“राइस बैग्स” वाले ईसाइयों से परे: भारत में स्थानीय ईसाइयों की वास्तविकता 

Written by george alexander | Published on: August 22, 2024


भारत में ईसाई धर्म का इतिहास इसकी शुरुआत और विकास से जुड़ा एक जटिल ताना-बाना है। इतिहासकार, धर्मशास्त्री और विभिन्न चर्च समुदाय इसके आगमन और विकास के इर्द-गिर्द चर्चाएं करते रहते हैं। इन चर्चाओं के बावजूद, भारत में ईसाई समुदाय आगे बढ़ रहा है, इसके मिशनरी और ईसाई धर्म प्रचारकों का प्रयास इसके विश्वास का प्रमाण हैं। हालांकि, वे देश के विशाल धार्मिक परिदृश्य में अल्पसंख्यक बने हुए हैं।

ईसाई धर्म और बढ़ती असहिष्णुता

भारतीय ईसाई धर्म की बारीकियों में जाने से पहले मैं वैश्विक स्तर पर और भारत में ईसाइयों द्वारा जूझने वाली कठिनाइयों का एक संक्षिप्त ब्यौरा दूंगा। ईसाई धर्म दुनिया भर में सबसे अधिक सताया जाने वाला धर्म है। 2024 वर्ल्ड वॉच लिस्ट (WWL) के अनुसार, उप-सहारा अफ्रीका वैश्विक ईसाई धर्म का केंद्र है और विरोधाभासी कारक यह है कि यही ईसाइयों के खिलाफ हिंसा का केंद्र बना हुआ है।

ईसाइयों के नरसंहार को रोकने की अपील अक्सर अनसुनी हो जाती है। जबकि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चरमपंथी इस्लामवादी कट्टरपंथी समूहों और अन्य लोगों द्वारा ईसाइयों का नरसंहार किया जा रहा है, न तो विश्व के नेताओं, राजनेताओं और न ही मुख्यधारा के मीडिया को इसकी गंभीरता की परवाह है। जबकि दुनिया फिलिस्तीन में युद्ध और प्रवासी संकटों की समस्याओं से जूझ रही है, संयुक्त राष्ट्र ने हर साल 15 मार्च को दुनिया भर के 140 देशों में इस्लामोफोबिया का मुकाबला करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया है। ईसाइयों और अल्पसंख्यकों सहित अन्य धार्मिक समूहों के नरसंहार और हत्या का मुकाबला करने के लिए एक दिन क्यों नहीं नियत किया गया? [1]

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में भी ईसाइयों के खिलाफ विभिन्न तरह के हमले बढ़ रहे हैं। सीजेपी ने एक रिपोर्ट में बताया है कि साल 2023 में 334 दिनों के भीतर ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की कुल 687 घटनाएं हुईं। सितंबर 2023 की एक वायर रिपोर्ट ने इन हमलों में पर्याप्त वृद्धि का संकेत दिया, नई दिल्ली स्थित नागरिक समाज संगठन यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम (यूसीएफ) ने अपनी हेल्पलाइन के जरिए सिर्फ जनवरी से 15 मार्च, 2024 के बीच ईसाइयों के खिलाफ 161 हिंसा के मामले दर्ज किए। क्रिश्चियनिटी टुडे ने बताया कि भारत उन पचास देशों में ग्यारहवें स्थान पर है जहां 2024 में ईसाई होना दूभर हो गया है।

'राइस बैग' क्रिश्चन

मैं भारत में ईसाइयों को निशाना बनाकर घृणित टिप्पणियों के मामले में वृद्धि देख रहा हूं। खासकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जो दक्षिणपंथी समर्थकों, विशेषतः दक्षिणपंथी आरएसएस परिवार के लोगों द्वारा की जाती हैं। हाल के वर्षों में, यह इस हद तक बढ़ गया है कि ईसाइयों को लगातार 'राइस बैग' बोला जाता है, जो कि एक अपमानजनक और खतरनाक स्टीरियोटाइप है।

"राइस बैग क्रिश्चन" (चावल की बोरी वाले ईसाई) एक अपमानजनक शब्द है जिसका इस्तेमाल उन लोगों को बताने के लिए किया जाता है जो वास्तविक धार्मिक विश्वास के बजाय मुख्य रूप से भौतिक लाभों के लिए ईसाई धर्म में परिवर्तित होते हैं। भारतीय संदर्भ में, यह विशेष रूप से उन लोगों को संदर्भित करता है जिन पर खाद्य आपूर्ति जैसे संसाधनों के बदले धर्म परिवर्तन करने का आरोप है, जिसका प्रतीक अक्सर चावल होता है।

भारत में ईसाई धर्म के बारे में अपनी गलतफ़हमी के कारण कुछ संघ समर्थक या दक्षिणपंथी कट्टरपंथी, ईसाइयों के खिलाफ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें भारत में ईसाई धर्म के संदर्भ या इसकी ऐतिहासिक उत्पत्ति और विकास की बिलकुल भी समझ नहीं है। पहला मुद्दा यह है कि भारत में ईसाई धर्म के आलोचक अक्सर सभी ईसाइयों को 'राइस बैग' बताते हैं। वे स्वदेशी ईसाई समुदायों के अस्तित्व को स्वीकार करने में विफल हैं, जो देश के ताने-बाने का अभिन्न अंग हैं और सभी भारतीय ईसाई इस दख़ियानूसी स्टीरियोटाइप में फिट नहीं होते हैं।

पिछले 15 वर्षों के सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण को देखते हुए, यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि भारत में कई धर्म अपने आप को सर्वोच्च जताने की होड़ में लगे हुए हैं। सोशल मीडिया ने देश में जाति और धार्मिक विभाजन की आग में घी डालने का काम कर दिया है। खास तौर से, चरमपंथी इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल नफरत फैलाने और जानबूझकर जाति और धार्मिक मुद्दों का हवाला देकर, तथ्यों को तोड़मरोड़ कर के चर्चाओं में हेरफेर करने के लिए करते हैं।

यह ध्यान रखना अहम है कि भारत में ईसाइयों के बारे में संघ समर्थकों के बीच अलग-अलग विचार हैं। उदाहरण के लिए, स्वर्गीय डॉ. सुदर्शन ने नागपुर में एक बड़े एनसीसीआई-आरएसएस संवाद के दौरान मलंकरा चर्च के प्रतिनिधिमंडल के साथ बैठक में मलंकरा चर्च (इंडियन ऑर्थोडॉक्स चर्च) को "भारत का आधिकारिक राष्ट्रीय चर्च" के रूप में स्वीकार किया है। [2] यह रुख संगठन के आम तौर पर माने जाने वाले विचारों से अलग है। हालांकि, दूसरी तरफ, संघ परिवार, आरएसएस और संबद्ध संगठनों के कई सदस्य ईसाइयों के बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखते हैं, अक्सर उन्हें एक समरूप समूह के रूप में देखते हैं जो मिशनरी रणनीति और भौतिक प्रोत्साहन के कारण परिवर्तित हुए हैं। यह परिप्रेक्ष्य ईसाई समुदाय के भीतर विविध अनुभवों और प्रेरणाओं की अनदेखी करता है।

धर्मांतरण और धन का दुरुपयोग

स्वदेशी ईसाई धर्म पर चर्चा से पहले, मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं भौतिक प्रोत्साहन, आध्यात्मिक जबरदस्ती या धार्मिक श्रेष्ठता के दावों के आधार पर धर्मांतरण को स्वीकार या समर्थन नहीं करता, खासकर ईसाई धर्म के संदर्भ में। धर्म परिवर्तन वास्तव में एक गंभीर व्यक्तिगत निर्णय होना चाहिए जो वास्तविक विश्वास और समझ पर आधारित हो, बाहरी दबावों या प्रलोभनों से मुक्त हो। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि इक्का दुक्का ईसाई समूहों ने दान की आड़ में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एकत्र किए गए धन का दुरुपयोग किया है। मगर, सभी पर आरोप लगाना और इसके सामान्यीकरण से बचना आवश्यक है।

मलंकारा नसरानी - भारत के मूल निवासी 'ईसाई'

अभी भी यह तय करना बाकी है कि भारत में कितने लोगों ने कभी भारत में मूल निवासी 'ईसाई' समुदाय मलंकारा नसरानी के बारे में सुना है। केरल में उभरे (सामाजिक-आर्थिक व्यापार नेटवर्क के परिणामस्वरूप रोमन साम्राज्य के बाहर), मलंकारा नसरानी प्री-प्रोटो-ऑर्थोडॉक्स (समुदाय जो रूढ़िवादी कैथोलिक ईसाई धर्म या रोमन ईसाई धर्म के विकास से पहले उत्पन्न हुआ था) नाज़रेथ के यीशु के अनुयायी हैं जो मलंकारा चर्च से संबंधित हैं।

वे एक जाति-आधारित समुदाय हैं जिनके पास अपने समकक्ष हिंदू समाज के समान समृद्ध मौलिक सांस्कृतिक प्रथाएं हैं।

मलंकारा में मुख्य रूप से मौजूदा कोंकण क्षेत्र से कन्याकुमारी तक फैला एक भौगोलिक स्थान शामिल है। इसे पहले 'मलाई नट्टुकारा' के रूप में जाना जाता था। मलाई नट्टू-तमिल (जो मालाबार क्षेत्र में बोली जाती थी) यह बताती है कि तमिल में क्रमबद्ध 'माले', मलाईनाडु है जिसमें 'मलाई' का अर्थ है 'पहाड़ी' और 'नाडु' का अर्थ भूमि है। मलाई नट्टू-तमिल (जो मालाबार क्षेत्र में बोली जाती थी) यह बताती है कि तमिल में 'माले' ऑफ कॉस्मास इंडिकोप्लुस्ट्स (ग्रीक भाषा का हिंदी शाब्दिक अर्थ हुआ 'कॉसमस जो भारत के लिए रवाना हुए'; उन्हें कॉसमस द मॉन्क के नाम से भी जाना जाता है, वे मिस्र में अलेक्जेंड्रिया के एक व्यापारी थे जो बाद में ईसाई साधु बन गए थे। उन्होंने छठी शताब्दी में भारत की कई यात्राएँ की थीं और किताबें भी लिखी थीं, उन्ही की लिखी किताब 'क्रिश्चियन टोपोग्राफी' में यह उल्लेख किया गया है) मलाईनाडु है जिसमें 'मलाई' का अर्थ है 'पहाड़ी' और 'नाडु' का अर्थ भूमि है।  मलाईकारा, मलंकारा बन गया, 'मलाइकरा' के तट पर मौजूद चर्च मलंकारा चर्च बन गया और यीशु नाजरेथ के अनुयायी जो मलंकारा चर्च के सदस्य थे, 'मलंकारा नसरानी' बन गए। नसरानी शब्द का मतलब जो यीशु नाजरेथ के अनुयायी हैं। विदेशी चर्चों द्वारा नरम और कठोर साम्राज्यवादी आक्रमण के कारण मलंकारा नसरानी विभाजित हैं। कठोर शक्ति के आक्रमण की बात करें तो 16वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में पुर्तगालियों का आगमन प्राचीन मलंकारा नसरानी समुदाय के लिए एक निर्णायक क्षण था। इसके बाद के पुर्तगाली औपनिवेशिक युग ने रोमन कैथोलिक धर्म के लागू होने के साथ मिलकर मलंकारा चर्च पर गहरा प्रभाव डाला। अंततः पुर्तगाली दबाव के कारण इस चर्च को रोम के अधिकार के अधीन होना पड़ा।

दूसरी ओर, पूर्वी सीरियाई और पश्चिमी सीरियाई दोनों चर्चों ने अपनी कूटनीति, उपासना और धार्मिक प्रथाओं के जरिए धीरे-धीरे मलंकारा चर्च पर प्रभाव डाला। इस बढ़े हुए संपर्क का परिणाम मलंकारा नसरानी पर एक सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभुत्व के रूप में सामने आया, क्योंकि पश्चिमी सीरियाई बुजुर्गों ने चर्च के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। इस हस्तक्षेप से एक बड़ा विभाजन शुरू हो गया जो पुर्तगाली कैथोलिक प्रभाव के कारण उत्पन्न हुए विभाजन के बराबर था। मलंकारा के दो गुटों के बीच संघर्ष जारी रहा। इसके अलावा, सदियों से सीरियाई चर्च मलंकारा नसरानी पर अपनी पहचान (सीरियाई ईसाई) थोपने में बहुत प्रभावी रहे हैं, जो वास्तव में मूल निवासी भारतीय ईसाई हैं।

मलंकारा नसरानी विभिन्न ईसाई अधिकार क्षेत्रों (मलंकारा ऑर्थोडॉक्स, सीरियाई ऑर्थोडॉक्स जैकबाइट्स, मार्थोमा, सिरो-मालाबार, सिरो-मलंकारा, चर्च ऑफ साउथ इंडिया और अन्य संप्रदायों) में पाई जाती हैं। अधिकांश मलंकारा ऑर्थोडॉक्स, सीरियाई ऑर्थोडॉक्स और मार्थोमा चर्चों से जुड़े हैं।

पूर्व और पश्चिम सीरियाई चर्चों के साथ उनके ऐतिहासिक संबंधों के कारण उन्हें गलत तरीके से 'सीरियाई' ईसाई के तौर पर बताया गया है। वास्तव में वे एक यहूदी-द्रविड़ विरासत वाले सीरियाई मलंकारा नसरानी हैं। उन्हें केरल के सेंट थॉमस ईसाई या सीरियाई ईसाई भी कहा जाता है। उन्हें संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ऐसे नामों की आलोचना की गई है क्योंकि आधुनिक विद्वानों ने निश्चित रूप से साबित कर दिया है कि 1490 से पहले केरल में सीरियाई ईसाई धर्म या सीरियाई चर्च नहीं थे। जबकि यह व्यापक रूप से माना जाता है कि ईसा मसीह के एक शिष्य सेंट थॉमस ने भारत में 52-54 ईस्वी के आसपास ईसाई धर्म की स्थापना की थी, यहां तक कि इस सिद्धांत को भी आलोचनात्मक पड़ताल और चर्चा का विषय बनाया गया है। मलंकारा नसरानी समुदाय ने मूल रूप से हिंदू आबादी के साथ एक एकीकृत धार्मिक संरचना और प्रथाओं को साझा किया था। हालांकि, समय के साथ, बाहरी प्रभावों और संघर्षों के कारण ये समुदाय विभिन्न ईसाई संप्रदायों में विभाजित हो गया।

दिलचस्प बात यह है कि यहूदी-द्रविड़ विरासत को मुख्यधारा के चर्च इतिहासकारों के लिए स्वीकार करना मुश्किल होगा क्योंकि सेंट थॉमस या सीरियाई विरासत के अलावा कुछ भी उनके लिए प्रासंगिक नहीं लगता। संघी समूह द्रविड़-ईसाई विरासत को एक कल्पना मानता है।

गोवा में पुर्तगाली कैथोलिकों द्वारा हिंदुओं पर की गई हिंसा इतिहास का एक काला अध्याय है। पड़ताल के दौरान मलंकारा नसरानी ने भी इसी तरह का दंश झेला। सांस्कृतिक नरसंहार (जैसा कि इस लेख में पहले उल्लेख किया गया है) जैसा था, उन्हें जबरन रोमन कैथोलिक धर्म में परिवर्तित कर दिया गया और चर्च की सत्ता के अधीन कर दिया गया। उनकी अवज्ञा का परिणाम झुकते हुए क्रॉस की शपथ (1653) के विद्रोह के रूप में सामने आया जो शाही वर्चस्व और उपनिवेशवाद के खिलाफ पहला संगठित प्रतिरोध था।

वे वही समुदाय हैं जिनकी त्रावणकोर के महाराजा विशाखम थिरुनल राम वर्मा ने प्रशंसा की थी, जिन्होंने उन्हें एक प्राचीन इतिहास और साहित्य वाले लोगों के रूप में बताया था, जो संतोष, शांति और वफादारी का उदाहरण देते हैं।

मलंकारा चर्च भी एक ऐसा समुदाय है जिससे गोवा के एक भूतपूर्व लैटिन कैथोलिक अल्वारेस जूलियस संबंधित थे। पुर्तगालियों के खिलाफ़ एक प्रसिद्ध मूल निवासी और प्रतिरोध के सेनानी जूलियस ने मलंकारा चर्च के साथ मिलकर इस भूमि में अपनी मूल जड़ों को गहराई से पहचाना।

मलंकारा नसरानी अपने हिंदू भाइयों के साथ सौ से अधिक स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं को साझा करते हैं, जो एक साझा विरासत का प्रदर्शन करते हैं। चर्च के अंदर पारंपरिक दीयों का इस्तेमाल करना, पनाम वेक्कल दफन प्रथा, राहुकालम का पालन करना और विवाहित नसरानी महिलाओं द्वारा सिंदूर लगाना उन सैकड़ों स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं के कुछ उदाहरण हैं।

उनके कई पुराने चर्च भवन मंदिरों के साथ वास्तुकला की समानताएं दर्शाते हैं, और उनकी धार्मिक प्रथाएं हिंदू संस्कृति के कुछ तत्वों को साझा करती हैं। यह वे समुदाय हैं जिनसे पंडालम के राजा ने सबरीमाला मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए दिवंगत कोचुमन मुथल्ली को चुना था, जिसे आग लगाकर बर्बाद कर दिया गया था। इस समुदाय ने डायोनिसियस जोसेफ को भी जन्म दिया, जिन्होंने कोचीन-त्रावणकोर क्षेत्र में सरकारी सहायता के साथ और बिना सरकारी सहायता के 250 से अधिक स्कूलों की स्थापना की। यह परुमला के ग्रेगोरियस गीवर्गीस और पैथ्रोस ओस्थैथियोस का भी निवास स्थान है, दोनों ने जाति व्यवस्था का सक्रिय रूप से विरोध किया और दलितों के लिए शिक्षा का समर्थन किया। आधुनिक समय के सबसे महान दार्शनिकों में से एक डॉ पॉलोज ग्रेगोरियस, भारत की श्वेत क्रांति के वास्तुकार डॉ वर्गीज कुरियन और डॉ पीसी अलेक्जेंडर जैसी प्रतिष्ठित हस्तियां भी मलंकारा नसरानी समुदाय की देन हैं।

कोचीन और त्रावणकोर राज्यों के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों के कारण मलंकारा नसरानी को 'रॉयल क्रिश्चन' के रूप में सम्मानित किया जाता था। इन हिंदू राज्यों ने मलंकारा चर्च और उसके नेतृत्व को पर्याप्त समर्थन प्रदान किया। मलंकारा चर्च के प्रमुख ने मलंकारा मेट्रोपॉलिटन की उपाधि धारण की, जो त्रावणकोर और कोचीन के राजाओं द्वारा दी गई उपाधि थी, जिसकी पुष्टि मेट्रोपॉलिटन के अधिकार के लिए आवश्यक थी। हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि मार्तंड वर्मा के शासनकाल के दौरान राजघरानों ने नसरानी का भरपूर समर्थन किया था।

यह वही समुदाय है जिसने पारेट इवानियोस और ऑगेन डायनोसियस जैसे बिशपों (धर्माध्यक्ष) को जन्म दिया, जो योगासन के लिए समर्पित थे। जबकि, मार थोमा चर्च (जो साल 1888 में मलंकरा चर्च से अलग हुआ था) भी हर साल योग दिवस मनाता है।

मलंकरा नसरानी वही समुदाय है जिसे केरल के हिंदू शासकों से पैरिश चर्च बनाने के लिए काफी भूमि अनुदान में मिली थी। उल्लेखनीय उदाहरणों में एरुमेली में सेंट जॉर्ज चर्च, थम्पामोन चर्च और कल्लुप्पारा चर्च शामिल हैं। यह समुदाय स्थानीय हिंदू आबादी के साथ अद्वितीय सांस्कृतिक बंधन साझा करता है, जैसा कि मंदिर उत्सव के दौरान कोट्टायम कुरिशुपल्ली को थिरुनक्करा मंदिर के पदाधिकारियों द्वारा तेल के वार्षिक दान से जाहिर होता है। इसके अलावा, नादामेल चर्च के कथानार (पुजारी) एझुन्नालथु समारोह के लिए कोचीन राजा के महल में ‘कुथु विलक्कू’ ले जाते हैं, जो एक दीर्घकालिक और घनिष्ठ संबंध की पहचान है। ये चीज हिंदुओं और मलंकारा नसरानियों के बीच मदद और भाईचारे के अहम उदाहरण हैं। चर्चों और मंदिरों से जुलूसों का आपसी स्वागत भी धार्मिक सह-अस्तित्व का एक सामान्य संकेत है।

चूंकि यह मिशनरी या ईसाई गतिविधियों का बाइ-प्रोडक्ट नहीं है, और इसका स्वाभाविक विकास हुआ है इसलिए मलंकारा चर्च मालाबार के सांस्कृतिक ताने-बाने से गहराई से जुड़ा हुआ है जिसमें स्थानीय रीति-रिवाज और परंपराएं शामिल हैं जो इसे अन्य ईसाई संप्रदायों से अलग करती हैं। इस अपेक्षाकृत छोटे चर्च की उथल-पुथल भरी यात्रा भारत के इतिहास में व्यापक संघर्षों और चुनौतियों को स्वर देती है।

भारत के लगातार बदलते सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक परिदृश्य के साथ-साथ सीरियाई, लैटिन, एंग्लिकन और प्रोटेस्टेंट हठधर्मी और धार्मिक प्रभावों के बावजूद मलंकारा नसरानी वास्तविक देशभक्ति, मूल दृष्टिकोण और अपनी कई स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं का पालन करते हैं। अन्य धार्मिक संस्थानों के प्रति उनका सम्मान भी उल्लेखनीय है।


हिंदू मलंकारा नसरानी होने पर गर्व है

मेरी दिवंगत दादी बाइबिल और अन्य ईसाई ग्रंथों की कहानियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत की कहानियां भी सुनाया करती थीं। मैं यीशु नाजरेथ, भगवान राम, भगवान कृष्ण, पांडवों और कौरवों की कहानियां सुनते हुए बड़ा हुआ हूँ। मुझे अन्य धर्मों का सम्मान करना और उनकी कहानियों को भी संजोना सिखाया गया है। मैंने हिंदू धर्मग्रंथों की कहानियों का दिल से आनंद लिया। मैं गर्व से खुद को इस भूमि का हिंदू मलंकारा नसरानी मानता हूँ, हां मैं सांस्कृतिक रूप से एक गौरवान्वित हिंदू हूँ और धार्मिक रूप से यीशु नाजरेथ का अनुयायी हूँ। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के इतिहास के बावजूद, मलंकारा नसरानियों और अन्य समुदायों के बीच सद्भाव कम होता दिख रहा है। आज, मलंकारा नसरानियों, अन्य अल्पसंख्यक समूहों, विशेष रूप से ईसाइयों के साथ, विभिन्न चरमपंथी धार्मिक और राजनीतिक संगठनों से अपने अस्तित्व के लिए बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। पेंटेकोस्टल और विभिन्न प्रोटेस्टेंट समूहों द्वारा धर्मांतरण की बात करें तो केवल हिंदू ही नहीं हैं जिन्हें निशाना बनाया गया है। कई मलंकारा नसरानी भी इन समूहों का शिकार हो गए हैं।

अफसोस की बात है कि मैंने इस लेख में जो कुछ भी लिखा है वह वह कट्टरपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों को पसंद नहीं आएगा, क्योंकि वे अक्सर मलंकारा नसरानियों जैसे प्राचीन समुदायों के ऐतिहासिक महत्व की उपेक्षा करते हैं। यह इनकार अक्सर भारत के इतिहास की एक विशिष्ट व्याख्या को प्रचारित करने की इच्छा से प्रेरित होता है, जो कुछ समूहों के योगदान को नजरअंदाज कर देता है या कम करके आंकता है।

मैं यह भी जानता हूं कि मूल निवासी ईसाई धर्म के बारे में मैं चाहे जो भी लिखूं, भारतीय ईसाइयों के प्रति कट्टरपंथियों के दृष्टिकोण में बदलाव आने की संभावना नहीं है। उनके लिए, सभी ईसाई केवल धर्मांतरण का लक्ष्य हैं, वे केवल ‘राइस बैग्स’ हैं।

मेरे साथ इंस्टाग्राम पर बातचीत के दौरान मेरे एक मित्र जो संघ परिवार के समर्थक हैं उन्होंने दावा किया कि, ‘आरएसएस ने इस देश की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को आधा भी नुकसान नहीं पहुंचाया है, जितना कि एक ईसाई चर्च ने एक रविवार में नुकसान किया है!’ इस तरह के बयान को समझना चुनौतियों से भरा है। जब तक ऐसे दृष्टिकोण कायम रहेंगे, अमन व शांति हासिल करना मुश्किल बना रहेगा, भले ही संघ नेतृत्व या थिंक टैंक अलग-अलग विचार रखते हों। यह अच्छा होगा यदि संघ परिवार के समर्थक, सहानुभूति रखने वाले और अनुयायी अपना होमवर्क सही ढंग से करें और यह पहचान करते हुए भारत में ईसाई धर्म की बुनियादी समझ विकसित करें, और समझें कि सभी ईसाई राइस बैग्स नहीं हैं और वे मिशनरियों या धर्मांतरण गतिविधियों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में नहीं आए हैं।
 


[1] मुस्लिम और ईसाई आबादी वाले केरल में परस्पर विरोधी ताकतें उभरती देखी जा रही हैं। एक घटना जो सार्वजनिक स्मृति में तेजी से अंकित हो गई वह है जुलाई 2010 में  कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा  टी. जे. जोसेफी पर हुआ हमला है।  हालाँकि, एक अति रूढ़िवादी ईसाई नेतृत्व के कुछ वर्गों ने 'लव जिहाद' के अतिरंजित मुद्दे पर युवा महिलाओं/लड़कियों के ईसाई धर्म में धर्मान्तरण (25.6.2012) के विरोध में पूर्व मुख्य मंत्री ओमान चांडी जैसे लोकप्रिय नेता सहित यूडीएफ विपक्ष के नेतृत्व ने -  'लव जिहाद' का एक विवादास्पद और निराधार दावा किया है, जिस से एक अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ गलत धारणाओं और पूर्वाग्रहों को बढ़ावा मिला है।

[2] मुंबई महानगर के गीवर्गीस कूरिलोज़ घटना की व्याख्या करते हुए: specific date https://www.youtube.com/watch?v=a8b-VPlZcn0


डिस्क्लेमर: यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं, और जरूरी नहीं कि ये सबरंगइंडिया के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हों।

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