इस आंदोलन में कैथोलिक समुदाय के लोगों की भी उल्लेखनीय भागीदारी रही। प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांगों में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा, दैनिक मज़दूरी में वृद्धि और जमीन पर मालिकाना अधिकार शामिल हैं।

असम के डिब्रूगढ़ में 13 अक्टूबर को चाय बागानों में कार्यरत हजारों श्रमिकों ने अपनी विभिन्न मांगों को लेकर भारी विरोध प्रदर्शन किया। इस आंदोलन में कैथोलिक समुदाय के लोगों की भी उल्लेखनीय भागीदारी रही। प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांगों में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा, दैनिक मज़दूरी में वृद्धि और जमीन पर मालिकाना अधिकार शामिल हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, डिब्रूगढ़ शहर में आयोजित इस विशाल प्रदर्शन का आयोजन असम चाय मजदूर संघ (ACMS), असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) और अन्य कई संगठनों के संयुक्त प्रयास से किया गया। प्रदर्शनकारियों ने असम में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर चुनावी वादों को पूरा न करने का आरोप लगाते हुए उसकी तीखी आलोचना की। श्रमिक नेताओं ने यह भी स्पष्ट किया कि इस विरोध प्रदर्शन की समय-सीमा को आगामी वर्ष की शुरुआत में होने वाले राज्य चुनावों को ध्यान में रखकर रणनीतिक रूप से तय किया गया है।
प्रमुख मांगें
प्रदर्शन में शामिल एक कार्यकर्ता, जॉन मिंज ने बताया कि उनकी सबसे महत्वपूर्ण मांग चाय बागान समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) की संघीय सूची में शामिल किया जाना है। ऐसा होने पर समुदाय के लोगों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के साथ-साथ भारत की सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) नीतियों के तहत विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा।
वर्तमान में श्रमिकों को प्रतिदिन केवल 250 रुपये की मज़दूरी दी जाती है, जिसे जॉन मिंज ने स्पष्ट रूप से अपर्याप्त बताया। उनकी मांग है कि इसे बढ़ाकर कम से कम 550 रुपये प्रतिदिन किया जाए। इसके अलावा, इस ईसाई आदिवासी नेता ने इस पर भी गहरी चिंता व्यक्त की कि कई परिवार, जो पीढ़ियों से चाय बागानों की छोटी-छोटी ज़मीनों पर बसे हुए हैं, अब तक अपनी भूमि का कानूनी स्वामित्व प्राप्त नहीं कर पाए हैं। मिंज ने जोर देकर कहा, “हम चाय जनजाति के परिवारों को तुरंत भूमि के पट्टे दिए जाने की भी मांग कर रहे हैं।”
श्रमिकों की दयनीय स्थिति
गुवाहाटी के आर्कबिशप जॉन मूलाचिरा ने भी चाय बागान श्रमिकों की मांगों का समर्थन करते हुए उनके संघर्ष के प्रति एकजुटता जताई है। 14 अक्टूबर को दिए गए एक बयान में उन्होंने कहा, “चाय जनजाति के लोग इस देश के नागरिक हैं और समान अधिकारों के पूर्ण हकदार हैं।”
पूर्वोत्तर भारत क्षेत्रीय बिशप परिषद के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने चाय श्रमिकों और उनके परिवारों की जीवन स्थितियों को “गंभीर चिंता का विषय” बताया और उनके कल्याण के लिए त्वरित कदम उठाने की अपील की।
उन्होंने कहा, “इन परिवारों के पास न तो रहने के लिए उचित घर हैं, न बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। उनकी आय या भोजन को लेकर भी कोई गारंटी नहीं है।” आर्कबिशप ने यह भी स्पष्ट किया कि कैथोलिक चर्च इन मांगों का पूर्ण समर्थन करता है और चाय जनजाति समुदाय के साथ पूरी एकजुटता से खड़ा है।
असम क्रिश्चियन फोरम के प्रवक्ता एलन ब्रूक्स ने असम सरकार पर चाय बागान श्रमिकों की लगातार उपेक्षा करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, “अगर चाय जनजातियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता मिलती है, तो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में निश्चित सुधार होगा।”
आंदोलन की चेतावनी
ACMS की डिब्रूगढ़ इकाई के सचिव, नबीन चंद्र केओत ने मीडिया से स्पष्ट किया कि उनकी तीन मुख्य मांगें ‘गैर-परक्राम्य’ हैं, यानी इन पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। उन्होंने चेतावनी दी कि 2026 के राज्य चुनावों से पहले असम सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए जल्द ही राज्य के सभी जिलों में इसी तरह के विरोध प्रदर्शन किए जाएंगे।
असम के चाय बागानों में काम करने वाले लगभग 60 लाख लोग राज्य की कुल 3.1 करोड़ आबादी का करीब 17 प्रतिशत हैं। ये श्रमिक मुख्यतः उन बंधुआ मजदूरों के वंशज हैं, जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत के विभिन्न हिस्सों से यहां लाया गया था। असम विश्व का सबसे बड़ा चाय उत्पादक क्षेत्र है, जहां प्रति वर्ष औसतन 80 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है।
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असम के डिब्रूगढ़ में 13 अक्टूबर को चाय बागानों में कार्यरत हजारों श्रमिकों ने अपनी विभिन्न मांगों को लेकर भारी विरोध प्रदर्शन किया। इस आंदोलन में कैथोलिक समुदाय के लोगों की भी उल्लेखनीय भागीदारी रही। प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांगों में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा, दैनिक मज़दूरी में वृद्धि और जमीन पर मालिकाना अधिकार शामिल हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, डिब्रूगढ़ शहर में आयोजित इस विशाल प्रदर्शन का आयोजन असम चाय मजदूर संघ (ACMS), असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) और अन्य कई संगठनों के संयुक्त प्रयास से किया गया। प्रदर्शनकारियों ने असम में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर चुनावी वादों को पूरा न करने का आरोप लगाते हुए उसकी तीखी आलोचना की। श्रमिक नेताओं ने यह भी स्पष्ट किया कि इस विरोध प्रदर्शन की समय-सीमा को आगामी वर्ष की शुरुआत में होने वाले राज्य चुनावों को ध्यान में रखकर रणनीतिक रूप से तय किया गया है।
प्रमुख मांगें
प्रदर्शन में शामिल एक कार्यकर्ता, जॉन मिंज ने बताया कि उनकी सबसे महत्वपूर्ण मांग चाय बागान समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) की संघीय सूची में शामिल किया जाना है। ऐसा होने पर समुदाय के लोगों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के साथ-साथ भारत की सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) नीतियों के तहत विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा।
वर्तमान में श्रमिकों को प्रतिदिन केवल 250 रुपये की मज़दूरी दी जाती है, जिसे जॉन मिंज ने स्पष्ट रूप से अपर्याप्त बताया। उनकी मांग है कि इसे बढ़ाकर कम से कम 550 रुपये प्रतिदिन किया जाए। इसके अलावा, इस ईसाई आदिवासी नेता ने इस पर भी गहरी चिंता व्यक्त की कि कई परिवार, जो पीढ़ियों से चाय बागानों की छोटी-छोटी ज़मीनों पर बसे हुए हैं, अब तक अपनी भूमि का कानूनी स्वामित्व प्राप्त नहीं कर पाए हैं। मिंज ने जोर देकर कहा, “हम चाय जनजाति के परिवारों को तुरंत भूमि के पट्टे दिए जाने की भी मांग कर रहे हैं।”
श्रमिकों की दयनीय स्थिति
गुवाहाटी के आर्कबिशप जॉन मूलाचिरा ने भी चाय बागान श्रमिकों की मांगों का समर्थन करते हुए उनके संघर्ष के प्रति एकजुटता जताई है। 14 अक्टूबर को दिए गए एक बयान में उन्होंने कहा, “चाय जनजाति के लोग इस देश के नागरिक हैं और समान अधिकारों के पूर्ण हकदार हैं।”
पूर्वोत्तर भारत क्षेत्रीय बिशप परिषद के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने चाय श्रमिकों और उनके परिवारों की जीवन स्थितियों को “गंभीर चिंता का विषय” बताया और उनके कल्याण के लिए त्वरित कदम उठाने की अपील की।
उन्होंने कहा, “इन परिवारों के पास न तो रहने के लिए उचित घर हैं, न बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। उनकी आय या भोजन को लेकर भी कोई गारंटी नहीं है।” आर्कबिशप ने यह भी स्पष्ट किया कि कैथोलिक चर्च इन मांगों का पूर्ण समर्थन करता है और चाय जनजाति समुदाय के साथ पूरी एकजुटता से खड़ा है।
असम क्रिश्चियन फोरम के प्रवक्ता एलन ब्रूक्स ने असम सरकार पर चाय बागान श्रमिकों की लगातार उपेक्षा करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, “अगर चाय जनजातियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता मिलती है, तो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में निश्चित सुधार होगा।”
आंदोलन की चेतावनी
ACMS की डिब्रूगढ़ इकाई के सचिव, नबीन चंद्र केओत ने मीडिया से स्पष्ट किया कि उनकी तीन मुख्य मांगें ‘गैर-परक्राम्य’ हैं, यानी इन पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। उन्होंने चेतावनी दी कि 2026 के राज्य चुनावों से पहले असम सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए जल्द ही राज्य के सभी जिलों में इसी तरह के विरोध प्रदर्शन किए जाएंगे।
असम के चाय बागानों में काम करने वाले लगभग 60 लाख लोग राज्य की कुल 3.1 करोड़ आबादी का करीब 17 प्रतिशत हैं। ये श्रमिक मुख्यतः उन बंधुआ मजदूरों के वंशज हैं, जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत के विभिन्न हिस्सों से यहां लाया गया था। असम विश्व का सबसे बड़ा चाय उत्पादक क्षेत्र है, जहां प्रति वर्ष औसतन 80 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है।
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