मौलवी साहब वाला खुदा...

Written by हसन पाशा | Published on: November 10, 2022
हमारे मौलवी साहबों ने खुदा की एक बेहद खौफ़नाक इमेज बना रखी है। ये ऐसा खुदा है जो बात-बात पर नाराज़ हो जाता है। उसके नाराज़ होने का मतलब है कि जहन्नुम की आग आपका इंतज़ार कर रही है। इंसान कन्फ्यूज़्ड है कि खुदा को क्या पसंद है, क्या नहीं। मौलवी साहब आये दिन खुदा को खुश या नाराज़ करने वाली नई बातें ले कर आ जाते हैं। 


प्रतीकात्मक तस्वीर

पाजामे की लंबाई कितनी होनी चाहिए, दाढ़ी के ऊपर मूछ नहीं होनी चाहिए, नमाज़ में खड़े हैं तो टांगों के बीच फ़ासला कितना होना चाहिए, खड़े किस तरह हों, बैठें कितनी देर, किस तरह की टोपी लगाने से अल्लाह को खुशी मिलती है, पलंग से उतरें तो किस तरफ़ से उतरें, क्या पढ़ कर सोएं और क्या पढ़ कर जागें, बीवी से हमबिस्तरी के दौरान क्या न करें और क्या पढ़ें.. यानी हमारी ज़िंदगी की शुरू से आखिर तक, हमारी छोटी से छोटी, बेहद मासूम नजर आने वाली गतिविधियों तक पर अल्लाह ताला की नज़र है और बकौल मौलवी साहबान इनमें से एक एक बात पर आपके हक़ में या आपके खिलाफ़ खुदा जन्नत और दोज़ख तय करता है। 

एक मौलवी साहब ने मुझे बताया कि बग़ैर मूंछ वाली दाढ़ी आपको जन्नत की गारंटी देती है। 

अजीब बात है कि हमारे मौलवी साहब लोग जो इतनी सारी गुनाह और सवाब की चीज़ें समझाते हैं, उन्हें ले कर कहाँ से आते हैं, क्या अल्लाह से उनका सीधा तार जुड़ गया है, कुरान में तो इनमें से ज्यादातर बातें हैं नहीं। पूछिए तो पता नहीं कहाँ-कहाँ की हदीसें सुनाने लगते हैं। ये हदीसें जो दसियों हज़ार की तादाद में हैं, पूरी ज़िंदगी लगा दीजिए तब भी सारी नहीं पढ़ पाएंगे, और जिनकी शुरुआत मोहम्मद साहब की वफ़ात के दो सौ साल बाद हुई थी। अब अगर इनसे कहिए कि कुरान तो कहता है कि दीन के मामलों में हमें दूसरी किताबों में भटकने की ज़रूरत ही नहीं है, हमारे लिए हर बात कुरान में है, और कुरान ये भी कहता है कि इसमें जो कहा गया है बस वहीं तक रहो, तो ये आलिम कहलाने वाले लोग या तो तलवार खींच लेंगे या नाराज़ होकर उठ जाएंगे।

कन्फ़्युजन तब और बढ़ जाता है जब मौलवी साहबान अपनी ही कही पिछली बात को भुलाकर कुछ और कहने लगते हैं। जब रेल चली तो उसमें बैठने वाला गुनाहगार था, जब चाय आई तो उसे पीना कुफ्र करना था, प्रिंटिंग प्रेस आया तो उस पर कुरान छापने वाला सीधे-सीधे जहन्नुमी था, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की शुरुआत हुई तो सर सय्यद काफ़िर ठहरा दिए गये। पूछिए, अब ये लोग क्या कहते हैं। 

एक वक़्त था जब हमारे यहाँ कुछ खास मौकों पर मिठाई आती थी या खास खाना बनता था और मौलवी साहब आ कर उस पर फातिहा पढ़ते थे। फिर मौलवी साहबों ने रिसर्च किया, पता नहीं कहाँ रिसर्च किया, और ये फातिहा दोज़ख भेजने वाला बन गया। पहले वो अपनी तकरीरों में अल्लाह और खुदा दोनों लफ़्ज़ कहते थे, फिर 14 सौ साल बाद फतवा आया कि अल्लाह को खुदा कहो तो उसे बुरा लग जाता है।

असल में मौलवी खुद भी कन्फ्यूज़्ड हैं और पब्लिक को भी कन्फ्यूज़ करते रहते है। इस्लाम के 14 सौ सालों में एक बहुत बड़ी मुश्किल ये आयी कि मुसलमान बहुत सारे मसलकों और फ़िरकों में बंटते गए। जितने फ़िरके उतने मौलवी और सब की अपनी अपनी ढपली। इतना मान लेना काफ़ी नहीं रहा कि खुदा एक है और मोहम्मद उसके रसूल हैं। नतीजतन आम मुसलमान यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ भटक रहा है। बस जिसके संपर्क में वो ज़्यादा आ जाता है उसी का हो लेता है। फिर भी खुदा का डर उसको डराता रहता है। वो जितना मज़हबी होता है उतना ही उसका डर बढ़ता रहता है। जवान-जवान लड़के बिना मूछ वाली दाढ़ी रख कर घूम रहे हैं कि शायद इसी तरह जन्नत का दरवाज़ा उनके लिए खुल जाए। कोई ये सोचने को तय्यार नहीं है कि खुदा को उसकी दाढ़ी में क्या दिलचस्पी हो सकती है। इतना सब कुछ कर लेने के बाद उन्हें यक़ीन नहीं होता कि उनको जन्नत मिलेगी। यानी डर है कि दिल से जाता ही नहीं।

इस्लाम की दुनिया में न जाने कितने सूफ़ी और वाली हुए हैं जिन्होंने ज़ोर दे-देकर कहा कि खुदा डरने की नहीं, मोहब्बत करने की चीज़ है। राबिया बसरी ने कहा है कि अगर तुम दोज़ख के डर और जन्नत की लालच में इबादत करते हो तो मत करो, बेकार है। खुदा तुम्हारे डर में नहीं, तुम्हारी मोहब्बत में है। जलाल उद्दीन रूमी का कहना है, अल्लाह से खुद को जोड़ना चाहते हो तो किसी की नहीं,अपने दिल की सुनो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी इबादत का तरीक़ा क्या है, असल सवाल ये है कि तुम्हारे दिल में क्या है, मोहब्बत या कुछ पाने का लालच। जहां कुछ पाने का लालच है वहां मोहब्बत नहीं रह सकती। और अल्लाह की मोहब्बत तुम्हारे दिल में तभी पैदा हो सकती है, जब तुम इबादत का अपना तरीक़ा तलाश करोगे।

बुल्ले शाह, शेख फरीद,कबीर जैसी कितनी ही आवाज़ें थीं जिन्होंने मोहब्बत के पुल से अल्लाह तक पहुँचने का रास्ता दिखाया। अफसोस कि होश की आवाजों को मौलवियों के नगाड़ों ने दबा दिया। 

हर दिन एक नया फतवा आ जाता है। नए फतवे पुराने फतवों को रद्द करते रहते हैँ। अब तक मरने वाले के लिए लोग कुरान पढ़ते थे। अब एक नये फतवे ने इसे भी गुनाह में शामिल कर लिया है। फतवे आते जाते हैं, कन्फ़्युजन बढ़ता जाता है। और एक आम मज़हबी मुसलमान के सामने दोज़ख का डर सारे एहतियात बरत लेने के बाद भी ज्यों का त्यों बना रहता है। 

ये डर दोज़ख और जन्नत के मामलों तक सीमित नहीं होता। क़दम-क़दम पर डर उसका पीछा करता है। नौकरी छूट गयी, घर गिरा और बुढ़िया मर गई, कोई प्रियजन बीमार पड़ गया, यहाँ तक कि राह चलते नाली में गिर गये तो उसे यही लगता है कि खुदा किसी बात पर नाराज़ हो गया। वो ये भी नहीं जानता कि उसकी नाराज़गी की वजह क्या थी। 

हमारे रिश्ते के एक मामू थे, बेहद नमाज़ी और परहेज़गार। उनके माथे पर एक बड़ा सा गुम्मड़ निकल आया। पूछा कि क्या हुआ, जवाब मिल,” मियां, ये गुनाहों की सज़ा है।“ मैं हैरान रह गया। सारी उम्र जिस आदमी ने चौबीस इंच के पायजामे और बग़ैर मूंछ की दाढ़ी में गुज़ार दी, जो क़दम क़दम पर मौलवियों की हिदायतों पर चला उससे भी अल्लाह ने नाराज़ हो कर उसके सिर पर  गुम्मड़ निकाल दिया। 

फिर तो मुश्किल नहीं नामुमकिन है इस मौलवी साहबों वाले खुदा को खुश करना। 

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