उत्तर प्रदेश के बनारस में बुनकरों की एक बड़ी बस्ती है सरैया। संकरी गलियां और खुली नालियां इस बस्ती का पता बताती हैं। यहां हजारों बुनकरों की जिंदगी बदरंग है। भीषण गंदगी और सड़ांध के बीच प्रायः सभी घरों में बनारसी साड़ियां बुनी जाती हैं। खासतौर पर वो साड़िया जो दांपत्य के रिश्तों को गाढ़ा करती हैं। इन रिश्तों को बुनने वाले फनकार अब सियासत के ताने-बाने में उलझकर रह गए हैं। गुजरात मॉडल ने इन बुनकरों को तगड़ी चोट दी है। इन्हें न सस्ती बिजली मिल पा रही है, न इनके लिए कोई बाजार है। आखिर किसके लिए बुनें ये रेशमी रिश्ते? कहां और किसे बेचें अपनी नायाब बनारसी साड़ियां?
दस बरस पहले नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल लेकर बनारस आए तो पूर्वांचल के बुनकरों को उम्मीद बंधी कि उनका धंधा चल निकलेगा, लेकिन हुआ उल्टा। सरकार ने बिजली महंगी कर दी। महंगाई आसमान छूने लगी। नतीजा बुनकरों के हाथों में कटोरा आ गया। अब हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है। बाजार में सन्नाटा है। खरीददार का कहीं अता-पता नहीं है। गुजरात मॉडल में अपने सुनहरे भविष्य का सपना संजोने वाले बनारसी गुजरात के सूरत में भाग रहे हैं तो कुछ हैदराबाद की तंग गलियों में मजूरी ढूंढ रहे हैं। कड़ी मेहनत करने के बाद भी दो वक्त का रोटी जुटा पाना कठिन हो गया है।
इब्राहिमपुरा में हमें मिले अनीसुरहमान, जो हैंडलूम पर बनारस को पहचान दिलाने वाली मशहूर बनारसी साड़ियां बुनते हैं। वो कहते हैं, "एक दौर वह भी था जब बनारस की गलियों में हुनरमंद बुनकरों के हथकरघों की आवाजें गूंजा करती थीं। वक्त के साथ हथकरघों की आवाज पहले पावरलूम के शोर में दबी और बाद में पावरलूम की सांसें भी उखड़ती चली गईं। आज हालत यह है कि करीब एक लाख की आबादी वाले सरैया इलके में जुनैद अहमद सरीखे गिने-चुने हथकरघा बुनकर ही बचे हैं, जो अभी भी हाथ से साड़ियां बुनते हैं। इस मोहल्ले के बाकी सभी बुनकर हैंडलूम को छोड़कर पावरलूम अपना चुके हैं। पूरे बनारस की बात करें तो बुनकरों की कुल आबादी में से सात-आठ फीसदी ही अब ऐसे हैं जो हैंडलूम चलाते हैं। जो हैंडलूम बचे हैं वह इसलिए कि वो पावरलूम के महंगी बिजली का बिल अदा करने की स्थिति में नहीं हैं।"
ताने-बाने में उलझी जिंदगी
कुछ इसी तरह का दर्द सद्दाम हुसैन का भी है। सद्दाम ने जब से होश संभाला है, तभी से उनकी जिंदगी बनारसी साड़ियों के ताने-बाने में उलझी हुई है। थोड़ी पढ़ाई की, लेकिन बाद में उनका मन बुनकरी में रम गया। सद्दाम कहते हैं, "दस बरस पहले नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल लेकर बनारस आए तो पूर्वांचल के बुनकरों को उम्मीद बंधी कि उनका धंधा चल निकलेगा, लेकिन हुआ उल्टा। सरकार ने बिजली महंगी कर दी। महंगाई आसमान छूने लगी। नतीजा बुनकरों के हाथों में कटोरा आ गया। अब हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है। बाजार में सन्नाटा है। खरीददार का कहीं अता-पता नहीं है।"
बनारस कै सरैया का बुनकर हाल में परिवार के साथ गुजरात पहुंचा
"गुजरात मॉडल में अपने सुनहरे भविष्य का सपना संजोने वाले बनारसी गुजरात के सूरत में भाग रहे हैं तो कुछ हैदराबाद की तंग गलियों में मजूरी ढूंढ रहे हैं। कड़ी मेहनत करने के बाद भी दो वक्त का रोटी जुटा पाना कठिन हो गया है। साड़ियों का काम तभी से खराब है जब से बनारस के बुनकरों पर गुजरात मॉडल थोपा गया। दस बरस पहले दावा किया गया था कि हमारी पावरलूम की मशीनों साउंडलेस हो जाएंगी, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। बनारसी साड़ियों की सांसें उखड़ती चली गईं। बहुत से बुनकरों ने अपना धंधा बदल लिया। जो बचे हैं वो अपनी मेहनत के बल पर जिंदा हैं।"
पीएम नरेंद्र मोदी की कथनी-करनी पर सवाल खड़ा करते हुए सद्दाम हुसैन यह भी कहते हैं, "बुनकरों से उन्होंने जो वादे किए थे वो कहां गए? अगर कुछ किया होता तो पूर्वांचल के बुनकर गुजरात क्यों भागते? हम तो इस खुशफहमी में थे कि मोदी बनारसी साड़ी कारोबार में पंख लगाएंगे और हम उड़ान भरेंगे। लेकिन हुआ क्या? इस वक्त जो हालात है उससे बेहतर तो कोरोना का समय था। उस वक्त कुछ संस्थाएं मदद कर देती थी और कुछ अपने लोग। हाल के दिनों में बहुत से लोग इस शहर को टा...टा... कहते हुए जा चुके हैं। हालात ऐसे ही रहे तो बचे-खुचे बुनकर भी बनारस को अलविदा कह देंगे।"
बुनकर सद्दाम हुसैन
भविष्य की सोच में युवा बुनकर
बुनकरों पर बिजली की मार
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले कुछ सालों में पूर्वांचल से करीब डेढ़ से दो लाख बुनकर पलायन गुजरात के सूरत और दूसरे शहरों में जा चुके हैं। सरकार के दावे तो बड़े-बड़े हैं, लेकिन बुनकरों की दशा कितनी दयनीय है, यह सोचने वाला कोई नहीं है। लूम चलाने के लिए पहले तीन सौ रुपये से भी कम बिल देने पड़ते था और अब उतनी ही बिजली के लिए 1720 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं। नतीजा, बड़ी तादाद में बुनकर बनारस से अपना घर बेचकर पलायन कर रहे हैं।
एक दौर वह भी था जब बनारस की गलियों में हुनरमंद बुनकरों के हथकरघों की आवाजें गूंजा करती थीं। वक्त के साथ हथकरघों की आवाज पहले पावरलूम के शोर में दबी और बाद में पावरलूम की सांसें भी उखड़ती चली गईं। आज हालत यह है कि करीब एक लाख की आबादी वाले सरैया इलके में जुनैद अहमद सरीखे गिने-चुने हथकरघा बुनकर ही बचे हैं, जो अभी भी हाथ से साड़ियां बुनते हैं। इस मोहल्ले के बाकी सभी बुनकर हैंडलूम को छोड़कर पावरलूम अपना चुके हैं। पूरे बनारस की बात करें तो बुनकरों की कुल आबादी में से सात-आठ फीसदी ही अब ऐसे हैं जो हैंडलूम चलाते हैं। जो हैंडलूम बचे हैं वह इसलिए कि वो पावरलूम के महंगी बिजली का बिल अदा करने की स्थिति में नहीं हैं।
गुजरात से पलायन की तैयारी
सरैया इलाके में अल अजीज फैब्रिक के प्रोपराइटर मोहम्मद साजिद बनारसी साड़ी के बड़े कारोबारी हैं। इन दिनों वो काफी मयूस और हताश हैं। वो कहते हैं, "बनारस में ज्यादातर धागा सूरत से आता है, जो काफी महंगा पड़ रहा है। हमें लगता है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले दिनों में बुनकरी खत्म हो जाएगी। गुजरात मॉडल बनारस के बुनकरों को पूरी तरह बर्बाद कर देगा। इसकी बड़ी वजह यह है कि गुजरात में धागा और साड़ियों पर टैक्स कम है। वहां बिजली भी सस्ती है। गुजराती बुनकरों के पास साउंडलेस सोलर लूम हैं। बनारसी बुनकरों को सपने तो बहुत दिखाए गए, लेकिन वो कोरे ही निकले।"
बिकते जा रहे लूम-करघे
सरैया के हाजी कटरा में बदरुद्दीन कुछ साल पहले तक रेशमी ताने-बाने पर सोने-चांदी की साड़ियां बुना करते थे। इनके पास 20 पावरलूम और इतने ही हथकरघे थे। सारे लूम और करघे बिक गए। बदरुद्दीन अब टॉफी-बिस्कुट बेचकर आजीविका चला रहे हैं। इसी मुहल्ले के सूफी शहीद इलाके में रहने वाले अजीजुर्रहमान के पास भी दर्जनों हथकरघे थे। सबके सब बंद हो गए। कोई दूसरा काम नहीं मिला तो आटा-चक्की की दुकान खोल ली। पहले हजारों-लाखों में खेलते थे, अब दिन भर की कमाई सिर्फ डेढ़-दो सौ रुपये है।
मंदी के शिकार बुनकर.
इब्राहिमपुरा में रिजवान के पास काम नहीं। भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो पान की दुकान खोल ली। मोहम्मद जुनैद पहले हुनरमंद बुनकर हुआ करते थे, मगर अब बुनकरी का काम छोड़कर बिस्कुट और पाव रोटी से भरा गत्ता साइकिल पर लेकर गली-गली बेच रहे हैं। काम के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठे सर्फूद्दीन अंसारी से मुलाकात हुई तो उनकी आंखें छलक आईं। बोले, "पीएम नरेंद्र मोदी ने साढ़े दस साल गुजार दिए। उनके वादे जमीन पर नहीं दिखे। फिर भी हम इंतज़ार कर रहे हैं। उम्मीद है कि हमारी सूरत जरूर बदलेगी? हम मुतमइन हैं कि बदहाली के इस मझधार से खुशहाली का किनारा ज़रूर आएगा।"
बुनकरी छोड़ खोल ली परचून की दुकान.
बदहाली के दौर से गुजर रहे हजारों बुनकरों में से एक हैं सरैया के अब्दुल हकीम। उन्होंने भी बुनकरी से तौबा कर लिया है। पहले इनके पास छह करघे थे। परिवार का पेट भरने के लिए उन्हें दर्जन भर करघों को बेचना पड़ गया। इनके बच्चे हर रोज मजदूरों की मंडी में खड़े होकर काम की तलाश करते हैं। खुद अब्दुल हकीम एक छोटी सी पान की दुकान चलाते हैं। मुलाकात हुई तो उनका दर्द छल आया। बोले, "हमने अच्छे दिनों का सपना देखा था। महंगाई और मनमाना बिजली का बिल थोपे जाने से जिंदगी पहाड़ बन गई है।"
बचपन से बुनकरी करने वाले जुनैद के पास पहले 14 करघे थे और वो सभी बिक गए। अब वह अपने ही घर में दूसरों के करघे पर दूसरों की साड़ियां बुनते हैं। जुनैद कहते हैं,"इन दिनों लॉकडाउन से भी बुरी स्थिति है। हर बुनकर खून के आंसू रो रहा है। पहले नोटबंदी, बाद में जीएसटी, फिर लॉकडाउन और अब महंगाई की मार के साथ बिजली ने बुनकरों को जोर का झटका दिया है। नतीजा, हजारों बुनकरों ने अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ दिया है। कोई सब्जी बेच रहा है तो कोई टॉफी-बिस्किट।"
बुनकरी छूटी, दिन काटना मुहाल
बुनकरों के हितों की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश विश्वकर्मा बनारसी साड़ी उद्योग की बदहाली के लिए सीधे तौर पर डबल इंजन की जिम्मेदार ठहराते हैं। वह कहते हैं, "बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी देश के देश के पीएम हैं। बनारसी साड़ी उद्योग को संरक्षण देने की जिम्मेदारी उनकी थी। बुनकरों को राहत के बजाय उन्होंने सिर्फ झूठे वादे किए और झूठे सपने दिखाए। यह सिर्फ बिनकारी के हुनर को बचाने का मामला नहीं, बल्कि बेरोजगार दूर करने का भी सवाल है। बनारस साड़ी उद्योग की कमर तभी से टूटनी शुरू हो गई थी अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में आए। उस दौर में करीब 1400 ऐसे उत्पादों को बनाने की अनुमति बड़े पूंजीपतियों को दे दी गई जो पहले तक सिर्फ लघु उद्योग में ही बनाए जा सकते थे। हैंडलूम पर बनने वाली बनारसी साड़ी भी इन्हीं में से एक थी।"
"भाजपा सरकार के इस फैसले के साथ हैंडलूम की मौत होने लगी और पावरलूम का चलन बढ़ता चला गया। मोदी सरकार के आने के बाद और उनके मेक इन इंडिया और स्किल डेवेलपमेंट पर जोर देती उनकी बातों ने इन बनारसी साड़ी उद्योगों से जुड़े लोगों में बड़ी उम्मीदें जगाईं थीं। स्थिति अब उल्टी है। बनारस में बुनकरों की एक बड़ी आबादी अपने पारंपरिक धंधे से मुंह मोड़ती जा रही है और साड़ियों का ताना-बाना मटियामेट होता जा रहा है। कुछ बरस पहले बुनकरों को पावरलूम से थोड़ी संजीवनी मिली तो सरकार ने बिजली के फ्लैट रेट की कहानी खत्म कर दी।"
बनारस के बुनकर बाहुल्य बड़ी बाजार, रसूलपुरा, काजीसहदुल्लापुरा, बुनकर कालोनी, दोषीपुरा में अनगिनत ऐसे लोग हैं जिनकी बिजली कटी हुई है। पहले हथकरघे डूबे और अब पावरलूम चलाने वालों का दिवाला पिट रहा है। काजी सहदुल्लापुरा के मुबारक अली के पास चार पावरलूम थे। पहले रोजी-रोटी चल जाती थी। इस साल मार्च महीने में अचानक हजारों का बिल आ गया। फ्लैट रेट से कई गुना अधिक बिल भेजा गया तो वह चुकता नहीं कर पाए। इनका समूचा कारोबार बैठ गया। परिवार का पेट भरने के लिए वह पान की दुकान चला रहे हैं।
महंगी बिजली के चलते बाकराबाद के अनीर्रहमान के सभी पावरलूम बंद हैं। घर का खर्च चलाने के लिए वह अपने कारखाने के दरवाजे पर पान की दुकान लगा रहे हैं।
नाइंसाफी का जवाब कौन देगा?
बनारस के मदनपुरा, लमही, बड़ी बाजार, बजरडीहा, लोहता पहड़िया, खेड़ी तालाब, पीलीकोठी आदि इलाकों के बुनकर बीजेपी सरकार के वादों को भूखे के हाथ में झुनझुना मानते हैं। बुनकर अफजाल अहमद कहते हैं कि बिजली का भारी-भरकम बिल अदा कर पाना मुमकिन नहीं है। लूम चलाने वाले बुनकर एक मशीन से मुश्किल से पांच-सात हजार रुपये ही बचा पाते हैं। ऐसे में बुनकर क्या खाएंगे और क्या बचाएंगे। आखिर हम अपने बच्चों का भविष्य कैसे संवार पाएंगे?"
सिर्फ बुनकर ही नहीं, बनारसी साड़ी पर बनने वाला डिजाइन तैयार करने वाले नक्शेबंद भी खासे परेशान हैं। वह लोग भी मुश्किल के दौर से गुजर रहे हैं जो रेशम के धागों पर रंग चढ़ाने का काम करते हैं अथवा खराब साड़ियों की मरम्मत करते हैं। बुनकर हाजी महमूद कहते हैं, "हर बार चुनाव में सरकार बुनकरों के लिए बड़े-बड़े वादे करती है। जब सत्ता में सरकार आती है तो बुनकरों को मिलने वाली सुविधा भी बंद कर दी जाती हैं।"
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बनारस में आज करीब सवा चार लाख बुनकर हैं। समूचे यूपी की बात करें तो 34 जिले हथकरघा बाहुल्य हैं। राज्य में हथकरघा, बुनकरों और बुनकर सहकारी समितियों की संख्या क्रमश: 1.91 लाख, 0.80 लाख और 20,421 है। मऊ, अंबेडकर नगर, वाराणसी, मेरठ, कानपुर, झांसी, इटावा, संतकबीरनगर आदि जिले पावरलूम बाहुल्य हैं। बनारस में बुनकरों की सबसे घनी आबादी पीलीकोठी, बड़ी बाज़ार, छित्तनपुरा, लल्लापुरा, बजरडीहा, सरैया, बटलोइया, नक्खीघाट आदि मुहल्लों में है।
बनारसी साड़ी का कारोबार तक़रीबन एक हज़ार करोड़ का रहा है, जिसमें 300 से 400 करोड़ की साड़ियां हर साल एक्सपोर्ट होती रही हैं। कभी ये आंकड़ा इससे कई गुना ज़्यादा था, क्योंकि तब इससे जुड़े रॉ मैटेरियल बनारस और देश के कई हिस्सों में ही बनाए जाते थे। आज हालत ये है कि ज्यादातर यार्न चीन से आने लगा है। इस यार्न पर 12 फीसदी टैक्स थोपा गया है, जिससे बनारसी साड़ी के काराबारियों की रीढ़ टूटती जा रही है।
पीलीकोठी के जियाउल रहमान, कलीमुद्दीन, हाफिज, मोजाम्मिन हसन, टीपू सुल्तान, सगीर, हसीन अहमद, वसीम समेत सैकड़ों बुनकर सरकारी उदासीनता के दस्तावेज़ में शामिल हैं। इनकी नाराज़गी इस बात से है कि सरकार इनकी ज़िंदगी को आसान बनाने को तैयार नहीं है। बनारसी साड़ियों के एक बड़े विक्रेता सूर्यकांत कहते हैं, "ब्रोकेड, जरदोजी, ज़री मेटल, गुलाबी, मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी और रियल ज़री की बनारसी साड़ी की आज भी ज़बरदस्त डिमांड है। प्योर सिल्क का साड़ियों को अब चाइना सिल्क की सस्ती साड़ियों से चुनौती मिल रही है। समझ नहीं आ रहा कि हम करें भी तो क्या?"
बुनकर दस्तकार अधिकार मंच अध्यक्ष इदरीश अंसारी इस बात से आहत हैं कि बनारस के बाजारों में साड़ियों के खरीददार नहीं हैं। लूम और हथकरघे बंद हैं। काम की तलाश में बनारस छोड़कर बुनकर दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। सूरत और बंगलुरू में इतनी ज्यादा भीड़ बढ़ गई है कि वहां भी अब काम नहीं मिल पा रहा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सरकार ने अब बनारसी साड़ियों को एक्सपोर्ट करने का धंधा कारपोरेट घरानों के हवाले कर दिया है। वह कहते हैं, "टैक्स विदेशों से आने वाले रेशमी कपड़ों पर होना चाहिए, लेकिन मोदी सरकार रेडीमेड कपड़े वालों पर ज्यादा मेहरबान है। यार्न पर टैक्स ज्यादा और कपड़ों पर काफी कम है। यह नाइंसाफी बनारसी साड़ी उद्योग को तबाह कर रही है। बनारस में कोई नया पॉवरलूम नहीं लग रहा है। जो हैं वो लगातार बिकते जा रहे हैं। ग़रीबी के चलते बुनकर अब खुदकुशी भी करने लगे हैं।"
हथकरघा पर काम करती महिलाएँ
"बनारस की तंजीमों को अभी तक यह जानकारी नहीं है कि उनके धंधे में कॉरपोरेट की घुसपैठ हो चुकी है। जिस दिन पता चलेगा, उनके होश फाख्ता हो जाएंगे। बनारसी अलमस्त ज़िंदगी जीने वाले मिडिल क्लास बुनकरों को अब गुलामों की तरह काम करना होगा। बुनकरों की साड़ियों में खामी निकालकर पैसा ऐंठने वाले बेईमान गद्दीदारों के शोषण ने ही कॉरपोरेट घरानों को बनारसी साड़ी कारोबार में घुसपैठ करने का मौका दिया है। बनारस में टाटा और अंबानी की बुनकरशालाएं कुछ ही सालों में गद्दीदारों का खात्मा करने के क़रीब पहुंच जाएंगी। कुछ बरस और इंतज़ार कीजिए, बनारस का समूचा साड़ी कारोबार अंबानी और टाटा के हाथ में चला जाएगा।"
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक गुलजार अहमद कहते हैं, "मोदी सरकार की दोषपूर्ण नीतियां बनारसी साड़ियों के पुश्तैनी धंधे को निगलती जा रही हैं। बाजार में सन्नाटा है। बिजली बिलों की मार ने कराहते बनारसी साड़ी उद्योग पर छाए आफत के बादलों ने बेरोजगर बुनकरों को तबाह कर दिया है। हुनरमंद हाथों में अब हथकरघे का हत्था नहीं है। किसी के हाथ में रिक्शा है, फावड़ा है या फिर भीख का कटोरा है।"
बुनकरों को भगीरथ की तलाश?
बनारस के साड़ी कारोबार से जुड़ा एक तबका ऐसा भी है जो चाहता है कि कॉरपोरेट घराने मजबूती के साथ यहां आएं और बुनकरों की डूबती नैया को पार लगाएं। इन्हीं में एक हैं अंगिका कुशवाहा। प्योर बनारसी साड़ी कारोबार के क्षेत्र में अंगिका तेज़ी से उभरता एक नाम है। रामनगर की 27 वर्षीया इस युवा फनकार ने एक हज़ार से अधिक बुनकरों को अपने साथ जोड़ा है। वह कहती हैं, "बनारस में हर महीने 40 हज़ार टन नकली धागा साड़ियों में खप रहा है। क़रीब दो लाख पावरलूम पर क़रीब तीन लाख बुनकर काम करते हैं, जिनके हाथों से बनी लाखों नकली साड़ियां बाज़ार में पहुंच रही हैं।"
बनारस में साड़ियों को प्रमोट करती अंगिका कुशवाहा
यूपिका के चेयरमैन अमरेश कुशवाहा को लगता है कि सरकार बुनकरी के कारोबार को खासा तबज्जो दे रही है। वह कहते हैं, "बनारस में दस लाख से अधिक लोग किसी न किसी रूप में साड़ी कारोबार से जुड़े हैं। जब तक विश्व बाज़ार में बनारसी साड़ियों की डिमांड नहीं होगी, तब तक इस कारोबार से न बुनकरों का भला होगा, न कारोबारियों का। बनारसी साड़ी के धंधे में जब कॉरपोरेट घराने उतरेंगे, तभी बुनकरों का शोषण और उत्पीड़न बंद होगा। बनारसी साड़ियों के गद्दीदार न तो बुनकरों पर ध्यान दे रहे थे और न ही ग्राहकों का। नकली सिल्क की साड़ियां असली बताकर बेची जा रही थीं। कॉरपोरेट घराने जब खुद साड़ियां बुनवाने लगेंगे तो लूट-खसोट करने वाले गद्दीदारों का खेल हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा। बाज़ार में सिर्फ़ वही लोग टिकेंगे जो करघे पर सिर्फ़ असली साड़ियां बुनेंगे।"
(लेखक विजय विनीत बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)