लोकसभा आमचुनाव में भाजपा के 272 सीटें हासिल करने में विफल रहने के बाद एनडीए एक बार फिर नेपथ्य से मंच के केंद्र में आ गया है.
सन 1998 में अटलबिहारी वाजपेई एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री बने थे. उस सरकार के कार्यकलापों पर भी भाजपा की राजनीति का ठप्पा था. उस सरकार ने हिंदुत्व के एजेंडे के अनुरूप संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैया आयोग नियुक्त किया, पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण किया और ज्योतिषशास्त्र व पौरोहित्य को विषय के रूप में पाठ्यक्रम में जोड़ा. सन 2014 और 2019 में बनी मोदी सरकारें तकनीकी दृष्टि से भले ही एनडीए की सरकारें रही हों मगर चूँकि भाजपा को अपने दम पर बहुमत हासिल था इसलिए अन्य घटक दल साइलेंट मोड में बने रहे और भाजपा ने बिना रोकटोक अपना आक्रामक हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा लागू किया. इसमें शामिल था राममंदिर का निर्माण और अनुच्छेद 370 का कश्मीर से हटाया जाना. इसके अलावा सरकार की मौन सहमति से गाय और बीफ के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग की गयी और लव जिहाद और न जाने कितने अन्य किस्मों के जिहादों की बातें की गईं.
मोदी सरकार का तानाशाहीपूर्ण नजरिया संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्ता समाप्त होने और मीडिया के गोदी मीडिया में बदलने के रूप में भी अभिव्यक्त हुआ. हालात इतने ख़राब हो गए कि विपक्ष को एक होकर इंडिया गठबंधन बनाना पड़ा ताकि मोदी सरकार को हराया जा सके. मोदी और भाजपा का चुनाव अभियान मुस्लिम-विरोध पर केन्द्रित रहा. पहले यह कहा गया कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप है. कांग्रेस के अधिकांश नारों और वायदों को मुसलमानों के तुष्टिकरण से जोड़ा गया. मुसलमानों को घुसपैठिया और ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले बताया गया. घटिया दर्जे के चुनाव प्रचार का नया रिकॉर्ड कायम करते हुए मोदी ने कहा कि कांग्रेस मुसलमानों के लिए मुजरा करेगी. यह भी कहा गया कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो आतंकवादियों को जेलों से रिहा कर दिया जाएगा, उन्हें बिरयानी की दावत दी जाएगी और भारत में तालिबान का शासन स्थापित हो जाएगा.
हमारे तंत्र को इस तरह तोड़मरोड़ दिया गया है कि मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब कर दिए जाते हैं. कई बार पुलिसकर्मी मुसलमानों को मतदान केन्द्रों से भगा देते हैं. दरअसल, मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. वे राजनीति से गायब हो गए हैं. इस सबसे इस असहाय समुदाय के खिलाफ नफरत और गहरी हुई है.
भाजपा का दावा था कि उसे 370 से ज्यादा सीटें हासिल होंगी और एनडीए 400 पार हो जाएगा. यह नहीं हुआ और इससे मुसलमानों की जान में जान आई. परिणाम आने के बाद मोदी ने खुद को प्रधानमंत्री तो घोषित कर दिया पर उनकी भाषा बदल गई. अब उन्हें 'सर्वधर्म समभाव' याद आने लगा है. पिछले दस सालों में मुसलमानों (और ईसाईयों) के साथ जो हुआ, उसके बाद मोदी का 'सर्वधर्म समभाव' की बात करना पाखंड की इंतेहा नज़र आती है.
मुसलमानों के लिए आने वाले दिन कैसे होंगे? उन्हें कुछ राहत तो मिलेगी क्योंकि गुंडों को जो छूट दी गई है, उसमें कुछ कमी आ सकती है. हालाँकि ऐसा होना पक्का नहीं है क्योंकि सांप्रदायिक गुंडे व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं. मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के विरोध में नीतीश और नायडू जैसे भाजपा के गठबंधन साथी आवाज़ उठाते है या नहीं यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा. और मोदी की पार्टी की दादागिरी के आगे उनकी कितनी चलेगी, यह भी अभी साफ़ नहीं है. हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा फैलाई गई नफरत इतनी व्यापक है और उसकी पैठ इतनी गहरी है कि उससे मुकाबला करना आसान नहीं है.
यह हो सकता है कि हिंदुत्व की राजनीति के तीसरे चरण – सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) – को लागू करने का इरादा छोड़ दिया जाए. मुसलमानों के साथ भेदभाव करने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की तलवार अल्पसंख्यक समुदाय पर लटक रही है और यह आगे ही पता चलेगा कि भाजपा उसके कार्यान्वयन के लिए कितना दबाव बनाती है.
ऐतिहासिक शाहीन बाग़ आन्दोलन की जबरदस्त सफलता के बाद सांप्रदायिक भाजपा शायद सीएए लागू करने पर जोर नहीं देगी जब तक कि उसे अपने अनुभव के आधार पर यह नहीं लगने लगेगा कि वह नायडू और नीतीश – जिनकी इस मामले में सोच अलग है – की आवाज़ को कुचल कर अपनी चला सकती है. ज्ञातव्य है कि नायडू ने मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने की शुरुआत की थी.
इसके अलावा, भाजपा को जातिगत जनगणना के अपने विरोध पर भी पुनर्विचार करना पड़ सकता है. बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने इसकी शुरुआत की थी और देश में काफी लोग इसके पक्ष में हैं. मोदी के इस दावे पर किसी ने भरोसा नहीं किया कि इंडिया गठबंधन, एससी, एसटी और ओबीसी से आरक्षण कोटा छीन कर उसे मुसलमानों को दे देगा.
आने वाले समय में मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति कैसी रहेगी? संघ परिवार द्वारा मुसलमानों के खिलाफ फैलाई गयी नफरत, सामूहिक सामाजिक सोच में गहरे तक पैठ कर गयी है. एक औसत हिन्दू मुसलमानों में कुछ भी अच्छा नहीं देखता. इस स्थिति के लिए संघ परिवार तो ज़िम्मेदार है ही उसके साथी संगठनों, परिवर्तित पाठ्यपुस्तकों, मीडिया और मुंहजुबानी प्रचार ने भी इसमें भूमिका निभाई है.
दुष्प्रचार और मिथक नफरत के महल की नींव हैं. मुसलमानों के प्रति नफरत उनके खिलाफ हिंसा और समाज के धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का कारण है. आरएसएस की 2024 के चुनाव में क्या भूमिका रही, इसके और विश्लेषण की ज़रुरत है मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ ही मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलता आ रहा है और पिछले दो दशकों से उसने ईसाईयों के खिलाफ भी नफरत फैलानी शुरू कर दी है. मोदी राज के दस सालों में आरएसएस की शाखाओं की संख्या दो गुनी हो गयी है. ओडिशा के कंधमाल में व्यापक ईसाई-विरोधी हिंसा हुई थी और पास्टर स्टेंस और उनके दो लड़कों को जिंदा जला दिया गया था. उसी समय जो बीज बोए गए थे वे अब फल दे रहे हैं. ओडिशा में भाजपा की सरकार बन गई है.
केरल में कई कारणों के चलते भाजपा ने भले ही ईसाईयों के एक तबके में अपनी पैठ बना ली हो मगर ईसाई आज भी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के निशाने पर हैं और यह ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर होने वाले हमलों से जाहिर है.
कुल मिलाकर, मुसलमानों का हाशियाकरण जारी रहेगा. आरएसएस ने हमारे समाज को इस हद तक ध्रुवीकृत कर दिया है कि उसे पलटना आसान नहीं है. आरएसएस जो कर रहा है उसका अत्यंत सारगर्भित वर्णन सरदार पटेल ने किया था. सन 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के बाद उन्होंने लिखा, "उनके सारे भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे रहते थे. और उसी ज़हर के नतीजे में देश को गाँधीजी के अनमोल जीवन की बलि देखनी पड़ी." नफरत को फैलने से नहीं रोका गया और नतीजे में आज वह एक कई सिर वाला सांप बन गई है. हम इस नफरत को ख़त्म किये बिना उस भारत का निर्माण नहीं कर सकते जिसका सपना हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने देखा था.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
सन 1998 में अटलबिहारी वाजपेई एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री बने थे. उस सरकार के कार्यकलापों पर भी भाजपा की राजनीति का ठप्पा था. उस सरकार ने हिंदुत्व के एजेंडे के अनुरूप संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैया आयोग नियुक्त किया, पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण किया और ज्योतिषशास्त्र व पौरोहित्य को विषय के रूप में पाठ्यक्रम में जोड़ा. सन 2014 और 2019 में बनी मोदी सरकारें तकनीकी दृष्टि से भले ही एनडीए की सरकारें रही हों मगर चूँकि भाजपा को अपने दम पर बहुमत हासिल था इसलिए अन्य घटक दल साइलेंट मोड में बने रहे और भाजपा ने बिना रोकटोक अपना आक्रामक हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा लागू किया. इसमें शामिल था राममंदिर का निर्माण और अनुच्छेद 370 का कश्मीर से हटाया जाना. इसके अलावा सरकार की मौन सहमति से गाय और बीफ के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग की गयी और लव जिहाद और न जाने कितने अन्य किस्मों के जिहादों की बातें की गईं.
मोदी सरकार का तानाशाहीपूर्ण नजरिया संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्ता समाप्त होने और मीडिया के गोदी मीडिया में बदलने के रूप में भी अभिव्यक्त हुआ. हालात इतने ख़राब हो गए कि विपक्ष को एक होकर इंडिया गठबंधन बनाना पड़ा ताकि मोदी सरकार को हराया जा सके. मोदी और भाजपा का चुनाव अभियान मुस्लिम-विरोध पर केन्द्रित रहा. पहले यह कहा गया कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप है. कांग्रेस के अधिकांश नारों और वायदों को मुसलमानों के तुष्टिकरण से जोड़ा गया. मुसलमानों को घुसपैठिया और ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले बताया गया. घटिया दर्जे के चुनाव प्रचार का नया रिकॉर्ड कायम करते हुए मोदी ने कहा कि कांग्रेस मुसलमानों के लिए मुजरा करेगी. यह भी कहा गया कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो आतंकवादियों को जेलों से रिहा कर दिया जाएगा, उन्हें बिरयानी की दावत दी जाएगी और भारत में तालिबान का शासन स्थापित हो जाएगा.
हमारे तंत्र को इस तरह तोड़मरोड़ दिया गया है कि मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब कर दिए जाते हैं. कई बार पुलिसकर्मी मुसलमानों को मतदान केन्द्रों से भगा देते हैं. दरअसल, मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. वे राजनीति से गायब हो गए हैं. इस सबसे इस असहाय समुदाय के खिलाफ नफरत और गहरी हुई है.
भाजपा का दावा था कि उसे 370 से ज्यादा सीटें हासिल होंगी और एनडीए 400 पार हो जाएगा. यह नहीं हुआ और इससे मुसलमानों की जान में जान आई. परिणाम आने के बाद मोदी ने खुद को प्रधानमंत्री तो घोषित कर दिया पर उनकी भाषा बदल गई. अब उन्हें 'सर्वधर्म समभाव' याद आने लगा है. पिछले दस सालों में मुसलमानों (और ईसाईयों) के साथ जो हुआ, उसके बाद मोदी का 'सर्वधर्म समभाव' की बात करना पाखंड की इंतेहा नज़र आती है.
मुसलमानों के लिए आने वाले दिन कैसे होंगे? उन्हें कुछ राहत तो मिलेगी क्योंकि गुंडों को जो छूट दी गई है, उसमें कुछ कमी आ सकती है. हालाँकि ऐसा होना पक्का नहीं है क्योंकि सांप्रदायिक गुंडे व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं. मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के विरोध में नीतीश और नायडू जैसे भाजपा के गठबंधन साथी आवाज़ उठाते है या नहीं यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा. और मोदी की पार्टी की दादागिरी के आगे उनकी कितनी चलेगी, यह भी अभी साफ़ नहीं है. हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा फैलाई गई नफरत इतनी व्यापक है और उसकी पैठ इतनी गहरी है कि उससे मुकाबला करना आसान नहीं है.
यह हो सकता है कि हिंदुत्व की राजनीति के तीसरे चरण – सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) – को लागू करने का इरादा छोड़ दिया जाए. मुसलमानों के साथ भेदभाव करने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की तलवार अल्पसंख्यक समुदाय पर लटक रही है और यह आगे ही पता चलेगा कि भाजपा उसके कार्यान्वयन के लिए कितना दबाव बनाती है.
ऐतिहासिक शाहीन बाग़ आन्दोलन की जबरदस्त सफलता के बाद सांप्रदायिक भाजपा शायद सीएए लागू करने पर जोर नहीं देगी जब तक कि उसे अपने अनुभव के आधार पर यह नहीं लगने लगेगा कि वह नायडू और नीतीश – जिनकी इस मामले में सोच अलग है – की आवाज़ को कुचल कर अपनी चला सकती है. ज्ञातव्य है कि नायडू ने मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने की शुरुआत की थी.
इसके अलावा, भाजपा को जातिगत जनगणना के अपने विरोध पर भी पुनर्विचार करना पड़ सकता है. बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने इसकी शुरुआत की थी और देश में काफी लोग इसके पक्ष में हैं. मोदी के इस दावे पर किसी ने भरोसा नहीं किया कि इंडिया गठबंधन, एससी, एसटी और ओबीसी से आरक्षण कोटा छीन कर उसे मुसलमानों को दे देगा.
आने वाले समय में मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति कैसी रहेगी? संघ परिवार द्वारा मुसलमानों के खिलाफ फैलाई गयी नफरत, सामूहिक सामाजिक सोच में गहरे तक पैठ कर गयी है. एक औसत हिन्दू मुसलमानों में कुछ भी अच्छा नहीं देखता. इस स्थिति के लिए संघ परिवार तो ज़िम्मेदार है ही उसके साथी संगठनों, परिवर्तित पाठ्यपुस्तकों, मीडिया और मुंहजुबानी प्रचार ने भी इसमें भूमिका निभाई है.
दुष्प्रचार और मिथक नफरत के महल की नींव हैं. मुसलमानों के प्रति नफरत उनके खिलाफ हिंसा और समाज के धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का कारण है. आरएसएस की 2024 के चुनाव में क्या भूमिका रही, इसके और विश्लेषण की ज़रुरत है मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ ही मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलता आ रहा है और पिछले दो दशकों से उसने ईसाईयों के खिलाफ भी नफरत फैलानी शुरू कर दी है. मोदी राज के दस सालों में आरएसएस की शाखाओं की संख्या दो गुनी हो गयी है. ओडिशा के कंधमाल में व्यापक ईसाई-विरोधी हिंसा हुई थी और पास्टर स्टेंस और उनके दो लड़कों को जिंदा जला दिया गया था. उसी समय जो बीज बोए गए थे वे अब फल दे रहे हैं. ओडिशा में भाजपा की सरकार बन गई है.
केरल में कई कारणों के चलते भाजपा ने भले ही ईसाईयों के एक तबके में अपनी पैठ बना ली हो मगर ईसाई आज भी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के निशाने पर हैं और यह ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर होने वाले हमलों से जाहिर है.
कुल मिलाकर, मुसलमानों का हाशियाकरण जारी रहेगा. आरएसएस ने हमारे समाज को इस हद तक ध्रुवीकृत कर दिया है कि उसे पलटना आसान नहीं है. आरएसएस जो कर रहा है उसका अत्यंत सारगर्भित वर्णन सरदार पटेल ने किया था. सन 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के बाद उन्होंने लिखा, "उनके सारे भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे रहते थे. और उसी ज़हर के नतीजे में देश को गाँधीजी के अनमोल जीवन की बलि देखनी पड़ी." नफरत को फैलने से नहीं रोका गया और नतीजे में आज वह एक कई सिर वाला सांप बन गई है. हम इस नफरत को ख़त्म किये बिना उस भारत का निर्माण नहीं कर सकते जिसका सपना हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने देखा था.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)