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यमुना पाट के आयोजन में पाकिस्तान ज़िंदाबाद के जवाब में रविशंकर महाराज ने 'जय हिन्द' कहा, भारत माता की जय तो नहीं कहा?
नहीं कहा, तो क्या फर्क पड़ता है अगर वे "जय हिन्द" कह देते हैं। भारत की जय बोलने में भारत माता की जय क्या शरीक नहीं? निश्चय ही शरीक है।
इसी तरह, ओवैसी अगर जय हिन्द अर्थात जय भारत कहते हैं, तो 'भारत माता' की जय अलग से बोलें न बोलें, उसमें इतनी हाय-तौबा क्यों?
भारत माता की जय बोलना न बोलना या राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् को गाना न गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं हो सकता। खयाल रहे, वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत (National Song) है, राष्ट्रगान (National Anthem) नहीं है।
हमारे झंडे के रंगों की तरह कुछ जुमलों को भी धर्म और सम्प्रदाय के रंग में रंग दिया गया है। दुर्भाग्य से भारत माता की जय, मातृभूमे, Motherland, वन्दे मातरम् कुछ इसी किस्म के संघ-प्रिय जुमले बनते जा रहे हैं। उन्हें जबरन बुलवाने की जिद उन्हें सांप्रदायिक रंग दे रही है। भारत के झंडे में केसरिया रंग है, इसके बावजूद उस रंग से परहेज करने वालों पर हम उस रंग को उनके पहनावे आदि में थोपते तो नहीं; तो चुनिंदा जुमले या नारे उन पर क्यों थोपे जाएं?
वन्दे मातरम् का घोष बंकिम बाबू ने अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में प्रयोग किया था। आनंदमठ में मुसलमानों के प्रति हिकारत व्यक्त है, उनकी खिल्ली उड़ाई गई है ("इन नशेबाज दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिन्दू हिन्दू बचे रहेंगे? ... मुसलमान ईश्वर-विरोधी हैं इसलिए उन्हें हम सवंश ख़त्म करना चाहते हैं। ... भाई, वह दिन कब आएगा जब मसजिद तोड़कर हम राधामाधव का मंदिर बनवाएंगे? ... बोलो वन्दे मातरम, नहीं तो मार डालूँगा। ... मुसलमान देखते ही ग्रामवासी मारने दौड़ते।"); ... मगर आनंदमठ उपन्यास में अंगरेजों का बहुत यशोगान है।
वन्दे मातरम् (मूल) में आए हिन्दू प्रतीकों (दुर्गा दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदलविहारिणी) के कारण ही मुसलिम लीग ने उसका विरोध किया और वह आजादी के संघर्ष में (मुख्यतः नारे के रूप में) प्रयोग होने के बावजूद राष्ट्रगान न बन सका। गांधीजी भी उसे राष्ट्रगान बनाने के पक्षधर नहीं रहे। धार्मिक प्रतीकों के बावजूद वन्दे मातरम में सांप्रदायिकता नहीं है, लेकिन आनंदमठ में आक्रामक हिन्दू नारे के रूप में प्रयोग होने के कारण उसका रंग बदल गया।
भारत माता जी जय 'वन्दे मातरम्' का ही भावानुवाद है। धरती रूपी माता की वंदना। संघ की प्रार्थना 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे' संस्कृत में है, पर उसके अंत में भारत माता की जय बोली जाती है, प्रार्थना चाहे किसी भाषा में हो। इसका इस तरह प्रयोग स्वाभाविक तौर पर संघ से दूरी रखने वालों को परे खींच रहा है।
(भारत पिता की जय! ... 'वीर' सावरकर की मान लेते तो जर्मनी के बाद भारत ही होता अपनी सरजमीं को Fatherland कहने वाला! तब संघ के केआर मलकानी भी दैनिक का नाम Motherland की जगह Fatherland रखते! A post from my friend Tribhuvan) जो लोग भारत को माता कहते हैं, वीर सावरकर जी ने उन्हें अंगरेज़ी मानसिकता का दास बताया है। सावरकर कहते हैं, भारत मातृभूमि नहीं, यह हमारी पितृभूमि है। सावरकर जी के अनुसार देश को अंगरेज़ माता कहते हैं, हम भारतीय नहीं। वे देश के लिए शी शब्द का प्रयोग करते हैं, ही का नहीं। इसलिए जो देश को शी यानी स्त्री रूप में देखते हैं, वे पश्चिमपरस्त हैं। वे भारतीय संस्कृति के जानकार नहीं हैं। सावरकर जी की मानें तो हमें कहना चाहिए : भारत पिता की जय! आइए, प्रमाण देखिए : Hindu Rashtra Darshan By V D Savarkar के पेज तीन से Bharatavarsha which is the 'Pitrubhoo' and 'Punyabhoo'-the Fatherland and the Holyland of Hindudom as a whole. 'Everyone who regards and claims this Bharatbhoomi from, the Indus to the Seas as his Fatherland and Holyland is a Hindu. It is not enough that a person should profess any religion of Indian origin, i.e., Hindusthan as his पुण्यभूमि his Holyland, but he must also recognise it as his पितृभूमि too, his Fatherland as well. भारत पिता की जय! |
The following piece by senior journalist and former editor Jansatta, that appeared in the newspaper in 2006, on the issue is relevant
अनन्तर / जनसत्ता / १० सितम्बर, २००६ / संशोधित
कविता और कथा के बीच बंकिम
ओम थानवी
राष्ट्रगीत है इसलिए 'वंदे मातरम् ' राष्ट्र के हर नागरिक को अनिवार्यत: गाना चाहिए, इस बात से कोई विवेकशील शायद ही सहमत होगा। आजाद मुल्क में जायज नाफरमानी का इतना हक तो नागरिकों को हासिल होता है।
वक्त था जब हमारे सिनेमाघरों में फिल्म खत्म होते ही परदे पर तिरंगा लहराता था। हॉल में राष्ट्रगान गूंज उठता था। 'जन-गण-मन' में कोई देवी-देवता नही थे, इसलिए प्रतिरोध या हिन्दू - मुसलिम विवाद का सवाल नहीं था। फिर भी बहुत-से दर्शक फिल्म खत्म होते-न-होते उठ कर चल देते थे। यह जानते हुए भी कि दरवाजे गान के सातवें जय-घोष के पूरे होने तक खोले नहीं जाएंगे। बहरहाल, जन-संपर्क के उस असरदार ठिकाने - सिनेमाघर - से राष्ट्रगान आखिरकार उठा लिया गया।
तिरंगे और राष्ट्रगान के उस दुहरे अनादर को समझ लेने वाले हुक्मरानों ने इसके बावजूद अब अगर 'वंदे मातरम्' की जन-मानस पर थोपने की कोशिश की है, तो इसकी वजह बहुत साफ है जिसे ज्यादा दुहराने की जरूरत नहीं है। राष्ट्रगीत में हिंदू प्रतिक हैं, जिनसे मुसलमानों को चिढ़ाया जा सकता है। इससे हिंदुओ को रिझाया जा सकता है। भले सबको नहीं। पर हिंदू समाज का मत-भण्डार भाजपा - बहुसंख्यक समाज जिसकी बुनियाद है - और कांग्रेस को समान रूप से ललचाता है। दोनों में उसे लेकर जीने- मरने की होड़ है। इस बात को देश के बुद्धिजीवी पहचानते हैं और इस पर काफी टीका हुई है। खासकरइस मायने में कि राष्ट्रगीत गाना-न गाना राष्ट्रभक्ति का पैमाना नहीं हो सकता।
लेकिन क्या 'वंदे मातरम ' सचमुच एक बुरा गीत है? 'आनंदमठ' कैसा उपन्यास है? दूसरे उग्र राष्ट्रवाद का राष्ट्रीय भावना से क्या साम्य है? अचानक उठे विवादों की गर्माहट कभी-
कभी पसर कर काम की बहस में तब्दील हो जाया करती है। अच्छा होता अगर इस मौके पर विद्वान लोग साहित्यकार के नातेबंकिमचंद्र के काम और राष्ट्रवाद की अवधारणा पर अलग से कुछ विचार करते।
मैं साहित्य का व्यक्ति नहीं हूं, न मैंने राजनीति का शास्त्र पढ़ा है। लेकिन सारी बहस में यह बात मुझे तल्खी के साथ महसूस हुई कि या तो लोग बंकिमचंद्र के पक्ष में खड़े हैं या उनके चरित्र तक की बखिया उधेड़ रहे हैं। साहित्य कहीं चर्चा के केंद्र में नहीं है। राष्ट्रगीत के थोपे जाने का विरोध करते –
करते वेगीत में ही खोट ढूंढने लगते हैं। मानो भूल रहे हों कि 'वंदे मातरम' कविता पहले है, राष्ट्रगीत बाद में। लगता है कविता राष्ट्रवाद की बहस की भेंट चढ़ गई हो। जिन्होंने कविता को अच्छा या बुरा बताया है, उनके पीछे भी सामाजिक या राजनीतिक पहलू दिखाई देते हैं। ऐसी बहस के बाद आने वाली पीढ़ी 'वंदे मातरम्' को कभी कविता की तरह पढ़ पाएगी, यह संदेह मेरे मन में रह-रह कर उठता है।
'वंदे मातरम्' मुझे रचना के स्तर पर सुंदर कविता अनुभव होती है। 'आनंदमठ' एक हलका उपन्यास। आप मान सकते हैं कि यह बात मैं किसी बौद्धिक, सामाजिक या राजनीतिक आग्रह से नहीं कह रहा हूं। साहित्य कला का अंग है। बाकी दुनियावी चीजों से वह बहुत ऊँचा होता है। उसे देखने का नजरिया भी उसी का होताहै, शायद उसी में से निकलता है। इसलिए 'वंदे मातरम्' के धार्मिक प्रतीकों के नाके के जरा आगे निकलें तो उसके शब्द हमारे सामने छंद, रंग और गंध की एक बड़ी और सौम्य दुनिया खोलते हैं। 'मलयजशीतलाम्' कोरी चंदन की बयार नहीं है , न 'शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम् ' महज चांदनी रात के रोमांच का दृश्य बयान करती है।
गीत में हर उपमा एक निराला छंद है। वह हमें शब्द और उसके अर्थ की दुनिया के पार ले जाता है। या कहें ले जा सकता है - अगर हम जाना चाहें। जैसा की प्रो. रामचंद्र गांधी – जो महात्मा गांधी के पौत्र के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं, जबकि आला दर्जे के कला-मर्मज्ञ और रसिक हैं - ने अंतरंग बातचीत में कहा कि बाकी गीत का सौंदर्य अपना है, पर उसके शुरू के दो शब्द - 'वंदे मातरम' - ही अपने आप में संपूर्ण काव्य हैं। जैसे 'सत्यमेव जयते' है। उनका आशय लय से था, जो कविता की धड़कन होती है। मैं उनकी बात समझ सकता हूं।
'वन्दे मातरम्' में संस्कृत और बांग्ला का मिला-जुला प्रयोग अपने में एक खूबी है। भारतीय भाषाओँ के जानकार उसे पकड़ सकते हैं। अंग्रेजी में श्रीअरविंद के कुशल अनुवाद के बावजूद शब्द-समूहों की खनक उसमें नहीं आती। 'वंदे मातरम्' में काव्य के साथ अनूठी सांगीतिकता है। उसे कई रूपों में संगीतबद्ध किया जा सकता है। रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एआर रहमान तक इसके उदाहरण हमारे सामने हैं। रवींद्रनाथ ने गीत का सिर्फ पहला अंतरा संगीतबद्ध किया था। वह राग देस में था। उसी के साथ गीत का गान शुरू हुआ। इस स्वरलिपि को बंकिम बाबू ने 'आनंदमठ' के तीसरे संस्करण में परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया था। हालांकि इससे पहले उनके एक मित्र ने गीत की संगीत - रचना राग मल्हार में भी तैयार की थी।
यह सही है की 'वंदे मातरम्' में दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदल विहारिणी और वाणी विद्यादायिनी शब्द भी आते हैं। लेकिन धार्मिक प्रतीक हमेशा सांप्रदायिक नहीं होते। वे सांस्कृतिक भी होते हैं। कम से कम 'वंदे मातरम्' के भीतर इन प्रतीकों के जिक्र के बावजूद किसी धर्म की नहीं, धरती की ही वंदना है। उसी पर प्रत्यय है। यों प्रत्यय अगर धर्म पर होता, तब भी मैं उसमें काव्य का लुत्फ ले सकता था। गैर-धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी हर सुबह मैं सूर-मीरा के भजन चाव से सुन सकता हूं और 'अल्लाह- मुहम्मद चार यार, हाजी ख्वाजा क़ुतुब फरीद' और दूसरी नातिया कव्वालियां भी। मैं इन्हें संगीत के नजरिए से सुनता हूं और इस धारणा में विश्वास रखता हूं कि संगीत की सरहदों को छू लें तो उसी में इबादत हो जाती है। इसलिए कला में धार्मिक प्रतीक मेरे देखे हमेशा गौण रूप में प्रकट होते हैं। ऐसे में किसी का ध्यान रचना से हटकर सिर्फ उन प्रतीकों की तरफ जाता हो तो दोष रचना में नहीं, उसके नजरिए में माना जाएगा। आखिर गांधीजी के राम और लालकृष्ण आडवाणी के राम में जमीन-आसमान का फर्क है; लेकिन साहित्य-संगीत या कला की दुनिया में वह फर्क सात आसमान दूर निकल आता है।
अंग्रेजी अख़बारों ने इस बात को हवा दी है की 'वंदे मातरम' गीत बंकिमचंद्र ने अपनी पत्रिका 'बंगदर्शन' में खाली छूट रही जगह भरने के लिए रचा था। लेकिन बंकिम का उपन्यास 'आनंदमठ' पढ़ते हुए किसी को यह शक जरूर हो सकता है कि वह कहीं जगह भरने के लिए तो नहीं लिखा गया था। 'वंदे मातरम' पढ़ें, तब बंकिम संतुलित और लयबद्ध नजर आते हैं। 'आनंदमठ' में उनके विवेक और गद्य दोनों की लय उखड़ जाती है। उन्होंने 'वंदे मातरम' को समूचे उपन्यास में ठूंस कर उसकी स्निग्धता को खुरदरा कर दिया है। कविता को उन्होंने खुद नारे में सीमित कर दिया। उपन्यास में उनकी दृष्टि बहुत संकीर्ण होकर उभरती है। शायद यही वजह है की 'वंदे मातरम' संदेह के घेरे में आ खड़ा हुआ और खुद बंकिम भी। गीत अपनी स्वायत्तता में चाहे तमाम आरोपों से बरी हो जाय, 'आनंदमठ' को उस घेरे से बाहर लाना किसी भी बंकिम-भक्त के लिए टेढ़ा काम होगा।
'आनंदमठ' साफ शब्दों में हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा करता है, मुसलमानों की खिल्ली उडाता है और अंग्रेजों का यशोगान करता है। बार-बार उसमें 'जय जगदीश हरे' और 'हरे मुरारे मधुकैटभारे' नारों की तरह आते है। 'वंदे मातरम्' तो टेक की तरह आता है। कुछ लेखकों का कहना है कि नारे लगाने वाले संन्यासी विद्रोही (संतान-सेना) हिंदू थे और अत्याचारी शासक के खिलाफ बगावत कर रहे थे; महज संयोग है कि शासक मुसलमान था। यह बात सही नहीं हैं। संन्यासी मुसलमानों और अंग्रेजों दोनों से लड़ते हैं। अंत में वे अंग्रेजों के साथ हो जाते हैं।
कुछ लोग 'आनंदमठ' को ऐतिहासिक उपन्यास बताते है। यदुनाथ सरकार ने 'आनंदमठ' और 'देवी चौधरानी' उपन्यासों की संयुक्त भूमिका में इसे तथ्यों के साथ नकारा है। यो बंकिमचंद्र ने भी कभी उपन्यास को ऐतिहासिक नहीं बताया। उन्होंने 'बंगदर्शन' में (और उपन्यास के पहले संस्करण में भी) जहां-जहां 'अंग्रेज' लिखा था, उसे अगले संस्करण में कई जगह बदल कर 'नैड़े' (मुसलमानों के लिए ओछा शब्द) कर दिया। शायद बंकिम बाबू ने पहले अंग्रेजों के खिलाफ लिखना चाहा हो; वारेन हेस्टिंग्स के वक्त हुए ऐतिहासिक संन्यासी विद्रोह को उन्होंने कथा का आधार बनाया था। लेकिन-संभवत: सरकारी मुलाजिम होने के नाते - वे दुविधा में पड़े और कभी मुसलमान और कभी अंग्रेजों से संतान-सेना को लड़ाते हुए उपन्यास के समापन में सीधे-सीधे अंग्रेजों की तरफ हो गए। अंग्रेज-राज्य की 'अनिवार्यता' को उन्होंने भविष्य की हिंदू-राज्य की कल्पना से जोड़ दिया।
उपन्यास पढ़कर कोई भी जान सकता है उसमें मुसलमानों के प्रति घृणा का भाव है, अंग्रेजों के लिए प्रशंसा का। उपन्यास के कुछ अंश देखें:
"मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा करते हैं? धर्म गया, जाती गई, मान गया, कुल गया, अब तो प्राणों पर बजी आ गई है। इन नशेबाज दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिंदू हिंदू बच रहेंगे?"
"हम राज्य नहीं चाहते। मुसलमान ईश्वर विरोधी हैं, इसलिए उन्हें सवंश खत्म करना चाहते हैं।"
"संतान-व्रतधारी गांव-गांव में जासूस भेजने लगे। वे जासूस गांवो में जा कर जहां भी हिंदू देखते, उनसे कहते - 'भाई, विष्णु की पूजा करोगे?' इस तरह बीस-पच्चीस आदमियों को इकट्ठा करने के बाद वे मुसलमानों के गांव में जा कर उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े होते। संतान-व्रतधारी उनका सब कुछ लूट कर नए विष्णुभक्तों में बांट देते। लूट का हिस्सा पाकर गांव के लोग खुश होते तो उन्हें विष्णु मंदिर में ला कर विष्णु मूर्ति के चरण छुला कर उनकी संतान बनाया जाता। लोगों ने देखा कि संतान बनने में बड़ा फायदा है। ...जहां भी मुसलमानों का गांव मिल जाता, वे जला कर राख बना देते।"
"किसी ने चिल्ला कर कहा, मार-मार, मुसल्लों को मार।...किसी ने कहा, भाई वह दिन कब आएगा जब हम मस्जिद तोड़ कर राधामाधव का मंदिर बनवाएंगे?"
"कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ दौड़ पड़ा और पथिक या गृहस्थ को पकड़ कर कहने लगा, 'बोलो 'वंदे मातरम, नहीं तो मार डालूंगा।' ... मुसलमान देखते ही ग्रामीण मारने दौड़ते। कुछ लोग उसी रात इकट्ठा हो कर मुसलमानों के टोले में जा कर उनके घरों में आग लगाने और उनका सब कुछ लूटने लगे।"
जाहिर है, उपन्यास में सिर्फ शोषक राजा और शोषित प्रजा का झगड़ा नहीं है। हिंदू धर्म-जाती की परवाह है, मुसलमान के प्रति हिकारत है। और अंग्रेजों की भरपूर जय-जयकार। लड़ाई में अंग्रेज सेनापति को पकड़ कर भवानन्द कहते हैं: "कप्तान साहब! हम तुम्हें मारेंगे नहीं। अंग्रेज हमारे शत्रु नहीं है। तुम क्यों मुसलमान की सहायता करने आए? हम तुम्हारे प्राण बख्शते हैं। लेकिन अभी तुम हमारे बंदी रहोगे। अंग्रेज़ों की जय हो, हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं।"
उपन्यास के अंत में सत्यानंद मुसलिम-राज्य के ध्वंस के बावजूद हिंदू-राज्य स्थापित न होने पर "तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर होकर" पूछते हैं: "प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा?" उन्हें महात्मा-महापुरुष का यह ज्ञान मिलता है:
"नहीं अब अंग्रेज-राज्य होगा...अग्रेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का पुनरुद्धार नहीं हो सकेगा। अंग्रेज बहिर्विषयक ज्ञान के अच्छे ज्ञाता और लोकशिक्षा में बड़े निपुण है। इसलिए अंग्रेज को राजा बनाएंगे। अंग्रेजी शिक्षा के कारण इस देश के लोग बहिस्तत्व में सुशिक्षित हो कर अंतस्तत्व को समझने में समर्थ होंगे। .... अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो, इसीलिए संतान-विद्रोह हुआ है।"
हिंदी में 'आनंदमठ' के कई अनुवाद उपलब्ध है। पर ये उद्धरण मूल बांग्ला से मिलान कर दिए गए हैं। हालांकि भाषा की रंगत अनुवाद में नहीं आ सकती। मूल उपन्यास की भाषा में अच्छा प्रवाह है। लेकिन कथ्य के निरूपण में बड़ी एकरसता और उलझाव है। न परिस्थितियां ठीक से उभरती है, न युध्द का वातावरण बनता है। कमजोर पात्रों के अनवरत संवादों और नारों के बीच कथ्य को उंड़ेलने की मंशा ज्यादा उजागर होती है। बांग्ला विद्वान ललितचंद्र मित्र ने सौ साल पहले 'साहित्य' पत्रिका में लिखा था: 'आनंदमठ' देशभक्ति की रचना के रूप में उत्तम है, लेकिन उसका कला-पक्ष क्षीण है।
पत्रिकाओं में धारावाहिक छपने वाले उपन्यासों का अक्सर यह हश्र होता है। वरना संकीर्ण नजरिए के बावजूद कोई कृति बेहतर हो सकती है। साहित्य में ऐसे ढेर उदहारण हैं। एजरा पाउंड फासीवाद के समर्थक थे और बड़े कवि माने जाते हैं। नीत्शे के बारे में विजयदेवनारायण साही ने दो टूक शब्दों में कहा था कि 'जरदुस्त्र उवाच' सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने के लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान कृतियों में एक है। मैंने 'वंदे मातरम' की तरह 'आनंदमठ' को खुले दिमाग से पढ़ा है। पर वह वैचारिक दृष्टि से ही नहीं, रचना के स्तर पर भी कमजोर लगा। यह सही है कि उपन्यास की विधा तब हमारे यहां बहुत विकसित नहीं थी। लेकिन महान कृतियों के लक्षण किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाते हैं। बंकिम बाबू के इस सबसे प्रसिद्ध उपन्यास में वे नहीं प्रकट होते।
बहरहाल, 'वंदे मातरम्' अलग लिखा गया था। उसे अलग ही पढ़ा जाना चाहिए। उसे राष्ट्रगीत के नाते थोपने का कोई मतलब नहीं है। कायदा बना कर पढ़ने पर कविता हाथ से छूट जाती है, सिर्फ नारा पास में रह जाता है।
अब राष्ट्रगीत के बहाने कुछ राष्ट्रवाद की बात। पहली बात तो यह कि 'वंदे मातरम्' को राष्ट्रगीत घोषित करना उचित नहीं था। गीत में धार्मिक प्रतीक भले हों, पर सांप्रदायिकता नहीं थी, लेकिन गीत लिखने के छह साल बाद खुद बंकिमचंद्र ने उसे विवादास्पद 'आनंदमठ' का हिस्सा बना दिया था।
यह सही है कि आजादी के आंदोलन में गीत सारे क्रांतिकारियों की प्रेरणा बना। लेकिन बाद में दंगों में उसे मुसलमानों के खिलाफ हिंदू-हुंकार की तरह भी इस्तेमाल किया गया। मुसलिम लीग ने ही इसकी मुखालिफत नहीं की, गांधी जी भी इसके इस्तेमाल में मुसलिम-तिरस्कार की आशंका देखने लगे। विवाद के चलते 'वंदे मातरम्' अंतत: राष्ट्रगान नहीं बन सका। इसी विवाद की वजह से टुकड़े में - विवादित अंश बाहर करने के बाद - वह राष्ट्रगीत बना (क्या कोई जीवित कवि इसकी सहमति देगा!), लेकिन राष्ट्रभक्ति की दलील पर तो उसे जैसे राष्ट्रगान से ऊपर ले जाने की कोशिश होती है।
दिखावे की राष्ट्रभक्ति राष्ट्रवादी अवधारणा का नतीजा है। यह हमारे देश में पहले नहीं थी। राष्ट्रवाद ओढ़ा हुआ पश्चिम का विचार है। उन्नीसवीं सदी में यह यूरोप में पनपा। सब जानते हैं यूरोप इसी राष्ट्रवाद के रास्ते चल कर बरबाद हुआ। उसने दो विश्वयुद्ध लड़े। राष्ट्रवाद की उसी अवधारणा पर पाकिस्तान बना। यूरोप देर-सबेर संभल गया। अब बहुत सारे देशों में वहां एक मुद्रा चलती है, एक ही पासपोर्ट बगैर वीजा चलता है। जातीय प्रतीक जरूर जुदा हैं। संस्कृति, भाषा या कलाओं आदि में कहीं भी एकरूपता के प्रयास नहीं होते। उन्हें बचाने और कायम रखने पर जोर दिया जाता है।
लेकिन हमारे यहां राष्ट्रवादी रिवायतें दिनोंदिन राष्ट्रीयता का पर्याय बनती चली जा रही हैं। दोनों चीजों में बहुत फर्क है। नागरिक में अपने राष्ट्र के प्रति निश्चय ही आस्था होनी चाहिए। लेकिन आस्था को राष्ट्र-चिह्नों में नहीं तौला जा सकता। हम भूल जाते हैं कि उग्र राष्ट्रवाद एक जगह पहुंच कर फासीवाद में बदल जाता है। यह अकारण नहीं है कि हमारे यहां संघ परिवार की इस विचार में वैसी ही आस्था है जैसी हिटलर या मुसोलिनी की थी। इसी विचारधारा के चलते राष्ट्रगीत के गाने न गाने का विवाद फिर उठा है। ऐसे और विवाद उठ सकते हैं। लेकिन भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र को क्या सचमुच ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों की जरूरत है? राष्ट्र के प्रतीक कभी राष्ट्र की जनता से बड़े नहीं हो सकते। प्रतीक जनता ही गढ़ती है। इसलिए भारत का कोई एक धार्मिक प्रतीक नहीं हो सकता। न गैर-धार्मिक। इस मामले में राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर और उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद के विचारों का अध्ययन हमारे लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। रवींद्रनाथ ने देशभक्ति के मुकाबले मानवता को कहीं ऊँचा मूल्य बताया था; प्रेमचंद ने राष्ट्रवाद को एक रोग (कोढ़) की संज्ञा दी थी।
एक और पेचीदगी है। एक देश में राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों का यों भी कोई मतलब नहीं है। ऐसा सिर्फ हमारे देश में है। लेकिन दिलचस्प गुत्थी है कि राष्ट्रवादी ठप्पों की कतार में दूसरी विधाओं और कला-रूपों को छोड़ दिया गया है। सोचकर हैरानी होती है अगर राष्ट्र-कथा, राष्ट्र-नाटक, राष्ट्र-चित्र, राष्ट्र-फिल्म, राष्ट्र-नृत्य, राष्ट्र-क्रीड़ा आदि का सिलसिला शुरू हो गया तो वह कहां तक जाएगा। राष्ट्र-चिन्हों की तर्ज पर अब प्रादेशिक चिन्हों तक निर्धारण होने लगा है। राष्ट्रिय पक्षी भले मोर हो, प्रदेशों के राज्य-पक्षी दूसरें हैं। क्या राज्य राष्ट्र का अंग नहीं है? असल में राष्ट्र का एक प्रतीक - झण्डा - ही काफी होना चाहिए। हालांकि हमारा तिरंगा अपने रंगो में बहुत स्थूल अर्थ बयान करता है। मूलत: वह कांग्रेस की राजनीति का संदेशवाहक था, उसी पर अशोक-चक्र मढ़ दिया गया। पर इस मामले में अब कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन केंद्र और राज्यों में पहचान के राजकीय चिन्ह गढ़ने का सिलसिला जरूर रोका जा सकता है। गनीमत है, तिरंगे की जगह प्रदेशों ने अब तक अपने झण्डे ईजाद नहीं किए हैं!
अभी हिंदी दिवस आने वाला है। आप गौर कर सकते हैं, नारों के बीच राष्ट्रभाषा की बात होगी। लेकिन बोलियों की नहीं, जिन्हें हम जाने-अनजाने खोते चले जा रहे हैं। हिंदी सरस और सौम्य भाषा है। सबसे ज्यादा बोली जाती है। वह सहज ही संपर्क भाषा बन सकती है। लेकिन वह राजभाषा होकर भी राज की भाषा नहीं बन सकी है। सरकारी प्रयास लोक-मानस की जगह नहीं ले सकते, न उसे बांध सकते हैं।
'वंदे मातरम्' के विवाद का सबसे बड़ा सबक शायद यह है कि आजाद देश में चीजों को बांधने की बजाय अब खुला छोड़ देना चाहिए। इससे हमारी एकता ही नहीं, कई चीजें बचेंगी जो राष्ट्र की असल पहचान है।
पश्चिम का भूला पूरब में जितना जल्द लौट आए, उतना अच्छा!