नई दिल्ली। असम में करीब डेढ़ साल तक एक परिवार को अवैध विदेशी के रूप में डिटेंशन सेंटर में रखने के बाद अब उसे भारतीय घोषित किया गया है। अंग्रेजी समाचार पत्र द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, 34 वर्षीय हुसैन, उनकी पत्नी सहेरा बेगम (26) और उनके दो नाबालिग बच्चों को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी) ने भारतीय ठहराया है।
मोहम्मद नूर हुसैन असम में उदालगुरी जिले के लॉडॉन्ग गांव के रहने वाले हैं और गुवाहाटी में रिक्शा चलाते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमें गर्व है कि हम भारतीय हैं। हम असम के हैं। उन्होंने हम पर बांग्लादेशी होने का गलत आरोप लगाया था और कहा था कि हम गैरकानूनी ढंग से बॉर्डर पार करके आए हैं। यह कैसे संभव हो सकता है? मैं यहां पैदा हुआ था।’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक हुसैन के दादा-दादी का नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में था, उनके पिता एवं दादा-दादी का नाम 1965 के मतदाता सूची में भी था। वहीं बेगम के भी पिता का नाम 1951 के एनआरसी और 1966 के वोटर लिस्ट में था। परिवार के 1958-59 से जमीन के कागजात हैं। असम में भारतीय नागरिक पहचान के लिए कट-ऑफ तारीख 24 मार्च 1971 है।
हालांकि इन सब के बावजूद गुवाहाटी पुलिस ने हुसैन और बेगम की नागरिकता पर यकीन नहीं किया और साल 2017 में इसे लेकर जांच शुरू की। हुसैन ने बताया कि वे दोनों ही उतने पढ़े लिखे नहीं हैं कि दस्तावेज को समझ सकें और आगे की कार्रवाई की योजना बना सकें। उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वकील का इंतजाम कर सकें।
हुसैन ने किसी तरह एक वकील को 4,000 रुपये दिया, वहीं उनकी बिना वकील के ट्रिब्यूनल में पेश हुईं। पीड़ित परिवार की समस्याएं यहीं नहीं खत्म हुईं, हुसैन के वकील ने 28 अगस्त 2018 को केस छोड़ दिया, जिसके चलते उन्हें फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में कई सारी सुनवाई नहीं मिला पाई।
वकील ने कहा कि पुलिस से बचने के लिए वे गुवाहाटी छोड़कर भाग जाएं, लेकिन हुसैन ने ऐसा नहीं किया। बाद में ट्रिब्यूनल ने दोनों को विदेशी घोषित कर दिया और जून 2019 में उन्हें गिरफ्तार कर गोआलपाड़ा के डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया। बेगम ने बताया कि चूंकि उनके बच्चों की देखभाल करने के लिए कोई नहीं था, इसलिए उन्हें अपने बच्चों (7 और 5 साल) को भी अपने साथ डिटेंशन सेंटर ले जाना पड़ा।
बाद में कुछ संबंधियों की गुजारिश पर गुजरात स्थित मानवाधिकार वकील अमन वदूद इस केस को गुवाहाटी हाईकोर्ट ले गए, जहां न्यायालय ने एफटी के आदेश को खारिज कर दिया और फिर से इस केस की सुनवाई करने को कहा। वदूद ने कहा कि बहुत सारे लोग इसलिए भी ‘विदेशी’ ठहराए जा रहे हैं क्योंकि उनके पास वकील की फीस भरने के पैसे नहीं है, जिसके कारण वे केस नहीं लड़ पाते हैं।
मोहम्मद नूर हुसैन असम में उदालगुरी जिले के लॉडॉन्ग गांव के रहने वाले हैं और गुवाहाटी में रिक्शा चलाते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमें गर्व है कि हम भारतीय हैं। हम असम के हैं। उन्होंने हम पर बांग्लादेशी होने का गलत आरोप लगाया था और कहा था कि हम गैरकानूनी ढंग से बॉर्डर पार करके आए हैं। यह कैसे संभव हो सकता है? मैं यहां पैदा हुआ था।’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक हुसैन के दादा-दादी का नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में था, उनके पिता एवं दादा-दादी का नाम 1965 के मतदाता सूची में भी था। वहीं बेगम के भी पिता का नाम 1951 के एनआरसी और 1966 के वोटर लिस्ट में था। परिवार के 1958-59 से जमीन के कागजात हैं। असम में भारतीय नागरिक पहचान के लिए कट-ऑफ तारीख 24 मार्च 1971 है।
हालांकि इन सब के बावजूद गुवाहाटी पुलिस ने हुसैन और बेगम की नागरिकता पर यकीन नहीं किया और साल 2017 में इसे लेकर जांच शुरू की। हुसैन ने बताया कि वे दोनों ही उतने पढ़े लिखे नहीं हैं कि दस्तावेज को समझ सकें और आगे की कार्रवाई की योजना बना सकें। उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वकील का इंतजाम कर सकें।
हुसैन ने किसी तरह एक वकील को 4,000 रुपये दिया, वहीं उनकी बिना वकील के ट्रिब्यूनल में पेश हुईं। पीड़ित परिवार की समस्याएं यहीं नहीं खत्म हुईं, हुसैन के वकील ने 28 अगस्त 2018 को केस छोड़ दिया, जिसके चलते उन्हें फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में कई सारी सुनवाई नहीं मिला पाई।
वकील ने कहा कि पुलिस से बचने के लिए वे गुवाहाटी छोड़कर भाग जाएं, लेकिन हुसैन ने ऐसा नहीं किया। बाद में ट्रिब्यूनल ने दोनों को विदेशी घोषित कर दिया और जून 2019 में उन्हें गिरफ्तार कर गोआलपाड़ा के डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया। बेगम ने बताया कि चूंकि उनके बच्चों की देखभाल करने के लिए कोई नहीं था, इसलिए उन्हें अपने बच्चों (7 और 5 साल) को भी अपने साथ डिटेंशन सेंटर ले जाना पड़ा।
बाद में कुछ संबंधियों की गुजारिश पर गुजरात स्थित मानवाधिकार वकील अमन वदूद इस केस को गुवाहाटी हाईकोर्ट ले गए, जहां न्यायालय ने एफटी के आदेश को खारिज कर दिया और फिर से इस केस की सुनवाई करने को कहा। वदूद ने कहा कि बहुत सारे लोग इसलिए भी ‘विदेशी’ ठहराए जा रहे हैं क्योंकि उनके पास वकील की फीस भरने के पैसे नहीं है, जिसके कारण वे केस नहीं लड़ पाते हैं।