कविता : 'ए सड़कों तुम ठंडी रहना, सूरज की ना फ़रमानी करना'

Written by Ravish Kumar | Published on: May 23, 2020
ए सड़कों तुम ठंडी रहना
सूरज की ना फ़रमानी करना



गुज़र रहे हैं श्रम जीवी
काँधे लाधे अम्मा- बीबी
कोई बेटे का शव लटकाये
चला जा रहा शीश झुकाए
रोने से करता परहेज
क्वारंटींन में दें न भेज
जहाँ फेंक कर मिलती रोटी
निर्धन को नियति की बोटी
अपनी पलकों पे अश्रु छुपाए
शहरी निर्दयता बिसराए
गुमसुम बेटी पैडल मारे
बाइसकिल को पिता निहारे
सूटकेस का पहिया खोले
सुला पुत्र को खींचे हौले
जननी अपना धर्म निभाए
माह जेठ का और खिसयाए
भले बुरे सब मिलते पथ पर
गाली-गुल्ला फटकार अकथ पर
पुरवा अब भी दूर बहुत है
दुनिया अब भी क्रूर बहुत है
मेरी भी है भागीदारी
दुनिया सुंदर बनी न सारी
किंतु पथों से मेरा अनुनय
वह जीवन जो पूरा श्रममय
अपने खलिहानों जा पहुँचे

ए सड़कों तुम ठंडी रहना
सूरज की नाफ़रमानी करना

कवि का नाम दे सकता हूं पर ये कविता बिना कवि के नाम के पहुंचे। कवि मज़दूरों तक पहुंचना चाहता है। सड़क की तरह निर्मम हो चुके समाज तक पहुंचना चाहता है। अपने नाम तक नहीं।

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