1950 के अधिनियम के तहत कैबिनेट के इस कदम से जिला आयुक्तों को कथित विदेशियों को 10 दिनों में बाहर करने का अधिकार मिल गया है, जिससे उचित प्रक्रिया और शक्तियों के पृथक्करण पर संवैधानिक चिंताएं पैदा हो गई हैं।

असम सरकार की कैबिनेट ने मंगलवार को असम निर्वासन अधिनियम, 1950 के तहत एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) को मंजूरी दी। एक ऐस निर्णय जो असम की नागरिकता जांच प्रक्रिया में अहम बदलाव ला सकता है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इस SOP के तहत ज़िलाधिकारी (DC) अब किसी व्यक्ति को "अवैध प्रवासी" घोषित कर सकते हैं और यदि वह व्यक्ति 10 दिनों के भीतर अपनी भारतीय नागरिकता साबित नहीं कर पाता, तो उसके खिलाफ निष्कासन (बाहर निकाले जाने) का आदेश जारी किया जा सकता है।
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इस फैसले की घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम नागरिक प्रशासन को अधिक सशक्त बनाएगा और "काफी हद तक विदेशी न्यायाधिकरणों (Foreigners’ Tribunals) की भूमिका को निष्प्रभावी कर देगा।"
SOP में क्या प्रावधान है:
1. नोटिस और प्रमाण: जब पुलिस या सीमा सुरक्षा एजेंसियों से किसी संदिग्ध व्यक्ति के बारे में जानकारी मिलती है, तो ज़िलाधिकारी (DC) उस व्यक्ति को नोटिस जारी करते हैं। इस नोटिस के तहत व्यक्ति को 10 दिन का समय दिया जाता है, ताकि वह अपनी भारतीय नागरिकता के प्रमाण (दस्तावेज) पेश कर सके।
2. जिलाधिकारी का निर्णय: अगर दिए गए दस्तावेज संतोषजनक नहीं पाए जाते हैं तो DC असम निर्वासन अधिनियम, 1950 की धारा 2(ए) के तहत लिखित निष्कासन आदेश जारी करते हैं।
इसके बाद उस व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर, DC द्वारा निर्धारित मार्ग का इस्तेमाल करते हुए राज्य छोड़ना होता है।
3. घोषित विदेशी: जिन मामलों में किसी व्यक्ति को पहले ही विदेशी न्यायाधिकरण (Foreigners’ Tribunal) द्वारा विदेशी घोषित किया जा चुका है, वहां ज़िलाधिकारी (DC) सीधे निष्कासन आदेश जारी करेंगे। ऐसे मामलों में दोबारा जांच-पड़ताल की आवश्यकता नहीं होगी।
4. पुलिस की भूमिका: किसी भी व्यक्ति को राज्य से बाहर करने से पहले, सीनियर सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस (SSP) उस व्यक्ति के बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय विवरण Foreigners Identification Portal पर दर्ज करते हैं।
5. हिरासत और सीमा पार वापस भेजना: यदि कोई व्यक्ति ज़िलाधिकारी के निष्कासन आदेश के बावजूद राज्य छोड़ने से इनकार करता है, तो उसे होल्डिंग सेंटर (Holding Centre) में भेजा जा सकता है या सीमा सुरक्षा बल (BSF) के हवाले किया जा सकता है। इसके अलावा, जो व्यक्ति सीमा के जीरो लाइन के पास या प्रवेश के 12 घंटे के भीतर पकड़े जाते हैं, उन्हें तुरंत पुशबैक (सीमा पार वापस भेजने) की प्रक्रिया के तहत लौटाया जाएगा।
प्रेस वार्ता के दौरान मुख्यमंत्री सरमा ने क्या कहा?
9 सितंबर, 2025 को असम मंत्रिमंडल ने अप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950 के कार्यान्वयन के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तैयार करने को मंज़ूरी दी।
देर रात एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए, मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने बताया कि नए मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) के तहत:
● यदि किसी जिला आयुक्त (DC) को पुलिस या किसी अन्य स्रोत से यह जानकारी मिलती है कि किसी व्यक्ति के अवैध प्रवासी होने का संदेह है, तो DC उस व्यक्ति को 10 दिनों के भीतर भारतीय नागरिकता का प्रमाण प्रस्तुत करने का निर्देश देते हुए एक नोटिस जारी करेगा।
● व्यक्ति की सुनवाई के बाद, यदि डीसी इस निष्कर्ष पर पहुxचता है कि वह व्यक्ति विदेशी है, तो तत्काल निष्कासन आदेश ("पुश-बैक") जारी किया जाएगा।
● यदि डीसी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है, तो मामले को निर्णय के लिए विदेशी न्यायाधिकरण (एफटी) को भेज दिया जाएगा।
सरमा ने जोर देकर कहा कि असम समझौते के अनुसार, अंतिम तिथि 25 मार्च, 1971 ही रहेगी। इस प्रकार, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति को नई प्रक्रिया के तहत डीसी के समक्ष लाया जा सकता है। विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष लंबित मामले जारी रहेंगे, लेकिन जो नए मामले अभी तक किसी विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष नहीं हैं, उन्हें अब सीधे डीसी के समक्ष लाया जा सकता है।
मुख्यमंत्री ने इसे एक "ऐतिहासिक निर्णय" बताते हुए तर्क दिया कि 1950 के अधिनियम को इस तरह से कभी सक्रिय रूप से लागू नहीं किया गया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने "स्पष्ट रूप से संकेत" दिया है कि असम विदेशियों का पता लगाने और उन्हें निर्वासित करने के लिए इसका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र है। उन्होंने दावा किया कि मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) सरकार को कानून की "संपूर्ण भावना" के अनुसार काम करने की अनुमति देगी, जिससे राज्य के लिए विदेशी पाए गए लोगों को निष्कासित करना आसान हो जाएगा।
इससे पहले, 21 अगस्त, 2025 को, असम मंत्रिमंडल ने यह भी कहा था कि राज्य वयस्कों को आधार कार्ड जारी करना बंद कर देगा जिससे दस्तावेजीकरण व्यवस्था और सख्त हो जाएगी।
ऐतिहासिक और कानूनी पृष्ठभूमि
आप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950, विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से हुए प्रवास के बाद केंद्र सरकार द्वारा पारित किया गया था। इसने सरकार को किसी भी गैर-भारतीय को जिसका प्रवास "जनहित" या असम में अनुसूचित जनजातियों के हितों के लिए हानिकारक माना जाता हो, निष्कासित करने का आदेश देने का अधिकार दिया।
लेकिन एक महीने के भीतर ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई को लियाकत-नेहरू समझौते (अप्रैल 1950) के बाद, जिसका उद्देश्य सीमा के दोनों ओर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करना था, इसका इस्तेमाल बंद करने का निर्देश दिया। इसके बाद यह अधिनियम बंद हो गया। हालांकि, 1950 का यह अधिनियम और इसका इस्तेमाल हाल ही में सामने आया है, क्योंकि इसका इस्तेमाल लोगों को हिरासत में लेने और "बाहर करने" के लिए किया जा रहा है।
एसओपी मूलभूत प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देता है
गुवाहाटी उच्च न्यायालय के अधिवक्ता और सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) के वकील मृण्मय दत्ता ने कहा कि नई एसओपी नागरिकता निर्धारण की पूरी प्रक्रिया को अर्ध-न्यायिक विदेशी न्यायाधिकरणों से हटाकर उपायुक्त (डीसी) के कार्यकारी प्राधिकार में स्थानांतरित करने का एक स्पष्ट प्रयास है।
उन्होंने बताया कि भारत के नागरिकता अधिनियम में यह स्पष्ट रूप से जिक्र नहीं है कि नागरिकता साबित करने के लिए कौन से दस्तावेज आवश्यक हैं, खासकर भारत में जन्मे लोगों के लिए। उन्होंने कहा, "ऐसा कोई निश्चित कानूनी ढांचा नहीं है जो यह बताए कि जन्म से नागरिकता का प्रमाण कैसा होना चाहिए। इससे एसओपी के क्रियान्वयन में गहरी अनिश्चितता पैदा होती है।"
दत्ता ने जोर देकर कहा कि इस सिद्धांत पर कोई बहस नहीं है कि 25 मार्च, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले विदेशियों को असम समझौते के अनुसार बाहर रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "असली सवाल यह है कि विदेशी कौन है, और उनकी पहचान कैसे होगी? पहले यह भूमिका विदेशी न्यायाधिकरणों को सौंपी जाती थी, लेकिन अब एसओपी स्पष्ट कानूनी सुरक्षा उपायों के बिना यह काम डीसी को सौंप देता है।"
उन्होंने आगे बताया कि एसओपी यह स्पष्ट नहीं करता कि यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के साथ कैसे जुड़ता है। एनआरसी नियमों के तहत, अंतिम एनआरसी सूची से बाहर किए गए व्यक्तियों को अस्वीकृति पर्चियां मिलनी थीं, जिससे वे अपील कर सकें। उन्होंने कहा, "वे अस्वीकृति पर्चियां अभी तक जारी नहीं की गई हैं। अब, यदि कोई डीसी नोटिस जारी करता है, तो यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रक्रिया एनआरसी से जुड़ी होगी या उससे पूरी तरह स्वतंत्र होगी। क्या एसओपी एनआरसी अपील प्रावधानों को दरकिनार कर सकता है या विदेशी न्यायाधिकरण के ढांचे को दरकिनार कर सकता है? ये मूलभूत अनुत्तरित प्रश्न हैं।"
दत्ता ने कहा कि एक और बड़ी चिंता अपील व्यवस्था का अभाव है। उन्होंने कहा, "अगर किसी को नोटिस देर से मिलता है या वह दस दिनों के भीतर दस्तावेज पेश नहीं कर पाता है, तो एसओपी में कोई वैधानिक अपील का प्रावधान नहीं है। एकमात्र उपाय रिट अधिकार क्षेत्र के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना है। इससे व्यक्तियों, खासकर गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर भारी बोझ पड़ता है।"
उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि न्यायिक जांच और निगरानी अपरिहार्य है, क्योंकि अपने वर्तमान स्वरूप में एसओपी में स्पष्ट नियमों, पर्याप्त समय या सार्थक उपायों के बिना मनमाने निष्कासन का जोखिम है।
गंभीर चिंताएं
1. न्यायिक न्यायाधिकरणों की अनदेखी
परंपरागत रूप से, असम में नागरिकता और विदेशी स्थिति के मामलों का निपटारा विदेशी न्यायाधिकरणों (एफटी) द्वारा किया जाता है, जो विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964 के तहत गठित अर्ध-न्यायिक निकाय हैं। नई मानक प्रक्रिया (एसओपी) इस शक्ति को कार्यकारी अधिकारियों (डीसी) के हाथों में सौंपती है, जिससे पक्षपात, उचित प्रक्रिया का अभाव और मनमाने ढंग से निर्णय लेने की चिंताएं बढ़ जाती हैं।
हालांकि सरमा इस बात पर जोर देते हैं कि केवल "भ्रामक मामले" ही एफटी में जाएंगे, लेकिन यह मूल व्यवस्था को उलट देता है यानी न्यायिक निर्णय से प्रशासनिक आदेश की तरफ मोड़ देता है। कई लोग तर्क देते हैं कि इससे नागरिकता संबंधी निर्णय पूरी तरह से नौकरशाही प्रक्रिया में बदल जाने का खतरा है।
2. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन
एसओपी किसी संदिग्ध व्यक्ति को नागरिकता साबित करने के लिए केवल 10 दिन का समय देता है। असम में मौजूद स्पष्ट रूप से दर्ज परेशानियों-कमजोर दस्तावेज, निरक्षरता, बाढ़ के कारण विस्थापन और भाषा संबंधी बाधाओं-को देखते हुए यह अवधि अवास्तविक रूप से कम हो सकती है। कानूनी विद्वान आगाह करते हैं कि यह अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत निष्पक्ष सुनवाई और उचित अवसर की संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहता है।
3. शक्तियों का पृथक्करण और संवैधानिक अधिदेश
जिला न्यायाधिकरणों को विदेशी न्यायाधिकरणों की अवहेलना करने की अनुमति देकर, मानक प्रक्रिया (एसओपी) संभवतः विदेशी न्यायाधिकरणों की वैधानिक भूमिका को कमजोर करती है, जिनकी स्थापना यह सुनिश्चित करने के लिए की गई थी कि जटिल नागरिकता संबंधी प्रश्नों को कार्यपालिका के विवेक पर न छोड़ा जाए। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत - जहां अधिकारों का निर्धारण न्यायिक या अर्ध-न्यायिक निकायों के लिए आरक्षित है - खतरे में है।
4. मनमाने निष्कासन और राज्यविहीनता का जोखिम
एसओपी बिना किसी प्रक्रिया के 12 घंटे के भीतर सीमा पर तत्काल बाहर करने की भी अनुमति देती है। इससे सामूहिक निष्कासन हो सकता है जो संविधान के अनुच्छेद 21 और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्वों, जिसमें प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत गैर-वापसी का सिद्धांत भी शामिल है, का उल्लंघन है।
संवैधानिक और कानूनी प्रश्न
1. क्या मानक संचालन प्रक्रिया अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है? सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार (जैसे, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)) यह माना है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होनी चाहिए। नागरिकता साबित करने के लिए दस दिन की समय सीमा इस सीमा को पूरा नहीं कर सकती।
2. क्या SOP वैधानिक व्यवस्थाओं को दरकिनार कर सकती है? विदेशी अधिनियम, 1946 और विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964 स्पष्ट रूप से नागरिकता विवादों के निपटारे का कार्य विदेशी न्यायाधिकरणों (FT) को सौंपते हैं। SOP संसद द्वारा समर्थित होने के बिना, कानूनन इस वैधानिक ढांचे का स्थान नहीं ले सकती।
3. समान संरक्षण (अनुच्छेद 14): मानवाधिकार समूहों को आशंका है कि बंगाली भाषी मुसलमानों को चुनिंदा रूप से निशाना बनाना, शत्रुतापूर्ण भेदभाव के समान हो सकता है। भले ही मानक प्रक्रिया (SOP) ऊपरी तौर पर तटस्थ हो, फिर भी इसका कार्यान्वयन मनमानी के खिलाफ अनुच्छेद 14 की गारंटी का उल्लंघन कर सकता है।
4. न्यायिक समीक्षा: एसओपी को संवैधानिक चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। अदालतों को यह विचार करना होगा कि क्या आपातकालीन उपाय के रूप में तैयार किए गए 1950 के अधिनियम को इस तरह से पुनर्जीवित किया जा सकता है जिससे दशकों से तैयार किए गए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय कमजोर पड़ जाए।
सरकार का तर्क
राज्य सरकार का तर्क है कि यह कदम सर्वोच्च न्यायालय के 2024 के निर्देशों के अनुरूप है, जिसमें धारा 6A के साथ 1950 के अधिनियम को लागू करने का निर्देश दिया गया था। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, एफटी के समक्ष 82,000 से अधिक मामले लंबित होने के कारण, सरकार का कहना है कि अवैध इमिग्रेशन को रोकने के लिए त्वरित प्रशासनिक कार्रवाई आवश्यक है।
सरमा ने यह भी दावा किया है कि असम ने पहले ही 30,000 से अधिक अवैध प्रवासियों को “वापस बाहर कर दिया है” और एसओपी केवल जमीनी स्तर पर चल रही कार्यप्रणाली को संहिताबद्ध करता है। ये रिपोर्ट असम ट्रिब्यून ने प्रकाशित किया।
निष्कर्ष
1950 के अधिनियम के तहत असम सरकार का SOP एक नौकरशाही व्यवस्था से कहीं अधिक है - यह विवादित नागरिकता के मामले में भारत के दृष्टिकोण में एक क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक है। निर्णय लेने की प्रक्रिया को अर्ध-न्यायिक निकायों से कार्यकारी अधिकारियों के हाथों में स्थानांतरित करके, यह उचित प्रक्रिया, शक्तियों के पृथक्करण और मौलिक अधिकारों के बारे में गहरी संवैधानिक चिंताओं को जन्म देता है।
आगे कानूनी परीक्षण यह होगा कि क्या अदालतें इस ढांचे को सर्वोच्च न्यायालय के 2024 के फैसले के वैध इस्तेमाल के रूप में बरकरार रखती हैं, या इसे संविधान की स्वतंत्रता और न्याय की गारंटी के साथ असंगत कार्यकारी अतिक्रमण के रूप में खारिज कर देती हैं।
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मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इस फैसले की घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम नागरिक प्रशासन को अधिक सशक्त बनाएगा और "काफी हद तक विदेशी न्यायाधिकरणों (Foreigners’ Tribunals) की भूमिका को निष्प्रभावी कर देगा।"
SOP में क्या प्रावधान है:
1. नोटिस और प्रमाण: जब पुलिस या सीमा सुरक्षा एजेंसियों से किसी संदिग्ध व्यक्ति के बारे में जानकारी मिलती है, तो ज़िलाधिकारी (DC) उस व्यक्ति को नोटिस जारी करते हैं। इस नोटिस के तहत व्यक्ति को 10 दिन का समय दिया जाता है, ताकि वह अपनी भारतीय नागरिकता के प्रमाण (दस्तावेज) पेश कर सके।
2. जिलाधिकारी का निर्णय: अगर दिए गए दस्तावेज संतोषजनक नहीं पाए जाते हैं तो DC असम निर्वासन अधिनियम, 1950 की धारा 2(ए) के तहत लिखित निष्कासन आदेश जारी करते हैं।
इसके बाद उस व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर, DC द्वारा निर्धारित मार्ग का इस्तेमाल करते हुए राज्य छोड़ना होता है।
3. घोषित विदेशी: जिन मामलों में किसी व्यक्ति को पहले ही विदेशी न्यायाधिकरण (Foreigners’ Tribunal) द्वारा विदेशी घोषित किया जा चुका है, वहां ज़िलाधिकारी (DC) सीधे निष्कासन आदेश जारी करेंगे। ऐसे मामलों में दोबारा जांच-पड़ताल की आवश्यकता नहीं होगी।
4. पुलिस की भूमिका: किसी भी व्यक्ति को राज्य से बाहर करने से पहले, सीनियर सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस (SSP) उस व्यक्ति के बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय विवरण Foreigners Identification Portal पर दर्ज करते हैं।
5. हिरासत और सीमा पार वापस भेजना: यदि कोई व्यक्ति ज़िलाधिकारी के निष्कासन आदेश के बावजूद राज्य छोड़ने से इनकार करता है, तो उसे होल्डिंग सेंटर (Holding Centre) में भेजा जा सकता है या सीमा सुरक्षा बल (BSF) के हवाले किया जा सकता है। इसके अलावा, जो व्यक्ति सीमा के जीरो लाइन के पास या प्रवेश के 12 घंटे के भीतर पकड़े जाते हैं, उन्हें तुरंत पुशबैक (सीमा पार वापस भेजने) की प्रक्रिया के तहत लौटाया जाएगा।
प्रेस वार्ता के दौरान मुख्यमंत्री सरमा ने क्या कहा?
9 सितंबर, 2025 को असम मंत्रिमंडल ने अप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950 के कार्यान्वयन के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तैयार करने को मंज़ूरी दी।
देर रात एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए, मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने बताया कि नए मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) के तहत:
● यदि किसी जिला आयुक्त (DC) को पुलिस या किसी अन्य स्रोत से यह जानकारी मिलती है कि किसी व्यक्ति के अवैध प्रवासी होने का संदेह है, तो DC उस व्यक्ति को 10 दिनों के भीतर भारतीय नागरिकता का प्रमाण प्रस्तुत करने का निर्देश देते हुए एक नोटिस जारी करेगा।
● व्यक्ति की सुनवाई के बाद, यदि डीसी इस निष्कर्ष पर पहुxचता है कि वह व्यक्ति विदेशी है, तो तत्काल निष्कासन आदेश ("पुश-बैक") जारी किया जाएगा।
● यदि डीसी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है, तो मामले को निर्णय के लिए विदेशी न्यायाधिकरण (एफटी) को भेज दिया जाएगा।
सरमा ने जोर देकर कहा कि असम समझौते के अनुसार, अंतिम तिथि 25 मार्च, 1971 ही रहेगी। इस प्रकार, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति को नई प्रक्रिया के तहत डीसी के समक्ष लाया जा सकता है। विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष लंबित मामले जारी रहेंगे, लेकिन जो नए मामले अभी तक किसी विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष नहीं हैं, उन्हें अब सीधे डीसी के समक्ष लाया जा सकता है।
मुख्यमंत्री ने इसे एक "ऐतिहासिक निर्णय" बताते हुए तर्क दिया कि 1950 के अधिनियम को इस तरह से कभी सक्रिय रूप से लागू नहीं किया गया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने "स्पष्ट रूप से संकेत" दिया है कि असम विदेशियों का पता लगाने और उन्हें निर्वासित करने के लिए इसका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र है। उन्होंने दावा किया कि मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) सरकार को कानून की "संपूर्ण भावना" के अनुसार काम करने की अनुमति देगी, जिससे राज्य के लिए विदेशी पाए गए लोगों को निष्कासित करना आसान हो जाएगा।
इससे पहले, 21 अगस्त, 2025 को, असम मंत्रिमंडल ने यह भी कहा था कि राज्य वयस्कों को आधार कार्ड जारी करना बंद कर देगा जिससे दस्तावेजीकरण व्यवस्था और सख्त हो जाएगी।
ऐतिहासिक और कानूनी पृष्ठभूमि
आप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950, विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से हुए प्रवास के बाद केंद्र सरकार द्वारा पारित किया गया था। इसने सरकार को किसी भी गैर-भारतीय को जिसका प्रवास "जनहित" या असम में अनुसूचित जनजातियों के हितों के लिए हानिकारक माना जाता हो, निष्कासित करने का आदेश देने का अधिकार दिया।
लेकिन एक महीने के भीतर ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई को लियाकत-नेहरू समझौते (अप्रैल 1950) के बाद, जिसका उद्देश्य सीमा के दोनों ओर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करना था, इसका इस्तेमाल बंद करने का निर्देश दिया। इसके बाद यह अधिनियम बंद हो गया। हालांकि, 1950 का यह अधिनियम और इसका इस्तेमाल हाल ही में सामने आया है, क्योंकि इसका इस्तेमाल लोगों को हिरासत में लेने और "बाहर करने" के लिए किया जा रहा है।
एसओपी मूलभूत प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देता है
गुवाहाटी उच्च न्यायालय के अधिवक्ता और सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) के वकील मृण्मय दत्ता ने कहा कि नई एसओपी नागरिकता निर्धारण की पूरी प्रक्रिया को अर्ध-न्यायिक विदेशी न्यायाधिकरणों से हटाकर उपायुक्त (डीसी) के कार्यकारी प्राधिकार में स्थानांतरित करने का एक स्पष्ट प्रयास है।
उन्होंने बताया कि भारत के नागरिकता अधिनियम में यह स्पष्ट रूप से जिक्र नहीं है कि नागरिकता साबित करने के लिए कौन से दस्तावेज आवश्यक हैं, खासकर भारत में जन्मे लोगों के लिए। उन्होंने कहा, "ऐसा कोई निश्चित कानूनी ढांचा नहीं है जो यह बताए कि जन्म से नागरिकता का प्रमाण कैसा होना चाहिए। इससे एसओपी के क्रियान्वयन में गहरी अनिश्चितता पैदा होती है।"
दत्ता ने जोर देकर कहा कि इस सिद्धांत पर कोई बहस नहीं है कि 25 मार्च, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले विदेशियों को असम समझौते के अनुसार बाहर रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "असली सवाल यह है कि विदेशी कौन है, और उनकी पहचान कैसे होगी? पहले यह भूमिका विदेशी न्यायाधिकरणों को सौंपी जाती थी, लेकिन अब एसओपी स्पष्ट कानूनी सुरक्षा उपायों के बिना यह काम डीसी को सौंप देता है।"
उन्होंने आगे बताया कि एसओपी यह स्पष्ट नहीं करता कि यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के साथ कैसे जुड़ता है। एनआरसी नियमों के तहत, अंतिम एनआरसी सूची से बाहर किए गए व्यक्तियों को अस्वीकृति पर्चियां मिलनी थीं, जिससे वे अपील कर सकें। उन्होंने कहा, "वे अस्वीकृति पर्चियां अभी तक जारी नहीं की गई हैं। अब, यदि कोई डीसी नोटिस जारी करता है, तो यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रक्रिया एनआरसी से जुड़ी होगी या उससे पूरी तरह स्वतंत्र होगी। क्या एसओपी एनआरसी अपील प्रावधानों को दरकिनार कर सकता है या विदेशी न्यायाधिकरण के ढांचे को दरकिनार कर सकता है? ये मूलभूत अनुत्तरित प्रश्न हैं।"
दत्ता ने कहा कि एक और बड़ी चिंता अपील व्यवस्था का अभाव है। उन्होंने कहा, "अगर किसी को नोटिस देर से मिलता है या वह दस दिनों के भीतर दस्तावेज पेश नहीं कर पाता है, तो एसओपी में कोई वैधानिक अपील का प्रावधान नहीं है। एकमात्र उपाय रिट अधिकार क्षेत्र के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना है। इससे व्यक्तियों, खासकर गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर भारी बोझ पड़ता है।"
उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि न्यायिक जांच और निगरानी अपरिहार्य है, क्योंकि अपने वर्तमान स्वरूप में एसओपी में स्पष्ट नियमों, पर्याप्त समय या सार्थक उपायों के बिना मनमाने निष्कासन का जोखिम है।
गंभीर चिंताएं
1. न्यायिक न्यायाधिकरणों की अनदेखी
परंपरागत रूप से, असम में नागरिकता और विदेशी स्थिति के मामलों का निपटारा विदेशी न्यायाधिकरणों (एफटी) द्वारा किया जाता है, जो विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964 के तहत गठित अर्ध-न्यायिक निकाय हैं। नई मानक प्रक्रिया (एसओपी) इस शक्ति को कार्यकारी अधिकारियों (डीसी) के हाथों में सौंपती है, जिससे पक्षपात, उचित प्रक्रिया का अभाव और मनमाने ढंग से निर्णय लेने की चिंताएं बढ़ जाती हैं।
हालांकि सरमा इस बात पर जोर देते हैं कि केवल "भ्रामक मामले" ही एफटी में जाएंगे, लेकिन यह मूल व्यवस्था को उलट देता है यानी न्यायिक निर्णय से प्रशासनिक आदेश की तरफ मोड़ देता है। कई लोग तर्क देते हैं कि इससे नागरिकता संबंधी निर्णय पूरी तरह से नौकरशाही प्रक्रिया में बदल जाने का खतरा है।
2. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन
एसओपी किसी संदिग्ध व्यक्ति को नागरिकता साबित करने के लिए केवल 10 दिन का समय देता है। असम में मौजूद स्पष्ट रूप से दर्ज परेशानियों-कमजोर दस्तावेज, निरक्षरता, बाढ़ के कारण विस्थापन और भाषा संबंधी बाधाओं-को देखते हुए यह अवधि अवास्तविक रूप से कम हो सकती है। कानूनी विद्वान आगाह करते हैं कि यह अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत निष्पक्ष सुनवाई और उचित अवसर की संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहता है।
3. शक्तियों का पृथक्करण और संवैधानिक अधिदेश
जिला न्यायाधिकरणों को विदेशी न्यायाधिकरणों की अवहेलना करने की अनुमति देकर, मानक प्रक्रिया (एसओपी) संभवतः विदेशी न्यायाधिकरणों की वैधानिक भूमिका को कमजोर करती है, जिनकी स्थापना यह सुनिश्चित करने के लिए की गई थी कि जटिल नागरिकता संबंधी प्रश्नों को कार्यपालिका के विवेक पर न छोड़ा जाए। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत - जहां अधिकारों का निर्धारण न्यायिक या अर्ध-न्यायिक निकायों के लिए आरक्षित है - खतरे में है।
4. मनमाने निष्कासन और राज्यविहीनता का जोखिम
एसओपी बिना किसी प्रक्रिया के 12 घंटे के भीतर सीमा पर तत्काल बाहर करने की भी अनुमति देती है। इससे सामूहिक निष्कासन हो सकता है जो संविधान के अनुच्छेद 21 और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्वों, जिसमें प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत गैर-वापसी का सिद्धांत भी शामिल है, का उल्लंघन है।
संवैधानिक और कानूनी प्रश्न
1. क्या मानक संचालन प्रक्रिया अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है? सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार (जैसे, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)) यह माना है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होनी चाहिए। नागरिकता साबित करने के लिए दस दिन की समय सीमा इस सीमा को पूरा नहीं कर सकती।
2. क्या SOP वैधानिक व्यवस्थाओं को दरकिनार कर सकती है? विदेशी अधिनियम, 1946 और विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964 स्पष्ट रूप से नागरिकता विवादों के निपटारे का कार्य विदेशी न्यायाधिकरणों (FT) को सौंपते हैं। SOP संसद द्वारा समर्थित होने के बिना, कानूनन इस वैधानिक ढांचे का स्थान नहीं ले सकती।
3. समान संरक्षण (अनुच्छेद 14): मानवाधिकार समूहों को आशंका है कि बंगाली भाषी मुसलमानों को चुनिंदा रूप से निशाना बनाना, शत्रुतापूर्ण भेदभाव के समान हो सकता है। भले ही मानक प्रक्रिया (SOP) ऊपरी तौर पर तटस्थ हो, फिर भी इसका कार्यान्वयन मनमानी के खिलाफ अनुच्छेद 14 की गारंटी का उल्लंघन कर सकता है।
4. न्यायिक समीक्षा: एसओपी को संवैधानिक चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। अदालतों को यह विचार करना होगा कि क्या आपातकालीन उपाय के रूप में तैयार किए गए 1950 के अधिनियम को इस तरह से पुनर्जीवित किया जा सकता है जिससे दशकों से तैयार किए गए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय कमजोर पड़ जाए।
सरकार का तर्क
राज्य सरकार का तर्क है कि यह कदम सर्वोच्च न्यायालय के 2024 के निर्देशों के अनुरूप है, जिसमें धारा 6A के साथ 1950 के अधिनियम को लागू करने का निर्देश दिया गया था। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, एफटी के समक्ष 82,000 से अधिक मामले लंबित होने के कारण, सरकार का कहना है कि अवैध इमिग्रेशन को रोकने के लिए त्वरित प्रशासनिक कार्रवाई आवश्यक है।
सरमा ने यह भी दावा किया है कि असम ने पहले ही 30,000 से अधिक अवैध प्रवासियों को “वापस बाहर कर दिया है” और एसओपी केवल जमीनी स्तर पर चल रही कार्यप्रणाली को संहिताबद्ध करता है। ये रिपोर्ट असम ट्रिब्यून ने प्रकाशित किया।
निष्कर्ष
1950 के अधिनियम के तहत असम सरकार का SOP एक नौकरशाही व्यवस्था से कहीं अधिक है - यह विवादित नागरिकता के मामले में भारत के दृष्टिकोण में एक क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक है। निर्णय लेने की प्रक्रिया को अर्ध-न्यायिक निकायों से कार्यकारी अधिकारियों के हाथों में स्थानांतरित करके, यह उचित प्रक्रिया, शक्तियों के पृथक्करण और मौलिक अधिकारों के बारे में गहरी संवैधानिक चिंताओं को जन्म देता है।
आगे कानूनी परीक्षण यह होगा कि क्या अदालतें इस ढांचे को सर्वोच्च न्यायालय के 2024 के फैसले के वैध इस्तेमाल के रूप में बरकरार रखती हैं, या इसे संविधान की स्वतंत्रता और न्याय की गारंटी के साथ असंगत कार्यकारी अतिक्रमण के रूप में खारिज कर देती हैं।
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