मणिपुर की बिखरी स्थिति और बंटे हुए लोग: PUCL ने स्वतंत्र जांच समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक की

Written by sabrang india | Published on: August 21, 2025
मणिपुर में सिस्टम की विफलता, जातीय हिंसा और न्याय व सुलह की तत्काल आवश्यकता पर कड़ी निंदा करने वाला विवरण (2023-2025)



पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) द्वारा आयोजित इंडिपेंडेंट पीपल्स ट्राइब्यूनल (IPT) ने 3 मई 2023 को मणिपुर में हिंसा भड़कने के बाद वहां की संवैधानिक शासन व्यवस्था के पतन का निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत किया है। दो वर्षों से अधिक की अवधि में ट्राइब्यूनल ने जनसंहार, लक्षित हत्याओं, घरों और चर्चों को नुकसान पहुंचाने की घटनाओं, यौन हिंसा, जातीय सफाया और जबरन अलगाव जैसे गंभीर अपराधों के प्रमाण संकलित किए हैं। लगभग 50,000 से 60,000 लोग अब भी विस्थापित हैं और 350 से अधिक राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। 2024 के अंत तक लगभग 260 मौतों की पुष्टि हुई थी। ट्राइब्यूनल ने इस त्रासदी के लिए मणिपुर राज्य की प्रणालीगत विफलताओं, उसकी संस्थाओं की पक्षपातपूर्ण भूमिका और सशस्त्र गैर-राज्य कारकों की बेखौफ गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया है।

इस पूरे संकट की शुरुआत सरकारी हथियारों की लूट और अरंबाई तेंगगोल व मैतेई लिपुन जैसे मिलिशिया गुटों को मजबूत किए जाने से हुई। छोटे-मोटे विरोध धीरे-धीरे बड़े और हिंसक संघर्ष में बदल गए। ट्राइब्यूनल ने बताया कि मैदानी इलाकों (जहां मैतेई समुदाय है) और पहाड़ी इलाकों (जहां जनजातीय समुदाय रहते हैं) के राहत शिविरों में भारी अंतर था, जिससे गुस्सा और नाराज़गी लगातार बढ़ती गई। रिपोर्ट में यह भी दर्ज किया गया कि मीडिया को डराया गया, सूचनाओं में हेरफेर किया गया और इंटरनेट लंबे समय तक बंद रखा गया, जिससे आम लोग सही जानकारी से वंचित रहे और जवाबदेही की मांग करना कठिन हो गया। यौन हिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया, लेकिन पीड़ितों को आज भी न्याय पाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

IPT ने तुरंत सुधारात्मक कदम उठाने की सिफारिश की है। इसके अनुसार, अपराधों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक विशेष जांच टीम (SIT) गठित की जानी चाहिए। हथियारों की लूट की पारदर्शी जांच होनी चाहिए और गीता मित्तल समिति व जस्टिस अजय लांबा आयोग की सभी रिपोर्टें सार्वजनिक की जानी चाहिए। रिपोर्ट में पीड़ित-केंद्रित न्याय व्यवस्था, समान राहत व पुनर्वास, स्वास्थ्यकर्मियों की बहाली, मिलिशियाओं का निरस्त्रीकरण, संवाद, मुआवजा और सत्य पर आधारित शांति-स्थापना तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। यह रिपोर्ट राज्य की मिलीभगत और विफलता की निंदा करती है और मणिपुर में संवैधानिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का रास्ता सुझाती है।

ट्राइब्यूनल की पृष्ठभूमि और कार्यक्षेत्र

मणिपुर में हिंसा की व्यापकता और इसके लगातार जारी रहने से चिंतित होकर पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) ने मार्च 2024 में इंडिपेंडेंट पीपल्स ट्राइब्यूनल का गठन किया। यह ट्राइब्यूनल आधिकारिक जांच आयोगों की सीमाओं के जवाब में जवाबदेही का एक जन मंच के रूप में गठित किया गया था। इसका कार्यक्षेत्र व्यापक था: अधिकारों के उल्लंघनों का दस्तावेज तैयार करना, राज्य और गैर-राज्य तत्वों की भूमिका की जांच करना, प्रणालीगत विफलताओं की पहचान करना और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप सुधारात्मक उपाय प्रस्तावित करना।

इस ज्यूरी में भारत के कुछ सबसे सम्मानित न्यायविद् और प्रशासक शामिल थे: न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ (सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश), न्यायमूर्ति के. कानन (पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश) और न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश (पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश)। इनके साथ वरिष्ठ नौकरशाह, शिक्षाविद्, एक्टिविस्ट और सार्वजनिक स्वास्थ्य, लिंग अध्ययन, कानून तथा संघर्ष समाधान के विशेषज्ञ भी थे। इस बहु-विषयक संरचना ने सुनिश्चित किया कि ट्राइब्यूनल के निष्कर्ष कानूनी जांच, सामाजिक विश्लेषण और मानवीय दृष्टिकोण का संतुलन हों।

ट्राइब्यूनल का अधिकार न केवल कानूनी शक्तियों पर आधारित था, बल्कि उसकी नैतिक वैधता, स्वतंत्रता और पीड़ितों के अनुभवों को केंद्र में रखने की क्षमता पर टिका था। इसका उद्देश्य उन आवाजों को सुनना था जिन्हें आधिकारिक बयानों में नजरअंदाज किया गया था, खासकर विस्थापित समुदायों, हिंसा की शिकार महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की आवाज़ों को सामने लाना।

कार्यप्रणाली

ट्राइब्यूनल ने व्यापक दस्तावेज तैयार करने की प्रक्रिया अपनाई। मई से जून 2024 के बीच, ज्यूरी के सदस्य और विशेषज्ञ लगभग दो सप्ताह मणिपुर में रहे, जहां उन्होंने प्रभावित जिलों, राहत शिविरों और संघर्षग्रस्त गांवों का दौरा किया। उन्होंने विभिन्न समुदायों—मैतेई, कुकि-जो, नागा और पांगल—के पीड़ितों से मुलाकात की, साथ ही सेवा प्रदाताओं, वकीलों, डॉक्टरों, पत्रकारों, सरकारी अधिकारियों और सुरक्षा कर्मियों से भी बातचीत की।

इसके बाद ट्राइब्यूनल ने दिल्ली में फॉलो-अप बैठकें कीं और सितंबर 2024 तक वर्चुअल सुनवाईयां आयोजित कीं। इस दौरान उन्होंने पीड़ितों, नागरिक समाज संगठनों और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों द्वारा प्रस्तुत सैकड़ों पन्नों के हलफनामे, तस्वीरें, वीडियो साक्ष्य और दस्तावेजों की समीक्षा की। इस प्रक्रिया की खासियत यह थी कि गवाहियों को दस्तावेजी साक्ष्यों और क्षेत्रीय निरीक्षणों के साथ सावधानीपूर्वक मिलाकर जांचा गया।

हालांकि, ट्राइब्यूनल को गहरी कट्टरता, अविश्वास और धमकियों जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ा। कई पीड़ित बदले की आशंका से खुलकर बोलने में हिचकिचाए। पत्रकारों को डराया-धमकाया गया और सुरक्षा प्रतिबंधों के कारण कुछ जिलों में पहुंच भी सीमित रही। इन चुनौतियों के बावजूद, ट्राइब्यूनल के निष्कर्ष मजबूत साक्ष्यों पर आधारित हैं, जो उनकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं।

ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ

मणिपुर जातीय रूप से विविध राज्य है, जहां लंबे समय से ऐतिहासिक विवाद चले आ रहे हैं। मैतेई समुदाय राज्य की लगभग 53% जनसंख्या का हिस्सा है और मुख्य रूप से घाटी क्षेत्रों में रहता है। कुकि, जो, और नागा समुदाय प्रमुख रूप से पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, जिनमें नागा लगभग 24% और कुकि व जो मिलाकर लगभग 16% हैं। हालांकि नागा समुदाय सीधे इस संघर्ष में शामिल नहीं था, लेकिन वे भी इसके दुष्प्रभावों से प्रभावित हुए।

हिंसा की तात्कालिक वजह 27 मार्च 2023 को मणिपुर उच्च न्यायालय का आदेश था, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) दर्जा देने की सिफारिश करने का निर्देश दिया गया था। जनजातीय समूहों ने इसे अपनी जमीन और संसाधनों पर सीधा खतरा माना, क्योंकि ST दर्जा मिलने पर मैतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन खरीदने का अधिकार मिल जाता। इसके विरोध में 3 मई 2023 को जनजातीय संगठनों ने "एकता मार्च" आयोजित किया। यह मार्च शुरू में शांतिपूर्ण था, लेकिन अफवाहों और योजनाबद्ध उकसावे के चलते यह व्यापक हिंसा में बदल गया।

ट्राइब्यूनल का कहना है कि यह संघर्ष कोई आकस्मिक सांप्रदायिक झड़प नहीं था, बल्कि यह तीन विशेष कारणों से गहराया और संगठित रूप ले लिया:
    1. राज्य तंत्र का राजनीतिकरण, जिससे सरकार निष्पक्ष कार्रवाई करने में विफल रही।
    2. अरंबाई तेंगगोल और मैतेई लिपुन जैसी मिलिशियाओं का उभार, जिन्होंने लक्षित हिंसक अभियान चलाए।
    3. राज्य के शस्त्रागारों की लूट, जिससे इन गुटों को आधुनिक हथियार मिले।

इन तीनों ने मिलकर अस्थायी झड़पों को संगठित, प्रणालीगत हिंसा और जातीय सफाए में बदल दिया।

हिंसा के पैटर्न

ट्राइब्यूनल को कई ऐसे प्रमाण मिले जो दिखाते हैं कि यह हिंसा अचानक नहीं भड़की, बल्कि इसे पूर्व-नियोजित और संगठित तरीके से अंजाम दिया गया। अरंबाई तेंगगोल और मैतेई लिपुन जैसी मिलिशियाओं ने युवाओं को संगठित किया, लूटे गए हथियारों से लैस किया और हमलों को योजनाबद्ध ढंग से अंजाम दिया। इन गुटों ने अपने ही समुदायों में विरोध की आवाजों को दबाया और धमकी व भय के ज़रिए जातीय एकता थोपने की कोशिश की।

मई 2023 से 2024 के बीच राज्य के शस्त्रागारों पर बार-बार हमले हुए, जिनसे मिलिशियाओं को ऑटोमेटिक राइफलें, मशीन गन और विस्फोटक मिले। इन हथियारों का इस्तेमाल गांवों, चर्चों और आम नागरिकों पर हमलों में हुआ। ट्राइब्यूनल ने विशेष रूप से रेखांकित किया कि बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद शस्त्रागारों पर हमले न रोक पाना, प्रणालीगत मिलीभगत या घोर लापरवाही को दर्शाता है।

धार्मिक उत्पीड़न इस हिंसा की एक प्रमुख पहचान रहा। घाटी क्षेत्रों में 250 से अधिक चर्चों को नष्ट या अपवित्र किया गया। पूजा स्थलों को जलाया गया, पवित्र वस्तुओं का अपमान हुआ और पादरियों व धर्मगुरुओं को धमकियां दी गईं। ट्राइब्यूनल ने इन हमलों को अल्पसंख्यक पहचान मिटाने की संगठित कोशिश बताया।

2024 के अंत तक इस हिंसा से गंभीर जातीय विभाजन हो चुका था। कुकि और जो समुदायों को घाटी से बाहर निकाल दिया गया जबकि मैतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्रों से खदेड़ दिया गया। राज्य वास्तव में जातीय आधार पर बंट चुका था, जहां जिलों के बीच आवाजाही अनौपचारिक जातीय सीमाओं द्वारा नियंत्रित हो गई थी।

मानवीय प्रभाव

इस हिंसा का मानवीय नुकसान विनाशकारी रहा। लगभग 260 लोग मारे गए और 50,000–60,000 लोग विस्थापित हुए। विस्थापित परिवारों को राज्यभर में फैले 350 से अधिक राहत शिविरों में रखा गया। घाटी के शिविर, जिनमें मुख्य रूप से मैतेई लोग थे, अपेक्षाकृत बेहतर सुविधाओं वाले थे, जबकि पहाड़ी जनजातीय शिविर भीड़भाड़ और संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे।

जनजातीय शिविरों में रहने वालों ने असुविधाजनक शेल्टर, खराब स्वच्छता, भोजन की कमी और स्वास्थ्य व शिक्षा तक सीमित पहुंच की शिकायत की। बच्चों की पढ़ाई बाधित रही और महिलाओं पर देखभाल का भारी बोझ पड़ा। कई शिविर, जो अस्थायी बने थे, अब अर्द्ध-स्थायी हो चुके हैं, जिससे विस्थापितों में निराशा गहरी हो गई। ट्राइब्यूनल ने जोर दिया कि पुनर्वास योजना की कमी ने विस्थापन को स्थायी समस्या बना दिया है।

लिंग-आधारित हिंसा

इस संघर्ष में लिंग-आधारित हिंसा युद्ध के हथियार के रूप में उभरी। ट्राइब्यूनल ने विभिन्न समुदायों में दर्जनों यौन हिंसा के मामले दर्ज किए, हालांकि वास्तविक पैमाना इससे कहीं बड़ा हो सकता है। पीड़ितों ने सामूहिक बलात्कार, विस्थापन के दौरान हमलों और धमकी के तौर पर यौन हिंसा का विवरण दिया।

न्यायिक व्यवस्था पीड़ितों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। कई मामलों में FIR दर्ज नहीं हुईं या देर से हुईं, मेडिको-लीगल एग्जामिनेशन से इनकार किया गया और पीड़ितों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ट्राइब्यूनल ने जोर दिया कि जवाबदेही केवल अपराधियों तक सीमित नहीं होनी चाहिए—राज्य के अधिकारी और मिलिशिया नेता भी जिम्मेदार हैं यदि वे हिंसा रोकने में विफल रहे। इसलिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट और पीड़ित-केंद्रित न्याय तंत्र तत्काल जरूरी हैं।

स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य संकट

संघर्ष ने मणिपुर की स्वास्थ्य व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। जातीय भेदभाव के कारण विस्थापित समुदायों के लिए अस्पतालों तक पहुंच कठिन हो गई। जनजातीय पीड़ितों ने बताया कि उन्हें घाटी के अस्पतालों से वापस भेज दिया गया, जबकि मैतेई मरीज पहाड़ी अस्पतालों में नहीं जा सके। इससे इलाज न मिलने के कारण कई टाली जा सकने वाली मौतें हुईं।

मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति भी गंभीर रही। पीड़ितों ने लगातार चिंता, अवसाद और आघात के लक्षण बताए। पत्रकारों व राहतकर्मियों में भी ट्रॉमा के संकेत देखे गए। ट्राइब्यूनल ने सिफारिश की कि स्वास्थ्य सेवाओं का जातीय विभाजन समाप्त कर फिर से एकीकृत किया जाए, ट्रॉमा-आधारित देखभाल शुरू हो और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को शिविरों में शामिल किया जाए।

मीडिया और सूचना की अव्यवस्था

इस संघर्ष को सूचना की अव्यवस्था ने और बढ़ा दिया। स्थानीय मीडिया ने पक्षपाती रुख अपनाया और कुकि-जो समुदायों को “अवैध प्रवासी” बताया। यह दृष्टिकोण खतरनाक और भ्रामक था, क्योंकि भारत में शरणार्थी कानून का अभाव है और सीमा क्षेत्रों की नागरिकता जटिल है।

स्वतंत्र पत्रकारों को धमकाया गया, गिरफ्तार किया गया और बदनाम करने के अभियान चलाए गए। राज्य ने बार-बार इंटरनेट बंद किया, जिससे संचार बाधित हुआ और पत्रकारों के पास संसाधनों की कमी रही। कठोर कानूनों का इस्तेमाल विरोध दबाने में हुआ। ट्राइब्यूनल का निष्कर्ष है कि इन कार्रवाइयों ने जवाबदेही कमजोर की और हिंसा को बढ़ावा दिया।

केस स्टडी: जिरीबाम, नवंबर 2024

जिरीबाम को ट्राइब्यूनल ने संघर्ष का संक्षिप्त रूप बताया। नवंबर 2024 में दो पुरुषों की हत्या, एक महिला शिक्षक का सामूहिक बलात्कार और एक मैतेई परिवार का लापता होना हिंसा की चिंगारी बना। CRPF द्वारा दस कुकि विद्रोहियों की हत्या ने तनाव को और बढ़ाया। इसके बाद बदले की कार्रवाई में खेत और घर जलाए गए, जिससे विस्थापन और खाद्य संकट बढ़ा।

यह मामला दिखाता है कि जब कानून-प्रवर्तन पर भरोसा न हो, तो जवाबी हिंसा का चक्र कैसे चलता है। राज्य की असमर्थता ने अपराधियों को दंडमुक्ति दी।

राज्य और संस्थागत प्रतिक्रिया

ट्राइब्यूनल ने निष्कर्ष निकाला कि मणिपुर राज्य संविधानिक शासन बनाए रखने में विफल रहा। 1,00,000 से अधिक सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद राज्य शस्त्रागारों की लूट रोकने, कमजोर समुदायों की सुरक्षा करने और सामान्य स्थिति बहाल करने में नाकाम रहा। पीड़ित लगातार पुलिस और प्रशासन की निष्पक्षता पर सवाल उठाते रहे।

न्यायमूर्ति अजय लांबा आयोग और गीता मित्तल समिति गठित की गईं, लेकिन उनकी रिपोर्टें आंशिक रूप से ही सार्वजनिक हुईं, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही कमजोर हुई। राज्य ने पुनर्वास और सुलह के लिए कोई ठोस योजना भी घोषित नहीं की।

जोखिम का परिदृश्य

ट्राइब्यूनल दो आपस में जुड़े हुए जोखिमों की चेतावनी देता है। पहला, आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों (IDPs) का शिविरों में लंबे समय तक रहना जातीय अलगाव को स्थायी वास्तविकता बना सकता है। वापसी और पुनर्वास के लिए ठोस योजनाओं के बिना, यह विस्थापन अलगाववादी व्यवस्था (अपार्थाइड जैसी) में बदल सकता है। दूसरा, लूटे हुए हथियारों की उपलब्धता और मिलिशिया का सशक्त होना नए हिंसात्मक घटनाओं की संभावना को बनाए रखता है। बिना हथियार बंदी और जवाबदेही के, मणिपुर एक ऐसे ज्वालामुखी की तरह रहेगा, जो किसी भी नए संघर्ष के लिए संवेदनशील है।

ट्राइब्यूनल की सिफारिशें

ट्राइब्यूनल की सिफारिशें कई क्षेत्रों में की गई हैं। यह अपराधों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक विशेष जांच टीम (SIT) गठित करने की मांग करता है, जिसे गवाह संरक्षण योजनाओं और स्वतंत्र अभियोजन इकाइयों का सहयोग मिलना चाहिए। यह गीता मित्तल समिति और न्यायमूर्ति अजय लांबा आयोग की सभी रिपोर्टों को सार्वजनिक करने का आग्रह करता है। इसके अलावा, यह विशेष रूप से यौन हिंसा से जुड़े मामलों के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की सिफारिश करता है।

राहत के मामले में, ट्राइब्यूनल न्यायिक निगरानी वाली एक विशेष समिति बनाने की मांग करता है, जो शिविरों की जरूरतों का सर्वेक्षण करे, संसाधनों का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करे और समयबद्ध पुनर्वास योजनाएं तैयार करे। यह जातीय सीमाओं के पार स्वास्थ्य सेवाओं के पुनः एकीकरण, मानसिक आघात के इलाज को शामिल करने और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के महत्व पर भी जोर देता है। साथ ही, यह सभी सरकारी भंडारों से लूटे गए हथियारों का ऑडिट, उनकी वापसी और मिलिशियाओं के निरस्त्रीकरण की भी मांग करता है।

शांति स्थापना के लिए, ट्राइब्यूनल महिलाओं, युवाओं और धार्मिक नेताओं को शामिल करने वाले समावेशी संवाद मंचों, सत्याग्रह पहलों, मुआवजा योजनाओं और एक राष्ट्रीय शांति आयोग के गठन की सिफारिश करता है। यह "मणिपुर शांति सूचकांक" (Manipur Peace Index) बनाने का भी प्रस्ताव रखता है ताकि प्रगति की निगरानी की जा सके। मीडिया के क्षेत्र में, यह व्यापक इंटरनेट बंदी को समाप्त करने, पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और नफरत फैलाने वाले भाषण की सक्रिय निगरानी करने की मांग करता है। भूमि और आजीविका से जुड़े विवादों का समाधान निष्पक्ष न्यायाधिकरणों और पारदर्शी विकास नीतियों के माध्यम से किया जाना चाहिए।

कार्यान्वयन समयरेखा

ट्राइब्यूनल ने एक चरणबद्ध रोडमैप प्रस्तुत किया है। 30 दिनों के भीतर, सुप्रीम कोर्ट को एक विशेष जांच टीम (SIT) गठित करनी चाहिए, राज्य को शिविरों का सर्वेक्षण और हथियारों का ऑडिट शुरू करना चाहिए और सभी आयोगों की रिपोर्टें सार्वजनिक करनी चाहिए। 90 दिनों के भीतर, फास्ट-ट्रैक अदालतें अपना काम शुरू करें, महत्वपूर्ण मामलों में अभियोग दायर किए जाएं और स्वास्थ्य सेवाओं के पुनः समावेशन के पायलट प्रोजेक्ट्स शुरू किए जाएं। छह से बारह महीने के भीतर, विस्थापित लोगों की सुरक्षित वापसी शुरू होनी चाहिए, सत्याग्रह मंचों की शुरुआत होनी चाहिए और पहला मणिपुर शांति सूचकांक प्रकाशित होना चाहिए।

निष्कर्ष

इंडिपेंडेंट पीपल्स ट्रिब्यूनल मणिपुर में शासन की विफलता की कड़ी निंदा करता है। यह दस्तावेज दिखाता है कि कैसे राज्य संस्थानों ने दंडमुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा दिया, मिलिशियाओं को पनपने दिया और कमजोर समुदायों को असुरक्षित छोड़ दिया। साथ ही, यह संवैधानिक मूल्यों, संक्रमणकालीन न्याय और वैश्विक संघर्षों के तुलनात्मक अनुभवों पर आधारित पुनर्प्राप्ति का एक रोडमैप भी प्रस्तुत करता है।

यदि सुधारात्मक कदम शीघ्र नहीं उठाए गए तो मणिपुर स्थायी रूप से विभाजित समाज बन सकता है, जहां लोकतंत्र और कानून की जगह अलगाव और हिंसा ले लेंगे। सुधारों को लागू करने की तत्परता को किसी भी हालत में कम करके नहीं आंका जा सकता।

पूरी रिपोर्ट नीचे पढ़ी जा सकती है।

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