आजादी के जुनून में महज 19 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए थे खुदीराम बोस

Written by Sabrangindia Staff | Published on: August 11, 2021
भारत की आजादी के लिए जिन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए उनमें एक नाम है खुदीराम बोस का। जिस उम्र में युवा अपने भविष्य को लेकर सपने बुनता है उस उम्र यानि महज 18 साल की आयु में खुदीराम बोस खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल गए थे, वो भी सिर्फ देश की आजादी के लिए। 1908 में आज ही के दिन खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने फांसी की फंदे पर लटका दिया था। 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले में पैदा हुए खुदीराम बोस महज 16 साल की उम्र में आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। 


 
खुदीराम बोस में देश की आजादी को लेकर किस तरह का जूनून था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 9 की पढ़ाई बीच में छोड़ इसलिए छोड़ दी क्योंकि उन्हें जंग-ए-आजादी में शामिल होना था। स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने। 17 साल की उम्र में ही उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया था लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। खुदीराम बोस में देश की आजादी को लेकर कुछ भी कर गुजरने का जूनून था।

खुदीराम बोस बचपन में ही अरविंद घोष और बीरेंद्र घोष जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में आए जिनसे प्रेरित होकर उन्होंने क्रांतिकारी बनने की ठान ली थी। 1902 में अरविंद घोष मिदनापुर आए थे जहां किशोर खुदीराम की उनसे मुलाकात हुई। क्रांतिकारियों के आजादी के आंदोलन की बातें सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए थे। वे कोलकाता की अनुशीलन समिति के सदस्य भी थे।

30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर क्लब के सामने एक जोरदार बम धमाका हुआ। यह धमाका दमनकारी जज किंग्सफोर्ड को मौत की घाट उतारने के लिए किया गया था, जो रोज उस रास्ते से बग्गी में सवार होकर निकलता था। बम की चपेट में किंग्सफोर्ड तो नहीं आया लेकिन एक अंग्रेज वकील की बेटी और पत्नी दोनों मारे गए। 

इस धमाके को अंजाम दिया था खुदीराम बोस ने, जिसके बाद अंग्रेजी हकूमत की चूलें हिलने लगी। उसी दिन राम को खुदीराम बोस को अरेस्ट कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। महज 8 दिन हुई सुनवाई में खुदीराम बोस को फांसी की सजा मुकर्रर हुई। इसके खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में अपील की गई लेकिन कोर्ट ने सजा को बरकरार रखा और अंतत 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी पर लटका दिया गया।

जब खुदीराम बोस को फांसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था तो उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। मुज्जफरपुर सेंट्रल जेल में में जब खुदीराम को फांसी दी गई तो उनके हाथ में गीता थी। शहीद होने के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हुए कि उनकी खास किस्म की धोती युवाओं में फैशन का आइकन बन गई। इस धोती के किनारे पर खुदीराम लिखा होता था।



खुदीराम जी की देश की आजादी के लिए दिए गए त्याग, कुर्बानयों, बलिदान, और साहसिक योगदान को अमर रखने के लिए कई गीत भी लिखे गए, और इनका बलिदान लोकगीतों के रुप में मुखरित हुए। इसके अलावा इनके सम्मान में कई भावपूर्ण गीतों की रचना हुई, जिन्हें बंगाल के गायक आज भी गाते हैं।

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