शहीद-ए-आजम भगत सिंह एक ऐसा नाम जो अपनी छोटी सी उम्र में ब्रिटिश साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ राजनैतिक और वैचारिक दृढ़ता के साथ खड़े रहे जिसकी धमक आज भी देश के तरक्की पसंद युवाओं की आवाज में सुनाई और दिखाई देती है. आज आरएसएस और उससे जुड़े संगठन, अम्बेडकर, पटेल, भगत सिंह सहित तमाम दुसरे क्रांतिकारियों के नाम के साथ खुद को जोड़ने करने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं. “इतिहास न खुद को कभी दुहराता है न ही खुद को मिटने देता है” इतिहास गवाह है कि आजादी की तमन्ना रखने वाले यह क्रांतिकारी घरा जिस भारत का सपना देखती थी आरएसएस, बीजेपी बिलकुल उससे उलट भारत बनाने की ओर अग्रसर है जिसका सपना लेकर यह देशविरोधी धरा वर्षों से राजनीति कर रहा है जिसे देश विदेश की पूंजीपतियों द्वारा पाला-पोशा गया है.
आज जब देश में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का झूठा जाल फैलाया जा रहा है और आधारभूत मुद्दों को इस जाल में लपेटने की साजिश हो रही है जिससे देश की जनता अपने ही देश में गैरों व् अजनबियों की जन्दगी जीने के लिए विवश हो जाएगा. ऐसे समय में समानता और समाजवाद पर आधारित देश का सपना देखने वाले भगत सिंह के विचार काफी प्रासंगिक हो जाते हैं.
आज भगत सिंह के क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश सांप्रदायिक और हिंदूवादी संगठन भी कर रहे हैं जिनका न तो आजादी के आन्दोलन से कोई वास्ता रहा है और न ही वे भगत सिंह के विचारों से इत्तेफ़ाक रखते हैं. वर्षों तक अंग्रेजों की चापलूसी करने वाले का सम्बन्ध खुले आम बिर्टिश शोषक सत्ता को ललकारने और चुनौती देने वाले देश के सपूत से नहीं किया जा सकता है. धार्मिक कटुता को धार्मिक हिंसा तक पहुचाने वाले लोग धर्मनिरपेक्ष्ता के पक्षधर व् सांप्रदायिक विचारों के विरोधी भगत सिंह के सपनो के साथ खड़े होने के भी हकदार नहीं है. यदि आज सांप्रदायिक ताकतें भगत सिंह का गुणगान कर रही है तो सिर्फ इसलिए कि देश के उर्जावान युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषण और अत्याचार मुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके.
गौरतलब है कि 1925 में आरएसएस अपनी स्थापना के बाद से ही देश के आन्दोलनकारियों के विरोधी और बिर्टिश हुकूमत के वफादार रहा है. लेखक व् विचारक शम्सुल इस्लाम के अनुसार, भगत सिंह को भले ही फांसी ब्रिटिश हुकूमत ने दी थी पर आजादी के पहले के कुछ ऐसे संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो न इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा था. एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था. (देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)
2007 में इतिहास में पहली बार संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भगत सिंह पर विशेष अंक निकाला गया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि विभाजन के पूर्व छपे आरएसएस के किसी भी साहित्य में हमें इन शहीदों का कोई जिक्र नहीं मिलता जबकि संघ की किताबों में ऐसी कई कहानियां हैं जो उनके भगत सिंह जैसे इन क्रांतिकारियों के प्रति बेपरवाह रवैये को दिखाती हैं. मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख, जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, ने तो एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के रास्ते पर चलने से बचाया था.
भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है. किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार, ‘ देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’ (देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है: ‘पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)
शायद यही कारण है कि शहीद तो दूर आजादी की लड़ाई में आरएसएस ने एक भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं दिया. यह दुर्भाग्य ही है कि 1925 से लेकर 1947 तक लिखे आरएसएस के पूरे साहित्य में कहीं भी अंग्रेजों को चुनौती देती, उनकी आलोचना करती या उनके भारतीय जनता के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव के विरोध में एक लाइन तक नहीं लिखी गई है. ऐसे में वे लोग जो हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई के गौरवशाली इतिहास और इन शहीदों की कुर्बानी से वाकिफ हैं, उन्हें हिंदुत्व कैंप, जिसने इस लड़ाई में धोखा दिया था, द्वारा हमारे इन नायकों की छवि के इस तरह से दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते. देश के प्रसिद्ध जन-संस्कृति कर्मी शासुल इस्लाम का उपरोक्त शोध यह दिखाता है कि संघ और सत्ता जैसे है वैसे वो दिखते नहीं है.
ऐसे हालात में जब देश के हरेक वर्ग सत्ता व् उनकी नीतियों से त्रस्त हो. किसान, मजदुर, महिला, अल्पसंख्यक, बहुजन, आदिवासी, इस मनुवादी संघ समर्थिक सरकार से परेशां होकर सड़कों पर निकल रहे हों ऐसे में भगत सिंह के वैज्ञानिक सोच व् समाजवादी विचारधारा समाज के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते है. वे कहते हैं, “ जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तबदीली से वो हिचकिचाते हैं. इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए क्रांतिकारी चेतना पैदा करने की जरुरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है. लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमे गतिरोध आ जाता है. इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरुरी है किक्रांति की चेतना ताजा की जाए ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो.”
आज जब देश में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का झूठा जाल फैलाया जा रहा है और आधारभूत मुद्दों को इस जाल में लपेटने की साजिश हो रही है जिससे देश की जनता अपने ही देश में गैरों व् अजनबियों की जन्दगी जीने के लिए विवश हो जाएगा. ऐसे समय में समानता और समाजवाद पर आधारित देश का सपना देखने वाले भगत सिंह के विचार काफी प्रासंगिक हो जाते हैं.
आज भगत सिंह के क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश सांप्रदायिक और हिंदूवादी संगठन भी कर रहे हैं जिनका न तो आजादी के आन्दोलन से कोई वास्ता रहा है और न ही वे भगत सिंह के विचारों से इत्तेफ़ाक रखते हैं. वर्षों तक अंग्रेजों की चापलूसी करने वाले का सम्बन्ध खुले आम बिर्टिश शोषक सत्ता को ललकारने और चुनौती देने वाले देश के सपूत से नहीं किया जा सकता है. धार्मिक कटुता को धार्मिक हिंसा तक पहुचाने वाले लोग धर्मनिरपेक्ष्ता के पक्षधर व् सांप्रदायिक विचारों के विरोधी भगत सिंह के सपनो के साथ खड़े होने के भी हकदार नहीं है. यदि आज सांप्रदायिक ताकतें भगत सिंह का गुणगान कर रही है तो सिर्फ इसलिए कि देश के उर्जावान युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषण और अत्याचार मुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके.
गौरतलब है कि 1925 में आरएसएस अपनी स्थापना के बाद से ही देश के आन्दोलनकारियों के विरोधी और बिर्टिश हुकूमत के वफादार रहा है. लेखक व् विचारक शम्सुल इस्लाम के अनुसार, भगत सिंह को भले ही फांसी ब्रिटिश हुकूमत ने दी थी पर आजादी के पहले के कुछ ऐसे संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो न इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा था. एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था. (देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)
2007 में इतिहास में पहली बार संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भगत सिंह पर विशेष अंक निकाला गया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि विभाजन के पूर्व छपे आरएसएस के किसी भी साहित्य में हमें इन शहीदों का कोई जिक्र नहीं मिलता जबकि संघ की किताबों में ऐसी कई कहानियां हैं जो उनके भगत सिंह जैसे इन क्रांतिकारियों के प्रति बेपरवाह रवैये को दिखाती हैं. मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख, जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, ने तो एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के रास्ते पर चलने से बचाया था.
भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है. किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार, ‘ देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’ (देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है: ‘पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)
शायद यही कारण है कि शहीद तो दूर आजादी की लड़ाई में आरएसएस ने एक भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं दिया. यह दुर्भाग्य ही है कि 1925 से लेकर 1947 तक लिखे आरएसएस के पूरे साहित्य में कहीं भी अंग्रेजों को चुनौती देती, उनकी आलोचना करती या उनके भारतीय जनता के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव के विरोध में एक लाइन तक नहीं लिखी गई है. ऐसे में वे लोग जो हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई के गौरवशाली इतिहास और इन शहीदों की कुर्बानी से वाकिफ हैं, उन्हें हिंदुत्व कैंप, जिसने इस लड़ाई में धोखा दिया था, द्वारा हमारे इन नायकों की छवि के इस तरह से दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते. देश के प्रसिद्ध जन-संस्कृति कर्मी शासुल इस्लाम का उपरोक्त शोध यह दिखाता है कि संघ और सत्ता जैसे है वैसे वो दिखते नहीं है.
ऐसे हालात में जब देश के हरेक वर्ग सत्ता व् उनकी नीतियों से त्रस्त हो. किसान, मजदुर, महिला, अल्पसंख्यक, बहुजन, आदिवासी, इस मनुवादी संघ समर्थिक सरकार से परेशां होकर सड़कों पर निकल रहे हों ऐसे में भगत सिंह के वैज्ञानिक सोच व् समाजवादी विचारधारा समाज के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते है. वे कहते हैं, “ जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तबदीली से वो हिचकिचाते हैं. इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए क्रांतिकारी चेतना पैदा करने की जरुरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है. लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमे गतिरोध आ जाता है. इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरुरी है किक्रांति की चेतना ताजा की जाए ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो.”