21 जून को दलित जज सीएस कर्णन को कोर्ट की अवमानना के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। वह उस समय से समाचारों में जब साल 2009 में उन्होंने अदालतों के खिलाफ कई शिकायतें की। नवंबर 2011 में कर्णन ने सहयोगी जज के प्रताड़ना और भेदभाव के बारे में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को शिकायत की थी। साल 2014 में, उन्होंने अदालत में प्रवेश किया जहां एक पीआईएल पर नियुक्ति के लिए सिफारिश किए गए न्यायाधीशों की सूची पर सुनवाई की जा रही थी, उन्होंने कहा था कि यह सूची निष्पक्ष नहीं है। न्यायपालिका ने उनके व्यवहार को लेकर निंदा की। सितंबर 2016 में उन्होंने मद्रास के मुख्य न्यायाधीश पर जातिगत भेदभाव को लेकर आरोप लगाया। न्यायमूर्ति कर्णन के आरोपों को घृणा और उपहास ही मिला।
पारंपरिक जाति-आधारित अवसर संरचनाएं कानूनी शिक्षा तक पहुंच बनाना हुए है। हालांकि संभ्रांत कानून विद्यालय बिना जाति और बिना वर्ग के होने का दावा करते हैं। जाति इस प्रणाली में दोनों तरीकों से मौजूद है और अन्यथा इन संस्थानों में है। इससे देश में कानूनी बिरादरी की रचना पर असर पड़ता है।
भारतीय निजी कानून स्कूलों में जाति और वर्ग की स्थिति एक बिल्कुल अलग वास्तविकता को दर्शाती है: 2015 एनएलएसआईयू सर्वेक्षण के अनुसार 80% छात्र हिंदू थे और 1% मुस्लिम; राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालयों में आईडीआईए कानून सर्वेक्षण में 65% छात्र उच्च जाति के पाए गए जिसमें से 27% ब्राह्मण थें। इसी तरह जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल द्वारा साल 2014 में एक सर्वे कराया गया। इस सर्वे में पाया गया कि 61 प्रतिशत छात्र उच्च वर्ग से संबंध रखते हैं।
कानून विद्यालय में जाति फैशन और मनोभाव वर्ग का रूप लेती है। आईडीआईए की विविधता सर्वेक्षण में पाया गया कि विभिन्न राष्ट्रीय कानून विद्यालयों में सर्वेक्षण किए गए लगभग 20 प्रतिशत छात्रों को विभिन्न कारकों, जैसे कि उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि, अंग्रेजी भाषा कमजोर होने, कपड़े पहनने के तरीकों, लोकप्रिय संस्कृति, जाति या जातीयता के ज्ञान के कारण उत्पीड़न या धमकाने का सामना करना पड़ता है। पैंतीस प्रतिशत ने यह भी बताया कि उनकी पृष्ठभूमि के कारण उन्हें अपने कॉलेज में छात्र समुदाय के साथ जुड़ने में परेशानी थी। साल 2003 में एनएलएसआईयू में अपने दो छात्रों द्वारा आयोजित छात्रों के एक सर्वेक्षण पाया कि जाति/वर्ग की पृष्ठभूमि और विभिन्न गतिविधियों के बीच एक मजबूत संबंध है, जैसे कि वाद-विवाद और चर्चा, जो कानून स्कूल के वातावरण में सामाजिक पूंजी के महत्वपूर्ण संकेतक हैं। दस साल बाद, आईडीआईए सर्वेक्षण ने यह भी पाया कि कमजोर अंग्रेजी भाषा के छात्रों ने अतिरिक्त गतिविधियों में कम भाग लिया। भारतीय शहरों में आजकल अंग्रेजी के प्रवाह की दृष्टि से जाति वर्ग के रूप में दृढ़ता से प्रकट होता है।
उच्च जाति के कानून के छात्र के रूप में, किसी भी संस्था में जाति न बताने का विशेषाधिकार है। संभ्रांत कानून स्कूल के निम्न जाति के छात्र से अक्सर कॉलेज में हुए जातिगत भेदभाव के बारे में सुना जा सकता है। हैदराबाद के संभ्रांत विधि स्कूल नालसार के दलित ग्रेजुएट अखिल कंग कहते हैं कि किस नजरिया से उनके साथी उनको देखते थे और कहते थे कि निम्न जाति के छात्र नालसार जैसी संस्थाओं में पढ़ने के लायक नहीं हैं। एनएलएसआइयू के एक दलित छात्र सुमित बौद्ध लिखते हैं कि रॉल बुलाने के क्रम में उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता था। छात्रों का रॉल नंबर सामान्य कैटेगरी से शुरू होता था और इसके बाद एससी-एसटी छात्रों का रॉल नंबर या आरक्षित छात्रों का रॉल नंबर होता था।
इतिहास के पन्ने के पलटे तो पाएंगे कि उच्च जाति ने ज्ञान पर नियंत्रण कर रखा था जिससे निम्न जाति के लोगों तक शिक्षा की पहुंच नहीं होती थी जो आज भी बरकरार है। जैसा कि ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट होता है।
हालांकि अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले जस्टिस बालकृष्णन सुप्रीम कोर्ट से साल 2010 में सेवानिवृत्त हुए तब से अनुसूचित जाति के कोई भी जज सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त नहीं हुए हैं। साल 2016 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंध रखने वाले एक भी जज देश के किसी भी राज्य में मुख्य न्यायाधीश के तौर पर नहीं थें।
(Based on an article by Amala Dasrathi in Sabrangindia.in)