उप्र ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में दलित राजनीति की बात करें तो सबसे ऊपर मायावती का ही नाम आता है लेकिन देश-प्रदेश के राजनीतिक काल खंड में उनके हालिया कदम को खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा माना व बताया जा रहा है। ऐसे में सवाल मौजू हो उठता है कि यह उनका राजनीतिक भटकाव है या फिर वह किसी दबाव में हैं।
मायावती की यह समझौता-परस्त राजनीति उस वक्त सामने आई है जब ताकतवर सत्ताधारी भाजपा का ब्राह्मणवादी हिंदुत्व या उससे उपजी उसकी अधिनायकवादी कारपोरेट-परस्त राजनीति, दोनों का सबसे बुरा असर दलित, आदिवासी, मजदूर, किसान और अति पिछड़े वर्गों व अल्पसंख्यकों पर ही पड़ रहा है। निजीकरण के कारण दलितों का सरकारी नौकरियों में आरक्षण लगभग खत्म हो गया है। नए कृषि कानूनों से किसान परेशान हैं तो श्रम कानूनों के शिथिलीकरण से मजदूरों को मिलने वाले सारे संरक्षण लगभग समाप्त हो गए हैं। दलितों और आदिवासियों का शोषण बढ़ा है।
यही नहीं, इन वर्गों के मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले तथा उनकी पैरवी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों तक को माओवादी व राष्ट्रविरोधी करार देकर तरह तरह के आरोपों में जेल में डाला जा रहा है। सामंती व पूंजीवादी ताकतें हमलावर हैं। सरकार पूरी तरह से इन जन-विरोधी ताकतों के साथ है और हरेक विरोधी आवाज को दबाने पर तुली है। लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का बुरी तरह से दमन हो रहा है। कानूनों के दुरुपयोग के साथ, वर्तमान कानूनों को अधिक क्रूर बनाया जा रहा है। लोगों को फर्जी मुकदमे लगा कर जेलों में डाला जा रहा है।
ऐसे समय में उत्तर भारत में दलितों की आवाज़ माने जाने वाली मायावती की चुप्पी व समझौतावादी हालिया राजनीति उनके समर्थकों को ही नहीं, उनसे हमदर्दी रखने वाले हर किसी को परेशान व हैरान कर दे रही है। ऐसे में इसे, उनके राजनीतिक भटकाव के चलते आत्मघाती कदम के तौर पर देखा जाना स्वाभाविक ही कहा जाएगा।
वैसे देखा जाए तो 2019 में सपा के साथ बुआ-बबुआ का गठबंधन तोड़ने के बाद से ही उनकी राजनीति संदेह और सवालों के घेरे में है कि यह उनका राजनीतिक भटकाव है या फिर कोई बाहरी दबाव उन्हें यह सब करने को मजबूर कर रहा है। दोनों ही स्थिति कम से कम, बसपा और दलित राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं।
हालांकि मायावती पर यह आरोप सालों से लग रहे हैं कि वह बीजेपी के प्रति नरम हैं या उनकी अंदरखाने बीजेपी से साठगांठ है। उत्तर प्रदेश में जनहित के कई मुद्दों पर चुप्पी साध लेने वालीं मायावती की पार्टी के नेता इन आरोपों को नकारते रहे हैं लेकिन राज्यसभा चुनाव 2020 में आकर एकदम साफ हो गया हैं कि बिना आग के धुंआ नहीं उठता है।
उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के चुनाव में जब बीजेपी ने संख्या बल के बावजूद बसपा के लिए एक सीट छोड़ी, तो यह चर्चाएं तेज हो उठी और उनके अपने विधायक भी इससे बिफर गए और बग़ावत कर दी। असलम राइनी, असलम अली, मुजतबा सिद्दीकी, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह और हाकिम लाल बिंद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ चले गए।
इस पर बसपा सुप्रीमो मायावती का बिफरना भी लाजिमी और जायज था। उन्होंने सपा मुखिया अखिलेश यादव पर सीधे हमला बोलते हुए यहां तक कह दिया कि सपा के डीएनए में ही धोखा है। कहा पहले 2003 में मुलायम सिंह यादव ने उनके विधायक तोड़े थे और अब बेटा वही काम कर रहा हैं। मायावती यही नहीं रुकी। उन्होंने कहा कि गेस्ट हाउस कांड केस वापस लेना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। यहां तक गुस्सा जाहिर था लेकिन इसके बाद मायावती ने जो कुछ कहा, उसने राजनीतिक पंडितों के उनके भाजपा के प्रति नरम रुख को लेकर तमाम शक-सुबहो को दूर कर दिया। मायावती ने कहा है कि सपा को हराने के लिए अगर भाजपा को वोट करना पड़े तो वह भी किया जाएगा।
इस पर भाजपा का यह कहकर, कि पहले भी गेस्ट हाउस में उन्होंने रक्षा की थी आगे भी करेंगे, उनके बचाव में उतरना राजनीति से ज्यादा, सांठगांठ की स्क्रिप्ट का ही हिस्सा नजर आता है। इसी से विपक्ष भी हमलावर हो उठा है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने तंज कसने में तनिक भी देर नहीं लगाई। प्रियंका गांधी ने मायावती के बीजेपी को परोक्ष समर्थन के संकेत पर बसपा सुप्रीमो के वीडियो के साथ पोस्ट करते हुए, कमेंट किया कि क्या अब और कुछ कहना बाकी रह गया है।
हालांकि भाजपा से सांठगांठ के आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई न होने की बात कहते हुए, मायावती ने पलटवार किया है कि राज्यसभा में पर्चे जांच के समय सपा ने अपना दलित विरोधी चेहरा फिर दिखाया है और सफलता न मिलने पर खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तरह अब, भाजपा के साथ सांठगांठ कर, चुनाव लड़ने का आरोप लगा रही है।
इस सबके बीच राजनीतिक टीकाकारों और दलित राजनीति से हमदर्दी रखने वालों के लिए जो बात सबसे ज्यादा चौंकाने व हैरान करने वाली है वो यह कि भाजपा के समर्थन के संकेत वाला मायावती का यह बयान उस वक्त आया है जब बिहार में चुनाव हो रहे हैं और बसपा खुद गठबंधन में भाजपा के खिलाफ चुनाव मैदान में है। इसी से माना जा रहा है कि मायावती का यह बयान आत्मघाती और दबाव में दिया गया बयान है।
मसलन, जानकारों का कहना है कि मायावती एक दिग्गज व सधी हुई राजनीतिज्ञ हैं। बिहार चुनाव में ऐसा बयान उनके आवेश या गुस्से का परिणाम नही हो सकता है। ना ही यह उनकी टंग ऑफ स्लिप (जबान फिसलना) हैं क्योंकि वह पढ़कर बोलती हैं। इसी सब से इस सब के पीछे, कही न कही दबाव की राजनीति ही ज्यादा काम करती दिख रही है।
वैसे देखा जाए तो यह पूरा मामला राज्यसभा सीट के लिए मचे घमासान का है। जिसका नम्बर-गेम भी बसपा व भाजपा की सांठगांठ की चुगली कर रहा है।
मसलन, यूपी में राज्यसभा की दस सीटों के लिए चुनाव हैं। एक सीट जीतने के लिए 37 वोटों की दरकार है। बीजेपी के पास 304 विधायक और 16 समर्थकों के वोट है। यानि 320 विधायक हैं। बीजेपी के 8 उम्मीदवार जीतने को 296 वोट चाहिए जिसके बाद 24 वोट बचते हैं। भाजपा 13 वोटों का इंतजाम कर अपना नौवां उम्मीदवार भी जिता सकती थी, लेकिन कहा जा रहा है कि उसने अपने ये वोट बीएसपी को देने का वादा किया है। बीएसपी के पास सिर्फ 18 वोट हैं, जिसमें से मुख्तार अंसारी जेल में है औऱ दो एमएलए पहले से बागी हैं। लिहाजा 15 वोट रखने वाली बीएसपी ने चुनाव में प्रत्याशी उतारा तो भाजपा से सांठगांठ के आरोपों को हवा मिलनी ही थी।
राज्यसभा चुनाव का गणित भी देखें तो मौजूदा समय में विधानसभा में सदस्यों की संख्या 396 है। इनमें बीजेपी के 304, एसपी के 48, बीएसपी के 18, अपना दल (सोनेलाल) के 9, कांग्रेस के 7, सुभासपा के 4, निर्दलीय 3, रालोद और निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल का एक-एक सदस्य हैं। इसके साथ ही एक निर्वाचित सदस्य है। निर्वाचित सदस्य को राज्यसभा चुनाव में वोट का अधिकार नहीं होता। इस हिसाब से 395 सदस्यों के राज्यसभा चुनाव में वोट करने की संभावना है। राज्यसभा चुनावी गणित के हिसाब से 395 सदस्यों के आधार पर एक सीट के लिए 37 विधायकों की जरूरत होगी।
विधायकों की संख्या के आधार पर भाजपा की 8 और सपा की एक राज्यसभा सीट पर जीत तय है। बसपा और कांग्रेस अपने विधायकों की संख्या के आधार पर उम्मीदवारों को राज्यसभा भेजने की स्थिति में नहीं है, लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने अपना प्रत्याशी उतार दिया है। बसपा ने राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर और बिहार के प्रभारी रामजी गौतम ने राज्यसभा उम्मीदवार बनाया है।
सवाल उठने ही है कि जब बसपा के पास पर्याप्त मत नहीं है तो क्या उसे भाजपा से समर्थन मिलेगा या भाजपा से कुछ लोग विद्रोह करेंगे। बहरहाल, यह 9 नवंबर को ही पता चलेगा लेकिन इससे मायावती के भाजपा प्रेम का जो धुंआ उठा है, उसकी आग इतनी आसानी से बुझती तो नहीं दिखती है।
मायावती की यह समझौता-परस्त राजनीति उस वक्त सामने आई है जब ताकतवर सत्ताधारी भाजपा का ब्राह्मणवादी हिंदुत्व या उससे उपजी उसकी अधिनायकवादी कारपोरेट-परस्त राजनीति, दोनों का सबसे बुरा असर दलित, आदिवासी, मजदूर, किसान और अति पिछड़े वर्गों व अल्पसंख्यकों पर ही पड़ रहा है। निजीकरण के कारण दलितों का सरकारी नौकरियों में आरक्षण लगभग खत्म हो गया है। नए कृषि कानूनों से किसान परेशान हैं तो श्रम कानूनों के शिथिलीकरण से मजदूरों को मिलने वाले सारे संरक्षण लगभग समाप्त हो गए हैं। दलितों और आदिवासियों का शोषण बढ़ा है।
यही नहीं, इन वर्गों के मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले तथा उनकी पैरवी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों तक को माओवादी व राष्ट्रविरोधी करार देकर तरह तरह के आरोपों में जेल में डाला जा रहा है। सामंती व पूंजीवादी ताकतें हमलावर हैं। सरकार पूरी तरह से इन जन-विरोधी ताकतों के साथ है और हरेक विरोधी आवाज को दबाने पर तुली है। लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का बुरी तरह से दमन हो रहा है। कानूनों के दुरुपयोग के साथ, वर्तमान कानूनों को अधिक क्रूर बनाया जा रहा है। लोगों को फर्जी मुकदमे लगा कर जेलों में डाला जा रहा है।
ऐसे समय में उत्तर भारत में दलितों की आवाज़ माने जाने वाली मायावती की चुप्पी व समझौतावादी हालिया राजनीति उनके समर्थकों को ही नहीं, उनसे हमदर्दी रखने वाले हर किसी को परेशान व हैरान कर दे रही है। ऐसे में इसे, उनके राजनीतिक भटकाव के चलते आत्मघाती कदम के तौर पर देखा जाना स्वाभाविक ही कहा जाएगा।
वैसे देखा जाए तो 2019 में सपा के साथ बुआ-बबुआ का गठबंधन तोड़ने के बाद से ही उनकी राजनीति संदेह और सवालों के घेरे में है कि यह उनका राजनीतिक भटकाव है या फिर कोई बाहरी दबाव उन्हें यह सब करने को मजबूर कर रहा है। दोनों ही स्थिति कम से कम, बसपा और दलित राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं।
हालांकि मायावती पर यह आरोप सालों से लग रहे हैं कि वह बीजेपी के प्रति नरम हैं या उनकी अंदरखाने बीजेपी से साठगांठ है। उत्तर प्रदेश में जनहित के कई मुद्दों पर चुप्पी साध लेने वालीं मायावती की पार्टी के नेता इन आरोपों को नकारते रहे हैं लेकिन राज्यसभा चुनाव 2020 में आकर एकदम साफ हो गया हैं कि बिना आग के धुंआ नहीं उठता है।
उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के चुनाव में जब बीजेपी ने संख्या बल के बावजूद बसपा के लिए एक सीट छोड़ी, तो यह चर्चाएं तेज हो उठी और उनके अपने विधायक भी इससे बिफर गए और बग़ावत कर दी। असलम राइनी, असलम अली, मुजतबा सिद्दीकी, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह और हाकिम लाल बिंद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ चले गए।
इस पर बसपा सुप्रीमो मायावती का बिफरना भी लाजिमी और जायज था। उन्होंने सपा मुखिया अखिलेश यादव पर सीधे हमला बोलते हुए यहां तक कह दिया कि सपा के डीएनए में ही धोखा है। कहा पहले 2003 में मुलायम सिंह यादव ने उनके विधायक तोड़े थे और अब बेटा वही काम कर रहा हैं। मायावती यही नहीं रुकी। उन्होंने कहा कि गेस्ट हाउस कांड केस वापस लेना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। यहां तक गुस्सा जाहिर था लेकिन इसके बाद मायावती ने जो कुछ कहा, उसने राजनीतिक पंडितों के उनके भाजपा के प्रति नरम रुख को लेकर तमाम शक-सुबहो को दूर कर दिया। मायावती ने कहा है कि सपा को हराने के लिए अगर भाजपा को वोट करना पड़े तो वह भी किया जाएगा।
इस पर भाजपा का यह कहकर, कि पहले भी गेस्ट हाउस में उन्होंने रक्षा की थी आगे भी करेंगे, उनके बचाव में उतरना राजनीति से ज्यादा, सांठगांठ की स्क्रिप्ट का ही हिस्सा नजर आता है। इसी से विपक्ष भी हमलावर हो उठा है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने तंज कसने में तनिक भी देर नहीं लगाई। प्रियंका गांधी ने मायावती के बीजेपी को परोक्ष समर्थन के संकेत पर बसपा सुप्रीमो के वीडियो के साथ पोस्ट करते हुए, कमेंट किया कि क्या अब और कुछ कहना बाकी रह गया है।
हालांकि भाजपा से सांठगांठ के आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई न होने की बात कहते हुए, मायावती ने पलटवार किया है कि राज्यसभा में पर्चे जांच के समय सपा ने अपना दलित विरोधी चेहरा फिर दिखाया है और सफलता न मिलने पर खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तरह अब, भाजपा के साथ सांठगांठ कर, चुनाव लड़ने का आरोप लगा रही है।
इस सबके बीच राजनीतिक टीकाकारों और दलित राजनीति से हमदर्दी रखने वालों के लिए जो बात सबसे ज्यादा चौंकाने व हैरान करने वाली है वो यह कि भाजपा के समर्थन के संकेत वाला मायावती का यह बयान उस वक्त आया है जब बिहार में चुनाव हो रहे हैं और बसपा खुद गठबंधन में भाजपा के खिलाफ चुनाव मैदान में है। इसी से माना जा रहा है कि मायावती का यह बयान आत्मघाती और दबाव में दिया गया बयान है।
मसलन, जानकारों का कहना है कि मायावती एक दिग्गज व सधी हुई राजनीतिज्ञ हैं। बिहार चुनाव में ऐसा बयान उनके आवेश या गुस्से का परिणाम नही हो सकता है। ना ही यह उनकी टंग ऑफ स्लिप (जबान फिसलना) हैं क्योंकि वह पढ़कर बोलती हैं। इसी सब से इस सब के पीछे, कही न कही दबाव की राजनीति ही ज्यादा काम करती दिख रही है।
वैसे देखा जाए तो यह पूरा मामला राज्यसभा सीट के लिए मचे घमासान का है। जिसका नम्बर-गेम भी बसपा व भाजपा की सांठगांठ की चुगली कर रहा है।
मसलन, यूपी में राज्यसभा की दस सीटों के लिए चुनाव हैं। एक सीट जीतने के लिए 37 वोटों की दरकार है। बीजेपी के पास 304 विधायक और 16 समर्थकों के वोट है। यानि 320 विधायक हैं। बीजेपी के 8 उम्मीदवार जीतने को 296 वोट चाहिए जिसके बाद 24 वोट बचते हैं। भाजपा 13 वोटों का इंतजाम कर अपना नौवां उम्मीदवार भी जिता सकती थी, लेकिन कहा जा रहा है कि उसने अपने ये वोट बीएसपी को देने का वादा किया है। बीएसपी के पास सिर्फ 18 वोट हैं, जिसमें से मुख्तार अंसारी जेल में है औऱ दो एमएलए पहले से बागी हैं। लिहाजा 15 वोट रखने वाली बीएसपी ने चुनाव में प्रत्याशी उतारा तो भाजपा से सांठगांठ के आरोपों को हवा मिलनी ही थी।
राज्यसभा चुनाव का गणित भी देखें तो मौजूदा समय में विधानसभा में सदस्यों की संख्या 396 है। इनमें बीजेपी के 304, एसपी के 48, बीएसपी के 18, अपना दल (सोनेलाल) के 9, कांग्रेस के 7, सुभासपा के 4, निर्दलीय 3, रालोद और निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल का एक-एक सदस्य हैं। इसके साथ ही एक निर्वाचित सदस्य है। निर्वाचित सदस्य को राज्यसभा चुनाव में वोट का अधिकार नहीं होता। इस हिसाब से 395 सदस्यों के राज्यसभा चुनाव में वोट करने की संभावना है। राज्यसभा चुनावी गणित के हिसाब से 395 सदस्यों के आधार पर एक सीट के लिए 37 विधायकों की जरूरत होगी।
विधायकों की संख्या के आधार पर भाजपा की 8 और सपा की एक राज्यसभा सीट पर जीत तय है। बसपा और कांग्रेस अपने विधायकों की संख्या के आधार पर उम्मीदवारों को राज्यसभा भेजने की स्थिति में नहीं है, लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने अपना प्रत्याशी उतार दिया है। बसपा ने राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर और बिहार के प्रभारी रामजी गौतम ने राज्यसभा उम्मीदवार बनाया है।
सवाल उठने ही है कि जब बसपा के पास पर्याप्त मत नहीं है तो क्या उसे भाजपा से समर्थन मिलेगा या भाजपा से कुछ लोग विद्रोह करेंगे। बहरहाल, यह 9 नवंबर को ही पता चलेगा लेकिन इससे मायावती के भाजपा प्रेम का जो धुंआ उठा है, उसकी आग इतनी आसानी से बुझती तो नहीं दिखती है।