असम विधानसभा द्वारा 9 जून 2025 को विशेष रूप से बुलाई गई एक दिवसीय सत्र एक जोरदार बहस का केंद्र बन गया। विपक्ष ने 23 मई से कथित रूप से चल रहे असम के आम लोगों को गैरकानूनी तरीके से बाहर किए जाने जवाब मांगा। यह सत्र मूल रूप से डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे का नाम भूपेन हजारिका के नाम पर रखने के प्रस्ताव पर चर्चा के लिए बुलाया गया था।

असम विधानसभा का विशेष एक दिवसीय सत्र 9 जून 2025 को बुलाया गया। यह सत्र असम के आम लोगों को 23 मई से किए जा रहे कथित अवैध निष्कासन को लेकर काफी हंगामेदार रहा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी विधायकों ने इस मुद्दे पर जोरदार तरीके से अपनी बात रखी। हालांकि यह सत्र असल में डिब्रूगढ़ एयरपोर्ट का नाम भूपेन हजारिका के नाम पर रखने के प्रस्ताव पर चर्चा के लिए बुलाया गया था, लेकिन आम लोगों को बाहर करने के मुद्दे ने इस सत्र का माहौल गर्म कर दिया।
हालांकि पूरे दिन इस एक दिवसीय सत्र के दौरान विपक्षी विधायक और मुख्यमंत्री के बीच नागरिकता के विवादास्पद मुद्दे को लेकर तीखी बहस होती रही। चर्चा का केंद्र असम पुलिस की वह कार्रवाई रही जिसमें 24/25 मई 2025 से देर रात छापेमारी कर लोगों को जबरदस्ती हिरासत में लिया जा रहा है और उन्हें गलत तरीके से "विदेशी" बताया जा रहा है। विशेष रूप से बंगाली भाषी मुसलमान इस कार्रवाई के निशाने पर हैं, जिन्हें बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किए राज्य से बाहर 'नो मैन्स लैंड' में धकेला जा रहा है। इनमें से कई लोग बाद में किसी तरह वापस अपने घर भी लौट आए हैं।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया ने इस मुद्दे पर प्रस्ताव पेश कर बहस की शुरुआत की जिससे मुख्यमंत्री को जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद कई विपक्षी विधायकों ने इस विषय पर अपनी चिंता और राय खुलकर रखी। मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा ने खुद को असमिया भाषी समुदायों का रक्षक दिखाने की कोशिश की और पूरी जिम्मेदारी पिछली कांग्रेस सरकारों पर डालने की कोशिश की। इस पर विपक्ष के कई सदस्यों ने तीखी प्रतिक्रिया दी और उन्हें बिंदुवार तरीके से घेरा। विपक्ष ने यह साफ किया कि ‘डी-वोटर’ (संदिग्ध मतदाता) की अवधारणा की शुरुआत 1997 में हुई थी, जब असोम गण परिषद (एजीपी) के प्रफुल्ल महंता मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री शर्मा ने सदन में यह गलत जानकारी दी कि डी-वोटर की प्रक्रिया हितेश्वर सैकिया (असम के पूर्व कांग्रेस के मुख्यमंत्री और देबब्रत सैकिया के पिता) के शासन में शुरू हुई थी। विपक्ष ने यह तथ्य रखा कि हितेश्वर सैकिया का निधन 11 अप्रैल 1996 को हो गया था, जबकि डी-वोटर की प्रक्रिया 1997 से शुरू हुई थी।
हिमंत शर्मा ने इन कार्रवाइयों का बचाव करते हुए कहा कि यह “पुशबैक” कार्रवाई 1950 के इमिग्रेंट्स (असम से बाहर करना) आदेश और हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार की जा रही है। हालांकि, सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को सौंपे गए एक ज्ञापन में विस्तार से बताया है कि हालिया अभियानों के दौरान किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इसे यहां पढ़ा जा सकता है।
इस बीच विपक्ष के सदस्यों ने प्रशासन द्वारा की जा रही कार्रवाईयों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर राज्य में कोई विदेशी पाया जाता है, जो 1971 के बाद (असम समझौते में तय कट-ऑफ तिथि) असम में दाखिल हुआ हो, तो उसे कानून, प्रक्रिया और पड़ोसी देशों के साथ किसी भी प्रत्यावर्तन (repatriation) समझौते के तहत देश से बाहर भेजा जाना चाहिए। हालांकि, विपक्ष ने यह भी स्पष्ट किया कि गरीब और निर्दोष भारतीय नागरिकों को “बांग्लादेशी” कहकर उन्हें सताना, परेशान करना और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना पूरी तरह से बंद किया जाना चाहिए।
असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया का पूरा भाषण यहां दिया जा रहा है:
सोमवार, 9 जून 2025
“हम सब जानते हैं कि असम आंदोलन विदेशियों को बाहर निकालने के लिए हुआ था और 1985 के असम समझौते के बाद, सभी धाराओं में धारा 5 बहुत महत्वपूर्ण रही है। क्योंकि यह धारा भारत में विदेशियों की पहचान करने और उन्हें देश से निकालने की प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट रूप से बात करती है।”
और इस प्रक्रिया को सही तरीके से पूरा करने के लिए, 1951 के एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) के आधार पर एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू की गई। और आखिरकार वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने असम सरकार को एनआरसी अपडेट करने का निर्देश दिया। और इसके परिणामस्वरूप हमारे पास 31 अगस्त 2019 को जारी एनआरसी का अंतिम मसौदा (Final Draft) सामने आया।”
22 जुलाई 2018 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि एनआरसी के अंतिम प्रकाशन के बाद भी किसी व्यक्ति की नागरिकता की पहचान फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल (विदेशी न्यायाधिकरण) द्वारा की जाएगी। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर किसी व्यक्ति का नाम एनआरसी के अंतिम मसौदे से छूट जाता है, तो वह अपील कर सकता/सकती है। जब यह मसौदा प्रकाशित हुआ, तब यह देखा गया कि करीब 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर रह गए थे। उस समय राजनाथ सिंह ने यह भी घोषणा की थी कि प्रत्येक छूटे हुए व्यक्ति को एक 'रिजेक्शन स्लिप' (अस्वीकृति पर्ची) दी जाएगी, जिससे वे प्रक्रिया के तहत अपने नाम को शामिल कराने के लिए जरूरी कदम उठा सकें। यदि आवश्यकता पड़ी, तो सरकार कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराएगी।"
बाद में, (नेतृत्व बदलने के बाद) गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि एनआरसी से बाहर रह गए लोगों को हर संभव मदद दी जाएगी और केवल फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल ही यह तय करेगा कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। उन्होंने यह भी कहा था कि, जब तक फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल कोई फैसला न दे, तब तक कोई भी व्यक्ति खुद को बाहरी न समझे।
सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल कुद्दुस मामले के फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित किया गया है, तो वह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है।
एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकारी अधिकारियों ने घोषणा की थी कि 200 विशेष फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल (FTs) स्थापित किए जाएंगे। हालांकि, अक्टूबर 2023 तक, रिपोर्ट के अनुसार, 3,34,964 मामलों का निपटारा ट्रिब्यूनलों द्वारा किया जा चुका था, जबकि 96,146 मामले अभी भी लंबित हैं।
इनमें से कुल 1,03,764 लोगों को विदेशी घोषित किया गया है।
एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकारी अधिकारियों ने घोषणा की थी कि 200 विशेष ट्रिब्यूनल स्थापित किए जाएंगे। हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2023 तक 3,34,964 मामलों का निपटारा ट्रिब्यूनलों द्वारा किया जा चुका था, जबकि 96,146 मामले अभी भी लंबित हैं। इनमें से कुल 1,03,764 लोगों को कथित तौर पर विदेशी घोषित किया गया है।
हालांकि 31 अगस्त 2019 को एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकार ने उन लोगों को ‘रिजेक्शन स्लिप’ (अस्वीकृति पर्ची) जारी नहीं की, जिन्हें सूची से बाहर कर दिया गया था। इन्हीं लोगों को आज सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनका नाम एनआरसी में शामिल नहीं हो पाया। इन चुनौतियों में शामिल हैं, आधार कार्ड से वंचित रहना और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से बाहर कर दिया जाना क्योंकि “सिर्फ नागरिक ही राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं।”
हाल ही में असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए 100 से ज्यादा लोगों को “पुशबैक” की कार्रवाई की। इन लोगों को सीधे ‘नो मैन्स लैंड’ (भारत-बांग्लादेश सीमा के बीच का इलाका) में छोड़ दिया गया। सूत्रों के अनुसार, लगभग 1200 लोगों को भेजा गया, जिनमें से संभवतः 1000 लोग वापस नहीं लौटे, लेकिन असम से भेजे गए कुछ लोगों को बाद में फिर से वापस ले लिया गया। (यह स्थिति उस संदर्भ में थी जब गुजरात, दिल्ली आदि राज्यों से कुछ व्यक्तियों को भेजा गया था)
केंद्रीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि जब भारतीय नागरिकों को अमेरिका या अन्य स्थानों से वापस लाया जाता है, तो नियमों और कानूनों के अनुसार किसी को तब तक विदेशी नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि उसकी विदेशी होने की पुष्टि न हो जाए। असम में भारतीय नागरिकों को “विदेशी” कहकर जो कष्ट और उत्पीड़न सहना पड़ रहा है, उसे हाल ही में की गई घोषणा में भी उजागर किया गया है।
इसलिए, हम मांग करते हैं कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) प्रक्रिया के तहत जो लोग सूची से बाहर किए गए हैं, उन्हें ‘रिजेक्शन स्लिप’ (अस्वीकृति पर्ची) जरूर दी जाए। इसके साथ ही, कानूनी प्रक्रिया के जरिए ही विदेशी नागरिकों की पहचान की जानी चाहिए और जो लोग भारतीय नागरिक हैं, उन्हें एनआरसी में शामिल किया जाना चाहिए। सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में एनआरसी प्रक्रिया के दौरान असम में लगभग 60 लोगों ने कई तरह के डर और मानसिक पीड़ा के कारण आत्महत्या का प्रयास किया। इनमें से 32 लोग हिंदू थे और बाकी अन्य धर्मों से थे।
ऐसे ही एक दुखद घटना खरुपेटिया के एक बेहद शिक्षित व्यक्ति की थी जिनके पास एमए, एलएलबी और बीटी की डिग्रियां थीं और जो बतौर शिक्षक कार्यरत थे। उन्हें लगातार सड़क पर या बाजार में चलते समय ‘देखो, बांग्लादेशी आ गया’ जैसे तानों और अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता था। लगातार बढ़ती इस मानसिक पीड़ा, डर और चिंता के कारण उन्होंने 2018 में आत्महत्या कर ली।
हाल ही में, मई 2025 में बरपेटा की सोनाभानु को तब नो मैन्स लैंड में छोड़ दिया गया, जबकि उनकी अपील अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी। इसके अलावा, मोरिगांव के 51 वर्षीय खैरुल इस्लाम को फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल और हाई कोर्ट ने विदेशी घोषित किया है और उन्होंने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की है।
ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके लिए फैसला नहीं आया है फिर भी वे सरकार की प्रक्रिया का शिकार बन गए हैं। इसके अलावा, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2014 के तहत बांग्लादेशी लोगों को एक विशेष धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने का बयान, जिसका उल्लेख 2019 में किया गया था, कई लोगों को शर्मसार करने वाला है। यह नीरद बरन दास की आत्महत्या से स्पष्ट है कि 20 अक्टूबर, 2018 को असम के दारंग जिले के खारुपेटिया शहर में त्रासदी हुई, जब एक सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक और वकील नीरद बरन दास ने “अपने घर में पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी।” सीजेपी की रिपोर्ट में कहा गया था कि दास “गिरफ्तार होने, अपनी नागरिकता छीनने, गैर-भारतीय घोषित होने के डर और असुरक्षित महसूस करने लगे थे, उन्होंने अपने घर में पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी”, उनका दावा था कि एनआरसी ने उन्हें विदेशी घोषित कर दिया था, भले ही “वह उसी शहर में पैदा हुए और पले-बढ़े थे जहां उन्होंने पढ़ाया था” और उनके पास “सभी विरासत के दस्तावेज थे।”
इसलिए (हम मांग करते हैं) कि (विदेशियों को निकालने की) प्रक्रिया असम समझौते के अनुसार ही पूरी होनी चाहिए। जिस तरीके से (भारतीयों), जिन्हें केवल संदेह के आधार पर ‘डी-वोटर’ (संदिग्ध मतदाता) कहा जाता है, उन्हें फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित कर दिया जाता है, और बाद में हाई कोर्ट में यह साबित होता है कि वे विदेशी नहीं हैं। इस प्रक्रिया को और ज्यादा साफ बनाया जाना चाहिए ताकि लोगों को गलत तरीके से विदेशी ना कहा जाए।
9 जून को असम विधानसभा में विपक्ष के अन्य सदस्यों की प्रतिक्रियाएं:
● सरुखेत्रि विधानसभा क्षेत्र से विधायक और असम प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष जाकिर हुसैन सिकदर ने कहा, “सरकार की विदेशी पहचान की प्रक्रिया पूरी तरह से गलत है। बिना पर्याप्त जानकारी और सबूत के लोगों की पहचान करना बिलकुल गलत है। सरकार के गलत फैसलों की वजह से भारतीय नागरिकों को गलत तरीके से विदेशी बताया जा रहा है।”
● रुपोहिहाट विधानसभा क्षेत्र से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के विधायक नूरुल हुदा ने कहा कि सामान्य भारतीय लोगों को गैरकानूनी तरीके से विदेशी बताना बिलकुल स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने चेतावनी दी कि बिना उचित प्रक्रिया के पुलिस का लगातार उत्पीड़न भारतीय न्याय व्यवस्था पर विश्वास को कमजोर करेगा।
● चेंगा विधानसभा क्षेत्र से AIUDF के विधायक अशरफुल हुसैन ने कहा कि असम में फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल सीधे राज्य सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं, और गृह विभाग उनके काम को निर्देशित करता है। उन्होंने गहरा चिंता जताई कि धर्म, भाषा और जाति के आधार पर स्थानीय लोगों को चयनात्मक तरीके से निशाना बनाना बेहद दुखद होगा।
विपक्ष के सदस्यों के जवाब में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा कि सरकार को विदेशियों को निर्वासित करने के लिए एनआरसी को संदर्भ के रूप में लेने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्होंने निर्वासन के अधिकार जिला कलेक्टर और खुद को दे दिए हैं, चाहे वह कानूनी हो या गैरकानूनी! उन्होंने आगे कहा, "हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार विदेशी प्रत्यर्पण के मामले को और तेज करेंगे। जो भी 1971 के बाद आए हैं, वे सभी विदेशी हैं।"
जब विपक्ष ने यह कहकर पलटवार किया कि कई लोग जिन्हें जबरन बाहर भेजा गया था, वे वापस लौट आए हैं, तो हिमंता सरमा ने बिना कोई पछतावा जाहिर करते हुए कहा, “हमने करीब 330 लोगों को वापस भेज दिया है, उनमें से कोई भी वापस नहीं आया और उनके लौटने का सवाल ही नहीं है और यह कार्रवाई और तेज होगी।” उन्होंने कहा, “अभी 35 और लोग तैयार हैं (जिन्हें भेजा जाना है): मैं उन्हें भी भेज दूंगा (असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करते हुए)।” उन्होंने कांग्रेस का मजाक उड़ाते हुए कहा कि उन्होंने बाहर किया, जनजातीय क्षेत्र और ब्लॉक, डी-वोटर्स, हिरासत शिविर आदि शुरू किए थे और अब वे यही सब मैं कर रहा हूं। उन्होंने दावा किया कि जैसे पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंता ने डी-वोटर्स बनाए, वैसे ही उन्होंने भी “विदेशियों को निकालने” के मुद्दे पर वोट हासिल किए हैं।" वहीं, मैं अपने और अपनी पार्टी (बीजेपी) की विचारधारा के लिए काम कर रहा हूं, जो अलग है। सरमा ने एक बेहद असामान्य दावा भी किया, “आज असम विधानसभा के उपसभापति ने मुझे बताया कि मेरे पास भी एफटी आदेशों की समीक्षा करने का अधिकार है, इसलिए मैं किसी भी व्यक्ति को जो भारतीय बनाया गया है, विदेशी भी बना सकता हूं!..” “बिमला प्रसाद चालिहा (पूर्व मुख्यमंत्री असम) के बाद, मैं अकेला ऐसा मुख्यमंत्री हूं जिसने कोई विदेशी निवेश करवा पाया है।”
इस पर, सिबसागर विधानसभा क्षेत्र से रायजर डोल के स्वतंत्र विधायक अखिल गोगोई ने बीच में बोलते हुए कहा, “यह बेहतर होगा अगर आप मुख्यमंत्री की तरह बात करें, कृपया मुख्यमंत्री की तरह बोलिए।” जिस पर सरमा ने जवाब दिया, “मैं असमिया की तरह बोलना चाहता हूं।” उन्होंने आगे कहा, “मैं बाद में मुख्यमंत्री हूं, लेकिन मैं पहले असमिया हूं। मैं जो भी बोलूंगा, गर्व से असमिया होने के नाते ही बोलूंगा।”
अखिल गोगोई ने कहा, “आप गर्वित असमिया नहीं हैं, आप एक बड़ा जीरो हैं। आपके कार्यकाल में आप एक भी विदेशी को कानूनी तरीके से नहीं भेज पाए, जो भी भेजा है, वह गैरकानूनी तरीके से किया है।”
इस पर हिमंता ने जवाब दिया, “मैं कानूनी तरीके से भी भेजूंगा और गैरकानूनी तरीके से भी भेजूंगा, हां, मैं गैरकानूनी तरीके से भी भेजूंगा।”
Related
असम: नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया ने सरमा के कदम को पक्षपातपूर्ण और गैरकानूनी बताते हुए नागरिकों की "पुशबैक" की प्रक्रिया को तुरंत रोकने की मांग की
असम: शिक्षाविदों, वकीलों और विद्वानों ने बांग्लादेश की तरफ लोगों को ‘पुश बैक’ करने को लेकर निंदा की

असम विधानसभा का विशेष एक दिवसीय सत्र 9 जून 2025 को बुलाया गया। यह सत्र असम के आम लोगों को 23 मई से किए जा रहे कथित अवैध निष्कासन को लेकर काफी हंगामेदार रहा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी विधायकों ने इस मुद्दे पर जोरदार तरीके से अपनी बात रखी। हालांकि यह सत्र असल में डिब्रूगढ़ एयरपोर्ट का नाम भूपेन हजारिका के नाम पर रखने के प्रस्ताव पर चर्चा के लिए बुलाया गया था, लेकिन आम लोगों को बाहर करने के मुद्दे ने इस सत्र का माहौल गर्म कर दिया।
हालांकि पूरे दिन इस एक दिवसीय सत्र के दौरान विपक्षी विधायक और मुख्यमंत्री के बीच नागरिकता के विवादास्पद मुद्दे को लेकर तीखी बहस होती रही। चर्चा का केंद्र असम पुलिस की वह कार्रवाई रही जिसमें 24/25 मई 2025 से देर रात छापेमारी कर लोगों को जबरदस्ती हिरासत में लिया जा रहा है और उन्हें गलत तरीके से "विदेशी" बताया जा रहा है। विशेष रूप से बंगाली भाषी मुसलमान इस कार्रवाई के निशाने पर हैं, जिन्हें बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किए राज्य से बाहर 'नो मैन्स लैंड' में धकेला जा रहा है। इनमें से कई लोग बाद में किसी तरह वापस अपने घर भी लौट आए हैं।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया ने इस मुद्दे पर प्रस्ताव पेश कर बहस की शुरुआत की जिससे मुख्यमंत्री को जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद कई विपक्षी विधायकों ने इस विषय पर अपनी चिंता और राय खुलकर रखी। मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा ने खुद को असमिया भाषी समुदायों का रक्षक दिखाने की कोशिश की और पूरी जिम्मेदारी पिछली कांग्रेस सरकारों पर डालने की कोशिश की। इस पर विपक्ष के कई सदस्यों ने तीखी प्रतिक्रिया दी और उन्हें बिंदुवार तरीके से घेरा। विपक्ष ने यह साफ किया कि ‘डी-वोटर’ (संदिग्ध मतदाता) की अवधारणा की शुरुआत 1997 में हुई थी, जब असोम गण परिषद (एजीपी) के प्रफुल्ल महंता मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री शर्मा ने सदन में यह गलत जानकारी दी कि डी-वोटर की प्रक्रिया हितेश्वर सैकिया (असम के पूर्व कांग्रेस के मुख्यमंत्री और देबब्रत सैकिया के पिता) के शासन में शुरू हुई थी। विपक्ष ने यह तथ्य रखा कि हितेश्वर सैकिया का निधन 11 अप्रैल 1996 को हो गया था, जबकि डी-वोटर की प्रक्रिया 1997 से शुरू हुई थी।
हिमंत शर्मा ने इन कार्रवाइयों का बचाव करते हुए कहा कि यह “पुशबैक” कार्रवाई 1950 के इमिग्रेंट्स (असम से बाहर करना) आदेश और हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार की जा रही है। हालांकि, सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को सौंपे गए एक ज्ञापन में विस्तार से बताया है कि हालिया अभियानों के दौरान किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इसे यहां पढ़ा जा सकता है।
इस बीच विपक्ष के सदस्यों ने प्रशासन द्वारा की जा रही कार्रवाईयों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर राज्य में कोई विदेशी पाया जाता है, जो 1971 के बाद (असम समझौते में तय कट-ऑफ तिथि) असम में दाखिल हुआ हो, तो उसे कानून, प्रक्रिया और पड़ोसी देशों के साथ किसी भी प्रत्यावर्तन (repatriation) समझौते के तहत देश से बाहर भेजा जाना चाहिए। हालांकि, विपक्ष ने यह भी स्पष्ट किया कि गरीब और निर्दोष भारतीय नागरिकों को “बांग्लादेशी” कहकर उन्हें सताना, परेशान करना और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना पूरी तरह से बंद किया जाना चाहिए।
असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया का पूरा भाषण यहां दिया जा रहा है:
सोमवार, 9 जून 2025
“हम सब जानते हैं कि असम आंदोलन विदेशियों को बाहर निकालने के लिए हुआ था और 1985 के असम समझौते के बाद, सभी धाराओं में धारा 5 बहुत महत्वपूर्ण रही है। क्योंकि यह धारा भारत में विदेशियों की पहचान करने और उन्हें देश से निकालने की प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट रूप से बात करती है।”
और इस प्रक्रिया को सही तरीके से पूरा करने के लिए, 1951 के एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) के आधार पर एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू की गई। और आखिरकार वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने असम सरकार को एनआरसी अपडेट करने का निर्देश दिया। और इसके परिणामस्वरूप हमारे पास 31 अगस्त 2019 को जारी एनआरसी का अंतिम मसौदा (Final Draft) सामने आया।”
22 जुलाई 2018 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि एनआरसी के अंतिम प्रकाशन के बाद भी किसी व्यक्ति की नागरिकता की पहचान फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल (विदेशी न्यायाधिकरण) द्वारा की जाएगी। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर किसी व्यक्ति का नाम एनआरसी के अंतिम मसौदे से छूट जाता है, तो वह अपील कर सकता/सकती है। जब यह मसौदा प्रकाशित हुआ, तब यह देखा गया कि करीब 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर रह गए थे। उस समय राजनाथ सिंह ने यह भी घोषणा की थी कि प्रत्येक छूटे हुए व्यक्ति को एक 'रिजेक्शन स्लिप' (अस्वीकृति पर्ची) दी जाएगी, जिससे वे प्रक्रिया के तहत अपने नाम को शामिल कराने के लिए जरूरी कदम उठा सकें। यदि आवश्यकता पड़ी, तो सरकार कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराएगी।"
बाद में, (नेतृत्व बदलने के बाद) गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि एनआरसी से बाहर रह गए लोगों को हर संभव मदद दी जाएगी और केवल फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल ही यह तय करेगा कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। उन्होंने यह भी कहा था कि, जब तक फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल कोई फैसला न दे, तब तक कोई भी व्यक्ति खुद को बाहरी न समझे।
सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल कुद्दुस मामले के फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित किया गया है, तो वह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है।
एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकारी अधिकारियों ने घोषणा की थी कि 200 विशेष फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल (FTs) स्थापित किए जाएंगे। हालांकि, अक्टूबर 2023 तक, रिपोर्ट के अनुसार, 3,34,964 मामलों का निपटारा ट्रिब्यूनलों द्वारा किया जा चुका था, जबकि 96,146 मामले अभी भी लंबित हैं।
इनमें से कुल 1,03,764 लोगों को विदेशी घोषित किया गया है।
एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकारी अधिकारियों ने घोषणा की थी कि 200 विशेष ट्रिब्यूनल स्थापित किए जाएंगे। हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2023 तक 3,34,964 मामलों का निपटारा ट्रिब्यूनलों द्वारा किया जा चुका था, जबकि 96,146 मामले अभी भी लंबित हैं। इनमें से कुल 1,03,764 लोगों को कथित तौर पर विदेशी घोषित किया गया है।
हालांकि 31 अगस्त 2019 को एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के बाद, सरकार ने उन लोगों को ‘रिजेक्शन स्लिप’ (अस्वीकृति पर्ची) जारी नहीं की, जिन्हें सूची से बाहर कर दिया गया था। इन्हीं लोगों को आज सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनका नाम एनआरसी में शामिल नहीं हो पाया। इन चुनौतियों में शामिल हैं, आधार कार्ड से वंचित रहना और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से बाहर कर दिया जाना क्योंकि “सिर्फ नागरिक ही राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं।”
हाल ही में असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए 100 से ज्यादा लोगों को “पुशबैक” की कार्रवाई की। इन लोगों को सीधे ‘नो मैन्स लैंड’ (भारत-बांग्लादेश सीमा के बीच का इलाका) में छोड़ दिया गया। सूत्रों के अनुसार, लगभग 1200 लोगों को भेजा गया, जिनमें से संभवतः 1000 लोग वापस नहीं लौटे, लेकिन असम से भेजे गए कुछ लोगों को बाद में फिर से वापस ले लिया गया। (यह स्थिति उस संदर्भ में थी जब गुजरात, दिल्ली आदि राज्यों से कुछ व्यक्तियों को भेजा गया था)
केंद्रीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि जब भारतीय नागरिकों को अमेरिका या अन्य स्थानों से वापस लाया जाता है, तो नियमों और कानूनों के अनुसार किसी को तब तक विदेशी नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि उसकी विदेशी होने की पुष्टि न हो जाए। असम में भारतीय नागरिकों को “विदेशी” कहकर जो कष्ट और उत्पीड़न सहना पड़ रहा है, उसे हाल ही में की गई घोषणा में भी उजागर किया गया है।
इसलिए, हम मांग करते हैं कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) प्रक्रिया के तहत जो लोग सूची से बाहर किए गए हैं, उन्हें ‘रिजेक्शन स्लिप’ (अस्वीकृति पर्ची) जरूर दी जाए। इसके साथ ही, कानूनी प्रक्रिया के जरिए ही विदेशी नागरिकों की पहचान की जानी चाहिए और जो लोग भारतीय नागरिक हैं, उन्हें एनआरसी में शामिल किया जाना चाहिए। सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में एनआरसी प्रक्रिया के दौरान असम में लगभग 60 लोगों ने कई तरह के डर और मानसिक पीड़ा के कारण आत्महत्या का प्रयास किया। इनमें से 32 लोग हिंदू थे और बाकी अन्य धर्मों से थे।
ऐसे ही एक दुखद घटना खरुपेटिया के एक बेहद शिक्षित व्यक्ति की थी जिनके पास एमए, एलएलबी और बीटी की डिग्रियां थीं और जो बतौर शिक्षक कार्यरत थे। उन्हें लगातार सड़क पर या बाजार में चलते समय ‘देखो, बांग्लादेशी आ गया’ जैसे तानों और अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता था। लगातार बढ़ती इस मानसिक पीड़ा, डर और चिंता के कारण उन्होंने 2018 में आत्महत्या कर ली।
हाल ही में, मई 2025 में बरपेटा की सोनाभानु को तब नो मैन्स लैंड में छोड़ दिया गया, जबकि उनकी अपील अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी। इसके अलावा, मोरिगांव के 51 वर्षीय खैरुल इस्लाम को फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल और हाई कोर्ट ने विदेशी घोषित किया है और उन्होंने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की है।
ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके लिए फैसला नहीं आया है फिर भी वे सरकार की प्रक्रिया का शिकार बन गए हैं। इसके अलावा, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2014 के तहत बांग्लादेशी लोगों को एक विशेष धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने का बयान, जिसका उल्लेख 2019 में किया गया था, कई लोगों को शर्मसार करने वाला है। यह नीरद बरन दास की आत्महत्या से स्पष्ट है कि 20 अक्टूबर, 2018 को असम के दारंग जिले के खारुपेटिया शहर में त्रासदी हुई, जब एक सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक और वकील नीरद बरन दास ने “अपने घर में पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी।” सीजेपी की रिपोर्ट में कहा गया था कि दास “गिरफ्तार होने, अपनी नागरिकता छीनने, गैर-भारतीय घोषित होने के डर और असुरक्षित महसूस करने लगे थे, उन्होंने अपने घर में पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी”, उनका दावा था कि एनआरसी ने उन्हें विदेशी घोषित कर दिया था, भले ही “वह उसी शहर में पैदा हुए और पले-बढ़े थे जहां उन्होंने पढ़ाया था” और उनके पास “सभी विरासत के दस्तावेज थे।”
इसलिए (हम मांग करते हैं) कि (विदेशियों को निकालने की) प्रक्रिया असम समझौते के अनुसार ही पूरी होनी चाहिए। जिस तरीके से (भारतीयों), जिन्हें केवल संदेह के आधार पर ‘डी-वोटर’ (संदिग्ध मतदाता) कहा जाता है, उन्हें फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित कर दिया जाता है, और बाद में हाई कोर्ट में यह साबित होता है कि वे विदेशी नहीं हैं। इस प्रक्रिया को और ज्यादा साफ बनाया जाना चाहिए ताकि लोगों को गलत तरीके से विदेशी ना कहा जाए।
9 जून को असम विधानसभा में विपक्ष के अन्य सदस्यों की प्रतिक्रियाएं:
● सरुखेत्रि विधानसभा क्षेत्र से विधायक और असम प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष जाकिर हुसैन सिकदर ने कहा, “सरकार की विदेशी पहचान की प्रक्रिया पूरी तरह से गलत है। बिना पर्याप्त जानकारी और सबूत के लोगों की पहचान करना बिलकुल गलत है। सरकार के गलत फैसलों की वजह से भारतीय नागरिकों को गलत तरीके से विदेशी बताया जा रहा है।”
● रुपोहिहाट विधानसभा क्षेत्र से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के विधायक नूरुल हुदा ने कहा कि सामान्य भारतीय लोगों को गैरकानूनी तरीके से विदेशी बताना बिलकुल स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने चेतावनी दी कि बिना उचित प्रक्रिया के पुलिस का लगातार उत्पीड़न भारतीय न्याय व्यवस्था पर विश्वास को कमजोर करेगा।
● चेंगा विधानसभा क्षेत्र से AIUDF के विधायक अशरफुल हुसैन ने कहा कि असम में फॉरिनर्स ट्रिब्यूनल सीधे राज्य सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं, और गृह विभाग उनके काम को निर्देशित करता है। उन्होंने गहरा चिंता जताई कि धर्म, भाषा और जाति के आधार पर स्थानीय लोगों को चयनात्मक तरीके से निशाना बनाना बेहद दुखद होगा।
विपक्ष के सदस्यों के जवाब में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा कि सरकार को विदेशियों को निर्वासित करने के लिए एनआरसी को संदर्भ के रूप में लेने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्होंने निर्वासन के अधिकार जिला कलेक्टर और खुद को दे दिए हैं, चाहे वह कानूनी हो या गैरकानूनी! उन्होंने आगे कहा, "हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार विदेशी प्रत्यर्पण के मामले को और तेज करेंगे। जो भी 1971 के बाद आए हैं, वे सभी विदेशी हैं।"
जब विपक्ष ने यह कहकर पलटवार किया कि कई लोग जिन्हें जबरन बाहर भेजा गया था, वे वापस लौट आए हैं, तो हिमंता सरमा ने बिना कोई पछतावा जाहिर करते हुए कहा, “हमने करीब 330 लोगों को वापस भेज दिया है, उनमें से कोई भी वापस नहीं आया और उनके लौटने का सवाल ही नहीं है और यह कार्रवाई और तेज होगी।” उन्होंने कहा, “अभी 35 और लोग तैयार हैं (जिन्हें भेजा जाना है): मैं उन्हें भी भेज दूंगा (असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करते हुए)।” उन्होंने कांग्रेस का मजाक उड़ाते हुए कहा कि उन्होंने बाहर किया, जनजातीय क्षेत्र और ब्लॉक, डी-वोटर्स, हिरासत शिविर आदि शुरू किए थे और अब वे यही सब मैं कर रहा हूं। उन्होंने दावा किया कि जैसे पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंता ने डी-वोटर्स बनाए, वैसे ही उन्होंने भी “विदेशियों को निकालने” के मुद्दे पर वोट हासिल किए हैं।" वहीं, मैं अपने और अपनी पार्टी (बीजेपी) की विचारधारा के लिए काम कर रहा हूं, जो अलग है। सरमा ने एक बेहद असामान्य दावा भी किया, “आज असम विधानसभा के उपसभापति ने मुझे बताया कि मेरे पास भी एफटी आदेशों की समीक्षा करने का अधिकार है, इसलिए मैं किसी भी व्यक्ति को जो भारतीय बनाया गया है, विदेशी भी बना सकता हूं!..” “बिमला प्रसाद चालिहा (पूर्व मुख्यमंत्री असम) के बाद, मैं अकेला ऐसा मुख्यमंत्री हूं जिसने कोई विदेशी निवेश करवा पाया है।”
इस पर, सिबसागर विधानसभा क्षेत्र से रायजर डोल के स्वतंत्र विधायक अखिल गोगोई ने बीच में बोलते हुए कहा, “यह बेहतर होगा अगर आप मुख्यमंत्री की तरह बात करें, कृपया मुख्यमंत्री की तरह बोलिए।” जिस पर सरमा ने जवाब दिया, “मैं असमिया की तरह बोलना चाहता हूं।” उन्होंने आगे कहा, “मैं बाद में मुख्यमंत्री हूं, लेकिन मैं पहले असमिया हूं। मैं जो भी बोलूंगा, गर्व से असमिया होने के नाते ही बोलूंगा।”
अखिल गोगोई ने कहा, “आप गर्वित असमिया नहीं हैं, आप एक बड़ा जीरो हैं। आपके कार्यकाल में आप एक भी विदेशी को कानूनी तरीके से नहीं भेज पाए, जो भी भेजा है, वह गैरकानूनी तरीके से किया है।”
इस पर हिमंता ने जवाब दिया, “मैं कानूनी तरीके से भी भेजूंगा और गैरकानूनी तरीके से भी भेजूंगा, हां, मैं गैरकानूनी तरीके से भी भेजूंगा।”
Related
असम: नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया ने सरमा के कदम को पक्षपातपूर्ण और गैरकानूनी बताते हुए नागरिकों की "पुशबैक" की प्रक्रिया को तुरंत रोकने की मांग की
असम: शिक्षाविदों, वकीलों और विद्वानों ने बांग्लादेश की तरफ लोगों को ‘पुश बैक’ करने को लेकर निंदा की