क्या भाजपा का महंतों के मठों जैसे हिंदू संस्थानों में सुधार के लिए इसी तरह का विधेयक लाने का कोई इरादा नहीं है?
भाजपा के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए संयुक्त वक़्फ़ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता एवं विकास (यूएमईईडी) विधेयक 2024 को अब आगे की जांच के लिए संसद की संयुक्त समिति यानी जेसीपी को भेज दिया गया है। मसौदा विधेयक की समीक्षा करने और विपक्ष, मीडिया और शिक्षाविदों की प्रतिक्रियाओं को देखने पर, यह साफ हो जाता है कि चर्चा से एक महत्वपूर्ण पहलू गायब है। मुस्लिम संगठनों की प्रतिक्रियाएं पहले जैसे पैटर्न की तरह दिखती हैं: धार्मिक मामलों के रूप में समझे जाने वाले सुधारों को पूरी तरह से खारिज करना, साथ ही इन क्षेत्रों में सुधार के उद्देश्य से किसी भी राज्य के हस्तक्षेप का विरोध करना। मुस्लिम पर्सनल लॉ, मुस्लिम विश्वविद्यालय प्रशासन और वक़्फ़ प्रशासन जैसे मुद्दों पर यह आम रुख रहा है।
इस प्रतिक्रिया के लिए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को सामने लाने के लिए हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।
इस दोषपूर्ण विधेयक का दायरा
प्रस्तावित विधेयक में वक़्फ़ की धार्मिक या ऐतिहासिक वैधता पर विचार करने के बजाय वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और कुप्रबंधन पर चर्चा की गई है। यह वक़्फ़ के अंतर्गत संपत्तियों, उनसे होने वाली आय और वक़्फ़ प्रशासन के भीतर लगातार भ्रष्टाचार के बारे में चिंताओं को दूर करने का प्रयास करता है। हालांकि, कुछ विपक्षी नेता वक़्फ़ विधेयक को उसी तरह से देख रहे हैं, जैसे उन्होंने अन्य धार्मिक मामलों, जैसे कि 1937 के शरीयत अधिनियम और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के प्रशासन के मामले को देखा है।
यह स्पष्ट करना अहम है कि एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट के आने वाले फैसले के बावजूद एएमयू के प्रशासन में संरचनात्मक सुधार अनसुलझे रहेंगे। उदाहरण के लिए एएमयू में अभी भी कार्यकारी परिषद में आंतरिक शिक्षकों की सदस्यता की प्रमुखता (80% से अधिक) होगी। इन सभी मामलों में, सभी मुस्लिम समुदायों के भीतर एक व्यापक मान्यता है कि सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, समुदाय के भीतर से कोई सुधार नहीं होना चाहिए और ये मामले को ख़ुदा ने तय किया है और इसलिए इसे बदला नहीं जा सकता है। यह मान्यता मुस्लिम अपवादवाद, विशिष्टता और राज्य से अलगाव की भावना को कायम रखती है।
सरकार और विपक्ष दोनों ही पहचान के आधार पर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों की बात करते हुए हमेशा की तरह "वोट बैंक की राजनीति" में लगे हुए दिखाई देते हैं। इस दृष्टिकोण ने पहले ही भारत के मुस्लिम समुदायों को उनके स्व-सेवारत एलीट क्लास के साथ-साथ देश के शासक व पढ़े-लिखे एलीट क्लास के अजीबो गरीब रुख के कारण काफी नुकसान पहुंचाया है। आम मुसलमानों को भी उनके धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष संस्थानों (जैसे देवबंद, नदवा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और एमएएनयू हैदराबाद) द्वारा सूचित किया जाना आवश्यक है, कि वक़्फ़ के मामले में, यकीनन, साफ तौर से क़ुरान के या शरिया आदेश नहीं हैं। इमाम अबू हनीफा (699-767) ने भी इसे शरिया द्वारा निर्विवाद रूप से और स्पष्ट रूप से स्वीकृत संस्था के रूप में स्वीकार नहीं किया। वक़्फ़-ए-आम और वक़्फ़-ए-औलाद (वक़्फ़ के प्रकार) अक्सर परोपकारिता और दान व सार्वजनिक कल्याण के बजाय क़ुरान के नियमों को दरकिनार करने और उत्तराधिकारियों के बीच विभाजन को रोकने के बारे में अधिक होते हैं। वे अल्लाह के द्वारा तयशुदा आदेश नहीं हैं।
वक़्फ़ का ऐतिहासिक संदर्भ
19वीं शताब्दी के आखिरी दौर में भारत में वक़्फ़, पहचान की राजनीति को फंड देने और औपनिवेशिक शासन संस्थानों में प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने का एक साधन बन गया। ग्रेगरी कोज़लोव्स्की की 1985 में प्रकाशित पुस्तक 'मुस्लिम एंडाउमेंट्स एंड सोसाइटी इन ब्रिटिश इंडिया' इस बात पर प्रकाश डालती है कि भारत में अधिकांश वक़्फ़ इस दौरान उभरे जब औपनिवेशिक राज्य ने जमीन को कमोडिटी यानी वस्तु में बदल दिया। दूरदर्शी व्यावहारिक व्यक्ति सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ब्रिटिश भारतीय न्यायाधीशों की वक़्फ़-ए-औलाद (वंशजों के लिए वक़्फ़) और मुस्लिम जमीनदारों के हितों की चिंताओं को जानते थे। ब्रिटिश न्यायाधीशों ने वक़्फ़-ए-औलाद को क़ुरान के उत्तराधिकार कानूनों के उल्लंघन के रूप में देखा और अपने निर्णयों में इनमें से कई वक़्फ़ को अमान्य कर दिया क्योंकि उनमें धर्मार्थ तत्वों का अभाव था। यही कारण है कि वे ऐसे औक़ाफ़ को अमान्य करते रहे, जिससे मुस्लिम जमींदार इलीट लोग वाकिफ़ बन गए।
इसलिए सर सैयद ने बीच का रास्ता सुझाया। 1879 में वायसराय की विधान परिषद के सदस्य के रूप में उन्होंने एक मसौदा विधेयक पेश किया जिसमें कहा गया कि वक़्फ़ की संपत्तियों का इस्तेमाल न सिर्फ मस्जिदों और मदरसों के लिए हो बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक कल्याण जैसे अधिक सार्थक और ठोस धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए भी किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो वक़्फ़ सामाजिक बदलाव और समाज की तरक्की के लिए एक ताकतवर उपकरण साबित हो सकता है जैसा कि प्रो. शाफ़े क़िदवई के कॉलम (इंडिया टुडे, 13 अगस्त, 2024) में बताया गया है। सर सैयद का प्रस्ताव 1877 में उनके अखबार तहज़ीबुल अख़लाक़ में भी प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था 'विलुप्ति और बर्बादी से मुस्लिम परिवारों को बचाने का प्रस्ताव'। रूढ़िवादी मुसलमानों ने इसका कड़ा विरोध किया, जिन्होंने खैरात और लोगों के कल्याण पर जोर देने को एक बिदत (नवाचार) के तौर पर देखा। नतीजतन, सर सैयद ने रूढ़िवादियों के आगे झुकते हुए ये विधेयक वापस ले लिया।
इसके उलट 19वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीतिज्ञ मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम एलीट जमीन मालिकों के हितों की हिफाजत के लिए कदम उठाया जिन्हें 1913 के वक़्फ़ वैधीकरण अधिनियम की जरूरत थी। औपनिवेशिक सरकार द्वारा समर्थित इस अधिनियम का उद्देश्य इन कुलीनों की भू-संपत्तियों की सुरक्षा करना था, जिन्हें बढ़ते उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के खिलाफ संभावित सहयोगी के रूप में देखा गया था। बंगाल के धार्मिक-सांप्रदायिक विभाजन का विरोध करने वाले स्वदेशी आंदोलन ने औपनिवेशिक राज्य को 1911-1912 में (बंगाल) विभाजन को रद्द करने के लिए मजबूर किया था जिससे मुस्लिम समर्थन हासिल करने के लिए एक राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता हुई।
भू-संपत्तियों पर एकाधिकार की रक्षा के लिए ऐसी राजनीतिक व्यवस्था महंतों और उनके मठों के लिए भी उतनी ही सच है। दुर्भाग्य से महंतों और मठों की यह संस्था किसान और कृषि संबंधों के इतिहासकारों द्वारा कम खोजी गई है। प्रकाश झा की फिल्म मृत्युदंड (1997) महंत संस्था के कुछ पतनशील पहलुओं को दर्शाने का प्रयास करती है, लेकिन अंततः यह एक नाटकीय फिल्म बनकर रह गई।
भाजपा का महंतों के मठों के इन हिंदू संस्थाओं में सुधार के लिए इसी तरह का विधेयक लाने का कोई इरादा नहीं है? इसलिए यह एक अतिरिक्त कारण है कि मुस्लिम समुदाय प्रस्तावित विधेयक को चिंताजनक रूप से देखते हैं, क्योंकि यह भेदभावपूर्ण व्यवहार के साथ केवल मुसलमानों को लक्षित करने की धारणा बनाता है। एक और डर यह है कि इस विधेयक को स्थानीय बहुसंख्यक ताकतों और संगठनों द्वारा उन छोटे गांवों और मोहल्लों में मुसलमानों को परेशान करने के साधन में बदल दिया जाए, जहां वक़्फ़ और मस्जिदों के लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
वक़्फ़ की प्रकृति: न तो दैवीय और न ही अपरिवर्तनीय
वक़्फ़ पश्चिम में “ईसाई” धर्मार्थ बंदोबस्ती के बिल्कुल बराबर नहीं है। जैसा कि पहले कहा गया है कि कई मामलों में यह क़ुरान के विरासत नियमों को दरकिनार करने का एक साधन है। जिस तरह समुदाय के एलीट क्लास ने दूसरों को यह कह कर गुमराह किया है कि शरीयत अल्लाह द्वारा तय की गई है, उसी तरह वक़्फ़ को भी एक अपरिवर्तनीय, अल्लाह द्वारा स्वीकृत संस्था के रूप में पेश किया गया है। बड़े पैमाने पर लोगों के हितों के लिए इस धोखे को उजागर किया जाना चाहिए।
इसके अलावा वक़्फ़ संपत्तियों की लूट और अतिक्रमण 7वीं शताब्दी ईस्वी से इस्लामी दुनिया में एक मुद्दा रहा है। यह कुप्रबंधन सबसे शुरुआती प्रमुख वक़्फ़ों के साथ हुआ, जैसे ख़लीफ़ा उमर के समय में खैबर और सवाद (इराक), और रूमला (फिलिस्तीन) वक़्फ़ जिसे 912 ईस्वी में फैक नाम के व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया था (जिसका सबसे पुराना लिखित रिकॉर्ड-पत्थर शिलालेख मौजूद है)। तीनों "सबसे शुरुआती" वक़्फ़ एस्टेट तब से अस्तित्वहीन हो गए हैं, क्योंकि उनकी संपत्ति सेना और अन्य अभिजात वर्ग द्वारा लूट ली गई थी!
वक़्फ़ का कुप्रबंधन और लूट
वक़्फ़ की संपत्तियों की लूट लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी यह संस्था है। भारत में इस बात पर आम सहमति है कि वक़्फ़ संपत्तियों में घोर कुप्रबंधन और लूटपाट होती है। कई कानून बनने के बावजूद लूट जारी है। इसलिए मौजूदा कानूनों की गहन समीक्षा की जरूरत है। दुर्भाग्य से न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष ने लोकसभा, मीडिया या अकादमिक चर्चा में इस आम सहमति को उजागर किया है। इस मामले पर एएमयू और जेएमआई जैसे संस्थानों के शिक्षाविदों की चुप्पी खास तौर से उल्लेखनीय है।
“मुस्लिम हितैषी” धर्मनिरपेक्ष विपक्ष वक़्फ़ लूट पर बात करने से बचता है क्योंकि ऐसा करने से विधेयक की जरूरत पड़ेगी। ये यह भी बताता है कि लोकसभा में उनके हस्तक्षेप सतही और केवल बयानबाजी वाले क्यों हैं। विपक्ष खुलकर यह कहने का जोखिम नहीं उठा सकता कि वक़्फ़ दैवीय नहीं है और इसकी लूट को रोकने और इसे मुस्लिम समुदायों के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए पुनर्निर्देशित करने के लिए सुधार के लिए लोगों के हस्तक्षेप की जरूरत है।
शिक्षाविदों, धर्मशास्त्रियों और अन्य बौद्धिक लोगों ने मामूली तरीके से हस्तक्षेप करने की कोशिश की है। उन्होंने प्रस्तावित विधेयक के निहितार्थों के बारे में निजी तौर पर बंद कमरे में चर्चा तो की है परन्तु उसे सार्वजनिक तौर पर उन चिंताओं और आशंकाओं को व्यक्त नहीं किया है। मुस्लिम समुदाय को न केवल राजनेताओं बल्कि अपने स्वयं के बौद्धिक वर्ग की इस राजनीति को समझने की जरूरत है। ये शिक्षाविद विधायकों और समुदाय को इस मुद्दे को समग्र रूप से समझने में मदद क्यों नहीं कर रहे हैं?
इस विधेयक से वास्तविक खतरा मुस्लिम समुदाय के एलीट क्लास को है। प्रस्तावित विधेयक 1995 के वक्फ अधिनियम की धारा/खंड 14 द्वारा अनिवार्य वक्फ बोर्डों में विशेष मुस्लिम प्रतिनिधित्व को चुनौती देता है। नए विधेयक में बोर्ड अधिकारियों की सामाजिक संरचना से संबंधित इस खंड पर सवाल उठाए जा रहे हैं। वक़्फ़ प्रतिनिधित्व में मुस्लिमों के विशेष विशेषाधिकारों के प्रावधान को हटाया जा रहा है, जो चिंता और विवाद का एक अहम बिंदु है। एक और चिंताजनक चीज वक़्फ़ अधिनियम, 1995 की धारा 40 में निहित सक्षम प्रावधानों को खत्म करने का प्रस्ताव है। यह बोर्ड को उस संपत्ति के स्वामित्व को हासिल करने, नोटिस जारी करने या जांच करने की शक्ति देता है, जिसके बारे में उसे विश्वास है कि वह वक़्फ़ की है।
प्रस्तावित सुधार
हालांकि प्रस्तावित विधेयक में काफी खामियां हैं, लेकिन इसके विरोधियों द्वारा बारीकी से स्पष्ट नहीं किए जाने के कारण रचनात्मक बहस में बाधा आती है। ऐतिहासिक रूप से सरकार के हस्तक्षेप से कभी-कभी सकारात्मक परिणाम मिले हैं जैसा कि हुगली के मोहसिन वक़्फ़ में देखा गया है जहां ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने 1836 में मूल वक़्फ़ की मूल शर्तों से परे जाकर मोहसिन हुगली कॉलेज की स्थापना की थी। 2024 के वक़्फ़ विधेयक में साफ तौर से ऐसे प्रगतिशील कदमों को शामिल किया जाना चाहिए। संसद को यह सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाना चाहिए कि वक़्फ़ बोर्ड इसी तरह के लाभकारी कदम उठाएं।
मुस्लिम समुदायों को अपने सामूहिक पाखंड को त्यागना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंस्टेंट ट्रिपल तलाक (आईटीटी) जैसी प्रथाएं क़ुरान के खिलाफ हैं फिर भी वे खुद को सुधारने से इनकार करते हैं जितना वे सरकार के हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। अली मियां नदवी द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दिए गए आश्वासन के बावजूद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को खर्च देने से इनकार करता है। वे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते रहते हैं। इसी तरह, क़ुरान में बच्चे को गोद लेने पर रोक नहीं है (यह केवल गोद लिए गए बच्चे के जैविक पितृत्व को छिपाने पर रोक लगाता है) और गोद लेना पूरी तरह से वैध है जैसा कि पैगंबर मुहम्मद के दत्तक पुत्र ज़ैद के मामले में था, फिर भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) इसे सुधार करने से इनकार करता है। उनकी इस जिद को एएमयू और जामिया जैसे आधुनिक संस्थानों के अधिकांश शिक्षाविदों का भी भरपूर समर्थन प्राप्त है। अखिलेश यादव, असदुद्दीन ओवैसी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जैसे नेताओं को इस मुद्दे पर साफ रुख अपनाना चाहिए।
वक़्फ़ विधेयक 2024 के लिए कुछ जरूरी सिफारिशें
वक़्फ़ न्यायाधिकरण की स्थापना: वक़्फ़ मामलों को सुलझाने के लिए विशेष निकाय के रूप में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रैंक के न्यायाधीशों वाली न्यायाधिकरण की स्थापना करें, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय अपीलीय अथॉरिटी हो।
भूमि सर्वेक्षण: प्रत्येक बोर्ड में कम से कम तीन अधिकारियों से युक्त एक भूमि सर्वेक्षण आयुक्त होना चाहिए।
अनिवार्य रूप से लिंग व जाति का प्रतिनिधित्व: वक़्फ़ बोर्ड की संरचना में विविधता होनी चाहिए और इसे अनिवार्य बनाया जाना चाहिए (सभी जातियों के मुसलमानों और महिलाओं को सदस्य के रूप में शामिल किया जाना चाहिए)।
डिजिटल पारदर्शिता: वक़्फ़ संपत्तियों, कार्यों और अचल संपत्ति के रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए और पारदर्शिता व सतर्कता के लिए सार्वजनिक रूप से ऑनलाइन सुलभ बनाया जाना चाहिए।
धर्मार्थ गतिविधियों को बढ़ावा देना: विधेयक में यह अनिवार्य होना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत आधुनिक शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों, विशेष रूप से गुणवत्तापूर्ण आवासीय विद्यालयों की स्थापना के लिए वक़्फ़ संपत्तियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाए।
कुप्रबंधन के लिए सख्त सजा: वक़्फ़ संपत्तियों को हड़पने, हड़पने या कुप्रबंधन करने वालों के लिए सजा को कम नहीं किया जाना चाहिए। जेल भेजने की सख्त सजा लागू की जानी चाहिए।
वक़्फ़ निर्माताओं का स्मरण: वक़्फ़ निर्माताओं यानी वाकिफ को सम्मान जनक तरीके से याद किया जाना चाहिए, उनका सम्मान किया जाना चाहिए और उनके कार्यों को डिजिटल करके सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
मुतवल्लियों की भूमिका को परिभाषित किया जाना चाहिए: मुतवल्लियों (वक़्फ़ प्रशासकों) की भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित की जानी चाहिए, जिनका कार्यकाल 3-5 वर्ष निर्धारित होना चाहिए। उनकी नियुक्ति के लिए पात्रता मानदंड स्थापित किए जाने चाहिए।
उत्तरदायित्व तंत्र: मुतवल्लियों और वक़्फ़ बोर्ड दोनों के लिए एक मजबूत जांच और संतुलन तंत्र लागू किया जाना चाहिए।
अनिवार्य वार्षिक लेखा परीक्षा (Audit) और वक़्फ़ बोर्डों की आय को लोगों के संज्ञान के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
उम्मीद है सभी पक्ष इस लेख की बातों पर ग़ौर करेंगे!
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं)
भाजपा के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए संयुक्त वक़्फ़ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता एवं विकास (यूएमईईडी) विधेयक 2024 को अब आगे की जांच के लिए संसद की संयुक्त समिति यानी जेसीपी को भेज दिया गया है। मसौदा विधेयक की समीक्षा करने और विपक्ष, मीडिया और शिक्षाविदों की प्रतिक्रियाओं को देखने पर, यह साफ हो जाता है कि चर्चा से एक महत्वपूर्ण पहलू गायब है। मुस्लिम संगठनों की प्रतिक्रियाएं पहले जैसे पैटर्न की तरह दिखती हैं: धार्मिक मामलों के रूप में समझे जाने वाले सुधारों को पूरी तरह से खारिज करना, साथ ही इन क्षेत्रों में सुधार के उद्देश्य से किसी भी राज्य के हस्तक्षेप का विरोध करना। मुस्लिम पर्सनल लॉ, मुस्लिम विश्वविद्यालय प्रशासन और वक़्फ़ प्रशासन जैसे मुद्दों पर यह आम रुख रहा है।
इस प्रतिक्रिया के लिए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को सामने लाने के लिए हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।
इस दोषपूर्ण विधेयक का दायरा
प्रस्तावित विधेयक में वक़्फ़ की धार्मिक या ऐतिहासिक वैधता पर विचार करने के बजाय वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और कुप्रबंधन पर चर्चा की गई है। यह वक़्फ़ के अंतर्गत संपत्तियों, उनसे होने वाली आय और वक़्फ़ प्रशासन के भीतर लगातार भ्रष्टाचार के बारे में चिंताओं को दूर करने का प्रयास करता है। हालांकि, कुछ विपक्षी नेता वक़्फ़ विधेयक को उसी तरह से देख रहे हैं, जैसे उन्होंने अन्य धार्मिक मामलों, जैसे कि 1937 के शरीयत अधिनियम और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के प्रशासन के मामले को देखा है।
यह स्पष्ट करना अहम है कि एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट के आने वाले फैसले के बावजूद एएमयू के प्रशासन में संरचनात्मक सुधार अनसुलझे रहेंगे। उदाहरण के लिए एएमयू में अभी भी कार्यकारी परिषद में आंतरिक शिक्षकों की सदस्यता की प्रमुखता (80% से अधिक) होगी। इन सभी मामलों में, सभी मुस्लिम समुदायों के भीतर एक व्यापक मान्यता है कि सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, समुदाय के भीतर से कोई सुधार नहीं होना चाहिए और ये मामले को ख़ुदा ने तय किया है और इसलिए इसे बदला नहीं जा सकता है। यह मान्यता मुस्लिम अपवादवाद, विशिष्टता और राज्य से अलगाव की भावना को कायम रखती है।
सरकार और विपक्ष दोनों ही पहचान के आधार पर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों की बात करते हुए हमेशा की तरह "वोट बैंक की राजनीति" में लगे हुए दिखाई देते हैं। इस दृष्टिकोण ने पहले ही भारत के मुस्लिम समुदायों को उनके स्व-सेवारत एलीट क्लास के साथ-साथ देश के शासक व पढ़े-लिखे एलीट क्लास के अजीबो गरीब रुख के कारण काफी नुकसान पहुंचाया है। आम मुसलमानों को भी उनके धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष संस्थानों (जैसे देवबंद, नदवा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और एमएएनयू हैदराबाद) द्वारा सूचित किया जाना आवश्यक है, कि वक़्फ़ के मामले में, यकीनन, साफ तौर से क़ुरान के या शरिया आदेश नहीं हैं। इमाम अबू हनीफा (699-767) ने भी इसे शरिया द्वारा निर्विवाद रूप से और स्पष्ट रूप से स्वीकृत संस्था के रूप में स्वीकार नहीं किया। वक़्फ़-ए-आम और वक़्फ़-ए-औलाद (वक़्फ़ के प्रकार) अक्सर परोपकारिता और दान व सार्वजनिक कल्याण के बजाय क़ुरान के नियमों को दरकिनार करने और उत्तराधिकारियों के बीच विभाजन को रोकने के बारे में अधिक होते हैं। वे अल्लाह के द्वारा तयशुदा आदेश नहीं हैं।
वक़्फ़ का ऐतिहासिक संदर्भ
19वीं शताब्दी के आखिरी दौर में भारत में वक़्फ़, पहचान की राजनीति को फंड देने और औपनिवेशिक शासन संस्थानों में प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने का एक साधन बन गया। ग्रेगरी कोज़लोव्स्की की 1985 में प्रकाशित पुस्तक 'मुस्लिम एंडाउमेंट्स एंड सोसाइटी इन ब्रिटिश इंडिया' इस बात पर प्रकाश डालती है कि भारत में अधिकांश वक़्फ़ इस दौरान उभरे जब औपनिवेशिक राज्य ने जमीन को कमोडिटी यानी वस्तु में बदल दिया। दूरदर्शी व्यावहारिक व्यक्ति सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ब्रिटिश भारतीय न्यायाधीशों की वक़्फ़-ए-औलाद (वंशजों के लिए वक़्फ़) और मुस्लिम जमीनदारों के हितों की चिंताओं को जानते थे। ब्रिटिश न्यायाधीशों ने वक़्फ़-ए-औलाद को क़ुरान के उत्तराधिकार कानूनों के उल्लंघन के रूप में देखा और अपने निर्णयों में इनमें से कई वक़्फ़ को अमान्य कर दिया क्योंकि उनमें धर्मार्थ तत्वों का अभाव था। यही कारण है कि वे ऐसे औक़ाफ़ को अमान्य करते रहे, जिससे मुस्लिम जमींदार इलीट लोग वाकिफ़ बन गए।
इसलिए सर सैयद ने बीच का रास्ता सुझाया। 1879 में वायसराय की विधान परिषद के सदस्य के रूप में उन्होंने एक मसौदा विधेयक पेश किया जिसमें कहा गया कि वक़्फ़ की संपत्तियों का इस्तेमाल न सिर्फ मस्जिदों और मदरसों के लिए हो बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक कल्याण जैसे अधिक सार्थक और ठोस धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए भी किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो वक़्फ़ सामाजिक बदलाव और समाज की तरक्की के लिए एक ताकतवर उपकरण साबित हो सकता है जैसा कि प्रो. शाफ़े क़िदवई के कॉलम (इंडिया टुडे, 13 अगस्त, 2024) में बताया गया है। सर सैयद का प्रस्ताव 1877 में उनके अखबार तहज़ीबुल अख़लाक़ में भी प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था 'विलुप्ति और बर्बादी से मुस्लिम परिवारों को बचाने का प्रस्ताव'। रूढ़िवादी मुसलमानों ने इसका कड़ा विरोध किया, जिन्होंने खैरात और लोगों के कल्याण पर जोर देने को एक बिदत (नवाचार) के तौर पर देखा। नतीजतन, सर सैयद ने रूढ़िवादियों के आगे झुकते हुए ये विधेयक वापस ले लिया।
इसके उलट 19वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीतिज्ञ मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम एलीट जमीन मालिकों के हितों की हिफाजत के लिए कदम उठाया जिन्हें 1913 के वक़्फ़ वैधीकरण अधिनियम की जरूरत थी। औपनिवेशिक सरकार द्वारा समर्थित इस अधिनियम का उद्देश्य इन कुलीनों की भू-संपत्तियों की सुरक्षा करना था, जिन्हें बढ़ते उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के खिलाफ संभावित सहयोगी के रूप में देखा गया था। बंगाल के धार्मिक-सांप्रदायिक विभाजन का विरोध करने वाले स्वदेशी आंदोलन ने औपनिवेशिक राज्य को 1911-1912 में (बंगाल) विभाजन को रद्द करने के लिए मजबूर किया था जिससे मुस्लिम समर्थन हासिल करने के लिए एक राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता हुई।
भू-संपत्तियों पर एकाधिकार की रक्षा के लिए ऐसी राजनीतिक व्यवस्था महंतों और उनके मठों के लिए भी उतनी ही सच है। दुर्भाग्य से महंतों और मठों की यह संस्था किसान और कृषि संबंधों के इतिहासकारों द्वारा कम खोजी गई है। प्रकाश झा की फिल्म मृत्युदंड (1997) महंत संस्था के कुछ पतनशील पहलुओं को दर्शाने का प्रयास करती है, लेकिन अंततः यह एक नाटकीय फिल्म बनकर रह गई।
भाजपा का महंतों के मठों के इन हिंदू संस्थाओं में सुधार के लिए इसी तरह का विधेयक लाने का कोई इरादा नहीं है? इसलिए यह एक अतिरिक्त कारण है कि मुस्लिम समुदाय प्रस्तावित विधेयक को चिंताजनक रूप से देखते हैं, क्योंकि यह भेदभावपूर्ण व्यवहार के साथ केवल मुसलमानों को लक्षित करने की धारणा बनाता है। एक और डर यह है कि इस विधेयक को स्थानीय बहुसंख्यक ताकतों और संगठनों द्वारा उन छोटे गांवों और मोहल्लों में मुसलमानों को परेशान करने के साधन में बदल दिया जाए, जहां वक़्फ़ और मस्जिदों के लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं।
वक़्फ़ की प्रकृति: न तो दैवीय और न ही अपरिवर्तनीय
वक़्फ़ पश्चिम में “ईसाई” धर्मार्थ बंदोबस्ती के बिल्कुल बराबर नहीं है। जैसा कि पहले कहा गया है कि कई मामलों में यह क़ुरान के विरासत नियमों को दरकिनार करने का एक साधन है। जिस तरह समुदाय के एलीट क्लास ने दूसरों को यह कह कर गुमराह किया है कि शरीयत अल्लाह द्वारा तय की गई है, उसी तरह वक़्फ़ को भी एक अपरिवर्तनीय, अल्लाह द्वारा स्वीकृत संस्था के रूप में पेश किया गया है। बड़े पैमाने पर लोगों के हितों के लिए इस धोखे को उजागर किया जाना चाहिए।
इसके अलावा वक़्फ़ संपत्तियों की लूट और अतिक्रमण 7वीं शताब्दी ईस्वी से इस्लामी दुनिया में एक मुद्दा रहा है। यह कुप्रबंधन सबसे शुरुआती प्रमुख वक़्फ़ों के साथ हुआ, जैसे ख़लीफ़ा उमर के समय में खैबर और सवाद (इराक), और रूमला (फिलिस्तीन) वक़्फ़ जिसे 912 ईस्वी में फैक नाम के व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया था (जिसका सबसे पुराना लिखित रिकॉर्ड-पत्थर शिलालेख मौजूद है)। तीनों "सबसे शुरुआती" वक़्फ़ एस्टेट तब से अस्तित्वहीन हो गए हैं, क्योंकि उनकी संपत्ति सेना और अन्य अभिजात वर्ग द्वारा लूट ली गई थी!
वक़्फ़ का कुप्रबंधन और लूट
वक़्फ़ की संपत्तियों की लूट लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी यह संस्था है। भारत में इस बात पर आम सहमति है कि वक़्फ़ संपत्तियों में घोर कुप्रबंधन और लूटपाट होती है। कई कानून बनने के बावजूद लूट जारी है। इसलिए मौजूदा कानूनों की गहन समीक्षा की जरूरत है। दुर्भाग्य से न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष ने लोकसभा, मीडिया या अकादमिक चर्चा में इस आम सहमति को उजागर किया है। इस मामले पर एएमयू और जेएमआई जैसे संस्थानों के शिक्षाविदों की चुप्पी खास तौर से उल्लेखनीय है।
“मुस्लिम हितैषी” धर्मनिरपेक्ष विपक्ष वक़्फ़ लूट पर बात करने से बचता है क्योंकि ऐसा करने से विधेयक की जरूरत पड़ेगी। ये यह भी बताता है कि लोकसभा में उनके हस्तक्षेप सतही और केवल बयानबाजी वाले क्यों हैं। विपक्ष खुलकर यह कहने का जोखिम नहीं उठा सकता कि वक़्फ़ दैवीय नहीं है और इसकी लूट को रोकने और इसे मुस्लिम समुदायों के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए पुनर्निर्देशित करने के लिए सुधार के लिए लोगों के हस्तक्षेप की जरूरत है।
शिक्षाविदों, धर्मशास्त्रियों और अन्य बौद्धिक लोगों ने मामूली तरीके से हस्तक्षेप करने की कोशिश की है। उन्होंने प्रस्तावित विधेयक के निहितार्थों के बारे में निजी तौर पर बंद कमरे में चर्चा तो की है परन्तु उसे सार्वजनिक तौर पर उन चिंताओं और आशंकाओं को व्यक्त नहीं किया है। मुस्लिम समुदाय को न केवल राजनेताओं बल्कि अपने स्वयं के बौद्धिक वर्ग की इस राजनीति को समझने की जरूरत है। ये शिक्षाविद विधायकों और समुदाय को इस मुद्दे को समग्र रूप से समझने में मदद क्यों नहीं कर रहे हैं?
इस विधेयक से वास्तविक खतरा मुस्लिम समुदाय के एलीट क्लास को है। प्रस्तावित विधेयक 1995 के वक्फ अधिनियम की धारा/खंड 14 द्वारा अनिवार्य वक्फ बोर्डों में विशेष मुस्लिम प्रतिनिधित्व को चुनौती देता है। नए विधेयक में बोर्ड अधिकारियों की सामाजिक संरचना से संबंधित इस खंड पर सवाल उठाए जा रहे हैं। वक़्फ़ प्रतिनिधित्व में मुस्लिमों के विशेष विशेषाधिकारों के प्रावधान को हटाया जा रहा है, जो चिंता और विवाद का एक अहम बिंदु है। एक और चिंताजनक चीज वक़्फ़ अधिनियम, 1995 की धारा 40 में निहित सक्षम प्रावधानों को खत्म करने का प्रस्ताव है। यह बोर्ड को उस संपत्ति के स्वामित्व को हासिल करने, नोटिस जारी करने या जांच करने की शक्ति देता है, जिसके बारे में उसे विश्वास है कि वह वक़्फ़ की है।
प्रस्तावित सुधार
हालांकि प्रस्तावित विधेयक में काफी खामियां हैं, लेकिन इसके विरोधियों द्वारा बारीकी से स्पष्ट नहीं किए जाने के कारण रचनात्मक बहस में बाधा आती है। ऐतिहासिक रूप से सरकार के हस्तक्षेप से कभी-कभी सकारात्मक परिणाम मिले हैं जैसा कि हुगली के मोहसिन वक़्फ़ में देखा गया है जहां ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने 1836 में मूल वक़्फ़ की मूल शर्तों से परे जाकर मोहसिन हुगली कॉलेज की स्थापना की थी। 2024 के वक़्फ़ विधेयक में साफ तौर से ऐसे प्रगतिशील कदमों को शामिल किया जाना चाहिए। संसद को यह सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाना चाहिए कि वक़्फ़ बोर्ड इसी तरह के लाभकारी कदम उठाएं।
मुस्लिम समुदायों को अपने सामूहिक पाखंड को त्यागना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंस्टेंट ट्रिपल तलाक (आईटीटी) जैसी प्रथाएं क़ुरान के खिलाफ हैं फिर भी वे खुद को सुधारने से इनकार करते हैं जितना वे सरकार के हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। अली मियां नदवी द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दिए गए आश्वासन के बावजूद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को खर्च देने से इनकार करता है। वे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते रहते हैं। इसी तरह, क़ुरान में बच्चे को गोद लेने पर रोक नहीं है (यह केवल गोद लिए गए बच्चे के जैविक पितृत्व को छिपाने पर रोक लगाता है) और गोद लेना पूरी तरह से वैध है जैसा कि पैगंबर मुहम्मद के दत्तक पुत्र ज़ैद के मामले में था, फिर भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) इसे सुधार करने से इनकार करता है। उनकी इस जिद को एएमयू और जामिया जैसे आधुनिक संस्थानों के अधिकांश शिक्षाविदों का भी भरपूर समर्थन प्राप्त है। अखिलेश यादव, असदुद्दीन ओवैसी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जैसे नेताओं को इस मुद्दे पर साफ रुख अपनाना चाहिए।
वक़्फ़ विधेयक 2024 के लिए कुछ जरूरी सिफारिशें
वक़्फ़ न्यायाधिकरण की स्थापना: वक़्फ़ मामलों को सुलझाने के लिए विशेष निकाय के रूप में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रैंक के न्यायाधीशों वाली न्यायाधिकरण की स्थापना करें, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय अपीलीय अथॉरिटी हो।
भूमि सर्वेक्षण: प्रत्येक बोर्ड में कम से कम तीन अधिकारियों से युक्त एक भूमि सर्वेक्षण आयुक्त होना चाहिए।
अनिवार्य रूप से लिंग व जाति का प्रतिनिधित्व: वक़्फ़ बोर्ड की संरचना में विविधता होनी चाहिए और इसे अनिवार्य बनाया जाना चाहिए (सभी जातियों के मुसलमानों और महिलाओं को सदस्य के रूप में शामिल किया जाना चाहिए)।
डिजिटल पारदर्शिता: वक़्फ़ संपत्तियों, कार्यों और अचल संपत्ति के रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए और पारदर्शिता व सतर्कता के लिए सार्वजनिक रूप से ऑनलाइन सुलभ बनाया जाना चाहिए।
धर्मार्थ गतिविधियों को बढ़ावा देना: विधेयक में यह अनिवार्य होना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत आधुनिक शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों, विशेष रूप से गुणवत्तापूर्ण आवासीय विद्यालयों की स्थापना के लिए वक़्फ़ संपत्तियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाए।
कुप्रबंधन के लिए सख्त सजा: वक़्फ़ संपत्तियों को हड़पने, हड़पने या कुप्रबंधन करने वालों के लिए सजा को कम नहीं किया जाना चाहिए। जेल भेजने की सख्त सजा लागू की जानी चाहिए।
वक़्फ़ निर्माताओं का स्मरण: वक़्फ़ निर्माताओं यानी वाकिफ को सम्मान जनक तरीके से याद किया जाना चाहिए, उनका सम्मान किया जाना चाहिए और उनके कार्यों को डिजिटल करके सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
मुतवल्लियों की भूमिका को परिभाषित किया जाना चाहिए: मुतवल्लियों (वक़्फ़ प्रशासकों) की भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित की जानी चाहिए, जिनका कार्यकाल 3-5 वर्ष निर्धारित होना चाहिए। उनकी नियुक्ति के लिए पात्रता मानदंड स्थापित किए जाने चाहिए।
उत्तरदायित्व तंत्र: मुतवल्लियों और वक़्फ़ बोर्ड दोनों के लिए एक मजबूत जांच और संतुलन तंत्र लागू किया जाना चाहिए।
अनिवार्य वार्षिक लेखा परीक्षा (Audit) और वक़्फ़ बोर्डों की आय को लोगों के संज्ञान के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
उम्मीद है सभी पक्ष इस लेख की बातों पर ग़ौर करेंगे!
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं)