित के मां-बाप को पता है कि उनका बेटा कभी भी एक सामान्य बच्चे की तरह खेल नहीं पाएगा। वो हर बार उसकी बिगड़ती हालत को देखते हैं, हर बार डॉक्टर से जवाब सुनते हैं, "कुछ नहीं हो सकता, बस साफ पानी पिलाइए।" मगर साफ पानी आए कहां से? सरकार के वादों से? नेताओं की खोखली घोषणाओं से?

विजय कुमार शर्मा की जिंदगी रस्सी के सहारे कट रही
यह सिर्फ़ इनकी ही कहानी नहीं, बल्कि सोनभद्र के कोन प्रखंड के पड़रछ गांव के पटेलनगर टोला की एक भयावह सच्चाई है। इसी बस्ती के विजय कुमार शर्मा की ज़िंदगी अब रस्सी के सहारे चलती है। उनकी हड्डियां जवाब दे चुकी हैं, कमर के नीचे का हिस्सा मर चुका है। वो हर दिन उस बिस्तर पर पड़े रहते हैं, एक कोने में रखे उस डब्बे को देखते हैं जिसे अब बाथरूम का नाम देना उनकी मजबूरी बन चुकी है। कोई नेता यहां नहीं आता, कोई अधिकारी रिपोर्ट लेने नहीं आता। शायद कागज़ों में वो अब भी स्वस्थ हैं, शायद सरकार की नज़र में सोनभद्र का पानी अब भी शुद्ध है।
अनार देवी की उम्र कोई 50-52 साल होगी। उनके आठ बच्चे हैं, लेकिन उनमें से दो बेटियां, लालो और राजवंती, 20 से 22 साल की होने के बावजूद पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाईं। उनकी पीठ झुक गई है, और हाथ किसी तरह बांस के एक डंडे को पकड़ पाते हैं, जिससे वे कुछ देर के लिए खड़ी हो सकें या चंद कदम चल सकें।
अनार देवी के लिए सबसे कीमती चीज़ है साफ़ पानी। फ्लोराइड ने उनकी ज़िंदगी को पहाड़ बना दिया है। टूटी-फूटी सड़क से कुछ दूर बने उनके छोटे से कच्चे घर के बाहर अपनी बेटियों के साथ चारपाई पर बैठी अनार देवी गुस्से में कहती हैं, "यह कैसी सरकार है जो हमें साफ़ पानी तक मुहैया नहीं करा पा रही? हमारे गांव में 25 हज़ार से अधिक लोग रहते हैं, लेकिन पेयजल आपूर्ति के लिए बस एक ओवरहेड टैंक है। कुछ घरों में नल भी लगे हैं, लेकिन किसी को साफ़ पानी नसीब नहीं। हमारे हिस्से में सिर्फ़ बीमार करने वाला फ्लोराइड युक्त पानी आया है। हम जानते हैं कि जिस हैंडपंप का पानी हम पी रहे हैं, वह पानी नहीं, ज़हर है। यह कुछ ही साल में हमारी और हमारे बच्चों की ज़िंदगी लील जाएगा।"

अपनी बेटियों के साथ अनार देवी
डबल इंजन की सरकार से नाराज़ अनार देवी आगे कहती हैं, "पड़रछ की पटेलनगर बस्ती में किसी भी घर में घुस जाइए, कोई न कोई ज़मीन पर रेंगता हुआ ज़रूर दिख जाएगा। लोगों का हाल पूछेंगे तो फ्लोराइड का दर्द दरिया बनकर बहने लगेगा। हमारी ज़िंदगी में फ्लोराइड का नासूर इस कदर घुस गया है कि वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। कोई भी व्यक्ति हमारे गांव में अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहता। सभी को पता है कि फ्लोराइड का ज़हर पड़रछ में रहने वालों की उम्र छोटी कर देता है।"
फ्लोराइड से ग्रसित लोगों के लिए ट्राईसाइकिल तक नसीब नहीं। 20 से 25 साल बीतते ही सबके हाथ-पैर टेढ़े होने लगते हैं और कमर झुकने लगती है। पड़रछ की तरह यूपी में शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां दो-तिहाई आबादी फ्लोराइड की चपेट में हो। अनार देवी की ज़िंदगी झंझावतों से भरी है। उनके पास सिर्फ़ डेढ़ बीघा ज़मीन है, जिसमें अनाज तभी पैदा होता है जब बारिश अच्छी होती है। उनके पति राम सिंगार चौधरी मज़दूरी करते हैं, जिससे परिवार का पेट भरता है।
जब अनार देवी अपना दुखड़ा सुना रही थीं, तभी उनके पास खड़ी फूलमती ने उनकी बात काटते हुए अपना दर्द बयां करना शुरू कर दिया। वह कहती हैं, "जब मेरी शादी हुई थी, तब मैं सुनहरे सपने लेकर यहां आई थी। कुछ बरस बाद ही हाथ-पैर बेकार हो गए। अब रेंगते हुए आना-जाना पड़ता है। सरकार साफ़ पानी नहीं दे सकती तो हमें इच्छामृत्यु दे दे। हमारी यह हालत पिछले छह-सात साल से है। पहले मैं बिल्कुल ठीक थी।"
दरअसल, यह समस्या सिर्फ़ अनार देवी और फूलमती की नहीं, बल्कि इस इलाक़े के कई गांवों की भयावह सच्चाई है। पड़रछ में तमाम बच्चे, बूढ़े और औरतें बिना सहारे के चार कदम भी नहीं चल पाते। ज़्यादातर लोगों की हड्डियां कमज़ोर हो गई हैं। यहां बड़ी संख्या में बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग गलियों में रेंगते या लाठियों के सहारे चलते नज़र आते हैं। पड़रछ के पानी में फ्लोराइड की मात्रा इतनी अधिक है कि वह शरीर की हड्डियों पर सीधा वार करता है।

सोनभद्र के पड़रछ गांव के बच्चे जिनके दांतों पर है फ्लोराइड का गहरा असर
"हमें ज़हर पीने की आदत हो गई है"
रामकुमार की उम्र तो सिर्फ 37 साल है, लेकिन उनकी झुकी हुई गर्दन, टेढ़े हाथ और पतली हड्डियों को देखकर कोई भी धोखा खा सकता है। उनकी कमर इतनी झुक गई है कि लगता है जैसे किसी अदृश्य बोझ ने उन्हें हमेशा के लिए झुका दिया हो। पैरों का आकार असामान्य है, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। रामकुमार कहते हैं, "सात-आठ साल पहले मैं भी आम नौजवानों की तरह था। अखाड़े में कुश्ती लड़ता था, दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता था, लेकिन अब चलना भी मुश्किल है। पहले घुटनों में दर्द हुआ, फिर कमर जवाब देने लगी, अब हाथ भी टेढ़े हो गए हैं। यह सब उसी पानी की वजह से हुआ है, जो हमने बचपन से पीया है। हमारे गांव में हर कोई किसी न किसी तकलीफ से जूझ रहा है।"
रामकुमार भी सोनभद्र के पड़रछ गांव के पटेलनगर टोला में रहते हैं, लेकिन यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं है, बल्कि उनके जैसे सैकड़ों लोगों की है, जिनके शरीर ने इस ज़हरीले पानी का दर्द पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहा है। यहां का पानी लोगों के शरीर को तोड़ रहा है, हड्डियों को खोखला कर रहा है, और आने वाली नस्लों को भी अपंग बना रहा है।
57 साल के विजय शर्मा की आंखों में आंसू छलक पड़ते हैं। वह चारपाई पर लेटे हैं, उनके शरीर ने जवाब दे दिया है। उनके घर में छत से एक रस्सी लटकी हुई है, जिससे पकड़कर वह खुद को थोड़ा ऊपर खींचने की कोशिश करते हैं। उनका गला भर आता है, "हुजूर! हम मजबूर हैं। हमारा जन्म ही ऐसी ज़मीन पर हुआ, जहां पानी ज़हर बन चुका है। हमारी गायें, हमारी ज़मीन सब इलाज में बेच डाले, लेकिन हालात नहीं बदले। अब तो दवा खरीदने के भी पैसे नहीं हैं।"
विजय कहते हैं, "हुजूर! हम बेबस हैं। हमारा कसूर बस इतना है कि हम इस गांव में पैदा हुए। यह गांव हमें ज़हर पिलाता है, और हम मजबूरी में इसे पीते रहते हैं। हमने अपनी ज़मीन और दो गायें बेचकर इलाज कराया, लेकिन हालत और बिगड़ गई। अब दवा के लिए पैसे नहीं हैं।" विजय शर्मा की तरह पारस, मानिक राय, केशवर पटेल और बृज पटेल भी उसी दर्द से कराह रहे हैं। उनके घुटने मुड़ जाते हैं, फिर जल्दी सीधे नहीं होते। कई लोग शौच तक नहीं जा सकते। कोई चारपाई पर पड़ा है, कोई लाठी के सहारे हिलने-डुलने की कोशिश कर रहा है।"
पास में ही बैठी बिगू गोंड और उनकी पत्नी सहोदरी देवी की हालत और भी खराब है। पति-पत्नी दोनों विकलांग हैं, चारपाई पर पड़े रहते हैं। कोई दाना-पानी देने वाला तक नहीं है। कुछ परोपकारी लोग उन्हें खाना दे जाते हैं। गांव के लोग बताते हैं, "हर बार हम उम्मीद बांधते हैं कि कोई आएगा और हमारी तकलीफ सुनेगा, पर हर बार उम्मीद टूट जाती है। सोनभद्र बिजली दे रहा, पर खुद अंधेरे में है"

रेंगकर चलती है संगीता
24 साल के रिंकू की ज़िंदगी में कोई रंग नहीं बचा। बुलाने पर एक युवक उन्हें बाइक पर बैठाकर लाया। "हमारे पास दर्द के अलावा कुछ भी नहीं बचा। हम सरकार से गुहार लगाते-लगाते थक चुके हैं। हमारी चीख कोई नहीं सुनता। सोनभद्र के हर्रा सरैयाडीह के 56 वर्षीय रामचंद्र जायसवाल की तीन पीढ़ियां फ्लोराइड की मार झेल रही हैं। वह निराश होकर कहते हैं, "कोई नहीं जानता कि हमारी बेबसी मोदी-योगी की सरकार तक कभी पहुंचेगी भी या नहीं।"
बिगू गोंड और उनकी पत्नी सहोदरी देवी चारपाई पर पड़े हैं। दोनों विकलांग हैं, चल-फिर भी नहीं सकते। खाने के लिए भी किसी का सहारा चाहिए। गांव के लोग बताते हैं, "हर बार हम उम्मीद बांधते हैं कि कोई आएगा और हमारी तकलीफ सुनेगा, पर हर बार उम्मीद टूट जाती है। 68 करोड़ खर्च हुए, फिर भी ज़हर पीने को मजबूर"
"हमारी कराह कोई नहीं सुनता"
राबर्ट्सगंज से करीब 80 किलोमीटर दूर कचनरवा ग्राम पंचायत की 25 हजार की आबादी इस संकट से जूझ रही है। यहां रिंकी और रोहित जैसे कई बच्चे हैं, जिन्हें गांववाले 'फ्लोराइड वाला' कहकर पुकारते हैं। रिंकी के परिवार के मुन्नी और पप्पू की छह महीने पहले मौत हो गई। दोनों स्वस्थ थे, लेकिन अचानक बिस्तर पर पड़े और इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। इस गांव की 7000 से अधिक आबादी फ्लोरोसिस की चपेट में है, लेकिन सरकार की ओर से केवल खोखले वादे किए गए हैं। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद लोग साफ पानी के लिए तरस रहे हैं।
कोन ब्लॉक के पड़रछ गांव के हर टोले में भूजल में फ्लोराइड की अधिकता है। यहां साल 2012-13 में ग्राम समूह पेयजल परियोजना स्वीकृत हुई थी, जिसमें 68 करोड़ रुपये खर्च कर 2015-16 में इसे तैयार किया गया। इस योजना के तहत 22 किलोमीटर के दायरे में नौ गांवों तक पानी पहुंचाया जाना था, लेकिन हकीकत यह है कि 80 फीसदी आबादी अब भी हैंडपंप और कुएं के दूषित पानी पर निर्भर है। गांवों में पाइपलाइन बिछाई गई, लेकिन पानी नहीं पहुंचा। पटेलनगर, नई बस्ती, झिरगाडंडी और पिपरहवा जैसे इलाके परियोजना के मुहाने पर हैं, फिर भी बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं।
पड़रछ के पूर्व प्रधान मुंद्रिका सिंह के घर के पास हैंडपंप पर फ्लोराइड रिमूवल प्लांट लगाया गया था। साल 2015 में उसका लोकार्पण भी हो गया, लेकिन कुछ ही सालों में वह जर्जर हो गया। टैंक में दरारें आ गईं, नलों तक पानी पहुंचा ही नहीं। हज़ारों लोग अब भी ज़हरीला पानी पीने को मजबूर हैं। शैलेश शर्मा कहते हैं, "हमारी टोटी से आज तक एक बूंद पानी नहीं आया। हमारे बच्चे भी उसी ज़हर को पीकर बड़े हो रहे हैं, जिससे हमने अपनी ज़िंदगी बर्बाद की। हमारे घर में पानी की टोटी तो लगी है, लेकिन उसमें से एक बूंद भी साफ पानी नहीं आता। बच्चे तक इस ज़हरीले पानी को पीने के आदी हो चुके हैं। हमें पता है कि हम धीमा ज़हर पी रहे हैं, लेकिन हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है।"
जल निगम के सहायक अभियंता अनिल कुमार के मुताबिक, "ग्राम समूह पेयजल परियोजना से नौ गांवों को पानी मिलना था, लेकिन फिलहाल सिर्फ तीन-चार गांवों तक किसी तरह पानी पहुंच रहा है। अन्य गांवों तक पानी न पहुंचने की तकनीकी दिक्कतें हैं। मेंटनेंस के लिए अलग से कोई बजट नहीं है। इसके समाधान के लिए शासन को पत्र भेजा गया है। स्वीकृति मिलते ही पाइपलाइन से पानी आपूर्ति बहाल की जाएगी।"
पड़रछ की ग्राम प्रधान सोनी देवी कहती हैं, "हरदी टोला में एक ओवरहेड टैंक बना है, लेकिन उससे पानी आता नहीं। सरकार बिल जरूर भेज रही है, लेकिन लोगों को पानी नसीब नहीं हो रहा। सोनभद्र के प्रभावित गांवों में फ्लोराइड उपचार संयंत्र लगाने की जिम्मेदारी जल निगम की थी, लेकिन कोई अधिकारी इस पर जवाब देने को तैयार नहीं है। सोनभद्र के पावर प्लांट से निकलने वाला केमिकल यहां के जलस्रोतों को ज़हर में बदल रहा है। पूरे देश को बिजली देने वाला यह इलाका खुद लाचारी और विकलांगता की चपेट में है। "

पड़रछ गांव के लोग, जिन्हें फ्लोराइड ने बना दिया है विकलांग
प्रधान सोनी यह भी कहती हैं, "हमारी बिजली पूरे देश को रौशन कर रही है, लेकिन खुद हम आठ-दस घंटे ही बिजली पाते हैं। कई गांवों में बिजली के खंभे तक नहीं लगे। सोनभद्र में 2014 में 68 करोड़ की पेयजल योजना इस इलाके के लिए स्वीकृत हुई थी। 2015 में ओवरहेड टैंक बन भी गया, लेकिन घटिया निर्माण की वजह से यह अब जर्जर हालत में है। हज़ारों लोगों को अब भी वही ज़हरीला पानी पीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। हमने कलेक्टर से लेकर मुख्यमंत्री तक पत्र लिखे, धरना दिया, प्रदर्शन किया, लेकिन कुछ नहीं बदला। हमारे बच्चे भी उसी तकलीफ को भुगतेंगे, जिससे हमने अपनी पूरी ज़िंदगी खो दी। "
सपा मुखिया ने कसा तंज
भूजल में फ्लोराइड की अधिकता से बीमार हो रहे लोगों की पीड़ा पर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भाजपा सरकार पर तंज कसा है। बीते शनिवार को उन्होंने एक्स पर एक खबर पोस्ट करते हुए लिखा कि अब क्या सोनभद्र जिले के पानी में फ्लोराइड की खतरनाक मात्रा और उसके जानलेवा बुरे असर के बारे में भी दिल्ली वाले एनजीटी की रिपोर्ट को उप्र सरकार झूठा साबित करेगी।
अखिलेश के ट्वीट के बाद सरकारी मशीनरी हरकत में आ गई। आनन-फानन में सोनभद्र के कलेक्टर बद्री सिंह पड़रछ गांव में पहुंचे और तीन मार्च 2025 को विंध्याचल मंडल के आयुक्त बालकृष्ण त्रिपाठी ने दुद्धी ब्लॉक के फ्लोराइड प्रभावित गांव मनबसा पहुंच गए। मंडलायुक्त ने जल जीवन मिशन के तहत जल सखी को दी गई किट से हैंडपंप के पानी की जांच कराई तो फ्लोराइड का खतरनाक स्तर देखकर चौंक गए। पानी में फ्लोराइड की मात्रा मानक 1.5 पीपीएम से काफी अधिक थी।
मंडलायुक्त ने ग्रामीणों से अपील की कि वह इस पानी को न पीएं। उन्होंने जल जीवन मिशन के तहत बनी टंकी से भी आपूर्ति की बात कही। इससे पहले टैंकर से पानी पहुंचाने के निर्देश दिए। मंडलायुक्त ने फ्लोराइड पीड़ित विनोद, गौतम कुशवाहा और अर्जुन खरवार से उनकी समस्याओं के बारे में पूछा। पीड़ितों ने बताया कि उनके कमर और पैर में असहनीय दर्द रहता है। इससे वह न चल-फिर पाते हैं और न ही काम कर पाते हैं। मजबूरी में फ्लोराइडयुक्त पानी पी रहे हैं।
जानलेवा बीमारियां बांट रहा फ्लोराइड
भूजल के प्रदूषित होने के कारण सोनभद्र जिले की बड़ी आबादी दूषित पानी पीकर बीमारियों की शिकार हो रही है। शुद्ध पेयजल मुहैया कराने के लिए शुरू की गई हर घर जल योजना के तहत भी प्रभावित गांवों में पानी नहीं पहुंच रहा। पाइप लाइन बिछाने और कनेक्शन देने के बाद भी सूखी टोटियों के चलते लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। कोन, म्योरपुर, बभनी, दुद्धी, चोपन ब्लॉकों के करीब 276 गांवों में फ्लोराइड की समस्या है तो नगवां, चतरा, रॉबर्ट्सगंज, घोरावल क्षेत्र के पानी में आयरन की मात्रा मानक से काफी अधिक है।
फ्लोराइड की समस्या के समाधान के लिए ही जिले में हर घर जल योजना के तहत करीब 3,000 करोड़ की 12 पेयजल परियोजनाएं स्थापित की गई हैं। कायदे से इन परियोजनाओं से मार्च 2024 से ही जलापूर्ति शुरू होनी चाहिए थी, लेकिन कार्यदाई संस्था की लेटलतीफी के चलते अभी भी काम पूरा नहीं हो पाया है। सरकार ने कागज़ों में जल जीवन मिशन के तहत हर घर को नल से जोड़ दिया, लेकिन उन नलों में पानी कभी आया ही नहीं। कचनरवा में सौर ऊर्जा से संचालित प्लांट से जो पानी आता है, वो भी दूषित है। जो हैंडपंप कभी मीठा पानी देते थे, उनमें फ्लोराइड रिमूवल प्लांट तो लगे, लेकिन अब वो भी कबाड़ बन चुके हैं।
नतीजा फ्लोराइड प्रभावित गांवों के लोग अब भी दूषित जल पीने को विवश हैं। हालांकि जलनिगम ने दावा किया है कि अमवार और झीलो-बीजपुर को छोड़कर दस परियोजनाएं पूरी कर सभी गांवों में पानी आपूर्ति शुरू कर दी गई है, जबकि हकीकत इससे अलग है। एनजीटी ने आदेश दिया, कागजों में योजनाएं बनीं, रिपोर्टें तैयार हुईं, मगर ज़मीन पर सब कुछ वैसा ही है जैसा बीस साल पहले था—बल्कि और भी बदतर। लोग अब भी वही ज़हरीला पानी पीने को मजबूर हैं, अब भी हड्डियाँ टेढ़ी हो रही हैं, अब भी बच्चे जन्म से ही अपंग आ रहे हैं, अब भी बिस्तर पर पड़े लोग हर सांस को मोहताज हैं।

ये हैंडपंप भी फ्लोराइडयुक्त पानी उगलते हैं
सरकारी दावे और ज़मीनी हकीकत के बीच पीड़ित ग्रामीणों की परेशानी जस की तस बनी हुई है। फिलहाल, प्रशासन ने टैंकरों से जल आपूर्ति शुरू कर दी है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है। इस बीच जिलाधिकारी बद्री सिंह ने फ्लोराइड प्रभावित गांव पड़रछ पहुंचकर फ्लोराइड पीड़ितों से बात की और कहा कि, "हर घर जल योजना के तहत सभी गांवों को शुद्ध पेयजल आपूर्ति से संतृप्त किया जाना है। जलनिगम से उन सभी गांवों का विवरण तलब किया गया है, जहां पाइप से पानी पहुंच रहा है। इसका सत्यापन भी कराया जाएगा। इसमें किसी भी तरह की लापरवाही सामने आने पर सख्त कार्रवाई भी होगी। साथ ही सभी ग्रामीणों को शुद्ध जलापूर्ति की व्यवस्था कराई जाएगी।"
जिलाधिकारी बद्री सिंह ने ग्राम समूह पेयजल परियोजना पड़रछ का निरीक्षण कर जल निगम के अधिकारियों को इसे शीघ्र चालू करने के निर्देश दिए। उन्होंने मुख्य चिकित्सा अधिकारी को गांव में स्वास्थ्य शिविर लगाकर फ्लोराइड प्रभावित लोगों के उपचार की व्यवस्था करने के निर्देश दिए। मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. अश्वनी कुमार कहते हैं, "फ्लोराइड से बचने का एकमात्र उपाय है साफ पानी। लोग बारिश का पानी इकट्ठा करें, हरी सब्जियां खाएं, तंबाकू-गुटखा छोड़ें, लेकिन यह उपाय तब तक फायदेमंद नहीं जब तक सरकार ज़हरीले पानी का स्थायी हल नहीं निकालती। सोनभद्र के लोग सवाल पूछते हैं, "क्या हमारी कराहत कोई नहीं सुनता? क्या सरकार हमें इंसान नहीं समझती?
आखिर कब तक पीते रहेंगे ज़हर
सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार शशिकांत चौबे बताते हैं, "बिजली उत्पादन करने वाले उद्योगों से निकलने वाले फ़्लोराइड की वजह से पानी प्रदूषित हो चुका है। सीधे तौर पर हैंडपंप या कुंओं का पानी पीने से यह फ्लोरोसिस बीमारी हो जाती है। इस बीमारी से बच्चे से लेकर बुज़ुर्ग तक पीड़ित हैं। पड़रछ गांव का हाल यह है कि यहां फ्लोराइड 20 से 35 की उम्र में ही लोगों को लाठी थमा देता है। फ्लोराइड के कारण आठ से दस साल की उम्र में बच्चों के दांत सड़ने लगते हैं और 25 से 30 साल में कमर झुक जाती है। 35 साल की उम्र में लाठी के बगैर चल पाना दुश्वार हो जाता है।"
"इसका प्रकोप इतना भयावह है कि बुजुर्ग ही नहीं, नौजवानों की हड्डियां सिकुड़ने लगी हैं। हर साल नए इलाके फ्लोराइड की चपेट में आ रहे हैं। बार-बार गुहार लगाने के बावजूद इस गांव में कोई झांकने तक नहीं आता। इस समस्या का कोई अंत नहीं दिख रहा। पड़रछ में पीने के पानी की समस्या सरकार की लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुकी है। स्थानीय लोग कई बार सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगा चुके हैं, लेकिन नल से साफ़ पानी अब तक नहीं आया। नेताओं के वादे भी चुनावों के बाद धूल फांकने लगते हैं।"
फ्लोराइड सिर्फ इंसानों को नहीं मार रहा, यह मवेशियों को भी अपंग बना रहा है। गांव के लोग बताते हैं कि अब उनके जानवर भी कमजोर हो चुके हैं, उनकी हड्डियां भी जवाब दे रही हैं। मगर जब इंसानों की फिक्र करने वाला कोई नहीं, तो जानवरों की कौन सुनेगा? साल 2023 में एक एनजीओ ने गांव में फ्लोराइड रिमूवल किट बांटी थी, लेकिन फिर आदेश आया कि किट का भुगतान ग्राम पंचायतों को करना होगा। पंचायतों के पास बजट ही नहीं था, तो दोबारा किट नहीं बंट पाईं। तीन हज़ार रुपये की एक किट, और सरकार के पास इतना भी नहीं कि यह ज़हर पी रहे लोगों को राहत दिला सके।
सोनभद्र के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं एक्टिविस्ट आशीष पाठक कहते हैं, "सोनभद्र पूरे देश को रोशन कर रहा है। यहां के पावर प्लांट से पैदा हुई बिजली पूरे उत्तर भारत में सप्लाई होती है, लेकिन इन्हीं पावर प्लांट्स ने यहां के जलस्रोतों को ज़हर में बदल दिया है। पड़रछ के लोग तिल-तिलकर मर रहे हैं, मगर सरकारें आंखें मूंदे बैठी हैं। यहां के कई घरों में तीन पीढ़ियां विकलांग हो चुकी हैं। दादा अपंग थे, पिता बैसाखी पर हैं और अब उनके बच्चे घुटनों के बल चल रहे हैं। यह बीमारी खत्म नहीं होती, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चली जाती है। वनवासी सेवा आश्रम से जुड़े जगत नारायण विश्वकर्मा बताते हैं, "हैंडपंप में फिल्टर लगाने का नाटक हुआ, लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी खराब हो गया। अब मजबूरी में वही ज़हरीला पानी पीना पड़ रहा है।"
"एनजीटी ने आदेश दिया था कि प्रभावित गांवों में आरओ प्लांट लगाए जाएं, लेकिन सरकारें और उद्योग अब भी सोच रहे हैं कि यह किसकी ज़िम्मेदारी है। टैंकरों से पानी भेजने की बात हुई थी, मगर वो टैंकर शायद सरकारी फ़ाइलों में ही घूमते रह गए। ग्राम पंचायतों को कहा गया कि वे ज़मीन दें, मगर जब सरकार के पास पीने लायक पानी देने का पैसा नहीं, तो गांववालों से क्या उम्मीद करें? "
सोनभद्र के सोनभद्र के लोग सवाल पूछते हैं, "क्या सरकार हमें इंसान नहीं समझती? कब तक हमें यह ज़हर पीना पड़ेगा? हमारे बच्चों का क्या होगा? यह सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं है, यह उन हज़ारों लोगों की पीड़ा है जो ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा भुगत रहे हैं—बिना किसी अपराध के। यहां पूरी पीढ़ी बर्बाद हो रही है। कोई कमर झुका कर चलने को मजबूर है, कोई हाथों के सहारे घिसट रहा है, कोई बिस्तर पर पड़ा आखिरी सांसें गिन रहा है। सोनभद्र की गलियों में हर घर में कोई न कोई फ्लोराइड का शिकार है। गांव के लोग अब बीमारियों को नामों से नहीं पहचानते, वो बस कहते हैं—"फ्लोराइड वाला।"

इन औरतों को फ्लोराइड ने असमय बूढ़ा कर दिया है
फ्लोराइड के मुद्दे पर व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़ा करते हुए सोनभद्र के अधिवक्ता आशीष यह भी कहते हैं, "सोनभद्र के 276 गांव फ्लोराइ की चपेट में हैं। क्या इन गांवों के लोगों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिए गया है? क्या इनकी तकलीफें सिर्फ चुनावी मुद्दे बनकर रह जाएंगी? क्या कोई सरकार, कोई नेता, कोई अफसर इनके लिए कुछ करेगा? सरकार की आँखें कब खुलेंगी? क्या तब, जब यह गाँव वीरान हो जाएगा? या तब, जब कोई कैमरे के सामने खड़े होकर अपने बच्चे की लाश दिखाएगा? या फिर कभी नहीं? सवाल बहुत हैं, जवाब कोई नहीं।"
आशीष की बातों में दम हैं। फ्लोराइड के खिलाफ सोनभद्र में बस एक ख़ामोश लड़ाई लड़ी जा रही है। यह लड़ाई हर रोज जो रिंकी, रोहित, विजय और हज़ारों लोग अपने दम तोड़ते शरीर के साथ हर रोज़ लड़ रहे हैं। हर चुनाव से पहले इन्हें सिर्फ एक नया झूठ मिलता है कि सांसद-विधायक बनने पर फ्लोराइड की समस्या हल कराएंगे। पड़रछ के लोग हर दिन एक नई उम्मीद के साथ सुबह उठते हैं कि शायद आज कोई इस दर्द को समझेगा, कोई इस जहर से छुटकारा दिलाने की पहल करेगा। लेकिन अब तक उनके हिस्से में सिर्फ़ तकलीफ़ और इंतज़ार ही आया है।
सोनभद्र के तमाम गांवों के लोग ज़हरीले पानी को पीकर ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं। यह सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि उन हज़ारों लोगों की पीड़ा है जो बिना किसी अपराध के अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा भुगत रहे हैं। अगर यह बात आपको झकझोरती है, तो सोचिए—सरकारें क्यों नहीं सुनतीं?
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। सोनभद्र से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)