इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थित वक्फ मस्जिद को परिसर से हटाने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट 13 मार्च को सुनवाई करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2017 के उस फैसले के खिलाफ याचिका पर सुनवाई स्थगित कर दी, जिसमें अतिक्रमण के लिए वक्फ मस्जिद नामक मस्जिद को उसके परिसर से हटाने का निर्देश दिया गया था। इस फैसले से नाराज वक्फ बोर्ड ने दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसने मस्जिद के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।
लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस सी.टी. रविकुमार की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता-बोर्ड के कहने पर मामले को सोमवार, 13 मार्च को सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने कहा कि वक्फ केवल पट्टेदारों के सुप्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद रजिस्टर्ड किया गया, जिन्होंने मूल रूप से 'टिन शेड' से अधिक का निर्माण नहीं किया था। कोर्ट ने उन्हें अतिक्रमण की गई भूमि का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया था।
प्रतिवादी हाईकोर्ट की ओर से उपस्थित सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने दावा किया, “मूल रूप से कोई मस्जिद थी ही नहीं। भूमि के पार्सल के तीन पट्टेदारों को सुप्रीम कोर्ट में मुकदमेबाजी के पहले दौर में कब्जा सौंपने का निर्देश दिया गया। तभी उन्होंने वक्फ बनाया और उसका रजिस्ट्रेशन कराया। अब ये वक्फ बोर्ड कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन, यह महज अतिक्रमण का मामला है। मूल पट्टा 1996 में रजिस्टर्ड किया गया और 1998 में नवीनीकृत किया गया। किसी भी दस्तावेज़ में मस्जिद का कोई उल्लेख नहीं है। यहां तक कि मुकदमे के पहले दौर में भी किसी मस्जिद का जिक्र नहीं किया गया।”
सीनियर वकील ने इस बात पर भी जोर दिया कि विवादित क्षेत्र को एडवोकेट जनरल के कार्यालय के साथ-साथ हाईकोर्ट के एनेक्सी के निर्माण के लिए आवश्यक है, जिसमें रजिस्ट्री और न्यायाधीशों का चैंबर होगा।
उत्तर प्रदेश की एडिशनल एडवोकेट जनरल गरिमा प्रसाद ने कहा कि "हमें इमारत की सख्त जरूरत है। अदालत के सामने एडवोकेट जनरल ऑफिस में भी आग लग गई। यह जल गया है।”बोर्ड की ओर से इस आधार पर स्थगन की मांग की गई कि सीनियर एडवोकेट उपलब्ध नहीं है। जब स्थगन का मामला उठा तो द्विवेदी ने मामले को शीघ्र सूचीबद्ध करने का जोरदार अनुरोध किया।
द्विवेदी ने कहा, "हम सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के बाद भी पिछले दस सालों से इंतजार कर रहे हैं।" उन्होंने आगे कहा, “यह केवल छुट्टी के बाद ही लेना संभव होगा। वैसे भी अच्छे काम तो होली के बाद ही करने हैं। हमारे यहां कहते हैं कि सामने होली आती है तो अच्छा काम नहीं करते।
खंडपीठ ने कहा, "13 मार्च को पेश करें। उस दिन किसी भी आधार पर और समय नहीं दिया जाएगा।" चीफ जस्टिस दिलीप बी. भोसले ने कहा, विवाद के केंद्र में इलाहाबाद हाईकोर्ट के परिसर के भीतर स्थित मस्जिद है, जिस पर आरोप लगाया गया कि अवैध रूप से अतिक्रमित भूमि पर निर्माण किया गया। 2017 में हाईकोर्ट ने रजिस्ट्रार-जनरल को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि इलाहाबाद या लखनऊ में इसके परिसर का कोई भी हिस्सा "धर्म का पालन करने या प्रार्थना करने या पूजा करने या किसी भी धार्मिक गतिविधि को करने के लिए उपयोग करने की अनुमति नहीं है। जबकि एक नागरिक को अपनी पसंद के धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, वह सार्वजनिक भूमि या दूसरों की भूमि पर अनधिकृत तरीके से धर्म के नाम पर संरचनाओं के निर्माण के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।"
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सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2017 के उस फैसले के खिलाफ याचिका पर सुनवाई स्थगित कर दी, जिसमें अतिक्रमण के लिए वक्फ मस्जिद नामक मस्जिद को उसके परिसर से हटाने का निर्देश दिया गया था। इस फैसले से नाराज वक्फ बोर्ड ने दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसने मस्जिद के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।
लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस सी.टी. रविकुमार की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता-बोर्ड के कहने पर मामले को सोमवार, 13 मार्च को सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने कहा कि वक्फ केवल पट्टेदारों के सुप्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद रजिस्टर्ड किया गया, जिन्होंने मूल रूप से 'टिन शेड' से अधिक का निर्माण नहीं किया था। कोर्ट ने उन्हें अतिक्रमण की गई भूमि का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया था।
प्रतिवादी हाईकोर्ट की ओर से उपस्थित सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने दावा किया, “मूल रूप से कोई मस्जिद थी ही नहीं। भूमि के पार्सल के तीन पट्टेदारों को सुप्रीम कोर्ट में मुकदमेबाजी के पहले दौर में कब्जा सौंपने का निर्देश दिया गया। तभी उन्होंने वक्फ बनाया और उसका रजिस्ट्रेशन कराया। अब ये वक्फ बोर्ड कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन, यह महज अतिक्रमण का मामला है। मूल पट्टा 1996 में रजिस्टर्ड किया गया और 1998 में नवीनीकृत किया गया। किसी भी दस्तावेज़ में मस्जिद का कोई उल्लेख नहीं है। यहां तक कि मुकदमे के पहले दौर में भी किसी मस्जिद का जिक्र नहीं किया गया।”
सीनियर वकील ने इस बात पर भी जोर दिया कि विवादित क्षेत्र को एडवोकेट जनरल के कार्यालय के साथ-साथ हाईकोर्ट के एनेक्सी के निर्माण के लिए आवश्यक है, जिसमें रजिस्ट्री और न्यायाधीशों का चैंबर होगा।
उत्तर प्रदेश की एडिशनल एडवोकेट जनरल गरिमा प्रसाद ने कहा कि "हमें इमारत की सख्त जरूरत है। अदालत के सामने एडवोकेट जनरल ऑफिस में भी आग लग गई। यह जल गया है।”बोर्ड की ओर से इस आधार पर स्थगन की मांग की गई कि सीनियर एडवोकेट उपलब्ध नहीं है। जब स्थगन का मामला उठा तो द्विवेदी ने मामले को शीघ्र सूचीबद्ध करने का जोरदार अनुरोध किया।
द्विवेदी ने कहा, "हम सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के बाद भी पिछले दस सालों से इंतजार कर रहे हैं।" उन्होंने आगे कहा, “यह केवल छुट्टी के बाद ही लेना संभव होगा। वैसे भी अच्छे काम तो होली के बाद ही करने हैं। हमारे यहां कहते हैं कि सामने होली आती है तो अच्छा काम नहीं करते।
खंडपीठ ने कहा, "13 मार्च को पेश करें। उस दिन किसी भी आधार पर और समय नहीं दिया जाएगा।" चीफ जस्टिस दिलीप बी. भोसले ने कहा, विवाद के केंद्र में इलाहाबाद हाईकोर्ट के परिसर के भीतर स्थित मस्जिद है, जिस पर आरोप लगाया गया कि अवैध रूप से अतिक्रमित भूमि पर निर्माण किया गया। 2017 में हाईकोर्ट ने रजिस्ट्रार-जनरल को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि इलाहाबाद या लखनऊ में इसके परिसर का कोई भी हिस्सा "धर्म का पालन करने या प्रार्थना करने या पूजा करने या किसी भी धार्मिक गतिविधि को करने के लिए उपयोग करने की अनुमति नहीं है। जबकि एक नागरिक को अपनी पसंद के धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, वह सार्वजनिक भूमि या दूसरों की भूमि पर अनधिकृत तरीके से धर्म के नाम पर संरचनाओं के निर्माण के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।"
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